गुरुवार, 3 जून 2021

आलेख : ‘बाल साहित्य की अमिट हस्ताक्षर शकुंतला सिरोठिया' -डा. नागेश पांडेय ’संजय'

बाल साहित्य की अमिट हस्ताक्षर शकुंतला सिरोठिया
आलेख : डा. नागेश  पांडेय ’संजय'

    ठंड बड़ी अकड़ी है/बर्फ से जकड़ी है। छम्मक छबीली है/ बेहद नखरीली है। कौड़ी बिक जाएगी, गर्मी तो आने दो। बच्चों को खिलाती है/ बूढ़ों को सताती है। अमीरों को हंसाती तो गरीबों को रुलाती है। पीछे पछताएगी/ धूप गरमाने दो। रात खिलखिलाती है/ओस से नहाती है। सुबह मुस्कुराती है/धूप को चिढ़ाती है। ऐंठ निकल जाएगी, फागुन तो आने दो। (राष्ट्रधर्म, फरवरी,1997,पृ. 52)

    जी,हां। यह शकुंतला सिरोठिया जी की वह कविता है जो मुझे कितना प्रिय है, यह कहना मेरे लिए कठिन है। धाराप्रवाह पढ़ते-पढ़ते कविता एकदम जो उठान देती है कि बांछे खिल जाएं। मन खिलखिला उठे। कौड़ी बिक जाएगी, पीछे पछताएगी या ऐंठ निकल जाएगी जैसी पंक्तियों को बोलते या उन तुकान्तों पर बल देते हुए लगता है कि हम महारथी हैं और नाच नचाने वाली नखरीली ठंड  हमारे आगे खड़ी कांप रही हैं।

    यह अनोखी कविता 1996 में अपने हाथों से  लिखकर सिरोठिया जी ने मेरे विशेष आग्रह पर मुझे भेजी थी। मैं उन दिनों राष्ट्रधर्म मासिक पत्रिका में नियमित रूप से 'बाल साहित्य मनीषी स्तंभ' लिख रहा था। इसमें बाल साहित्य के अग्रगण्य रचनाधर्मियों पर मेरे आलेख के साथ-साथ उनकी एक उत्कृष्ट रचना भी  प्रकाशित की जाती थी। सिरोठिया जी की यह कविता तो कुछ ऐसे मेरे मन चढ़ी कि आज भी चाहे सर्दी की बात चले और चाहे सिरोठिया जी की, यह कविता किसी हंसिनी सी मेरे मन सरोवर में तैरने लगती है। 


    शकुन्तला  जी से मेरा परिचय 1988 में हुआ। कानपुर से बाल दर्शन  पत्रिका छपती थी। उसकी प्रधान संपादक मानवती आर्या जी थीं। सिरोठिया जी उसमें बालमंच की संपादक थीं। मैंने नया-नया लिखना शुरू किया था। इलाहाबाद के पते पर उन्हें एक कविता भेजी-राजू जागो। जल्दी ही उनका स्वीकृति पत्र आ गया। किसी पत्रिका में प्रकाशन के लिए स्वीकृत होने वाली मेरी यह पहली कविता थी। भले ही इसका प्रकाशन बाद में हुआ और पहली बार मेरी कविता बाल साहित्य समीक्षा में प्रकाशित हुई। फिलहाल वह पोस्टकार्ड आज भी मेरे पास सुरक्षित है। सच कहूं, तो किसी सम्मान पत्र से कम नहीं।

   15 दिसम्बर 2015 को जन्मीं  सिरोठिया जी बाल साहित्य की अनुपम साधिका थीं। गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं में उन्होंने लिखा और अनूठा लिखा। उनकी लोरियां अद्भुत हैं। निरंकारदेव सेवक ने लिखा भी है कि जैसी लोरियां शकुंतला जी ने लिखीं वैसी किसी ने नहीं लिखीं। वास्तव में उनकी लोरियों की अजब ही छटा है। वे गढ़ी हुई नहीं लगतीं। बाल साहित्य के मुकुट में अमोल रत्नों की तरह जड़ी हुई लगती हैं। जिसने भी कहा, उन्हें ‘लोरी साम्राज्ञी’ ठीक ही कहा है। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूं कि उनके मुख से न जाने कितनी उनकी लोरियां सुनी हैं। लखनऊ, कानपुर, इंदौर, इलाहाबाद आदि जाने कितने स्थानों पर उनके साथ आयोजनों में सम्मिलित हुआ हूं। उज्जैन  तो मैं कभी भूल नहीं सकता जब एक ही कार में उनके साथ महाकालेश्वर  मंदिर गया और उनका हाथ पकड़कर सीढ़ियां चढ़ी-उतरी थीं। 

    मैं उनके घर भी गया हूं। भोजन किया है। ...और उनके घर पर ही 1995 में अपनी पुस्तक ’नेहा ने माफी मांगी‘ के लिए शकुंतला सिरोठिया बाल साहित्य पुरस्कार(गद्य) प्राप्त किया है। जी, हां, यह पुरस्कार प्रयाग की संस्था अभिषेक श्री के द्वारा प्रतिवर्ष दिया जाता था और उनके जीवन के पश्चात नहीं चल सका। उन दिनों बाल साहित्य में इने-गिने पुरस्कार थे और इस पुरस्कार की घोषणा की प्रतीक्षा बाल साहित्य जगत में विशेष उत्सुकता के साथ की  जाती थी। इसके नेपथ्य में श्रेष्ठ बाल साहित्य को प्रोत्साहित करने का भाव था। वरेण्य साधकों के हाथों यह पुरस्कार दिया जाता था। पहले ही कार्यक्रम की अध्यक्षता छायावाद की आधार स्तंभ महादेवी वर्मा ने की थी। मुझे यह पुरस्कार कवि केसरी नाथ त्रिपाठी के हाथों मिलना था। संयोग से उसी तिथि में मेरी परीक्षा पड़ गई। मैं जा न सका तो उन्होंने बाद में अपने घर पर कार्यक्रम रखा। इस पुरस्कार को लेकर एक रोचक वाकया मुझे याद आ रहा है। इसकी निर्णायक समिति में एक बिहार के रामवचन सिंह आनंद भी थे। वे मुझसे बहुत स्नेह करते थे। इस पुरस्कार की घोषणा से पूर्व ही उन्होंने मुझे पत्र लिख दिया-नागेश, निकट भविष्य में तुम्हें एक पुरस्कार मिलने वाला है। मैं उन दिनों नया रंगरूट था। बीस साल की उमर थी।  बाल साहित्य का कोई पुरस्कार तो मिला नहीं था और केवल शकुंतला सिरोठिया पुरस्कार के लिए ही प्रविष्टि भेज रखी थी, इसलिए तुरंत ही अनुमान लगा लिया कि हो न हो, यह शकुंतला सिरोठिया पुरस्कार ही होगा। एक माह तक कोई सूचना न मिली तो इस बारे में पत्र लिखकर सीधे सिरोठिया जी से ही पूछ बैठा। बस, फिर क्या था। बेचारे रामवचन सिंह जी। उनको कोपभजन बनना पड़ा। दोबारा निर्णायक भी नहीं बनाए गए। मुझे भी सिरोठिया जी ने लिखा कि आपको पुरस्कार मिलेगा या नहीं, इसका निर्णय तो दूसरे निर्णायक से अंक प्राप्त होने के बाद ही स्पष्ट हो सकेगा। आज भी जब अपनी वह बचकानी हरकत याद आती है तो हंसता भी हूं और कहीं न कहीं मन में खीझ भी उठती है कि भला ऐसी भी क्या व्यग्रता?

    बहरहाल इससे यह तो सिद्ध होता ही है कि उनके संयोजन में पुरस्कार की व्यवस्था कितनी पारदर्शी  और चुस्त-दुरुस्त थी। 

    काश ! कि उनके जीवनकाल के बाद भी यह पुरस्कार चलता रहता। बाल साहित्य जगत या कम से कम उनके परिवार वालों को तो इस दिशा में सोचना ही चाहिए।

     सिरोठिया जी बाल साहित्य की सौभाग्यशाली लेखिका हैं जिनका समग्र बाल साहित्य हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी से प्रकाशित हो चुका है।

    सिरोठिया जी अध्यापिका थीं। राजकीय महिला शिशु  प्रशिक्षण केंद्र, प्रयाग से उन्होंने अवकाश  ग्रहण किया था। एक तरह से शिशुओं और माताओं के हृदयों की गहराइयों का गहन अध्ययन उन्होंने किया था। सूर का संदर्भ लेकर यह भी कह सकता हूं कि वे शिशु और मातृ मन का कोना-कोना झांक ही नहीं, आंक भी आईं थीं। यही कारण है कि माताओं के लिए जहां उनकी लोरियां अद्भुत हैं, वहीं शिशुओं के लिए उनके गीत भी नायाब हैं। सो जा मेरे लालना, चंदा प्यारे आ जाओ, तारों का बाजार लगा, निंदिया प्यारी आ जा तू, सो जा राजदुलारी तथा सो जा मेरे लालना जैसी लोरियों की तो चर्चा खूब ही हुई है। मैं उनकी एक से बढ़कर एक लोरियों में अपने अनूठे सानुप्रासिक शब्द संयोजन, भाव-भंगिमा और गजब की ध्वन्यात्मकता के चलते इस लोरी की तो प्रशंसा करते नहीं थकता जिसे अपने  निंदियारे बच्चे को कंधे पर लगाए जब आप गुनगुनाएंगे तो मेरा वादा है कि कहीं उसके आनंद की स्निग्धता से आप स्वयं भी झपकी न लेने लग जाएं -निंदिया थम-थम-थम। चंदा चम-चम-चम! तारे दम-दम-दम! निंदिया थम-थम-थम। पानी झम-झम-झम! गेंदा गम-गम-गम! निंदिया थम-थम-थम! ढोलक ढम-ढम-ढम! पायल छम-छम-छम! निंदिया थम-थम-थम। 

    आइए, उनके कुछ अटपटे-चटपटे  शिशुगीतों की बानगी देखें। ’गुड़िया की परेशानी‘ शिशुगीत में हास की उत्फुल्ल छटाएं हैं। यों चूहे से परेशान गुड़िया की व्यथा बड़ी मार्मिक है-रोती-रोती गुड़िया आई/किससे अपनी बात कहूं। चूं-चूं ने आफत कर डाली/ऐसे घर में कहां रहूं। कुतरी चुनरी गोटे वाली/लाल रंग की प्यारी-प्यारी। डाल नहीं घूंघट पाऊंगी/दूल्हे संग कैसे जाऊंगी। मर जाऊंगी लाज की मारी/ कैसे अब ससुराल रहूं।

    ऐसे ही ढुम्मुक-ढुम शिशुगीत की ध्वन्यात्मकता झूमने को मजबूर करती है-मंटू-बंटू दोनों भाई/दोनों में हो गई लड़ाई। गिर गए दोनों ढुम्मुक-ढुम। ढुम्मुक-ढुम भाई ढुम्मुक-ढुम/ मैं हूं राजा, नौकर तुम। 

    खास बात कि पैनी नजर के चलते उनके शिशुगीतों में हास की सहज ही सृष्टि संभव हो जाती है। टिड्डे के हरे धनिया पर बैठने की कल्पना और उसे देखकर उत्पन्न भय का यह प्रसंग भी मजेदार है-धनिया पर बैठा था हरा-हरा टिड्डा/ लंबू बेहोश  होकर गिर गए थे।

     उनके शिशुगीतों और बाल कविताओं में मार्मिकता और संवेदना भी है। नयापन तो है ही। बच्चे की प्रतीक्षा में मां की अन्यमनस्कता और बेचैनी पर भी उनकी यह रचना उद्धरणीय है, जिसमें बकरी के बहाने वे अपनी बात कहने में सफल हुई हैं-मेरी मुनिया, अरे अरे। क्यों करती है में में में? तेरा बच्चा कहां गया? खोज रही है उसको क्या? पढ़ने कहीं गया होगा/टीचर ने रोका होगा।

    उनकी कविताओं में बालसुलभ प्रवृत्तियां सहज दृष्टिगत होती हैं। खीर गिर जाने से बच्ची के भूखे रहने की चिंता का वर्णन भी कुछ ऐसा ही है- गीता मूढ़े पर बैठी थी/चम्मच से खाती थी खीर। मकड़ी एक पीठ पर कूदी/गिर गयी चम्मच, बिखरी खीर। अब क्या गीता खाएगी/क्या भूखी रह जाएगी?

    शकुंतला सिरोठिया जी ने बच्चों के लिए उपन्यास भी लिखे हैं और नाटक भी। गंधराज और जंगली जानवरों के बीच अकेली लड़की दानों ही बालिकाप्रधान हैं और एक तरह से बालिका साहित्य की कमी की दिशा  में बड़ी भरपाई करते हैं। बालिकाओं में अदम्य साहस जगाने और कुछ नया करने की प्रेरणा से लबरेज उनके ये उपन्यास भाषा की दृष्टि से समृद्ध हैं। कोई कठिनाई नहीं, बच्चे पढ़ते-पढ़ते हृदयंगम करते चलते हैं। 

    उनके कथा साहित्य में जाति, धर्म, क्षेत्र के पूवाग्रहों से बहुत ऊपर उठकर केवल मानवीय संवेदनाओं की झांकी है। जिसे निहारते हुए मन चहक उठता है। अंदाज भी निराला होता है जिससे कथ्य को स्वाभाविक गति मिलती है। उनकी कहानी ’अपने ही घर में‘ का संदेश उन बड़ों के लिए भी ग्रहणीय है जो मजहबी दायरों में इंसानियत की बलि चढ़ा देते हैं लेकिन यह कहानी तो ऐसे उदारमना इंसानों की अनूठी आत्मीयता और विश्वास को बयां करती है जिस पर बलिहारी होने को मन करता है। राकेश और नईम ही जिगरी दोस्त नहीं हैं, बल्कि उनके परिवार में भी वही विश्वास  कायम है। हिंदू-मुस्लिम के झगड़े के दौरान राकेश को नईम के घरवाले पूरी पनाह देते हैं और यही नहीं, राकेश के पिता भी उससे फोन पर वहीं रहने की सलाह देते हुए कहते हैं कि समझ ले तू अपने पिता के ही घर में है। तू वहां ज्यादा सुरक्षित है। 

    सिरोठिया जी की पद्य कथाएं भी अप्रतिम हैं। दुलहिन चुहिया दूल्हा बिल्ला, राणा रणजीत सिंह, शेर और बकरी, भोला और शेरा, तीन भालू तथा बिल्ली रानी उनकी बड़ी ही मजेदार पद्य कथाएं हैं। इनमें मनोरंजन की प्रचुरता के साथ सहज संदेश भी सन्निहित है। उनकी रचना ’फूल का पहरेदार‘ तो महाराष्ट्र के कक्षा 6 के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती रही।

    उन्होंने नाट्यरूपक भी लिखे। चतुर ओडीसस और स्वतंत्रता के पथ पर किशोरों की दृष्टि से बेहतर हैं। कवि हृदया होने के कारण नाटकों में आए गीत भी चुस्त-दुरुस्त हैं लेकिन वर्षापति का दरबार तथा शिशुनगर नाटकों के संवाद प्रायः बहुत लंबे हो गए हैं। मंचीयता की दृष्टि से बाल पात्रों को इन्हें याद करने में कठिनाई होगी। 

    सिरोठिया जी का एक काम और भी बहुत बड़ा है, जिसकी चर्चा यद्यपि कम हो सकी। शिशु चित्रकला नामक उनकी पुस्तक अपने ढंग की अद्वितीय कृति है।

    सिरोठिया जी ने 1928 में लेखन आरंभ किया था। उनकी पहली रचना शिशु मासिक  में 1929 में शकुंतला शर्मा के नाम से प्रकाशित हुई थी। वे जीवन पर्यंत लिखती रहीं।      

    हिंदी में उनके हस्ताक्षर मुझे बहुत अच्छे लगते थे। वस्तुतः वे बाल साहित्य की अमिट हस्ताक्षर हैं। बाल साहित्य की बात चलेगी। बाल साहित्य में लोरियों की बात चलेगी। वे याद आएंगी और हमारा माथा उनके सम्मान में झुक-झुक  जाएगा।

    5 जून 2005 को सिरोठिया जी हमसे बिछुड़ गईं। उनके जन्म शताब्दी वर्ष पर डॉ. भैरूंलाल गर्ग  जी ने बाल वाटिका मासिक का बहुत ही सुंदर विशेषांक प्रकाशित  किया था।  उनकी पावन स्मृति को हमारा भी नमन और अशेष श्रद्धांजलि !

(यह आलेख बाल  वाटिका मासिक, दिसम्बर 2015 के विशेषांक में पृष्ठ  30 पर प्रकाशित हुआ था )



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