शुक्रवार, 24 नवंबर 2023

प्रतिनिधि बाल कविता संचयन


'प्रतिनिधि बाल कविता-संचयन': एक शानदार कोशिश
•डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'

पिछले दिनों हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक डा. दिविक रमेश के संपादन में एक महत्वपूर्ण संकलन 'प्रतिनिधि बाल कविता-संचयन' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। यह एक शानदार कोशिश है जिसके लिए साहित्य अकादमी की भरपूर सराहना की जानी चाहिए और अपेक्षा भी कि अन्य विधाओं में भी ऐसे अनुष्ठान भविष्य में निष्पादित होते रहेंगे। संकलन में नए-पुराने 195 रचनाकारों की अलग-अलग शेड्स की बाल कविताएँ हैं। संकलन में उन्हीं बाल कविताओं को चयनित किया गया है, जो आज के बालक की कविताए कही जा सकतीं हैं। इस दृष्टि से संपादक के श्रम और कौशल की प्रशंसा करनी होगी। बकौल संपादकः मेरी निगाह में कविताएँ वैज्ञानिक सोच, प्रतिकूल मूल्यों और अंधविश्वासों से मुक्त, कल्पना और जिज्ञासा को प्रेरित करने वाली लेकिन शैली में विश्वसनीयता की बुनियाद पर टिकी, नये प्रयोगों और नये ट्रीटमेंट से समृद्ध हों। कविताएँ पहले की तरह सीधे-सीधे उपदेशात्मक शैली की न हों। समझ पिरोयी हुई हो सकती है। (पृ. 7)

दिविक जी धुन के धनी और अत्यंत अनुभवी रचनाकार हैं। उन्होंने न केवल श्रेष्ठ बाल कहानियाँ और कविताएँ लिखी हैं बल्कि बाल साहित्य की आलोचना की दिशा में भी गंभीर कार्य किया है। अनुवाद की दृष्टि से भी उनका अवदान उल्लेखनीय है। आज के बच्चे की बदली हुई सोच और परिपक्व मानसिकता की ओर संकेत करते हुए वे संपादकीय में लिखते हैं: आज उसके (बालक के) सामने संसार भर की सूचनाओं का अच्छा खासा भण्डार है और उसका मानसिक विकास पहले के बालक से कहीं ज़्यादा है। वह बड़ों के बीच उन बातों तक में हिस्सा लेने का आत्मविश्वास रखता है जो कभी प्रतिबंधित मानी जाती रही हैं। आज का बच्चा प्रश्न भी करता है और उसका विश्वसनीय समाधान भी चाहता है। आज के सजग बच्चे की मानसिकता पुरानी मानसिकता नहीं है जो प्रश्न के उत्तर में 'डाँट' या 'टाल मटोल' स्वीकार कर ले। वह जानता है कि बच्चा माँ के पेट से आता है चिड़िया के घोंसले से नहीं। दूसरे, हमें बच्चे को पलायनवादी नहीं बल्कि स्थितियों से दो-दो हाथ करने की क्षमता से भरपूर होने की समझ देनी होगी। अहंकारी, उपदेश या अंध आज्ञापालन का जमाना अब लद चुका है। बात का ग्राह्य होना आवश्यक है। और बात को ग्राह्य बनाना, यह साहित्यकार की तैयारी और क्षमता पर निर्भर करता है। (पृ. 13)

संकलन की भूमिका अत्यंत विचारोत्तेजक और शोधपूर्ण है। दिविकजी ने न केवल बाल कविता के बदलते मिजाज को लेकर गंभीर विमर्श परोसा है अपितु बाल कविता जो कि बाल साहित्य का मूल भी है, के परिप्रेक्ष्य में बाल साहित्य के विविध आयामों की भी तात्विक चर्चा की है। बाल साहित्य में व्याप्त विसंगतियों को लेकर भी वे चिंतित दिखे हैं और बाल साहित्य लेखकों के यथोचित सम्मान हेतु भी उन्होंने तार्किक ढंग से अपनी बात रखी है। संकलन को उन्होंने चयन के रूप में प्रस्तुत किया है और कहा जा सकता है कि यह चयन अभूतपूर्व है। बाल साहित्य की अपनी शास्त्रीयता है। बाल कविता के सौंदर्यशास्त्र की आवष्यकता की ओर भी दिविकजी ने संकेत किया है।

हिंदी में जबरदस्त बाल कविताओं का अभाव तो नहीं है किंतु जबरदस्ती लिखी बाल कविताओं की खासी भरमार है। छपास के मोह में बहुत से लिक्खाड़ उत्तम साहित्य की सर्जना से बेफिक्र... बस पुस्तकों की संख्या बढ़ाने में लगे रहते हैं। येन केन प्रकारेण पुस्तक आनी चाहिए और उसके लिए कहीं न कहीं से पुरस्कार भी प्राप्त हो जाए, बस यही लक्ष्य रहता है। पिष्टपेषण और पुनरावृत्ति के शिकार रचनाकारों की यात्रा बहुत लंबी नहीं होती।

दिविक जी ने जहाँ इस संकलन में पुराने रचनाकारों की भी कालजयी रचनाओं को आज के संदर्भ में उपयुक्तता के आधार पर ससम्मान प्रस्तुत किया है, वहीं नए (और कुछ नवसिखुए) रचनाकारों की भी प्रतिनिधि बाल कविताएँ प्रोत्साहन और बाल कविता की वर्तमान स्थिति को जताने के उद्देश्य से संकलित की हैं।

बकौल संपादकः कहीं न कहीं मन में अधिक से अधिक नये रचनाकारों और उनकी सुयोग्य रचनाओं को स्थान देने की प्रबल इच्छा मन में थी ताकि बाल साहित्य के वर्तमान परिदृश्य के बारे में आकलन हो सके कि वह कितना समृद्ध है अथवा कितना कमजोर है। (पृ. 5)

बहरहाल बाल काव्य के क्षेत्र में आए नए कवियों में शादाब आलम की तरह कम ही लोग हैं, जिनकी बाल कविताएँ, नवीनता और छंद: दोनों ही दृष्टि से मुकम्मल बाल कविताएँ हों। सृजन अभ्यास चाहता है। कविता केवल तुकबंदी नहीं है। विषय की दृष्टि से अत्युत्कृष्ट कविताओं पर यदि शिल्प की दृष्टि से थोड़ा-सा श्रम कर लिया जाय तो इनका स्वरूप ही कुछ और हो जाता। बाल कविताओं में छद का बड़ा महत्व है, ऐसी कविताएँ बच्चे उछल उछल कर गाते और गुनगुनाते हैं। ऐसी कविताएँ उनके मन में बैठ जाती हैं। जबकि पद्म के रूप में गद्य जैसी कविताएँ बच्चे पढ़ तो लेते हैं किंतु वे उनके स्मृति पटल पर अंकित नहीं हो पातीं। लयहीन कविताओं की स्थिति स्वादिष्ट खीर में कंकड़ की भांति होती है। बच्चा कविताएँ क्यों नहीं पढ़ता ? अन्यथा लेने की बात नहीं है, मछली जल की रानी है जैसी कविताएँ पीढ़ियों से बच्चे की जुबान पर क्यों चढ़ी हैं? नवसृजन करते हुए इसका चिंतन अवष्य करना चाहिए। बच्चों की अदालत में हमारी कविता का हश्र क्या होगा, इस दिशा में लेखकीय जिज्ञासा-तत्परता जरूरी है।

706 पृष्ठों के इस ग्रंथाकार संकलन को देखकर किसी समुद्र-सा आभास होता है। हालाकि समुद्र में रत्न, मोती, शंख, मणियों के साथ-साथ घोंघे भी होते हैं। यह संकलन भी उस परिस्थिति से पृथक नहीं है।

यह चयन यह सिद्ध करता है कि बाल कविताओं का फलक अत्यंत व्यापक है। बच्चे की सोच आज पूरी तरह बाल कविताओं में मौजूद होनी चाहिए। यही नहीं, पुराने रचनाकारों की जो बाल कविताएँ बच्चे के मन को समझ कर लिखी गई थी, वे आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए हैं। समय के अनुसार यदि अन्य पुरानी बाल कविताओं में किंचित संशोधन और संपादन कर लिया जाए तो वे भी अपनी प्रासंगिकता सहज ही सिद्ध कर सकती हैं। यह चयन बाल कविता के क्षेत्र में मील के पत्थर की भांति है। बाल साहित्य में सदैव इसकी अनुगूँज बनी रहेगी और भविष्य के उच्चतम संकलनों के लिए यह चयन दिशा बोधक के रूप में कार्य करेगा, इसमें संदेह नहीं।

संकलन की शुरुआत श्रीनाथ सिंह (जन्म 1901) की कविता 'मुन्नी की हैरानी' से हुई है और संकलन की अंतिम कविता 'बड़ा' चन्द्रदत्त इंदु (जन्म 1935) की है। यानी की रचनाकारों का कोई प्रचलित क्रम (जन्म या अकारादि) नहीं है। संपादक के अनुसार रचनाएँ मिलने का क्रम अनुक्रम का आधार बना है।

काश! इस महत्त्वपूर्ण संकलन में जन्मतिथि का क्रम अपनाया जाता तो बाल कविता के विकास क्रम को समझने में सहायता मिलती। संकलन में न तो रचनाकारों का परिचय है और न ही पते । कविताओं के साथ कवियों के चित्रों का भी सामंजस्य किया जा सकता था। आगामी संस्करण में यह कार्य हो सके तो यह संकलन दुर्लभ और ऐतिहासिक महत्त्व प्राप्त करेगा। साथ ही इसे बालोपयोगी बनाने के लिए कविताओं के साथ खाली स्थान पर संबंधित चित्र भी दिए जाने पर विचार करना चाहिए।

...और अब संकलन की कुछ कविताओं पर चर्चा करने से पूर्व बाल कविता के प्रतिमानों पर दिविक जी की यह टिप्पणी अवश्य पढ़ ली जाए जो कि खासी विचारणीय है। रचनाकार के जेहन में उनका यह अभिकथन रहेगा तो बाल कविता के कदम निश्चय ही वैभवोन्मुखी रहेंगे। वे कहते हैं-जब मैं बालक की बात कर रहा हूँ तो मेरे ध्यान में शहरी, कस्बाई, ग्रामीण, आदिवासी, गरीब, अमीर, लड़की, लड़का आदि सब बालक हैं। भारतीय बच्चों का परिवेश केवल कम्प्यूटर, सड़कें, मॉल्ज, आधुनिक तकनीक से सम्पन्न शहरी स्कूल, अंतर-राष्ट्रीय परिवेश ही नहीं है (वह तो आज के साहित्यकार की निगाह में होना ही चाहिए), गांव-देहात तक फैली पाठशालाएँ भी है, कच्चे पक्के मकान-झोंपड़ियाँ भी हैं, उन के माता-पिता भी हैं, उनकी गाय-भैंस-बकरियाँ भी हैं। प्रकृति का संसर्ग भी है। वे भी आज के ही बच्चे हैं। उनकी भी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।

इस संकलन में ऐसे ही बच्चों की उत्तमोत्तम बाल कविताएँ हैं। शिशु, बालक और किशोर: सभी आयु वर्ग के बालकों के लिए रचनाएँ चयनित की गई हैं।

हरिवंशराय बच्चन की आनंदित बच्चे के स्वाभाविक मनोभावों से पगी इस कविता का अंदाज देखिए। कोई सीख भी नहीं, फिर भी अंतः प्रेरणा और उत्सुकता जगाने का कैसा कौशल इसमें विद्यमान है-आज उठा में सबसे पहले, सबसे कहता आज फिरूँगा, कैसे पहला पत्ता डोला, कैसे पहला पंछी बोला, कैसे कलियों ने मुंह खोला, कैसे पूरब ने फैलाए बादल पीले, लाल, सुनहले। (पृ. 74)

भारतभूषण अगवाल की कविता तो जैसे किसी कुलगीत का आनंद देती है-हम पहाड़ पर रहते हैं। देवदार की बांह यहां, करती शीतल छांह यहां। भेड़ें चरती हैं घाटी में, झर झर झरने बहते हैं। हम पहाड़ पर रहते हैं। (पृ. 79) बाल काव्य में प्रकृति लेखकों का प्रिय विषय रहा है। देवेंद्र कुमार ने इस क्षेत्र में दस कदम आगे बढ़कर क्या खूब रचा है-कूड़े पर एक फूल खिला। सुंदर पीला फूल खिला। पृ.196

मधु पंत पेड़ का मानवीकरण करते हुए पेड़ के चलने की कल्पना करती हैं-यदि पेड़ों के होते पैर, सारा दिन वे करते सैर। (पृ.143) तो गोपाल राज गोपाल ने अगर कहीं जो चलते पेड़, बच्चों जैसे पलते पेड़। बेसुध माता लगती कहने, कहीं नीम को देखा तुमने? चार घड़ी से वह गायब है, वस्त्र हरे थे पहने उसने। (पृ.562) लिखकर बालकविता को किस ऊँचाई पर पहुँचा दिया है!

निरंकारदेव सेवक की चर्चित कविता: रोटी अगर पेड़ पर लगती, तोड़ तोड़ कर खाते। तो पापा क्यों गेहूँ लाते, और उन्हें पिसवाते। रोज़ सवेरे उठकर हम, रोटी का पेड़ हिलाते। रोटी गिरती टप टप टप टप, उठा-उठा कर खाते। (पृ. 42) यह जताती है कि बालकाव्य का सृजन कितना आह्लादकारी है। महादेवी वर्मा की घर में पेड़ कहाँ से लाएँ, कैसे यह घोंसला बनाएँ। किससे यह सब बात कहेगी। अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी। (पृ. 700) कविता बाल संवेदनाओं से उपजी मार्मिक रचना है। बाल कविता में करुणा का समावेष भावी पीढ़ी में रागात्मक संबंधों की संभावनाएँ निरूपित करता है।
जल संकट और संचय को लेकर इस संचयन में प्रकाश मनु की बेजोड़ कविता है, जिसमें खिलंदड़ापन कूट-कूट कर भरा है- देखो पानी की शैतानी, ओहो चला गया है पानी। अभी बहुत हैं काम अधूरे, घर-भर को अभी नहाना था। छुटकू कूद रहा है कब से, उसको पिकनिक पर जाना था। पृ. 218 प्रभुदयाल श्रीवास्तव की अगर हमारे वश में होता, नदी उठाकर घर ले आते (पृ. 133) कविता की कल्पना भी गजब की है। ... और सुशील शुक्ल की इस नन्हीं कविता के तो कहने ही क्या एक पत्ते पर धूप रखी थी, एक पत्ते पर पानी। धूप ने सारा पानी सूखा, हो गई खतम कहानी। (पृ. 684)

वर्षा आई-वर्षा आई जैसी सामयिक कविताओं का ढेर लगानेवाले लिक्खाड़ों को सुभद्राकुमारी चौहान की यह कविता अवश्य पढ़नी चाहिए-अभी अभी थी धूप, बरसने लगा कहाँ से यह पानी? किसने फोड़ घड़े बादल के, की है इतनी शैतानी। (पृ. 698) इस तरह की अलग अंदाज की सामयिक कविताएँ कम ही
देखने को मिलती हैं। कृष्ण शलभ का सूरज से संवाद भी बहुत सरस और खिलंदड़ा है-रविवार ऑफिस बंद रहता, मंगल को बाजार भी। कभी-कभी छुट्टी कर लेता, पापा का अख़बार भी। ये क्या बात तुम्हीं बस छुट्टी नहीं मनाते हो? सूरज जी तुम इतनी जल्दी क्यों आ जाते हो? पृ. 243
नई रचनाकार दिशा ग्रोवर की कविता प्राकृतिक उपादानों की अभिलाषा जैसा एकदम नवीन विषय सृजित करती है-हम बच्चों के झूले खातिर, टहनी सदा झुकाएँ। कुछ पीड़ा सहकर भी वे तो, किलकारी फैलाएँ। लिख दे कविता 'पेड़ों पर हम, पेड़ चाहते होंगे। पृ. 434 सृष्टि पांडेय की कविता चिरों देवी सुनो सुनो, पंख नहीं है मेरे पास, बोलो कैसे करूँ प्रयास? क्या जहाज का टिकट कटाऊँ, तुम से भी ऊँचे हो आऊँ। (पृ. 507) चपल बच्चो में उपजती मौलिक युक्तियों की अभिव्यक्ति है।
प्रयाग शुक्ल की बढ़ती जाती नाव, कहाँ नाव के पांव! वह पानी पर चलती. चलती और मचलती। (पृ. 126) प्रयोगधर्मी रचना है।

संकलन में ऐसी भी कविताएँ हैं जिनमें शिक्षण के अनेकानेक आयाम समाहित हैं। जैसे रमेश कौशिक की पहेलीनुमाँ कविता बताती है कि पेड़ कहां-कहाँ नहीं है- तुम्हारी मेज कुर्सी, जिस पर तुम पढ़ते हो, मैं हूँ। मेले में, काठ का घोड़ा, जिस पर तुम चढ़ते हो, मैं हूँ। पतला सा कागज, जिस पर तुम लिखते हो, मैं हूँ। पृ.101

बाल कविताएँ बाल चिंतन से अनुप्राणित होनी चाहिए। बाल संदर्भित वयस्क चिंतन से युक्त कविताओं को बाल कविता नहीं कह सकते। ऐसी कविताओं से बड़े तो साहित्यिक आनंद पाते हैं, बच्चे नहीं। वात्सल्य रस के अंतर्गत आनेवाली रचनाएँ भी बाल साहित्य नहीं होतीं। वहाँ बाल क्रीडाओं से वयस्क प्रमुदित होते हैं। इस संकलन के प्रश्न 366 पर प्रकाशित इस वयस्क कविता का अंश देखिए-मुंह अंधेरे, साइकिल पर बस्ते की जगह होता था डीजल का जरीकेन। कभी होती ओस भरी पतली मेंड़ पर, डगमगाती साइकिल के कैरियर में, पुराने रबर ट्यूब से कसी गेहूँ की बोरी। रविवार को ही लगता था साप्ताहिक बाजार, लाना होता था पूरे हफ्ते की सब्जी, डालडा, भैंस के लिए खली, लालटेन का षीषा। यह कविता अच्छी होते हुए भी बाल कविता तो कतई नहीं है।
शिशुगीतों के उस्ताद शेरजंग गर्ग चुटीले अंदाज में लेखन के लिए समाद्भुत हैं। गुड़िया पर हिंदी में ऐसी रचना शायद ही दूसरी हो-गुड़िया है आफत की पुड़िया, बोले हिंदी, कन्नड़, उड़िया। नानी के संग भी खेली थी, किंतु अभी तक हुई न बुढ़िया। पृ. 99
संकलन में मनोरंजन जो बालसाहित्य का अनिवार्य तत्व है, से युक्त अनगिनत कविताएँ हैं। बानगी के तौर पर कुछ कवितांश देखिए आधी सच्ची आधी झूठी, सुनो कहानी। चींटे ने हाथी को काटा, हाथी ने गुस्से में आकर चींटे को जो मारा चांटा। चिल्लाया वो नानी नानी दामोदर अग्रवाल, पृ. 92

आठ फीट की टांगे होती, चार फीट के हाथ बड़े। तो मैं आम तोड़कर खाता, धरती से ही खड़े-खड़े। कान बड़े होते दोनों ही, दो केले के पत्री से। ती मैं सुन लेता मामा की, बातें सब कलकत्ते से-श्रीप्रसाद, पृ. 62

घ्एक था राजा एक थी रानी, दोनों करते थे मनमानी। राजा का तो पेट बड़ा था, रानी का भी पेट घड़ा था। काम यही था बक बक-बक बक। नौकर से बस झक झक झक झक-जयप्रकाश भारती पृ. 56

योगेंद्रदत्त शर्मा रचित सुनो पप्पू! मियाँ गप्पू । उड़ाते हो बिना पर की, सदा बातें अललटप्पू। (पृ. 327) और शादाब आलम की अगर हंसी का चूरन बिकता, खिला-खिला हर मुखड़ा दिखता। घर में कोई मुझे डाँटता, तो लाकर मैं इसे चाटता। (पृ. 390) कविताएँ भी प्रचुर मनोरंजन करती हैं।

संकलन का आकर्षण एक नए ढंग की लोरी भी है जो रमेश तैलंग ने लिखी है। सच, किताब को थपथपाते हुए बच्चे के सुमधुर स्वर की कल्पना कितनी रोमांचक है-रात हो गई तू भी सो जा, मेरे साथ किताब मेरी। सपनों की दुनिया में खोजा, मेरे हिसाब किताब मेरी। पृ.208

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता-अगर कहीं मिलती बंदूक, उसको मैं करता दो टूक। नली निकाल बना पिचकारी, रंग देता यह दुनिया सारी। (पृ. 50) यह सिद्ध करती है कि बालसाहित्य केवल बालको के लिए ही नहीं होता। बड़ों के लिए भी इसके बड़े निहितार्थ हो सकते हैं।

कुसुम अग्रवाल और परशुराम शुक्ल की कविताएँ बच्चों को बड़ों के बचपन से जोड़ती हैं। साथ ही संवाद की दिषा में भी बच्चों के स्वर में स्वर मिलाती हैं-दादी जब तुम बच्ची थी, क्या हम सबसे अच्छी थी। शैतानी ना करती थीं, सभी बड़ों से डरती थी? कैसी थी तुम पढ़ने में? लड़ने और झगड़ने में? (पृ. 579) कुसुमजी की ही तरह षुक्लजी भी बाल संवाद को स्वर देते हैं-पापा सच-सच मुझे बताना, कुछ भी मुझसे नहीं छिपाना। मेरे जैसे जब बच्चे थे, तब के अपने हाल सुनाना। (पृ. 274)

पुष्पलता शर्मा की रचना कामकाजी माताओं की संतानों की अपेक्षा का सच्चा प्रतिनिधित्व करती है-आज न दफ्तर जाओ मम्मी। कुछ पल साथ बिताओ मम्मी। (पृ. 611)

दरअसल बाल अपेक्षा और बाल समस्या पर कलम चलाने की अपार संभावनाएँ हैं। पुताई की स्थिति में घर के हाल और बालक की प्रतिक्रिया इस कविता में देखी जा सकती है-मेरे घर में हुई पुताई, भैया समझो शामत आई। पूरे घर में मचा झमेला, बच्चे बड़े सभी ने झेला। कैसे बाहर हो अलमारी, कहाँ रखें ये चीजे सारी। बाहर सब सामान निकाला, घर लगता था गड़बड़झाला। नागेश पांडेय 'संजय', पृ. 346

लक्ष्मीशंकर बाजपेई का शहरी बालक गांव देखने की अपेक्षा रखता है-अबकी बार किसी छुट्टी में गांव अगर जाना पापा, कैसा होता गांव, मुझे भी गांव दिखा लाना पापा। पृ. 312

बालिका प्रधान साहित्य की बड़ी जरूरत है। हिंदी में इसकी मात्रा अत्यल्प है। उषा यादव की कविता में एक बच्ची अपने पुस्तक प्रेम की अभिव्यक्ति कुछ यों करती है-मम्मी मैं भी संग आपके, पुस्तक मेला जाऊँगी। ढेर किताबें छांट छांट कर, रंग बिरंगी लाऊँगी। पृ.185

अपेक्षाओं के क्रम में योगेंद्र कुमार लल्ला का यह शरारती अंदाज भी बच्चों को खास लुभाएगा-कर दो जी, कर दो हड़ताल। पढ़ने लिखने की हो टाल। बच्चे घर पर मौज उड़ाए, पापा मम्मी पढ़ने जाएँ। पृ.168

घर का सही पारिभाषीकरण अजय जनमेजय की कविता करती है। बच्चे आधुनिकता में फेर में बड़े होकर माँ-बाप को भूल जाते हैं। काष! उनके मन में बचपन से ही यह भाव घर कर जाए तो वृद्धाश्रम की कल्पना ही समाप्त हो जाएगी-लकड़ी, पत्थर, ईंटों से, नहीं कभी घर बनता है। मम्मी से ही घर है घर, पापा से ही दर है दर। पृ.249

फोन पर कविताएँ भी मजेदार है। कभी पापा के मोबाइल में बिजी रहने से त्रस्त बच्चे आज कितने चालाक हो गए हैं, मौका पाते ही वे पापा का फोन लपक लेते हैं। दो अलग अलग जमाने के बच्चों की कविताओं में यह परिदृश्य देखा जा सकता है-बूझो मेरा दुश्मन कौन, पापा का मोबाइल फोन-फहीम अहमद (पृ.429) मेरे पापा का मोबाइल, कितना सुंदर कवर है भाई। धीरे से सरकाया मैंने, पापा को जब नींद है आई-संगीता सेठी, पृ. 443

दिविक रमेश की चर्चित कविता मैं भी माँ दीदी को अब तो, बांधूगा प्यारी-सी राखी। कितना प्यार करेंगी दीदी, जब बांधुंगा उनको राखी। (पृ. 204) बताती है कि जमाना अब बदल गया है। बच्चा अब रुटीन से हटकर कुछ नया और तार्किक सोचता है। यही सोच आज की बाल कविता में ध्वनित होनी चाहिए।

चिट्ठी और ईमेल पर दो अपनी तरह की अनूठी कविताएँ यहाँ पढ़ सकते हैं। यद्यपि बालकृष्ण गर्ग की इस कविता में बालजीवन भी रचा बसा है, यह जरूरी बात विवरणात्मक बाल कविताएँ लिखने वाले नए लेखकों को समझनी होगी-पापाजी की आई चिट्ठी, समझी मीठी, निकली खट्टी। लंबे लंबे बाल कटेंगे, जेब खर्च भी सभी घटेंगे। (पृ. 140) मन को भाती है ईमेल। कुरियर या स्पीड पोस्ट हो, इसके आगे हैं सब फेल-निशांत जैन, पृ. 457

हठ कर बैठा चाँद जैसी अमोल कविता के सर्जक रामधारी सिंह दिनकर की केवल एक ही कविता इस संकलन में है-टेसू राजा अड़े खड़े, माँग रहे हैं दही बड़े। बड़े कहाँ से लाऊँ मैं, पहले खेत खुदाऊँ मैं। (पृ. 701) यही कविता पृष्ठ 46 पर निरंकार देव सेवक जी के नाम से भी प्रकाशित है। दोनों एक-सी कविताएँ एक ही संचयन में कैसे चयनित हो गईं? और मूल रचनाकार कौन है, यह आश्चर्य का विषय है।

समोसे पर बहुत से रचनाकारों ने लिखा किंतु शिवचरण चौहान की तिरकोतीन समोसे भाई, तुमने सारी चीजें खाई। आलू और खटाई खाई, खाया सारा मिर्च मसाला। मुंह तो छोटा-सा है लेकिन, तेल कढ़ाई भर पी डाला। गरम-गरम खाया है सब कुछ, चाय माँगते लाज न आई। (पृ. 630) कविता तो अन्यतम है। ऐसी कविताएँ शायद लिखी नहीं जातीं... लिख जाती हैं।

संदेश त्यागी की कविता डिस्कवरी पर हमने देखा, एक तमाशा ऐसा। जंगल के राजा के पीछे, लगा जंगली भैंसा। नवीन और पुरातन संदर्भों को जोड़ते हुए चलती है। हां, कविता का आरंभ जिस रिद्म में चला था, वह अंत में बदल गया है-शेरों को भी कभी-कभी तो, सवा शेर मिल जाते हैं। अगर हौसला हो जाए तो तख्त ताज हिल जाते हैं। पृ. 600

शिवचरण सरोहा की दाल कमाल की है। छोटे मीटर की ऐसी कविताएँ कम ही देखने में आती हैं-खाई, दाल। मिर्च, लाल। पीटे, गाल। नोचे, बाल। बुरा, हाल। पृ. 481

चाँद पर बाल संवेदना से युक्त यह कविता भी संपादक के श्रेष्ठ चयन और कवि के सृजन कौशल को इंगित करती है-चंदा भैया संभल के सोना, तुम बादल के बिस्तर पर। कहीं नींद में लुढ़क न जाना, तुम धड़ाम से धरती पर-गोपाल महेश्वरी 467
विविध विषयक ऐसी ही एक से बढ़कर एक कविताएँ इस संकलन में भोजूद हैं। विस्तार भय से उनकी चर्चा यहाँ संभव नहीं।

ग्रंथ का मुद्रण और मुखपृष्ठ आकर्षक है। कागज और बाइंडिंग मजबूत। प्रूफ (त्यौहार-त्योहार, बस-वष, शाबाद-शादाब) की दो चार ही त्रुटियाँ हैं। 706 पृष्ठों के इस अमूल्य संकलन का मूल्य मात्र 550 रुपये है। हर पुस्तकालय में तो इसे स्थान मिलना ही चाहिए। अभिभावकों, अध्यापकों, आलोचकों, संपादकों और शोधार्थियों के निजी संग्रह में भी इसका होना ज़रूरी है। जन्मदिन पर बच्चों को यह अद्वितीय उपहार मिले तो यह भावी पीढ़ी में साहित्यिक संस्कारों के पल्लवन और हस्तांतरण की दिशा  में सार्थक कदम होगा।

अन्य प्रांतों के शासकीय संस्थानों को भी बाल कविताओं तथा अन्य विधाओं के ऐसे ही श्रेष्ठ संकलनों के प्रकाशन को लेकर विचार करना चाहिए। साथ ही,... क्या अच्छा हो कि हिंदी की चयनित इन बाल कविताओं का अनुवाद और प्रकाशन संविधान द्वारा स्वीकृत अन्य भारतीय भाषाओं में भी प्रादेशिक अकादमियों के द्वारा कराया जाए। भावात्मक ऐक्य की दृष्टि से यह बड़ी पहल होगी।

बाल कविता के क्षेत्र में साहित्य अकादमी का यह प्रयास अविस्मरणीय और अनुकरणीय है।
डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'


 

रविवार, 29 अगस्त 2021

बच्चों के अमर कवि : द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी


 बच्चों के अमर कवि : द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

डॉ. नागेश पाण्डेय 'संजय'


वीर तुम बढ़े चलो, जिसने सूरज चांद बनाया, हम सब सुमन एक उपवन के और इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है जैसी न जाने कितनी अमर कविताओं के रचयिता द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी पाँच दशकों से भी अधिक समय तक  बाल साहित्य की सेवा में निरंतर संलग्न रहे। उन्होने वह लिखा, जैसा कोई नहीं लिख सका। उनकी कोई भी रचना हो, बच्चे उसे पढ़कर भाव-विभोर हो जाते हैं। चहक उठते हैं। थिरक उठते हैं। सच, वे सही मायनों में बच्चों के अपने कवि थे।

उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के रोहता गाँव में श्री प्रेमसुख के घर में १ दिसम्बर १९१६ को उनका जन्म हुआ। भारत और लंदन में शिक्षा ग्रहण करने के उपरान्त उन्होंने जीविका के लिए शिक्षा का क्षेत्र चुना और शिक्षक, शिक्षा प्रसार अधिकारी, पाठ्य पुस्तक अधिकारी, उप शिक्षा निदेशक जैसे महत्वपूर्ण पदों के माध्यम से अपनी सेवाएँ अर्पित की। सेवा निवृति के पश्चात वे साक्षरता निकेतन के निदेशक के रूप में अपना अवदान देते रहे। 

माहेश्वरी जी ने बड़ों के लिए लिखना प्रारम्भ किया था।  उनका पहला काव्य संग्रह 'दीपक' १९४६ में छपा था। इसके बाद उन्हे आभास हुआ कि बच्चों के लिए स्तरीय साहित्य का अभाव है तो उन्होंने बाल साहित्य सृजन को प्रमुखता से अपना लिया | यह जानते हुए भी कि इस क्षेत्र में न तो प्रतिष्ठा मे है और न पुरस्कार। उन दिनों बाल साहित्य में समीक्षा का कार्य न के बराबर था। बच्चों के लिए उनका पहला कविता संग्रह १९४७ में आया।

 'कातो और गाओ'नामक इस कृति के पश्चात उनकी ढेरो पुस्तक प्रकाश में आईं। ये पुस्तकें हैं :  लहरें (१९५२), बढ़े चलो, अपने काम से काम, बुद्धि बड़ी या बल, माखन-मिसरी (सभी १९५९), हाथी घोड़ा पालकी, सोने की कुल्हाड़ी (दोनों १९६३), 'अंजन (१९६४), सोच समझ कर दोस्ती करो (१९६५), सूरज सा चमकूं मैं, हम सब सुमन एक उपवन के (दोनों १९७०), सतरंगा पुल ( १९७३), गुब्बारे प्यारे (१९७४), हाथी आया झूम के, बाल गीतायन ( १९७५), सीढ़ी-सीढ़ी चढ़ते है (१९७६), हम है सूरज चाँद सितारे, जल्दी सोना, जल्दी जगना, मेरा वंदन है (१९८१), कुशल मछुआरा, नीम और गि लहरी (१९८४), चांदी की डोरी, ना मौसी ना, चरखे और चूहे ( १९९०) ।


द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी रचनावली" के खण्ड दो और तीन में उपरोक्त पुस्तकों की कविताएं संग्रहीत हैं। यह ग्रन्थ ४ फरवरी १९९७ को तत्कालीन राष्ट्रपति डा० शंकरदयाल शर्मा को भेंट किया गया था। माहेश्वरी जी ने बच्चों के लिए कहानियाँ भी लिखीं और नवसाक्षरों के लिए कविताएं भी। उनकी तीन कथा पुस्तकें छपीं-श्रम के सुमन ( १९७१), बाल रामायण ( १९८१), शेर भी डर गया (१९९२) नवसाक्षरों के लिए उनकी पुस्तके हैं :  एक रहें, नेक रहें ( १९८९), घर की उजियारी, नई कलम, नए कदम ( १९९१) लोकतन्त्र है यही (१९९२), भारत प्यारा देश हमारा (१९९३)

  "बालगीतायन" कृति के लिए उन्हें वर्ष १९७७ में बाल साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार मिला था। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने उन्हें सम्मान राशि और ताम्रपत्र प्रदान किया था। शायद ही कोई ऐसी संस्था हो, जो बाल साहित्य के विकास में संलग्न हो और उसने माहेश्वरी जी को सम्मानित करने का गौरव न प्राप्त किया हो।


८६ वर्ष की अवस्था में भी उनकी साहित्यिक सक्रियता देखते ही बनती थी। अन्तिम समय तक उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। यहीं नहीं साहित्यिक समारोहों में भी उनकी सक्रियता जीवन के अंत तक बनी रही। मृत्यु से एक घण्टा पूर्व उन्होंने एक साहित्यिक संगोष्ठी में कविता पाठ किया था। बाथरूम में फिसलकर गिरने से उन्हें ब्रेन हेमरेज हो गया था।


वे स्वभाव के बड़े सरल थे। बड़ा स्नेह देते थे। अपने लेखन के प्रारम्भिक काल से ही मेरा उनसे जुड़ाव हो गया था। वे हर पत्र का बड़ा आत्मीय उत्तर देते थे। २३-४-९१ को उन्होंने लिखा था "बस लिखते रहिए | रचनाएँ न भी छपें तो दुखी न होइये। मैंने यही मार्ग अपनाया था। सरकारी सेवा के अनेक बंधन भी थे।"


मेरी पहली बाल कथा पुस्तक 'नेहा ने माफी मांगी' प्रेस में जाने को थी। उन्होंने ११-९-९३ के पत्र द्वारा पुस्तक के लिए आशीर्वाद पंक्तियाँ लिख भेजीं। खूब प्रोत्साहित भी किया "तुम्हारी उम्र के एक बीस वर्षीय युवक के लिए लेखन की प्रेरणा की दृष्टि से यह बहुत ही सराहनीय उपलब्धि है। बहुत कम ही को यह सौभाग्य मिल पाता है।"


नेहा ने माफी मांगी" पुस्तक पर उन्होंने समीक्षा भी लिखी थी । इसे यू० यस० यम० पत्रिका (गाजियाबाद) और अभिषेक श्री' ( इलाहाबाद) ने अपने बाल साहित्य विशेषांकों में प्रकाशित किया।


माहेश्वरी जी से मेरी पहली और आखिरी भेंट कानपुर में हुई। सहसा विश्वास नहीं हुआ था कि बाल साहित्य के आधार स्तंभ माहेश्वरी जी यही है। स्नेही और सादगी से परिपूर्ण। कानपुर के  बी० एन० एस० डी० शिक्षा निकेतन के अखिल भारतीय बाल साहित्य रचनाकार सम्मेलन में उन्होंने मेरी पुस्तक 'आधुनिक बाल कहानियाँ' का विमोचन किया। मेरे लिए यह जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। 

दूसरी बार कानपुर के आयोजन में मैं दूसरे दिन विलम्ब से पहुँचा। इसीलिए उनसे मिलना न हो सका।  वे श्री शम्भूनाथ टण्डन के यहाँ थे। ९ बजे उनकी ट्रेन थी। राष्ट्रबन्धु जी, सम्पादक' बालसाहित्य समीक्षा' के घर से उनसे फोन से ही बात कर पाया। मिलने के लिए समय शेष न था। आज वह दुर्भाग्य मन को कचोटता है।


हमने बाल साहित्य प्रसार संस्थान की स्थापना की तो उन्होंने परामर्शदाता के रूप में अपनी सहर्ष स्वीकृति भेजी। उन्होंने ११-२-९७ के पत्र में किया "अच्छे बाल साहित्य के सृजन, संवर्धन और प्रसार की आज जितनी महती आवश्यकता है, उतनी पहले नहीं थी। मेरा संपूर्ण सहयोग आपके साथ रहेगा।" वे बराबर प्रोत्साहन देते रहे। उन्होंने कभी किसी आयोजन में शाहजहाँपुर जाने का भी आश्वासन दिया था।


दिनांक ५-२-९८ को उन्होंने लिखा था मेरा स्वास्थ्य ऐसे ही चल रहा है। ८२ में तो आ ही गया। देखो....... ..उनसे पत्राचार निरन्तर रहा किन्तु ऐसा पत्र उन्होंने पहली बार लिखा था। इस 'देखो' ने मेरे मन को भीतर तक हिला दिया। मैंने उनके दीर्घायु जीवन की कामना की। 

जीवन के 'सत्य' को स्वीकारना पड़ता है लेकिन बालसाहित्य अभी इसके लिए तैयार नहीं था। उनसे बड़ी अपेक्षाएँ थीं। वे विशाल वट वृक्ष थे। न जाने कितने पौध-पात उनकी छाया में पल्लवित हो रहे थे ।

२९ अगस्त १९९८ को वे चले गए। मृत्यु से दो घण्टे पूर्व उन्होंने अपनी आत्मकथा सीधी राह चलता रहा पूर्ण की थी। 

उनके अनायास इस तरह चले जाने की किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। उनके अभाव की क्षति बहुत गहरी है। इसकी पूर्ति कभी नहीं हो सकती। उनकी प्रेरणा और उनकी रचनाएँ बालसाहित्य के लिए सदैव सम्बल बनी रहेंगी। 

उनकी स्मृति को शत-शत नमन!



शनिवार, 26 जून 2021

आलेख : रामानुज त्रिपाठी: अनूठे अंदाज के बाल कवि -डा. नागेश पांडेय संजय

 
रामानुज त्रिपाठी: अनूठे अंदाज के बाल कवि  

आलेख : डा. नागेश पांडेय संजय   

रामानुज त्रिपाठी बाल साहित्य के मौन साधक थे किंतु उनकी साधना मुखर थी। जब तक रहे, बाल साहित्य में छाए रहे। पत्र-पत्रिकाओं में धुआंधार छपे। नवें दशक की पत्रिकाओं को उठाइए, आपको कई पत्र-पत्रिकाओं के एक-एक अंक में उनकी दो-दो कविताएं तक पढ़ने को मिलेंगी। बहुत लिखते थे। बहुत अच्छा लिखते थे। अच्छा क्या लिखते थे, वे तो एक लकीर बनाते जा रहे थे। एक पथ आलोकित कर रहे थे जिस पर चलने का प्रयास यद्यपिआगे चलकर बहुतों ने किया लेकिन वैसी सफलता किसी को न मिली। उन्होंने बाल कविता को नई आभा दी। एक अलग रंग-ढंग और तरंग की कविताएं उन्होंने रचीं। कहें कि बाल कविता को नई रवानी दी। नया शिल्प दिया। नयी रूपाकृति दी। नवगीत विधान में कम ही लोग हैं जो बाल साहित्य को कुछ परोस पाए और त्रिपाठी जी तो इस विधा के जैसे मास्टर थे। कविता को गढ़ने का उनका अंदाज अनूठा था। सामान्य विषय पर असामान्य ढंग की कविता लिखने में उनको बड़ी सफलता मिली। विषय की बात करें तो वे बहुधा सामयिक ही होते थे, जैसे कैलेंडर देख के वे बिल्कुल मुस्तैद रहते हों कि हां, अब रक्षाबंधन है, अब बसंत है। अब जाड़े पर-गरमी पर-बरसात पर लिखना है। लिखना क्या है, माल तैयार करना है। किसी हलवाई की तरह त्रिपाठी जी को ग्राहक के स्वाद की परख थी। या मौसम की मांग वे जानते थे तो ये लीजिए मालपुए। ये लीजिए बालूशाही। ये लीजिए गुझियां। ये लीजिए गाजर का हलवा और हां, ये उनकी रसभीनी कविताएं स्वाद में बेजोड़ होती थीं। यही कारण था कि हर दूकान पर ...माफ कीजिए, पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएं सजी-धजी मिलती थीं। वे संपादकों के चहेते थे। न कोई जान, न पहचान, न जुगाड। पर वे छा गए थे। ...और इसलिए छा गए थे कि वे बाल मन को भा गए थे। लुभा गए थे। बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ की तर्ज पर उन दिनों बच्चे पत्रिकाओं को छुपा कर रखते थे कि पहले-पहल पत्रिका की सामग्री का आनंद उनको ही लेना है। 

मैं बहुधा सोचता हूं कि यदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं के आधार पर भी हिंदी बाल साहित्य में पुरस्कार-सम्मान की परंपरा होती तो कदाचित् रामानुज त्रिपाठी जी के खाते में ढेरों पुरस्कार होते। अफसोस...उनकी ओर संस्थाओं का ध्यान नहीं गया। जाता भी कैसे क्योंकि वे किताब छपवाने के गणित से पूरी तरह अनभिज्ञ थे। और हिंदी बाल साहित्य के क्षेत्र में पुरस्कार पाने की पहली सीढ़ी पुस्तक है। पुस्तक लकदक हो तो सोने पर सुहागा या कहें कि पुरस्कार की पक्की गारंटी। भले ही अंदर कूड़ा हो लेकिन भारी-भरकम बायोडाटा और किताब के नाम पर जाने कितने बाल साहित्य के सर्वोच्च सम्मान हथिया ले गए। भारती से उनकी आरती उतारी गई। और आज भी बाल साहित्य के जिज्ञासु यह जानने को आकुल-व्याकुल हैं कि अमुक सम्मानित का बाल साहित्य में योगदान क्या था? मगर रामानुज त्रिपाठी जैसे मौन आराधकों की ओर संस्थाओं का ध्यान नहीं गया। डा. राष्ट्रबंधु जी का नमन जिन्होंने 1995 में संस्था भारतीय बाल कल्याण संस्थान की ओर से उन्हें सम्मानित कर जैसे अपनी संस्था को ही सम्मानित किया। उनके इस सुनिर्णय के प्रति मैं स्वयं को कृतज्ञ अनुभव करता हूं और आभारी भी कि इसी बहाने उनसे प्रथम भेंट भी मयस्सर  हुई। 1995 में जिन नौ बालसाहित्यकारों का सम्मान हुआ था उनमें त्रिपाठी जी के साथ मैं भी था। संयोग कि हम लोग ठहरे भी एक साथ और उनकी सादगी के चलते उनसे ऐसी गहरी छनी कि साथ-साथ खूब घूमें। इस बहाने उनको बहुत करीब से जानने का अवसर भी मिला। उनकी स्थिति-परिस्थिति से भी अवगत हुआ।   


लगता है जैसे कल की ही बात हो लेकिन नहीं, दो दशक से ऊपर हो चुके हैं। कानपुर में 29 जुलाई 1995 को कृष्णविनायक फड़के जयंती समारोह था। कितने दिग्गज उसमें पधारे थे। डा. देवसरे, शकुंतला सिरोठिया, सरोजिनी कुलश्रेष्ठ, अनंत कुशवाहा, रामवचन सिंह आनंद, पद्मश्री लक्ष्मीनारायण दुबे, पद्मश्री श्याम सिंह शशि और यही नहीं डा. मुरलीमनोहर जोशी (बाद में गृह मंत्री, भारत सरकार) भी उस आयोजन में सहज उपस्थित थे। जोशी जी ने बच्चों के लिए अलग से बाल मंत्रालय की मांग रखी थी और समाचारपत्रों ने इसे मेन हेडिंग बनाया था। तीन दिन के इस समारोह में पहली बार मैं रामानुज त्रिपाठी जी से मिला था। कानपुर के वैशाली होटल में हम दोनों एक साथ ही ठहरे थे। देर रात में उनका जब आगमन हुआ तो मैं गहरी नींद में था। आंखे मिचमिचाते दरवाजा खोला तो धोती-कुर्ता पहने एक लंबी श्यामवर्ण काया सामने थी। ...मैं रामानुज त्रिपाठी, सुल्तानपुर से। 

मैं विस्मय से भर उठा और तपाक से बोला-जी, और मैं रामानुजानुज, शाहजहांपुर से।

अच्छा। अच्छा नागेश जी। और त्रिपाठी जी ने मुझे गले से लगा लिया था। 

उनसे मेरा पत्राचार था। मैंने एक बार स्वयं को भवदीय में रामानुजानुज (रामानुज का अनुज) क्या लिखा कि फिर तो यह सहज संबोधन हमारे पत्राचार का अंग हो गया था। 

तो हम तीन दिन साथ रहे। आयोजन कई जगह पर थे तो हम लोग जाते भी एक साथ। मजेदार किस्सा बताऊँ कि इसी यात्रा में उनकी अटैची एक रिक्शेवाले ने पार कर दी थी। हम दोनों एक ही रिक्शे पर थे। जब बेनाझाबर पहुंचे तो आगे वाले रिक्शे पर बैठे वयोवृद्ध रामस्वरूप दुबे जी को उतारने के लिए मैं आगे बढ़ गया। बेचारे त्रिपाठी जी भी सहयोग के लिए पीछे-पीछे आ गए और इतनी देर में रिक्शा वाला चंपत। अटैची गायब। मैंने जब ये बात राष्ट्रबंधु जी को बताई तो उन्होंने नई अटैची और उसमें रखा सारा नया सामान मंगवाया। जब साहित्यकारों का सम्मान हुआ तो त्रिपाठी जी को साथ में नयी अटैची भी दी गई। 

कई मित्रों ने बाद में उनसे मजाक भी किया था-त्रिपाठी जी, ऐसा पता होता तो हम तो अपना सामान जानबूझकर गायब करा देते।खैर... इस भेंट के बहाने हमारी आत्मीयता और प्रगाढ़ हो गई। उन दिनों फोन का चलन तो था नहीं। तब आज की तरह मेल और फेसबुक भी नहीं थे। केवल डाक या बुकस्टाल का ही सहारा था। मेरी न जाने कितनी अनुपलब्ध रचनाएं त्रिपाठी जी ने मुझे डाक से भिजवाई। मैं निःसंकोच उनसे आग्रह कर लेता था। इसलिए भी कि उनके कालेज के पुस्तकालय में कई पत्रिकाएं आती थीं। एक बार साप्ताहिक हिंदुस्तान में मेरा बालगीत दादी अम्मा छपा। पेमेंट तो आ गया, पर प्रति न मिली। भला ये कैसे गंवारा होता। मैंने उन्हें याद किया और फिर ये देखिए 1 नवंबर 1992 का उनका पत्रोत्तर-  

भैया संजय जी, आपका पत्र मिला था। आपने अपनी कविता से संबंधित साप्ताहिक हिंदुस्तान का अंक मुझे सुरक्षित रख लेने और वह अंक मुझसे ही प्राप्त करने का निर्देश दिया था। साप्ताहिक हिंदुस्तान मेरे कालेज के वाचनालय में नियमित आता है। यदि वह अंक न मिला हो ओर उसे चाहते हों तो मुझे अविलंब सूचित करें। यदि अंक मिल गया हो तो मैं उसे पुनः वाचनालय में वापस कर दूं। यथाआवष्यक समझिएगा लिखिएगा। 

इधर बाल भारती के अक्टूबर अंक में भी आपका एक गीत दीवाली षीर्षक से छपा है। उसी पृष्ठ पर मेरा भी आई है दीवाली षीर्षक गीत प्रकाषित हुआ है किंतु मेरे गीत में छपाई की त्रुटि है। जाने क्यों बाल भारती में हर बार कुछ न कुछ गलत ही छपता है, जिससे रचना में अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। सस्नेह, रामानुज

तो आप देखिए कि किस तरह से पत्राचार के बहाने पर बाल साहित्य की दषा-दिषा पर भी विमर्ष चलता रहता था। बाल साहित्य के प्रति उनके मन में चिंता थी। मैंने जब राष्ट्रीय सहारा में बाल साहित्य स्तरीय परख की जरूरत विषय पर एक परिचर्चा आयोजित की तो तत्कालीन दिग्गज बाल साहित्यकारों के साथ-साथ उनके भी विचार आमंत्रित किए। 12 दिसंबर 1994 को इस परिचर्चा में प्रकाषित उनके विचार द्रष्टव्य हैं -हम बच्चों को कविताओं के नाम पर बे सिर पैर की तुकबन्दियाँ परोस रहे हैं। उत्कृष्ट बाल साहित्य का अकाल सा पड़ रहा है और लेखन में मौलिकता  में कमी आई है।

अभिभावक भी बच्चों को साधन सम्पन्न बनाने की सनक में शीघ्र अधिकाधिक ज्ञान सम्पन्न कम्प्यूटर बनाना चाहता है। स्कूली शिक्षा बच्चों पर पुस्तकों का भारी बोझ लादकर उन्हें अनेक स्तर से अधिक ऊँची प्रतियोगिताओं में झोंक रही है, फलतः सांस्कृतिक तृप्ति देने वाले साहित्य से बच्चा परे रह जाता है।

बाल साहित्य की समस्त विधाओं में सृजन स्तर पर संप्रति बाल मनोवृत्ति की स्तरीय परख की जरूरत है, उसके अभाव में बाल साहित्य कभी तृप्ति देने वाला नही होगा।

मैंने इस परिचर्चा से प्राप्त पारिश्रमिक सभी बाल साहित्यकारों को समान रूप से भेजने के लिए प्रारंभ में ही निवेदन कर दिया था। त्रिपाठी जी को यह स्वीकार न था, केवल इसलिए कि वे मुझे अपने अनुज की भांति देखते थे। इस संदर्भ में उनका 22 दिसंबर 1994 का यह अपनत्व उड़ेलता पत्र मैं कभी भुला नहीं सकता-

 प्रिय भाई

आपका स्नेह पत्र मिला। आभार। 12 दिसंबर का राष्ट्रीय सहारा यहां तलाषने पर मुझे मिल गया। आपकी प्रस्तुति अच्छी और स्तरीय है। तदर्थ मेरी ओर से बधाई स्वीकारें। चक्रधर नलिन जी गत 22 नवंबर को मेरे घर आए थे। तो आपकी सहारा हेतु परिचर्चा पर उनसे चर्चा हुई थी। 

आपने परिचर्चा के प्रति मिलने वाले पारिश्रमिक में से उचित अंष जो मेरे लिए भेजने को लिखा, यह मुझे अच्छा न लगा। आप मेरे लघु भ्राता हैं-अतः इसी बहाने अपने लिए कुछ टाफी, बिस्कुट, खिलौने और गुब्बारे खरीद लें। इसी में मुझे अतिषय प्रसन्नता मिलेगी। इत्यलं।

सस्नेह, रामानुज

रामानुज जी के पास भाषा की अपार सामर्थ्य थी और गुणग्राहकता भी। उनके पत्रों को मैं धरोहर मानकर अपने संग्रह में सजाए हूं। किसी छोटे को भी बड़प्पन का अहसास देने का प्रोत्साहनमयी ऐसा व्यवहार दुर्लभ है। उनके पत्र भी किसी साहित्य से कम न होते थे। देखिए 30 मई 1995 का उनका एक पत्र-

भाई संजय जी 

स्नेह पत्र मिला। आप द्वारा प्रदत्त स्नेह, सौहार्द, दाक्षिण्य, कृतज्ञता और आत्मीयता का पंचरत्न निरंतर संभाल कर रखता जा रहा हूं ताकि इतिहास पुरुष भामाषाह की तरह कदाचित प्रयोजन पर बहुजन हिताय वितरित कर सकूं। 

बाल कविता को नया षिल्प और नया कलेवर प्रदान करने में उनकी वरेण्य भूमिका है। नवगीत षैली  में रचित उनकी कविताएं अपनी सहजता के चलते मन छूती हैं। रोचकता का नया ताना बाना प्रभावित करता है। शब्द भंडार के चलते विन्यास में स्वाभाविकता स्वतः आती जाती है। ...और फिर एक षिक्षक होने के नाते कुछ न कुछ सीख भी गाहे बगाहे वे दे ही डालते हैं।  

उपमाओं से रची-पगी रक्षा बंधन पर लिखी उनकी यह कविता मैं कभी नहीं भूलता-

स्नेह की धरती

ममता का 

आकाश है रक्षाबंधन। 

रक्षाबंधन केवल 

राखी का त्योहार 

नहीं है,

कुछ धागों में ही 

बंध जाने 

का व्यवहार 

नहीं है।

भाई बहन के रिश्ते

का इतिहास है रक्षाबंधन।

अब आप खुद ही देखिए, कि किस सजीले अंदाज में बातों ही बातों में वे एक परिभाषा भी गढ़ गए और त्योहार के सांस्कृतिक वैभव को बिना किसी आरोपण के सहज रूप से बाल मन पर आच्छादित कर दिया। यही खूबी उन्हें बाल कवियों की भीड़ से अलग एक महनीय स्थान प्रदान करती है। 

वर्षा के नयनाभिराम परिदृष्य को जैसे आंखों के समक्ष उतारती उनकी यह कविता भी अनोखी है, जिसमें एक नयी शुरुआत को अभिव्यक्त करने की अभिव्यक्ति देखते ही बनती है- 

आए बादल 

बरसा पानी।

कभी दिवस में

कभी निशा में 

उमड़ घुमड़ कर

 दिषा दिशा में 

घिर घिर आई 

घटा सुहानी।

मेंढक झिल्ली 

झींगुर वाली

एक राग 

एक सुर वाली

षुरू हो गई

 राम कहानी।

प्राकृतिक चित्रण को लेकर उनकी कहन क्षमता का मैं मुरीद रहा। नवगीत से इतर उनके दोहे भी क्या खूब बन पड़े हैं। सर्दी पर कुछ बेहतरीन दोहों का आनंद आप भी लीजिए-

घिर आया कुहरा घना,

खूब पड़ रही ठंड।

सूरज का भी हो गया,

शायद चूर घमंड।

फैल गया है चौतरफ, 

जाड़े का आतंक। 

ठंडा पानी हो गया, 

ज्यों बिच्छू का डंक। 

तन है थर थर कांपता,

किट किट करते दांत।

ओढ़ रजाई कट रही है,

जाड़े की रात।

ऐसे ही बसंत पर उनकी यह नवगीत षैली की रचना भी उनकी कुशल अभिव्यक्ति को ही सुप्रस्तुत करती है।  

फूलों में 

रंग इठलाया

बसंत आया।

घर आंगन उठीं किलकारियां

पीने लगीं रंग पिचकारियां

हाथों में

गुलाल मुसकाया

बसंत आया।

कुंकुम अबीर मले बिन

बीतें न ए रस भरे दिन

मन में फिर नया मोद छाया

बसंत आया।


उनकी कविताएं नयी ताजगी से सराबोर हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि शब्द शब्द नाच रहे हों। ऐसी लयात्मकता कदाचित् अन्यत्र दुर्लभ है। कारण यह भी कि छोटे-छोटे षब्दों को उचित यति-गति के साथ जैसे किसी फ्रेम में जड़ने का हुनर या कहें कि जादुई कला उनके पास थी। 

चिड़िया जैसे पुराने विषय पर सहसा उनकी दो कविताएं मुझे याद आ रही हैं। इनका भाषाई चमत्कार देखते ही बनता है-  

पेंड़ो की हर

डाल डाल पर

नाच रहीं चिड़ियां ।

नए नए कोमल 

किसलय पर 

नए राग नव 

सुर नव लय पर 

थिरक थिरक कर 

नए ताल पर 

नाच रहीं चिड़ियां ।

छोड़ टहनियां 

पुष्प दलों की 

लह लह 

लहराती फसलों की 

हरी सुनहरी 

बाल बाल पर 

नाच रहीं चिड़ियां ।

दूसरी कविता आशावाद की प्रतिच्छाया है जो बाल मन में वविश्वास और आस के अंकुर उपजाती है और वह भी प्रतीकात्मक रूप से एक भोली चिड़िया के माध्यम से-

मत होना तुम भोली चिड़िया 

अपने मन में कभी उदास।

चुगने को हैं पंख तुम्हारे

दो पंजे हैं प्यारे प्यारे

उड़ने को हैं रंग बिरंगे 

सुंदर पंख तुम्हारे पास।

तेरी है ये सारी धरती

चुगकर जहां पेट तुम भरती

और फुदकने को है विस्तृत 

तेरे लिए खुला आकाश।

हरे भरे पेड़ जंगल के 

झूम झूम के मचल मचल के 

बुला रहे हैं तुमको देखो

अपने फल में भरे मिठास।


कह सकते हैं कि उन्हें कविता की गहरी समझ थी। कवि ही नहीं, आचार्य भी थे मान्यवर। काष! कि उनकी यत्र-तत्र बिखरी निखरी कविताओं का संचयन हो तो बाल कविता के एक अद्भुत लोक में विहार करने और उसको समझने का आनंद बहुतों को प्राप्त हो सकेगा।

कविताओं में रोचकता के लिए उनके प्रयोग भी अनूठे थे। जैसे एक स्थान पर उन्होंने मच्छर के डंक की तुलना सूंड़ से की है। इससे हास्य की सृष्टि तो हुई ही, साथ ही एक विस्मयकारी आनंद की भी वृष्टि होती है। बालमन उत्फुल्ल होकर उमगता है। विस्मित होता है और कहीं न कहीं एक काल्पनिक संसार में जाकर नई परिकल्पनाओं के निर्माण में भी समर्थ होने की ओर अग्रसर होता है। ...अरे! मच्छर की सूंड़...यह अद्भुत कल्पना तो बड़ों के भी कान खड़े कर देती है-

मच्छर मामा डटे हुए हैं 

लेकर अपनी एक जमात

भली नहीं गरमी की रात।

तन ढकने में चूक अगर हो 

हाथ पैर मुंह जब बाहर हो

सूंड़ चुभोकर खून चूस लें 

मिलकर खूब लगाएं घात।

कविताएं बहुतेरी हैं जिनकी चर्चा विस्तार भय से यहां संभव नहीं। उन पर अलग से अनुशीलन अपेक्षित है। अनुसंधान अपेक्षित है। फिर एक लीक निश्चय ही निर्मित होगी जिस पर चलकर बाल साहित्य के राजपथ पर पहुंचा जा समता है। 

अभी तो यही कहूंगा। बार-बार कहूंगा कि रामानुज त्रिपाठी जी को उनका प्राप्य नहीं मिला। जिस सम्मान के वे सुपात्र थे, वह उनको मिले तो यह उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी और बाल साहित्य के लिए भी इससे बेहतर और सम्मानजनक बात हो नहीं सकती। 

(यह आलेख 'बाल वाटिका' मासिक, अक्तूबर 2016 अंक में पृष्ठ 51 पर प्रकाशित हुआ था।)



मंगलवार, 22 जून 2021

संस्मरणात्मक आलेख : 'बाल कविताओं के समंदर' के कुशल गोताखोर कृष्ण शलभ -डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'

कृष्ण शलभ जी के साथ डॉ. नागेश
पकड़ सको तो पकड़ो, मेरे लगे हवा के पर...
'बाल कविताओं के समंदर' के कुशल गोताखोर कृष्ण शलभ
आलेख- डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'
    दिखा अँगूठा, बोला मुन्ना टिली लिली झर। पकड़ सको तो पकड़ो, मेरे लगे हवा के पर।
कृष्ण शलभ जी की यह बेजोड़ कविता  मुझे चिढाती सी लग रही है। हवा के पंख लगाकर वे उड़ गए। हमारी पकड़ से बाहर बहुत दूर चले गए। बहुत ही दूर..., जहाँ से वे क्या, कोई भी नहीं लौटता। 
ज्यादा दिन तो नहीं हुए। जैसे कल ही की बात लगती है। हम लोग साहित्य अकादमी, नई दिल्ली की ओर से बाल साहित्य कार्यशाला (21-22 जून, 2017) में भाग लेने राजसमन्द गए थे। दिल्ली से  सभी के टिकिट एक साथ थे। सहारनपुर से मेरे लिए खाना लेकर आए थे। वापसी का टिकिट भी साथ था लेकिन गुर्जर आंदोलन के चलते हमारी ट्रेन कैंसिल हो गयी। एक ही कार से से हम लोग स्टेशन की ओर जा रहे थे। आदतन मैंने ट्रेन चेक की तो पता चला कि कैंसिल। उनसे सटकर ही तो बैठा था। साथ में उनकी पत्नी हेम जी भी थी। बाल साहित्य के ऐसे बहुत कम आयोजन मुझे याद आते हैं, जिनमें वे अकेले गए हों। यह जोड़ी अटूट थी जो टूट गई। हम लोग उनके बिछोह को दिल से महसूस रहे हैं तो पत्नी के कलेजे पर क्या बीत रही होगी, इसकी तो कल्पना ही की जा सकती है।
जब उनसे बीच राह में विदा ली थी तो सपने में भी न सोचा था कि यह हमारी अंतिम भेंट है। यों राजसमन्द में उनके साथ घूमते फिरते जाने कब उनके मुख से निकल गया था कि जिंदगी का क्या भरोसा।
राजस्थान में अंतिम भेंट 
मैंने बेहिचक कहा था नहीं, अभी तो आप को 1000 शिशुगीतों का काम पूरा करना है और उनके चेहरे पर चमक आ गयी थी। बड़ी तन्मयता से वे इस काम में लगे थे। ठीक वैसे ही, जैसे बचपन एक समंदर ग्रन्थ का भागीरथी प्रयत्न उन्होंने किया था। भगीरथ जी पूर्वजों के उद्धार हेतु गंगा उतारकर लाए थे और शलभ जी तो जैसे बाल साहित्य के उद्धार हेतु सागर ही उतार लाए। सच, उनके इस बड़े काम के बाद छाती चौड़ी हो गयी थी। हम गर्व से इस ग्रन्थ का उल्लेख्य करते थे। 
जो कहते थे कि बाल साहित्य में गम्भीर काम देखने को नहीं मिलता, उन्हें निस्सकोंच परामर्श देते थे कि बचपन एक समंदर देखिए, सब पता चल जाएगा। लोग हास्यास्पद डिग्रियों के बल पर खुद को डॉक्टर लिखने में बड़ा गर्व महसूस करते हैं। इस ग्रन्थ में शलभ जी की भूमिका देखकर लगता है कि डॉक्टरेट की उपाधि के असली हकदार तो ये लोग है।  ...तो ऐसी ही तन्मयता से वे लगे थे। हजार शिशुगीतों का संकलन करने के लिए वे कितना दौड़े। कितना भागे। शायद ही इसका सहज अनुमान किया जा सके। कितनी दुर्लभ पांडुलिपियां उन्होंने एकत्र कीं। वर्ष 2016 में 12 जून को मैं डॉ. आर. पी. सारस्वत की पुस्तक विमोचन के लिए सहारनपुर गया था। गया क्या था, उन्होंने ही बुला लिया था। बिलकुल आदेश के स्वर में वे मेरे घर पर पत्नी से भी कह गए थे कि समीक्षा तुम्हें भी आना है। फिर हम सब साथ साथ शाकुम्भरी देवी के दर्शन को चलेंगे। और फिर ऐसा ही हुआ। पत्नी और बेटी सृष्टि के साथ मैं गया। एक दिन पूरा उनके घर बिताया। बच्चे तो उनके परिवार के साथ मस्त हो गए और मैं बेड पर बैठा उनके साथ इसी पाण्डुलिपि पर चर्चा करता रहा। मैं उनका श्रम देख चकित था। कहीं न कहीं शर्म भी महसूस कर रहा था। हजार शिशुगीतों की तैयार हो रही पांडुलिपि का अधिकांश उन्होंने स्वयं तैयार किया था। छोटे-छोटे मोती जैसे अक्षर  चिढा रहे थे। इसे कहते हैं काम।
 मैं तो प्रतिदिन की अपनी यात्राओं की थकन में कुछ नहीं कर पाता। कितनी बार उन्होंने मुझे कहा कि शिशुगीत भेजो। अपने भी और  जिन्हें तुम श्रेष्ठ समझते हो वे भी। कितने आग्रहों के बाद मैं उन्हें कुछ भेज पाया था और वे कि सैकड़ों रचनाओं को खोजकर खुद हाथ से लिखने का मशक्कत भरा काम कितनी सहजता से निबटाने में लगे थे।
 मैंने कहा -दादा, ये काम आप ही कर सकते थे। कुछ साहित्यकार हैं जिनके पास सामर्थ्य है लेकिन समय नहीं। कुछ हैं जिनके पास समय है लेकिन सामर्थ्य नहीं। आप ऐसे बिरले हैं कि समय और सामर्थ्य दोनों के ही स्वामी हो। 
वे हँस भर दिए थे। 
तो यह बड़ा काम उन्होंने कर दिखाया। फोन पर बताया था कि इसकी पांडुलिपि प्रकाश मनु जी की परामर्श के लिए भेज रहा हूँ। वे देख लें और समय दें तो फरीदाबाद जाऊँ। दुर्भाग्य कि ऐसा हो न सका। उनके निधन की सूचना मनु जी को दी तो वे कुछ पल के लिए निशब्द रह गए थे।
 नियति को यही स्वीकार था। पर जाने क्यों आज भी मन उनका जाना स्वीकार नहीं कर रहा। बार बार लगता है कि अभी उनका रहना बहुत जरूरी था। ऐसे लोग हैं ही कितने? जिनके दिलों में बाल साहित्य धड़कन बन धड़कता है। 
वे अकेले नहीं गए, बहुतेरे सपने साथ चले गए। 
मेरा उनसे पुराना नाता था। 1995 में पहली बार मिले थे।  उनके मुख से टिली लिली झर गीत क्या सुना, उनका दीवाना हो गया था। इस कदर कि एक आलेख में ही मैंने लिखा था कि यदि हिंदी के दस अलमस्ती में गाए जानेवाले बालगीतों का चयन मुझे करना हो तो उनमें से एक शलभ जी का गीत टिली लिली झर होगा। 
यह गीत नन्दन में छपा था। 
इसकी भी गजब कहानी है। तत्कालीन सम्पादक जयप्रकाश भारती ने इसे औपबंधिक स्वीकृति दी थी। लिखा था कि मुखड़ा बहुत सुंदर है लेकिन आगे के बंद और तराशिए। फिर तीन बार की कोशिश में यह मुकम्मल गीत बना। बार बार सोचता हूँ कि ऐसे सम्पादक और कवि भला कितने है जो एक सम्पूर्ण रचना को तैयार करने के लिए इतना यत्न करें।
तो जिस तरह आँख बंद कर वे इसे गाते थे और अनूठे अंदाज में कहते कि वो देखो वो चिड़ी चिड़े के ले गयी कान कतर। तो कभी न गानेवाले मुझ जैसे बेसुरे के कंठ से भी सुर फूट पड़ते थे। 
कभी ऐसा हुआ नहीं कि वे मिले हों और कविता पाठ के वक्त मैंने उनसे इस गजब गीत की फरमाइश न की हो। 
 प्रभा बाल साहित्य सम्मान समारोह की अध्यक्षता के लिए वे 8 मई 2016 को शाहजहांपुर आए थे। संयोजक अजय गुप्त ने उन्हें बुलाया था। सबने खूब उन्हें सुना था। कन्नड़ मूल के जिलाधिकारी विजय किरन आनंद भी देर तक बैठे रहे थे। जब उन्होंने कहा कि अंतिम रचना पढ़ रहा हूँ तो मैं तपाक से खड़ा हो गया, न दादा। टिली लिली के बिना तो काव्य पाठ पूरा न होगा। (यह वीडियो देखने के लिए यहाँ क्लिक करें)
फिर ...राजसमन्द में आखिरी बार उनके मुख से यह गीत सूना। अंतिम बार यह गीत सुन रहा हूँ, मैंने न सोचा था। 
खुटार में 1996 में मैंने बाल साहित्य प्रसार संस्थान की ओर से बाल साहित्यकार सम्मेलन किया था। वे आए तो अतिथि के रूप में थे लेकिन भूमिका संयोजक की निभाई। डायस से लेकर माइक तक सब कुछ व्यवस्थित कराया। वे एक कुशल आयोजक थे। जिन्होंने समन्वय, सहारनपुर के आयोजन देखे हों, वे मेरी बात से सहज सहमत होंगे।
1.इंदौर 2.भीलवाडा 3.कोलकाता और 4.मसूरी के स्मृति चित्र 
    इलाहाबाद, इंदौर, दिल्ली, कोलकाता, मसूरी, भीलवाड़ा : न जाने कितनी यात्राएं मैंने उनके साथ कीं। बाल साहित्य के विमर्श में मेरी उनसे खूब छनती थी। भीमताल में हिंदी बाल कहानी पर मेरा व्याख्यान था। बाद में बोले, एक बात कहूँ नागेश? तुम बख्शते किसी को भी नहीं। और इससे पहले कि मैं कुछ कहता, खिलखिलाकर हँस पड़े थे। 
फोन पर  जब भी उनसे बात होती थी तो लम्बी बात होती थी। कई बार जब उनका फोन न लगता तो साधिकार भाव से मैं उनकी पत्नी को फोन मिला देता। वे कबहुँक अंब अवसर पाइ, मेरी सुधि ध्याइबो, कछु करुण कथा चलाइ की तर्ज पर मेरी बात करा ही देतीं थीं। 
शलभ जी से अक्सर मैं एक चुटकी लेता था और वे मुस्कुरा उठते थे। मैं पूछता कि बताओ दादा, आपके ऊपर जुलम किसने किया?
शुरू में तो दो चार बार उन्होंने सहसा चौंक कर पूछा कि कैसा जुलम ? मगर बाद में यह प्रसंग हम लोगों के आनन्द लेने का हेतु बन गया। 
बात कोलकाता की है। 2003 की। पुष्करलाल केडिया जी द्वारा आयोजित मनीषिका के बाल साहित्यकार सम्मेलन के बाद, हम लोग गंगासागर से लौटे थे। वापसी की ट्रेन एक ही थी। हावड़ा पहुंचे तो कोच देखने के लिए अपने-अपने टिकट निकाले। मगर उनका टिकट तो गुम।
 प्लेटफार्म पर बैग खोला फिर अटैंची। सारा सामान बिखेर दिया। मगर टिकट की समस्या विकट। बेचारे बार-बार माथा पकड़ते। 
पत्नी पर झुंझलाते-हेम, आज तुमने बड़ा जुलम किया। 
मैंने कहा, दादा । अब ट्रेन का टाइम हो रहा है। सारा सामान समेटिए। 
क्या होगा नागेश ?
मैंने कहा-दादा अब जो होगा। ट्रेन में होगा। फ़िलहाल टेंशन छोड़िए। 
अचानक मैंने उनकी डायरी खंगाली और वाह ! टिकट महाशय तो वहीं छुपे बैठे थे। 
दोनों को जो सुख मिला, उसकी व्याख्या कठिन है।
    शलभ जी बड़े कद के बालकवि थे। बाल कवि क्या, बालगीतकार थे। बाल कविता और बालगीत में अंतर है। वे इसे बखूबी समझते और समझाते थे। उनके बालगीत बाल साहित्य की अनमोल थाती है। पिछले दिनों उनका एक बहुत ही प्यारा बाल गीत बाल वाटिका में छपा था -खिड़की खुली मकान की। खिड़की खुलने के बाद के अलबेले दृश्यों को एक बच्चे के नटखट अंदाज से देखते हुए उनकी यह रचना स्वयं में अद्भुत और अपूर्व है जो घिसे-पिटे विषयों पर लिखने वाले छपास के रोगियों के लिए एक आमंत्रण जैसी है। लिखो, लिखो ऐसे बहुतेरे विषय आपके इर्द गिर्द बिखरे पड़े हैं। लिखो, उन पर लिखो।
शलभ जी का सृजन ही उनका सबसे बड़ा पुरस्कार सम्मान था। यों शलभ जी को बहुतेरे पुरस्कार सम्मान मिले। 
स्तुत्य समर्पण के लिए बाल वाटिका ने भी शलभ जी का सारस्वत सम्मान किया था। वे इस सम्मान से अभिभूत थे। उनका प्रशस्ति पत्र मैंने ही तैयार किया था। जब उन्होंने प्रशस्तिपत्र की प्रशंसा की तो डॉ. भैरूंलाल गर्ग ने विनम्रतापूर्वक उनको बता दिया कि इसे तो डॉ. नागेश ने लिखा है। 
वे गदगद थे । मुझे धन्यवाद कहने से न चूके, यह उनका बड़प्पन था। 
आज उस प्रशस्ति पत्र का सहज स्मरण स्वाभाविक है-
बाल साहित्य सृजन और संपादन के क्षेत्र में प्रण-प्राण से समर्पित कृष्ण शलभ हिंदी के सर्वाधिक सक्रिय बाल साहित्यकारों में से हैं. उन्होंने बाल साहित्य की अलख जगाई है और एक तरह से हिंदी बाल साहित्य का परचम राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्सरित किया है. बाल साहित्य के प्रति उनके मन में चिंतन भी है और चिंता भी . यही कारण है कि अनवरत सृजनरत रहते हुए उन्होंने जहाँ स्वयं बाल कविता के क्षेत्र में उच्च कोटि का प्रचुर लेखन किया , वहीँ इसकी सर्जना की दिशा में भी निरंतर परिवेश का निर्माण करने की दिशा में तन्मयतापूर्वक सजग रहे हैं .ओ मेरी मछली , टिली लिली झर सूरज को चिट्ठी, 51 बाल कविताएँ आदि कृतियाँ बाल साहित्य के क्षेत्र में उनके अनवरत सृजन को रेखांकित करती हैं . 
बाल साहित्य में शोध कार्य के प्रति उनके मन में सहज अनुराग है वे स्वभाव से ही खोजी और शोधी प्रवृत्ति के हैं . यही कारण है कि उनके द्वारा बचपन एक समंदर जैसे मानक और भारतीय भाषाओं में इस प्रकार के एक मात्र ग्रन्थ का संपादन प्रकाशन संभव हो सका। इस वृहदाकार ग्रन्थ से बाल साहित्य के प्रति समाज में विमर्श और सम्मान को प्रोत्साहन मिला है और इसने बाल साहित्य में शोध और समालोचना को भी आधारभूमि प्रदान की है।
बचपन एक समंदर जैसा चमत्कारी कार्य करने वाले शलभ जी की रचनाओं में भी समंदर जैसी गहराई है। और फिर उनकी रचना यदि समंदर पर हो तो कहने ही क्या, बाल सुलभ जिज्ञासाएँ देखते ही बनती हैं- मोती की खेती की मौलिक कल्पना और किसी चिड़ियाघर या सर्कस के तम्बू का आभास तो वास्तव मे कृष्ण शलभ की ही तूलिका से सम्भव था- बोल समंदर सच्ची-सच्ची, तेरे अंदर क्या, जैसा पानी बाहर, वैसा ही है अंदर क्या? रहती जो मछलियाँ बता तो कैसा उनका घर है? उन्हें रात में आते-जाते, लगे नहीं क्या डर है?
तुम सूरज को बुलवाते हो, भेज कलंदर क्या?
बाबा जो कहते क्या सच है, तुझमें होते मोती, मोती वाली खेती तुझमें, बोलो कैसे होती! मुझको भी कुछ मोती देगा, बोल समंदर क्या?
जो मोती देगा, गुड़िया का, हार बनाऊँगी मैं, डाल गले में उसके, झटपट ब्याह रचाऊँगी मैं!
दे जवाब ऐसे चुप क्यों है, ऐसा भी डर क्या?
इस पानी के नीचे बोलो, लगा हुआ क्या मेला, चिड़ियाघर या सर्कस वाला, कोई तंबू फैला- जिसमें रह-रह नाच दिखाते, भालू-बंदर क्या?
शलभ जी के अनूठे सृजन में कथाओं जैसा आनन्द भी है- मेढक बोला- ‘टर्रम-टूँ, जरा इधर तो आना तू, खाज़ लगी मेरे सिर में, जरा देखना कितनी जूँ!’ कहा मेढकी ने इतरा- ‘चश्मा जाने कहाँ धरा, बिन चश्मे के क्या देखूँ , कहाँ कहाँ है कितनी जूँ!
 बहुत सी उनकी रचनाएँ बतकही शैली में है। भोला संवाद और चुटीली जिज्ञासाएँ। 
सूरज पर उनके बालगीत की श्रेष्ठता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि इसे एक छद्म कविराज ने चुराकर अपने नाम से एक प्रतिष्ठित पत्रिका में छपवा लिया था। शलभ जी ने उन कविराज को ऐसा नोटिस दिया कि फिर किसी अन्य कवि को उन्होंने वैसा सौभाग्य न दिया। बहरहाल आप उस बालगीत से रूबरू होइए -सूरज जी, तुम इतनी जल्दी क्यों आ जाते हो! लगता तुमको नींद न आती और न कोई काम तुम्हें, ज़रा नहीं भाता क्या मेरा, बिस्तर पर आराम तुम्हें। खुद तो जल्दी उठते ही हो, मुझे उठाते हो!
कब सोते हो, कब उठते हो, कहाँ नहाते-धोते हो, तुम तैयार बताओ हमको, कैसे झटपट होते हो। लाते नहीं टिफिन, क्या खाना खाकर आते हो?
 कृष्ण शलभ जी ने बहुत पहले चिड़िया पर एक संकलन सम्पादित किया था। यह एक छोटी सी पुस्तक थी। पर थी गागर में सागर सी। चिड़िया पर बहुत ही सुंदर कविताएँ उसमे थीं। 
शलभ जी का भी एक बाल गीत चिड़िया पर है, जो मुझे विशेष प्रिय है। इसलिए भी कि चिड़िया से बातें करते करते वे उसे सलाह भी देते हैं और कविता के मर्म तक जा पहुँचते हैं -
जहाँ कहूँ मैं बोल बता दे, क्या जाएगी, ओ री चिड़िया। उड़ करके क्या चन्दा के घर
हो आएगी, ओ री चिड़िया।
चन्दा मामा के घर जाना, वहाँ पूछ कर इतना आना। आ करके सच-सच बतलाना, कब होगा धरती पर आना।
कब जाएगी, बोल लौट कर, कब आएगी, ओ री चिड़िया।
उड़ करके क्या चन्दा के घर, हो आएगी, ओ री चिड़िया।
शलभ जी सूरज से भी किरणों का बटुआ लाने की फरमाइश करने से नहीं चूकते-
पास देख सूरज के जाना, जा कर कुछ थोड़ा सुस्ताना, दुबकी रहती धूप रात-भर, कहाँ? पूछना, मत घबराना। सूरज से किरणों का बटुआ, कब लाएगी, ओ री चिड़िया।
उड़ करके क्या चन्दा के घर हो आएगी, ओ री चिड़िया।
और कविता का अंत तो जैसे बड़ों से भी सवाल करता प्रतीत होता है। टेक्नलॉजी के इस युग में भले ही हम अंतरिक्ष के कोनों को खंगालने में जुटे हैं। हर हाथ में मोबाइल और टेब हो और हर आँख में आकाश को छूने की ललक लेकिन अपनी धरती से भी जुड़े रहने की दमक और उसकी सोंधी गन्ध की महक तो उनकी रचनाओं में गाहे बगाहे आ ही जाती है, जिसमे सन्देश और सवाल दोनों ही अपनी चिरपरिचित शैली में अभिव्यक्त होते हैं- चुन-चुन-चुन-चुन गाते गाना। पास बादलों के हो आना, हाँ, इतना पानी ले आना। उग जाए खेतों में दाना। उगा न दाना, बोल बता फिर क्या खाएगी, ओ री चिड़िया?
उड़ करके क्या चन्दा के घर हो आएगी, ओ री चिड़िया
    ऐसी न जाने कितनी रचनाएँ हैं जो याद आती है। जो याद आएँगी और याद आते रहेंगे शलभ जी। 
शलभ जी अक्सर घर बदलते थे। उनका पता बदल जाता था। ...इस बार तो उन्होंने दुनिया ही बदल दी। उनका नया पता किसी को नहीं पता। 
काश ! ऐसी कोई चिड़िया होती जो उनका पता खोज लाती। 
काश ! ऐसा कोई वाहक होता जो उन तक सन्देश पहुंचाता। 
शब्दों के जादूगर शलभ जी, आपके अचानक चले जाने से बहुत दुःखी हैं सब। आपसे नाराज भी हैं। 
31 अक्टूबर 2017 को आप तो घर को लौट रहे थे। आ ही गए थे घर तक। घर के मोड़ तक।  कोई अबुद्धि आपको बाइक से टक्कर मार गया। 
उसे नहीं पता कि क्या छिन गया। 
जिन्हें पता है, वे बहुत बेबस और बेकल हैं। 
भीगे नयनों में बस...आपका मुस्कुराता हुआ चेहरा तैर रहा है, जो कुछ बोलता नहीं। ....

फिर कानों में ये आवाज कहाँ से गूँज रही है ....पकड़ सको तो पकड़ो मेरे लगे हवा के पर।
(यह आलेख 'बाल वाटिका' मासिक के दिसम्बर,2017 अंक के पृष्ठ 8 पर प्रकाशित हुआ था।)


शनिवार, 12 जून 2021

आलेख : 'आधुनिक सोच के लेखक : पराग के संपादक : आनंद प्रकाश जैन'- डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'

आधुनिक सोच के लेखक : 'पराग' मासिक के संपादक : आनंदप्रकाश जैन

आलेख : डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'

    बात नवें दशक की है, जब मैं बालसाहित्य में नया-नया आया था। कहाँ-कौन छपा, कौन ज्यादा छपा, इसकी बड़ी जिज्ञासा रहती थी। बालसाहित्य में उन दिनों दो आनंद थे। एक बिहार के रामवचनसिंह 'आनंद' और दूसरे बंबई के आनंदप्रकाश जैन दोनों खूब छपते थे। उनकी रचनाएँ बेजोड़ होती थीं। मैं उनका उत्सुक पाठक और प्रशंसक था। जहाँ रामवचन सिंह 'आनंद' की कविताएँ 'सीके से बर्फी चुराई किसने/बोलो जी बोलो?' या 'दादा जी का खर्राटा' मेरे मन पर अपना जादुई असर कर गई थीं, वहीं आनंदप्रकाश जैन को 1989 में पहली बार ही पढ़ कर मैं उनका मुरीद हो गया। था। यद्यपि जैन साहब की ख्याति एक कथाकार के रूप में है लेकिन मैं जब भी उन्हें याद करता हूँ तो सबसे पहले उनका एक मजेदार शिशुगीत 'इलाज' मेरे में चहक उठता है। बड़े ही नटखट और अटपटे चटपटे अंदाज में लिखे इस शिशुगीत के क्या कहने शायद ऐसी बेजोड़ रचनाएँ लिखी नहीं जातीं, लिख जाती हैं और इसीलिए मन को भा जाती हैं। उस पर छा जाती हैं पराग के अप्रैल 1989 अंक में पृष्ठ 38 पर प्रकाशित आनंदजी के इस मजेदार शिशुगीत का, आप भी आनंद लीजिए रामू को जुकाम ने जकड़ा / फौरन खटिया पकड़ी। नाक निरख कर डाक्टर बोला फीस लगेगी तगड़ी बैग खोलकर डॉक्टर ने फिर चाकू एक निकाला। नाक काटनी होगी बेटा/ यह क्या झंझट पाला ? खटिया से छलांग लगाई खाक उड़ी ना धूल पंख लगाकर रामू पहुँचा पल भर में स्कूल।

    बच्चों की आम बहानेबाजी वाले इस गीत को पढ़कर सहज ही शरारती मुस्कान तैर उठती है यह शिशुगीत मुझे इतना पसंद है कि बाद में मैंने इसका प्रासंगिक उपयोग अपने उपन्यास 'टेढ़ा पुल' में भी किया।

    पराग के उसी अंक में जैन साहब की एक कहानी भी छपी थी लीडर जी छात्र और छात्रावास जीवन में किशोरों की परिपक्व होती मानसिकता और उसके बल पर परिस्थितिजन्य समस्याओं के स्वतः समाधान की सूझबूझ पर यह अनोखी-चोखी हास्य कहानी है जिसे एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद पाठक मंत्रमुग्ध होकर पढ़ता चला जाता। है कहानी में महानगरीय परिवेश है और आधुनिक जीवन शैली का सहज चित्रण है। पुरातन से अधुनातन सोच लेने की उनकी कला भी देखते ही बनती है।

    पारंपरिक कहानियों के समय में इस तरह की आधुनिक कहानियों के सृजन में जैन साहब की तत्परता सजगता को देखकर मन उनके प्रति आदर से भर उठता है।

    ....तो पराग के एक ही अंक में उनकी दो-दो बेजोड़-मनभावन रचनाएँ देख मैं उनका भक्त हो गया। पराग में लेखकों के पते भी छपते थे। आगे चलकर मैंने उनको पत्र लिखा और अपनी लेखकीय रुचि और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही अपनी रचनाओं के बारे में भी उन्हें बताया। एक तरह से अपनी लेखकीय प्रगति की सूचना देते हुए उनके आशीर्वाद की कामना की। मेरा अहोभाग्य कि लौटती डाक से उनका एक अत्यात्मीय पत्र मुझे मिला। पत्र क्या धरोहर कहूँ प्रशस्तिपत्र भी कहा जा सकता है। मुझे स्मरण है कि उन दिनों उनका वह स्नेहिल पत्र, मैं मित्रों को दिखाते न थकता था। एक-एक शब्द में कितना रस भरा था उन्होंने कि मेरे जैसा कोई भी नया लेखक भला उसके जादुई प्रभाव से कैसे बच सकता था? लगा था कि उनसे पुराना परिचय है और वे मेरे सहज संरक्षक हैं।

    उन्होंने लिखा कि तुम शायद नहीं जानते कि बड़ों को जब पता चलता है कि उनके स्नेहभाजन घुटनुओं चलना छोड़कर दौड़ने लगे हैं तो उन्हें कितनी प्रसन्नता होती है।

    पत्र इलेक्ट्रानिक टाइपराइटर से लिखा गया था, इसलिए मेरे पास उपलब्ध साहित्यकारों के ढेर सारे पत्रों में वह एकदम अलग था। बाद में उनकी पत्नी चंद्रकांता जैन के एक आलेख से जानकारी हुई कि वे रचनाएँ भी टाइपराइटर से ही लिखते थे दृष्टव्य सन् 1950 से तो टाइपराइटर ही इनकी कलम बन गया। बजाय एक हाथ के दोनों हाथों से लिखा जाने लगा। अपने समय के ये सबसे तेज लेखकों में गिने जाते थे। एक दीपावली पर मुझे अच्छी तरह याद है तेरह पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांको में इनकी कहानियाँ छपी थीं (बाल साहित्य समीक्षा, अगस्त 1990, आनंदप्रकाश जैन विशेषांक, पृष्ठ 13)

        आज सोचिए तो लगता है कि वे वास्तव में उस जमाने में आधुनिक ढंग से सृजन में आधुनिक रंग भरनेवाले लेखक थे।

परिवार के साथ 

    आनंदजी से मैं जुड़ा तो जुड़ता ही चला गया। उन दिनों बालहंस में एक स्तंभ था- बालसाहित्य के गौरव। इसके नवें क्रम में आनंदजी के बारे में विस्तृत परिचयात्मक आलेख छपा। यद्यपि इसे चंद्रपालसिंह यादव 'मयंक' से भेंटवार्ता के रूप में प्रकाशित किया गया था लेकिन था यह विवरणात्मक आलेख खैर... इस आलेख को पढ़कर उनके बारे में विस्तार से जानने को मिला। यह जाना कि वे कथा साहित्य के महारथी हैं और उनके ढेरों बालउपन्यास छप चुके हैं और वह भी केवल उनके नाम से ही नहीं बल्कि छद्मनाम चंदर से भी। यह जाना कि वे मूलतः कवि थे। यह जाना कि वे पराग के संपादक रह चुके हैं और अपने संपादन काल में उन्होंने लेखकों का पारिश्रमिक लगभग दस गुना बढ़वा दिया था। वे वास्तविक संपादक थे। रचना को वापस करते समय प्रायः उनकी टिप्पणियाँ, रचनाओं से भी लंबी हो जाती थीं।

        दो माह बाद ही डॉ. राष्ट्रबंधु जी ने बालसाहित्य समीक्षा पत्रिका के अगस्त और सितंबर 1990 अर्थात दो अंक आनंदप्रकाश जैन विशेषांक के रूप में प्रकाशित किए। इनसे उनके बारे में और अधिक जानने  का अवसर मिला।

    नि:संदेह लेखक के रूप में तो वे प्रणम्य हैं ही, संपादक के रूप में भी उनकी स्तुत्य भूमिका है। पराग के बहाने उन्होंने किशोर साहित्य को खूब बढ़ावा दिया और वे शिशुगीतों की तो एक अविरल परंपरा के ही संवाहक हैं। उन्होंने शिशुगीत रचनाकारों के समक्ष सृजन के मानदंड प्रस्तुत किए। सच बात तो यह है कि उनके एक आलेख 'अटपटे शिशुगीतों का चटपटा संसार, से मैंने भी बहुत कुछ सीखा। खासकर जो उदाहरण इस आलेख में उन्होंने प्रस्तुत किए थे, उनमें से कई आज भी मेरी जबान पर चढ़े हैं और बहुधा उनकी चर्चा कर ही बैठता हूँ। छोटा सा यह आलेख जैसे शिशुगीतों का घोषणापत्र है जिसे पढ़ते हुए शिशुगीतों की लंबी राह की अंतरंग यात्रा का सुख मिलता है।

    इस आलेख के प्रारंभ में ही वे बताते हैं कि सबसे पहले शिशुगीत का अंकन फ्रांसीसी भाषा में 13वीं शताब्दी में हुआ। गीत था थर्टी डेज हैथ सेप्टेंबर... फिर इस यात्रा की चर्चा करते हुए वे सैद्धांतिक विवेचन और अपने अनुभवों को भी प्रस्तुत करते हैं। शिशुगीतों की अंतर्प्रकृति का जितना सहज और स्पष्ट चित्रण कम शब्दों में उन्होंने किया है, कदाचित् ही अन्यत्र दृष्टिगत हो। जैन साहब के शब्दों में शिशुगीतों की भाषा कोई भी हो, उनकी पहली शर्त यही है कि उनमें कुछ ऐसा अटपटापन हो, जो बरबस ही गुदगुदाए, खासतौर पर बच्चों के सरलबोध को और उन बड़ों को भी जिनकी प्रवृत्ति बच्चों के समान हो। फिर दूसरी शर्त ठहरती है शिशुगीत के चटपटे होने की यह कोई तुकबंदी का मसला नहीं है। न ही सिद्धहस्त और धुरंधर कवियों के काव्य बोध से इसका कोई सरोकार है। यह है हम आप जैसे सामान्य लिखने बोलने वालों की आंतरिक विनोदप्रियता की सहज अभिव्यक्ति, जो अचानक बच्चों को मुदित करने के लिए फूट पड़ती है। इस प्रकार के कवियों को हम अल्हड़ कवि कह सकते हैं।' (शंभूप्रसाद श्रीवास्तव: व्यक्तित्व कृतित्व, पृष्ठ 49 )

  


 
आनंद प्रकाश जैन जी  1960 से 1972 तक पराग के संपादक रहे। इस अवधि में उन्होंने पूरे दो पृष्ठों में शिशुगीत प्रकाशित करने की परंपरा विकसित की। उन्होंने आत्मकथ्य में स्वीकार किया है कि केवल बड़े लेखकों के प्रभाव में आए बगैर उन्होंने सहज भाव से नई प्रतिभाओं का सम्यक् उपयोग किया। फलस्वरूप श्रेष्ठ शिशुगीत स्वाभाविक रूप से प्राप्त होते गए।

    उन्होंने किशोर साहित्य को लेकर खुलेपन की हद तक प्रयोग किए और शायद इसी कारण पराग को त्यागपत्र भी देना पड़ा। यह अति मुखरता का परिणाम था ।

    आनंदजी के पास कारयित्री और भावयित्री दोनों ही प्रतिभाएँ थीं। जहाँ अपने आलेखों के माध्यम से वे मानकों की वकालत करते रहे, वहीं अपने रचनाकर्म के द्वारा उन्होंने मानकों को प्रस्तुत भी किया । बालसाहित्य के माध्यम से वे भावनात्मक पोषण के हिमायती थे। वे आडंबर के प्रबल विरोधी थे। वे आरोपित बालसाहित्य की बजाय, स्वाभाविक बालसाहित्य की बात करते थे। एक आलेख में उन्होंने खिचड़ी बालसाहित्य को लेकर चिंता व्यक्त की और केवल लिखने के • लिए लिखे गए बालसाहित्य के प्रकाशन पर प्रकाशकों को आड़े हाथों लेते हुए कहा था प्रकाशक को लेखक नहीं, लिक्खाड़ चाहिए।' उनका कहना था कि बच्चों को आगे बढ़ो जैसे अमूर्त बोध न दें। बल्कि ..' किस तरह वह आगे बढ़े, क्या करे, कौन सी तरकीबें आजमाए कि वह आज की जानलेवा होड़ में, सफलताओं की प्राप्ति के लिए अगली पंक्तियों में खड़ा हो सके, इसका व्यावहारिक ज्ञान उसे चाहिए। कोरी और अव्यावहारिक बातों के संदर्भ में उन्होंने साफ किया है कि देश प्रेम जैसी भावनाएँ भरना बहुत बड़ा अनुष्ठान है। उससे पहले व्यक्ति प्रेम, पड़ोसी प्रेम और साहित्य प्रेम जैसी भावनाएँ तो हम बच्चों में भरने की सोचें । जब हम अपने पड़ोसी के ऊपर जान नहीं दे सकते तो देश के लिए क्या जान देंगे।' (भारतीय बालसाहित्य के विविध आयाम, पृष्ठ 31)

    बालसाहित्य के मानदंड शीर्षक आलेख में जैन साहब ने लाख टके की बात, और वह भी आज से पचास साल पहले कही है। खासकर बड़ों के साहित्य की पठनीयता के समक्ष आसन्न संकट और साहित्यिक पलायन को लेकर चिंता व्यक्त करते हुए सहज समाधान भी परोसा है- 'सबसे बड़ी बात वर्तमान भारतीय बालसाहित्य को आधुनिक रूप देना इसलिए भी आवश्यक है कि बड़े होकर इस बालसाहित्य के पाठकों को उस बौद्धिक साहित्य का अनुशीलन करने का अवसर अधिक सुविधा के साथ मिल सके, जिसे आज के बड़े कहलानेवाले बच्चे समझने में कठिनाई अनुभव करते हैं और सस्ते तथा अवांछनीय साहित्य की ओर दौड़ते हैं।' (मधुमती, जुलाई-अगस्त, 1967, भारतीय बाल साहित्य विवेचन विशेषांक, पृष्ठ 375)

    आनंदप्रकाश जैन जी बालसाहित्य के सजग लेखक और संपादक थे। उनके विचार समसामयिक हैं। सार्वकालिक हैं। कविता और कहानी ही नहीं, उन्होंने बाल नाटक भी लिखे। आधुनिकता का पुट वहाँ भी बरकरार है। उनका एक नाटक है 'परियों के देश में, जिसके नाम पर न जाइए। कल्पनाशीलता के बल पर यथार्थ का चित्रण ही तो उनकी खूबी है जिसे वे बखूबी निभाते हैं, चाचा रंगीराम और भतीजे विपिन के बहाने बच्चों को जीवन के सच से जोड़ने का उपक्रम जिस मजेदार ढंग से इस नाटक में किया गया है। उसकी सराहना करना कठिन है। नाटक में काव्य पंक्तियों के प्रयोग से वैशिष्ट्य आ गया है। फूड परी और अमरूद को रसगुल्ला समझने की कल्पना अपूर्व है। ( साहित्य अमृत, नवंबर 2012, पृष्ठ 125)

    रोचकता ही बालसाहित्य का प्राण तत्व है और इस दृष्टि से जैन साहब बाल साहित्य में प्राण फूँकते हैं। एक मजेदार बात, शायद मुझे ही लगता हो कि वे अपनी अधिकांश कहानियों में गाहे-बगाहे कोई न कोई खाने की मजेदार चीज जरूर ले आते हैं। जैसे कहने को इतिहास कथा 'आगे बढ़ो' में राजस्थान के एक राजा के बेटों हिम्मत सिंह और बप्पालाल की कहानी किस्सागोई शैली में है और काल्पनिक पात्रों बीरवल और चाणक्य को भी उसमें शामिल कर लिया गया है लेकिन आधुनिक परिवेश के जिज्ञासु बच्चों की हुंकारियों के साथ कहानी जिस नवेले अंदाज में बढ़ती जाती है और वह भी अंतर्कथाओं की उपमाओं के साथ-साथ कि कहानी में उपन्यास जैसा आनंद आने लगता है। इस

    कहानी के प्रारंभिक चुटीले संवाद देखिए : चाणक्य ने एक गरम पुआ मुँह में डालते हुए हमसे कहा- 'आगे

    'किधर आगे बढ़ें?' हमने सवाल किया। 'मालपुआ हम भी खाना चाहते थे।'

    'हाँ, ' चाणक्य ने भी अपनी चुटिया हिलाई 'हमने पाँच गरमागरम मालपुए आपके लिए रख छोड़े हैं। अगर आपने उस कहानी से हमें आगे बढ़ो का अर्थ समझा दिया तो पाँचो आपके।'

    'मगर यह याद रखिए कि... कहानी से यह स्पष्ट संकेत मिलना चाहिए कि हम किधर को आगे बढ़ें, जिससे..'

    'हमारी पढ़ाई लिखाई की समस्या हल हो' चाणक्य ने कहा। 'औल हमें लोज-लोज मालपुए खाने को मिलें। तोतूराम ने कहा। (बालहंस, जून द्वितीय, 1990, पृष्ठ 10)

    तो वहाँ अमरूद की बात थी, यहाँ मालपुए की और ऊपर जिस लीडर कहानी की बात मैंने की थी, उसमें अमरूद के रस का जिक्र हुआ है।


    जो भी..., आनंद जी का बालसाहित्य आनंद रस से भरपूर है। कहानी में कहानी गढ़ने में माहिर आनंदजी की रससिद्ध रचनाएँ आने वाले समय में भी अपनी श्रेष्ठता के कारण महत्वपूर्ण रहेंगी। उनकी सम्पूर्ण बाल कहानियाँ प्रकाश मनु जी के संपादन में दिल्ली पुस्तक सदन से प्रकाशित हुईं हैं।  

    डॉ. भैरूंलाल गर्ग के संपादन में उन पर केन्द्रित 'बाल वाटिका' का  विशेषांक बहुचर्चित  हुआ है ।

  बालसाहित्य में नये संदर्भों को जोड़ने और बालसाहित्य धारा को मोड़ने के लिए उन्हें सदैव याद किया जाएगा।     आधुनिक सोच के महारथी और पराग जैसी पत्रिका स्थापित करनेवाले आनंद प्रकाश जैन को मेरा सादर  नमन (यह आलेख  'बाल वाटिका' मासिक के जुलाई 2016अंक में पृष्ठ  38 पर प्रकाशित  हुआ था)

गुरुवार, 3 जून 2021

आलेख : ‘बाल साहित्य की अमिट हस्ताक्षर शकुंतला सिरोठिया' -डा. नागेश पांडेय ’संजय'

बाल साहित्य की अमिट हस्ताक्षर शकुंतला सिरोठिया
आलेख : डा. नागेश  पांडेय ’संजय'

    ठंड बड़ी अकड़ी है/बर्फ से जकड़ी है। छम्मक छबीली है/ बेहद नखरीली है। कौड़ी बिक जाएगी, गर्मी तो आने दो। बच्चों को खिलाती है/ बूढ़ों को सताती है। अमीरों को हंसाती तो गरीबों को रुलाती है। पीछे पछताएगी/ धूप गरमाने दो। रात खिलखिलाती है/ओस से नहाती है। सुबह मुस्कुराती है/धूप को चिढ़ाती है। ऐंठ निकल जाएगी, फागुन तो आने दो। (राष्ट्रधर्म, फरवरी,1997,पृ. 52)

    जी,हां। यह शकुंतला सिरोठिया जी की वह कविता है जो मुझे कितना प्रिय है, यह कहना मेरे लिए कठिन है। धाराप्रवाह पढ़ते-पढ़ते कविता एकदम जो उठान देती है कि बांछे खिल जाएं। मन खिलखिला उठे। कौड़ी बिक जाएगी, पीछे पछताएगी या ऐंठ निकल जाएगी जैसी पंक्तियों को बोलते या उन तुकान्तों पर बल देते हुए लगता है कि हम महारथी हैं और नाच नचाने वाली नखरीली ठंड  हमारे आगे खड़ी कांप रही हैं।

    यह अनोखी कविता 1996 में अपने हाथों से  लिखकर सिरोठिया जी ने मेरे विशेष आग्रह पर मुझे भेजी थी। मैं उन दिनों राष्ट्रधर्म मासिक पत्रिका में नियमित रूप से 'बाल साहित्य मनीषी स्तंभ' लिख रहा था। इसमें बाल साहित्य के अग्रगण्य रचनाधर्मियों पर मेरे आलेख के साथ-साथ उनकी एक उत्कृष्ट रचना भी  प्रकाशित की जाती थी। सिरोठिया जी की यह कविता तो कुछ ऐसे मेरे मन चढ़ी कि आज भी चाहे सर्दी की बात चले और चाहे सिरोठिया जी की, यह कविता किसी हंसिनी सी मेरे मन सरोवर में तैरने लगती है। 


    शकुन्तला  जी से मेरा परिचय 1988 में हुआ। कानपुर से बाल दर्शन  पत्रिका छपती थी। उसकी प्रधान संपादक मानवती आर्या जी थीं। सिरोठिया जी उसमें बालमंच की संपादक थीं। मैंने नया-नया लिखना शुरू किया था। इलाहाबाद के पते पर उन्हें एक कविता भेजी-राजू जागो। जल्दी ही उनका स्वीकृति पत्र आ गया। किसी पत्रिका में प्रकाशन के लिए स्वीकृत होने वाली मेरी यह पहली कविता थी। भले ही इसका प्रकाशन बाद में हुआ और पहली बार मेरी कविता बाल साहित्य समीक्षा में प्रकाशित हुई। फिलहाल वह पोस्टकार्ड आज भी मेरे पास सुरक्षित है। सच कहूं, तो किसी सम्मान पत्र से कम नहीं।

   15 दिसम्बर 2015 को जन्मीं  सिरोठिया जी बाल साहित्य की अनुपम साधिका थीं। गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं में उन्होंने लिखा और अनूठा लिखा। उनकी लोरियां अद्भुत हैं। निरंकारदेव सेवक ने लिखा भी है कि जैसी लोरियां शकुंतला जी ने लिखीं वैसी किसी ने नहीं लिखीं। वास्तव में उनकी लोरियों की अजब ही छटा है। वे गढ़ी हुई नहीं लगतीं। बाल साहित्य के मुकुट में अमोल रत्नों की तरह जड़ी हुई लगती हैं। जिसने भी कहा, उन्हें ‘लोरी साम्राज्ञी’ ठीक ही कहा है। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूं कि उनके मुख से न जाने कितनी उनकी लोरियां सुनी हैं। लखनऊ, कानपुर, इंदौर, इलाहाबाद आदि जाने कितने स्थानों पर उनके साथ आयोजनों में सम्मिलित हुआ हूं। उज्जैन  तो मैं कभी भूल नहीं सकता जब एक ही कार में उनके साथ महाकालेश्वर  मंदिर गया और उनका हाथ पकड़कर सीढ़ियां चढ़ी-उतरी थीं। 

    मैं उनके घर भी गया हूं। भोजन किया है। ...और उनके घर पर ही 1995 में अपनी पुस्तक ’नेहा ने माफी मांगी‘ के लिए शकुंतला सिरोठिया बाल साहित्य पुरस्कार(गद्य) प्राप्त किया है। जी, हां, यह पुरस्कार प्रयाग की संस्था अभिषेक श्री के द्वारा प्रतिवर्ष दिया जाता था और उनके जीवन के पश्चात नहीं चल सका। उन दिनों बाल साहित्य में इने-गिने पुरस्कार थे और इस पुरस्कार की घोषणा की प्रतीक्षा बाल साहित्य जगत में विशेष उत्सुकता के साथ की  जाती थी। इसके नेपथ्य में श्रेष्ठ बाल साहित्य को प्रोत्साहित करने का भाव था। वरेण्य साधकों के हाथों यह पुरस्कार दिया जाता था। पहले ही कार्यक्रम की अध्यक्षता छायावाद की आधार स्तंभ महादेवी वर्मा ने की थी। मुझे यह पुरस्कार कवि केसरी नाथ त्रिपाठी के हाथों मिलना था। संयोग से उसी तिथि में मेरी परीक्षा पड़ गई। मैं जा न सका तो उन्होंने बाद में अपने घर पर कार्यक्रम रखा। इस पुरस्कार को लेकर एक रोचक वाकया मुझे याद आ रहा है। इसकी निर्णायक समिति में एक बिहार के रामवचन सिंह आनंद भी थे। वे मुझसे बहुत स्नेह करते थे। इस पुरस्कार की घोषणा से पूर्व ही उन्होंने मुझे पत्र लिख दिया-नागेश, निकट भविष्य में तुम्हें एक पुरस्कार मिलने वाला है। मैं उन दिनों नया रंगरूट था। बीस साल की उमर थी।  बाल साहित्य का कोई पुरस्कार तो मिला नहीं था और केवल शकुंतला सिरोठिया पुरस्कार के लिए ही प्रविष्टि भेज रखी थी, इसलिए तुरंत ही अनुमान लगा लिया कि हो न हो, यह शकुंतला सिरोठिया पुरस्कार ही होगा। एक माह तक कोई सूचना न मिली तो इस बारे में पत्र लिखकर सीधे सिरोठिया जी से ही पूछ बैठा। बस, फिर क्या था। बेचारे रामवचन सिंह जी। उनको कोपभजन बनना पड़ा। दोबारा निर्णायक भी नहीं बनाए गए। मुझे भी सिरोठिया जी ने लिखा कि आपको पुरस्कार मिलेगा या नहीं, इसका निर्णय तो दूसरे निर्णायक से अंक प्राप्त होने के बाद ही स्पष्ट हो सकेगा। आज भी जब अपनी वह बचकानी हरकत याद आती है तो हंसता भी हूं और कहीं न कहीं मन में खीझ भी उठती है कि भला ऐसी भी क्या व्यग्रता?

    बहरहाल इससे यह तो सिद्ध होता ही है कि उनके संयोजन में पुरस्कार की व्यवस्था कितनी पारदर्शी  और चुस्त-दुरुस्त थी। 

    काश ! कि उनके जीवनकाल के बाद भी यह पुरस्कार चलता रहता। बाल साहित्य जगत या कम से कम उनके परिवार वालों को तो इस दिशा में सोचना ही चाहिए।

     सिरोठिया जी बाल साहित्य की सौभाग्यशाली लेखिका हैं जिनका समग्र बाल साहित्य हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी से प्रकाशित हो चुका है।

    सिरोठिया जी अध्यापिका थीं। राजकीय महिला शिशु  प्रशिक्षण केंद्र, प्रयाग से उन्होंने अवकाश  ग्रहण किया था। एक तरह से शिशुओं और माताओं के हृदयों की गहराइयों का गहन अध्ययन उन्होंने किया था। सूर का संदर्भ लेकर यह भी कह सकता हूं कि वे शिशु और मातृ मन का कोना-कोना झांक ही नहीं, आंक भी आईं थीं। यही कारण है कि माताओं के लिए जहां उनकी लोरियां अद्भुत हैं, वहीं शिशुओं के लिए उनके गीत भी नायाब हैं। सो जा मेरे लालना, चंदा प्यारे आ जाओ, तारों का बाजार लगा, निंदिया प्यारी आ जा तू, सो जा राजदुलारी तथा सो जा मेरे लालना जैसी लोरियों की तो चर्चा खूब ही हुई है। मैं उनकी एक से बढ़कर एक लोरियों में अपने अनूठे सानुप्रासिक शब्द संयोजन, भाव-भंगिमा और गजब की ध्वन्यात्मकता के चलते इस लोरी की तो प्रशंसा करते नहीं थकता जिसे अपने  निंदियारे बच्चे को कंधे पर लगाए जब आप गुनगुनाएंगे तो मेरा वादा है कि कहीं उसके आनंद की स्निग्धता से आप स्वयं भी झपकी न लेने लग जाएं -निंदिया थम-थम-थम। चंदा चम-चम-चम! तारे दम-दम-दम! निंदिया थम-थम-थम। पानी झम-झम-झम! गेंदा गम-गम-गम! निंदिया थम-थम-थम! ढोलक ढम-ढम-ढम! पायल छम-छम-छम! निंदिया थम-थम-थम। 

    आइए, उनके कुछ अटपटे-चटपटे  शिशुगीतों की बानगी देखें। ’गुड़िया की परेशानी‘ शिशुगीत में हास की उत्फुल्ल छटाएं हैं। यों चूहे से परेशान गुड़िया की व्यथा बड़ी मार्मिक है-रोती-रोती गुड़िया आई/किससे अपनी बात कहूं। चूं-चूं ने आफत कर डाली/ऐसे घर में कहां रहूं। कुतरी चुनरी गोटे वाली/लाल रंग की प्यारी-प्यारी। डाल नहीं घूंघट पाऊंगी/दूल्हे संग कैसे जाऊंगी। मर जाऊंगी लाज की मारी/ कैसे अब ससुराल रहूं।

    ऐसे ही ढुम्मुक-ढुम शिशुगीत की ध्वन्यात्मकता झूमने को मजबूर करती है-मंटू-बंटू दोनों भाई/दोनों में हो गई लड़ाई। गिर गए दोनों ढुम्मुक-ढुम। ढुम्मुक-ढुम भाई ढुम्मुक-ढुम/ मैं हूं राजा, नौकर तुम। 

    खास बात कि पैनी नजर के चलते उनके शिशुगीतों में हास की सहज ही सृष्टि संभव हो जाती है। टिड्डे के हरे धनिया पर बैठने की कल्पना और उसे देखकर उत्पन्न भय का यह प्रसंग भी मजेदार है-धनिया पर बैठा था हरा-हरा टिड्डा/ लंबू बेहोश  होकर गिर गए थे।

     उनके शिशुगीतों और बाल कविताओं में मार्मिकता और संवेदना भी है। नयापन तो है ही। बच्चे की प्रतीक्षा में मां की अन्यमनस्कता और बेचैनी पर भी उनकी यह रचना उद्धरणीय है, जिसमें बकरी के बहाने वे अपनी बात कहने में सफल हुई हैं-मेरी मुनिया, अरे अरे। क्यों करती है में में में? तेरा बच्चा कहां गया? खोज रही है उसको क्या? पढ़ने कहीं गया होगा/टीचर ने रोका होगा।

    उनकी कविताओं में बालसुलभ प्रवृत्तियां सहज दृष्टिगत होती हैं। खीर गिर जाने से बच्ची के भूखे रहने की चिंता का वर्णन भी कुछ ऐसा ही है- गीता मूढ़े पर बैठी थी/चम्मच से खाती थी खीर। मकड़ी एक पीठ पर कूदी/गिर गयी चम्मच, बिखरी खीर। अब क्या गीता खाएगी/क्या भूखी रह जाएगी?

    शकुंतला सिरोठिया जी ने बच्चों के लिए उपन्यास भी लिखे हैं और नाटक भी। गंधराज और जंगली जानवरों के बीच अकेली लड़की दानों ही बालिकाप्रधान हैं और एक तरह से बालिका साहित्य की कमी की दिशा  में बड़ी भरपाई करते हैं। बालिकाओं में अदम्य साहस जगाने और कुछ नया करने की प्रेरणा से लबरेज उनके ये उपन्यास भाषा की दृष्टि से समृद्ध हैं। कोई कठिनाई नहीं, बच्चे पढ़ते-पढ़ते हृदयंगम करते चलते हैं। 

    उनके कथा साहित्य में जाति, धर्म, क्षेत्र के पूवाग्रहों से बहुत ऊपर उठकर केवल मानवीय संवेदनाओं की झांकी है। जिसे निहारते हुए मन चहक उठता है। अंदाज भी निराला होता है जिससे कथ्य को स्वाभाविक गति मिलती है। उनकी कहानी ’अपने ही घर में‘ का संदेश उन बड़ों के लिए भी ग्रहणीय है जो मजहबी दायरों में इंसानियत की बलि चढ़ा देते हैं लेकिन यह कहानी तो ऐसे उदारमना इंसानों की अनूठी आत्मीयता और विश्वास को बयां करती है जिस पर बलिहारी होने को मन करता है। राकेश और नईम ही जिगरी दोस्त नहीं हैं, बल्कि उनके परिवार में भी वही विश्वास  कायम है। हिंदू-मुस्लिम के झगड़े के दौरान राकेश को नईम के घरवाले पूरी पनाह देते हैं और यही नहीं, राकेश के पिता भी उससे फोन पर वहीं रहने की सलाह देते हुए कहते हैं कि समझ ले तू अपने पिता के ही घर में है। तू वहां ज्यादा सुरक्षित है। 

    सिरोठिया जी की पद्य कथाएं भी अप्रतिम हैं। दुलहिन चुहिया दूल्हा बिल्ला, राणा रणजीत सिंह, शेर और बकरी, भोला और शेरा, तीन भालू तथा बिल्ली रानी उनकी बड़ी ही मजेदार पद्य कथाएं हैं। इनमें मनोरंजन की प्रचुरता के साथ सहज संदेश भी सन्निहित है। उनकी रचना ’फूल का पहरेदार‘ तो महाराष्ट्र के कक्षा 6 के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती रही।

    उन्होंने नाट्यरूपक भी लिखे। चतुर ओडीसस और स्वतंत्रता के पथ पर किशोरों की दृष्टि से बेहतर हैं। कवि हृदया होने के कारण नाटकों में आए गीत भी चुस्त-दुरुस्त हैं लेकिन वर्षापति का दरबार तथा शिशुनगर नाटकों के संवाद प्रायः बहुत लंबे हो गए हैं। मंचीयता की दृष्टि से बाल पात्रों को इन्हें याद करने में कठिनाई होगी। 

    सिरोठिया जी का एक काम और भी बहुत बड़ा है, जिसकी चर्चा यद्यपि कम हो सकी। शिशु चित्रकला नामक उनकी पुस्तक अपने ढंग की अद्वितीय कृति है।

    सिरोठिया जी ने 1928 में लेखन आरंभ किया था। उनकी पहली रचना शिशु मासिक  में 1929 में शकुंतला शर्मा के नाम से प्रकाशित हुई थी। वे जीवन पर्यंत लिखती रहीं।      

    हिंदी में उनके हस्ताक्षर मुझे बहुत अच्छे लगते थे। वस्तुतः वे बाल साहित्य की अमिट हस्ताक्षर हैं। बाल साहित्य की बात चलेगी। बाल साहित्य में लोरियों की बात चलेगी। वे याद आएंगी और हमारा माथा उनके सम्मान में झुक-झुक  जाएगा।

    5 जून 2005 को सिरोठिया जी हमसे बिछुड़ गईं। उनके जन्म शताब्दी वर्ष पर डॉ. भैरूंलाल गर्ग  जी ने बाल वाटिका मासिक का बहुत ही सुंदर विशेषांक प्रकाशित  किया था।  उनकी पावन स्मृति को हमारा भी नमन और अशेष श्रद्धांजलि !

(यह आलेख बाल  वाटिका मासिक, दिसम्बर 2015 के विशेषांक में पृष्ठ  30 पर प्रकाशित हुआ था )



हिंदी, गुजराती और सिंधी के बालसाहित्यकार : डॉ. हूंदराज बलवाणी

 हिंदी, गुजराती और सिंधी के बालसाहित्यकार : डॉ. हूंदराज बलवाणी
टिप्पणी : डॉ. नागेश पांडेय 'संजय' 

     डॉक्टर हूंदराज बलवाणी जी हिंदी, गुजराती और सिन्धी बाल साहित्य  के सेतु पुरुष है;  उन्होंने कविता और कहानी : दोनों ही विधाओं में उच्च कोटि का बाल साहित्य लिखा और अनुवाद के माध्यम से भी उसे बच्चों तक पहुंचाया। बालसाहित्य के शोधकर्ता और पाठ्यपुस्तक अधिकारी के रूप में भी उनकी बड़ी भूमिका है।


     मेरा सौभाग्य है कि विगत 27 वर्षों से निरंतर उनके संपर्क में हूँ। 1994 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान  के निदेशक विनोद चंद्र पांडे द्वारा आयोजित सर्व भाषा बाल साहित्य समारोह में उनसे पहली बार भेंट हुई थी।..  और तब से निरंतर एक शुभचिंतक अग्रज की भांति उन्होंने मुझे अपना आशीर्वाद प्रदान किया है।

     कानपुर, दिल्ली, भीलवाड़ा आदि-इत्यादि अनेक स्थानों पर उनसे मिलना जुलना होता रहा। कानपुर में वे हम लोगों के लिए गुजराती मिठाई लेकर आए थे। अधिकार भाव से कहा था, 'नागेश, तुम सबसे छोटे हो इसलिए सबसे ज्यादा मिठाई खाओगे। मैं जलेबी जैसी उस गुजराती मिठाई का नाम तो भूल गया किंतु उसका स्वाद और दादा का अपनापन आज भी याद है। उन्होंने मेरी अनेक रचनाओं का हिंदी और गुजराती में अनुवाद किया।

      मैंने जब 2005 में 'किशोरों की श्रेष्ठ कहानियां' संकलन संपादित किया था तो उनकी 'मुकाबला' कहानी को आग्रहपूर्वक मंगाया था। उस संकलन का आवरण उनकी ही कहानी पर आधारित है। सभी कहानियों के साथ लेखकों के स्केच फ़ोटो भी प्रकाशित हुए थे। 

मुझे गुजराती नहीं आती लेकिन अपनी बेटी की मदद से मैंने उनके गुजराती बाल साहित्य का भी आनन्द प्राप्त किया है। 

मेरी ईश्वर से प्रार्थना है, हिंदी, गुजराती और सिंधी के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. हूंदराज बलवाणी सदैव-स्वस्थ सानंद रहें। उनका आशीर्वाद सदैव हमें प्राप्त होता रहे।