रविवार, 29 अगस्त 2021

बच्चों के अमर कवि : द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी


 बच्चों के अमर कवि : द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

डॉ. नागेश पाण्डेय 'संजय'


वीर तुम बढ़े चलो, जिसने सूरज चांद बनाया, हम सब सुमन एक उपवन के और इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है जैसी न जाने कितनी अमर कविताओं के रचयिता द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी पाँच दशकों से भी अधिक समय तक  बाल साहित्य की सेवा में निरंतर संलग्न रहे। उन्होने वह लिखा, जैसा कोई नहीं लिख सका। उनकी कोई भी रचना हो, बच्चे उसे पढ़कर भाव-विभोर हो जाते हैं। चहक उठते हैं। थिरक उठते हैं। सच, वे सही मायनों में बच्चों के अपने कवि थे।

उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के रोहता गाँव में श्री प्रेमसुख के घर में १ दिसम्बर १९१६ को उनका जन्म हुआ। भारत और लंदन में शिक्षा ग्रहण करने के उपरान्त उन्होंने जीविका के लिए शिक्षा का क्षेत्र चुना और शिक्षक, शिक्षा प्रसार अधिकारी, पाठ्य पुस्तक अधिकारी, उप शिक्षा निदेशक जैसे महत्वपूर्ण पदों के माध्यम से अपनी सेवाएँ अर्पित की। सेवा निवृति के पश्चात वे साक्षरता निकेतन के निदेशक के रूप में अपना अवदान देते रहे। 

माहेश्वरी जी ने बड़ों के लिए लिखना प्रारम्भ किया था।  उनका पहला काव्य संग्रह 'दीपक' १९४६ में छपा था। इसके बाद उन्हे आभास हुआ कि बच्चों के लिए स्तरीय साहित्य का अभाव है तो उन्होंने बाल साहित्य सृजन को प्रमुखता से अपना लिया | यह जानते हुए भी कि इस क्षेत्र में न तो प्रतिष्ठा मे है और न पुरस्कार। उन दिनों बाल साहित्य में समीक्षा का कार्य न के बराबर था। बच्चों के लिए उनका पहला कविता संग्रह १९४७ में आया।

 'कातो और गाओ'नामक इस कृति के पश्चात उनकी ढेरो पुस्तक प्रकाश में आईं। ये पुस्तकें हैं :  लहरें (१९५२), बढ़े चलो, अपने काम से काम, बुद्धि बड़ी या बल, माखन-मिसरी (सभी १९५९), हाथी घोड़ा पालकी, सोने की कुल्हाड़ी (दोनों १९६३), 'अंजन (१९६४), सोच समझ कर दोस्ती करो (१९६५), सूरज सा चमकूं मैं, हम सब सुमन एक उपवन के (दोनों १९७०), सतरंगा पुल ( १९७३), गुब्बारे प्यारे (१९७४), हाथी आया झूम के, बाल गीतायन ( १९७५), सीढ़ी-सीढ़ी चढ़ते है (१९७६), हम है सूरज चाँद सितारे, जल्दी सोना, जल्दी जगना, मेरा वंदन है (१९८१), कुशल मछुआरा, नीम और गि लहरी (१९८४), चांदी की डोरी, ना मौसी ना, चरखे और चूहे ( १९९०) ।


द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी रचनावली" के खण्ड दो और तीन में उपरोक्त पुस्तकों की कविताएं संग्रहीत हैं। यह ग्रन्थ ४ फरवरी १९९७ को तत्कालीन राष्ट्रपति डा० शंकरदयाल शर्मा को भेंट किया गया था। माहेश्वरी जी ने बच्चों के लिए कहानियाँ भी लिखीं और नवसाक्षरों के लिए कविताएं भी। उनकी तीन कथा पुस्तकें छपीं-श्रम के सुमन ( १९७१), बाल रामायण ( १९८१), शेर भी डर गया (१९९२) नवसाक्षरों के लिए उनकी पुस्तके हैं :  एक रहें, नेक रहें ( १९८९), घर की उजियारी, नई कलम, नए कदम ( १९९१) लोकतन्त्र है यही (१९९२), भारत प्यारा देश हमारा (१९९३)

  "बालगीतायन" कृति के लिए उन्हें वर्ष १९७७ में बाल साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार मिला था। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने उन्हें सम्मान राशि और ताम्रपत्र प्रदान किया था। शायद ही कोई ऐसी संस्था हो, जो बाल साहित्य के विकास में संलग्न हो और उसने माहेश्वरी जी को सम्मानित करने का गौरव न प्राप्त किया हो।


८६ वर्ष की अवस्था में भी उनकी साहित्यिक सक्रियता देखते ही बनती थी। अन्तिम समय तक उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। यहीं नहीं साहित्यिक समारोहों में भी उनकी सक्रियता जीवन के अंत तक बनी रही। मृत्यु से एक घण्टा पूर्व उन्होंने एक साहित्यिक संगोष्ठी में कविता पाठ किया था। बाथरूम में फिसलकर गिरने से उन्हें ब्रेन हेमरेज हो गया था।


वे स्वभाव के बड़े सरल थे। बड़ा स्नेह देते थे। अपने लेखन के प्रारम्भिक काल से ही मेरा उनसे जुड़ाव हो गया था। वे हर पत्र का बड़ा आत्मीय उत्तर देते थे। २३-४-९१ को उन्होंने लिखा था "बस लिखते रहिए | रचनाएँ न भी छपें तो दुखी न होइये। मैंने यही मार्ग अपनाया था। सरकारी सेवा के अनेक बंधन भी थे।"


मेरी पहली बाल कथा पुस्तक 'नेहा ने माफी मांगी' प्रेस में जाने को थी। उन्होंने ११-९-९३ के पत्र द्वारा पुस्तक के लिए आशीर्वाद पंक्तियाँ लिख भेजीं। खूब प्रोत्साहित भी किया "तुम्हारी उम्र के एक बीस वर्षीय युवक के लिए लेखन की प्रेरणा की दृष्टि से यह बहुत ही सराहनीय उपलब्धि है। बहुत कम ही को यह सौभाग्य मिल पाता है।"


नेहा ने माफी मांगी" पुस्तक पर उन्होंने समीक्षा भी लिखी थी । इसे यू० यस० यम० पत्रिका (गाजियाबाद) और अभिषेक श्री' ( इलाहाबाद) ने अपने बाल साहित्य विशेषांकों में प्रकाशित किया।


माहेश्वरी जी से मेरी पहली और आखिरी भेंट कानपुर में हुई। सहसा विश्वास नहीं हुआ था कि बाल साहित्य के आधार स्तंभ माहेश्वरी जी यही है। स्नेही और सादगी से परिपूर्ण। कानपुर के  बी० एन० एस० डी० शिक्षा निकेतन के अखिल भारतीय बाल साहित्य रचनाकार सम्मेलन में उन्होंने मेरी पुस्तक 'आधुनिक बाल कहानियाँ' का विमोचन किया। मेरे लिए यह जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। 

दूसरी बार कानपुर के आयोजन में मैं दूसरे दिन विलम्ब से पहुँचा। इसीलिए उनसे मिलना न हो सका।  वे श्री शम्भूनाथ टण्डन के यहाँ थे। ९ बजे उनकी ट्रेन थी। राष्ट्रबन्धु जी, सम्पादक' बालसाहित्य समीक्षा' के घर से उनसे फोन से ही बात कर पाया। मिलने के लिए समय शेष न था। आज वह दुर्भाग्य मन को कचोटता है।


हमने बाल साहित्य प्रसार संस्थान की स्थापना की तो उन्होंने परामर्शदाता के रूप में अपनी सहर्ष स्वीकृति भेजी। उन्होंने ११-२-९७ के पत्र में किया "अच्छे बाल साहित्य के सृजन, संवर्धन और प्रसार की आज जितनी महती आवश्यकता है, उतनी पहले नहीं थी। मेरा संपूर्ण सहयोग आपके साथ रहेगा।" वे बराबर प्रोत्साहन देते रहे। उन्होंने कभी किसी आयोजन में शाहजहाँपुर जाने का भी आश्वासन दिया था।


दिनांक ५-२-९८ को उन्होंने लिखा था मेरा स्वास्थ्य ऐसे ही चल रहा है। ८२ में तो आ ही गया। देखो....... ..उनसे पत्राचार निरन्तर रहा किन्तु ऐसा पत्र उन्होंने पहली बार लिखा था। इस 'देखो' ने मेरे मन को भीतर तक हिला दिया। मैंने उनके दीर्घायु जीवन की कामना की। 

जीवन के 'सत्य' को स्वीकारना पड़ता है लेकिन बालसाहित्य अभी इसके लिए तैयार नहीं था। उनसे बड़ी अपेक्षाएँ थीं। वे विशाल वट वृक्ष थे। न जाने कितने पौध-पात उनकी छाया में पल्लवित हो रहे थे ।

२९ अगस्त १९९८ को वे चले गए। मृत्यु से दो घण्टे पूर्व उन्होंने अपनी आत्मकथा सीधी राह चलता रहा पूर्ण की थी। 

उनके अनायास इस तरह चले जाने की किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। उनके अभाव की क्षति बहुत गहरी है। इसकी पूर्ति कभी नहीं हो सकती। उनकी प्रेरणा और उनकी रचनाएँ बालसाहित्य के लिए सदैव सम्बल बनी रहेंगी। 

उनकी स्मृति को शत-शत नमन!



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