रामानुज त्रिपाठी: अनूठे अंदाज के बाल कवि
आलेख : डा. नागेश पांडेय संजय
रामानुज त्रिपाठी बाल साहित्य के मौन साधक थे किंतु उनकी साधना मुखर थी। जब तक रहे, बाल साहित्य में छाए रहे। पत्र-पत्रिकाओं में धुआंधार छपे। नवें दशक की पत्रिकाओं को उठाइए, आपको कई पत्र-पत्रिकाओं के एक-एक अंक में उनकी दो-दो कविताएं तक पढ़ने को मिलेंगी। बहुत लिखते थे। बहुत अच्छा लिखते थे। अच्छा क्या लिखते थे, वे तो एक लकीर बनाते जा रहे थे। एक पथ आलोकित कर रहे थे जिस पर चलने का प्रयास यद्यपिआगे चलकर बहुतों ने किया लेकिन वैसी सफलता किसी को न मिली। उन्होंने बाल कविता को नई आभा दी। एक अलग रंग-ढंग और तरंग की कविताएं उन्होंने रचीं। कहें कि बाल कविता को नई रवानी दी। नया शिल्प दिया। नयी रूपाकृति दी। नवगीत विधान में कम ही लोग हैं जो बाल साहित्य को कुछ परोस पाए और त्रिपाठी जी तो इस विधा के जैसे मास्टर थे। कविता को गढ़ने का उनका अंदाज अनूठा था। सामान्य विषय पर असामान्य ढंग की कविता लिखने में उनको बड़ी सफलता मिली। विषय की बात करें तो वे बहुधा सामयिक ही होते थे, जैसे कैलेंडर देख के वे बिल्कुल मुस्तैद रहते हों कि हां, अब रक्षाबंधन है, अब बसंत है। अब जाड़े पर-गरमी पर-बरसात पर लिखना है। लिखना क्या है, माल तैयार करना है। किसी हलवाई की तरह त्रिपाठी जी को ग्राहक के स्वाद की परख थी। या मौसम की मांग वे जानते थे तो ये लीजिए मालपुए। ये लीजिए बालूशाही। ये लीजिए गुझियां। ये लीजिए गाजर का हलवा और हां, ये उनकी रसभीनी कविताएं स्वाद में बेजोड़ होती थीं। यही कारण था कि हर दूकान पर ...माफ कीजिए, पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएं सजी-धजी मिलती थीं। वे संपादकों के चहेते थे। न कोई जान, न पहचान, न जुगाड। पर वे छा गए थे। ...और इसलिए छा गए थे कि वे बाल मन को भा गए थे। लुभा गए थे। बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ की तर्ज पर उन दिनों बच्चे पत्रिकाओं को छुपा कर रखते थे कि पहले-पहल पत्रिका की सामग्री का आनंद उनको ही लेना है।
मैं बहुधा सोचता हूं कि यदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं के आधार पर भी हिंदी बाल साहित्य में पुरस्कार-सम्मान की परंपरा होती तो कदाचित् रामानुज त्रिपाठी जी के खाते में ढेरों पुरस्कार होते। अफसोस...उनकी ओर संस्थाओं का ध्यान नहीं गया। जाता भी कैसे क्योंकि वे किताब छपवाने के गणित से पूरी तरह अनभिज्ञ थे। और हिंदी बाल साहित्य के क्षेत्र में पुरस्कार पाने की पहली सीढ़ी पुस्तक है। पुस्तक लकदक हो तो सोने पर सुहागा या कहें कि पुरस्कार की पक्की गारंटी। भले ही अंदर कूड़ा हो लेकिन भारी-भरकम बायोडाटा और किताब के नाम पर जाने कितने बाल साहित्य के सर्वोच्च सम्मान हथिया ले गए। भारती से उनकी आरती उतारी गई। और आज भी बाल साहित्य के जिज्ञासु यह जानने को आकुल-व्याकुल हैं कि अमुक सम्मानित का बाल साहित्य में योगदान क्या था? मगर रामानुज त्रिपाठी जैसे मौन आराधकों की ओर संस्थाओं का ध्यान नहीं गया। डा. राष्ट्रबंधु जी का नमन जिन्होंने 1995 में संस्था भारतीय बाल कल्याण संस्थान की ओर से उन्हें सम्मानित कर जैसे अपनी संस्था को ही सम्मानित किया। उनके इस सुनिर्णय के प्रति मैं स्वयं को कृतज्ञ अनुभव करता हूं और आभारी भी कि इसी बहाने उनसे प्रथम भेंट भी मयस्सर हुई। 1995 में जिन नौ बालसाहित्यकारों का सम्मान हुआ था उनमें त्रिपाठी जी के साथ मैं भी था। संयोग कि हम लोग ठहरे भी एक साथ और उनकी सादगी के चलते उनसे ऐसी गहरी छनी कि साथ-साथ खूब घूमें। इस बहाने उनको बहुत करीब से जानने का अवसर भी मिला। उनकी स्थिति-परिस्थिति से भी अवगत हुआ।
लगता है जैसे कल की ही बात हो लेकिन नहीं, दो दशक से ऊपर हो चुके हैं। कानपुर में 29 जुलाई 1995 को कृष्णविनायक फड़के जयंती समारोह था। कितने दिग्गज उसमें पधारे थे। डा. देवसरे, शकुंतला सिरोठिया, सरोजिनी कुलश्रेष्ठ, अनंत कुशवाहा, रामवचन सिंह आनंद, पद्मश्री लक्ष्मीनारायण दुबे, पद्मश्री श्याम सिंह शशि और यही नहीं डा. मुरलीमनोहर जोशी (बाद में गृह मंत्री, भारत सरकार) भी उस आयोजन में सहज उपस्थित थे। जोशी जी ने बच्चों के लिए अलग से बाल मंत्रालय की मांग रखी थी और समाचारपत्रों ने इसे मेन हेडिंग बनाया था। तीन दिन के इस समारोह में पहली बार मैं रामानुज त्रिपाठी जी से मिला था। कानपुर के वैशाली होटल में हम दोनों एक साथ ही ठहरे थे। देर रात में उनका जब आगमन हुआ तो मैं गहरी नींद में था। आंखे मिचमिचाते दरवाजा खोला तो धोती-कुर्ता पहने एक लंबी श्यामवर्ण काया सामने थी। ...मैं रामानुज त्रिपाठी, सुल्तानपुर से।
मैं विस्मय से भर उठा और तपाक से बोला-जी, और मैं रामानुजानुज, शाहजहांपुर से।
अच्छा। अच्छा नागेश जी। और त्रिपाठी जी ने मुझे गले से लगा लिया था।
उनसे मेरा पत्राचार था। मैंने एक बार स्वयं को भवदीय में रामानुजानुज (रामानुज का अनुज) क्या लिखा कि फिर तो यह सहज संबोधन हमारे पत्राचार का अंग हो गया था।
तो हम तीन दिन साथ रहे। आयोजन कई जगह पर थे तो हम लोग जाते भी एक साथ। मजेदार किस्सा बताऊँ कि इसी यात्रा में उनकी अटैची एक रिक्शेवाले ने पार कर दी थी। हम दोनों एक ही रिक्शे पर थे। जब बेनाझाबर पहुंचे तो आगे वाले रिक्शे पर बैठे वयोवृद्ध रामस्वरूप दुबे जी को उतारने के लिए मैं आगे बढ़ गया। बेचारे त्रिपाठी जी भी सहयोग के लिए पीछे-पीछे आ गए और इतनी देर में रिक्शा वाला चंपत। अटैची गायब। मैंने जब ये बात राष्ट्रबंधु जी को बताई तो उन्होंने नई अटैची और उसमें रखा सारा नया सामान मंगवाया। जब साहित्यकारों का सम्मान हुआ तो त्रिपाठी जी को साथ में नयी अटैची भी दी गई।
कई मित्रों ने बाद में उनसे मजाक भी किया था-त्रिपाठी जी, ऐसा पता होता तो हम तो अपना सामान जानबूझकर गायब करा देते।खैर... इस भेंट के बहाने हमारी आत्मीयता और प्रगाढ़ हो गई। उन दिनों फोन का चलन तो था नहीं। तब आज की तरह मेल और फेसबुक भी नहीं थे। केवल डाक या बुकस्टाल का ही सहारा था। मेरी न जाने कितनी अनुपलब्ध रचनाएं त्रिपाठी जी ने मुझे डाक से भिजवाई। मैं निःसंकोच उनसे आग्रह कर लेता था। इसलिए भी कि उनके कालेज के पुस्तकालय में कई पत्रिकाएं आती थीं। एक बार साप्ताहिक हिंदुस्तान में मेरा बालगीत दादी अम्मा छपा। पेमेंट तो आ गया, पर प्रति न मिली। भला ये कैसे गंवारा होता। मैंने उन्हें याद किया और फिर ये देखिए 1 नवंबर 1992 का उनका पत्रोत्तर-भैया संजय जी, आपका पत्र मिला था। आपने अपनी कविता से संबंधित साप्ताहिक हिंदुस्तान का अंक मुझे सुरक्षित रख लेने और वह अंक मुझसे ही प्राप्त करने का निर्देश दिया था। साप्ताहिक हिंदुस्तान मेरे कालेज के वाचनालय में नियमित आता है। यदि वह अंक न मिला हो ओर उसे चाहते हों तो मुझे अविलंब सूचित करें। यदि अंक मिल गया हो तो मैं उसे पुनः वाचनालय में वापस कर दूं। यथाआवष्यक समझिएगा लिखिएगा।
इधर बाल भारती के अक्टूबर अंक में भी आपका एक गीत दीवाली षीर्षक से छपा है। उसी पृष्ठ पर मेरा भी आई है दीवाली षीर्षक गीत प्रकाषित हुआ है किंतु मेरे गीत में छपाई की त्रुटि है। जाने क्यों बाल भारती में हर बार कुछ न कुछ गलत ही छपता है, जिससे रचना में अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। सस्नेह, रामानुज
तो आप देखिए कि किस तरह से पत्राचार के बहाने पर बाल साहित्य की दषा-दिषा पर भी विमर्ष चलता रहता था। बाल साहित्य के प्रति उनके मन में चिंता थी। मैंने जब राष्ट्रीय सहारा में बाल साहित्य स्तरीय परख की जरूरत विषय पर एक परिचर्चा आयोजित की तो तत्कालीन दिग्गज बाल साहित्यकारों के साथ-साथ उनके भी विचार आमंत्रित किए। 12 दिसंबर 1994 को इस परिचर्चा में प्रकाषित उनके विचार द्रष्टव्य हैं -हम बच्चों को कविताओं के नाम पर बे सिर पैर की तुकबन्दियाँ परोस रहे हैं। उत्कृष्ट बाल साहित्य का अकाल सा पड़ रहा है और लेखन में मौलिकता में कमी आई है।
अभिभावक भी बच्चों को साधन सम्पन्न बनाने की सनक में शीघ्र अधिकाधिक ज्ञान सम्पन्न कम्प्यूटर बनाना चाहता है। स्कूली शिक्षा बच्चों पर पुस्तकों का भारी बोझ लादकर उन्हें अनेक स्तर से अधिक ऊँची प्रतियोगिताओं में झोंक रही है, फलतः सांस्कृतिक तृप्ति देने वाले साहित्य से बच्चा परे रह जाता है।
बाल साहित्य की समस्त विधाओं में सृजन स्तर पर संप्रति बाल मनोवृत्ति की स्तरीय परख की जरूरत है, उसके अभाव में बाल साहित्य कभी तृप्ति देने वाला नही होगा।
मैंने इस परिचर्चा से प्राप्त पारिश्रमिक सभी बाल साहित्यकारों को समान रूप से भेजने के लिए प्रारंभ में ही निवेदन कर दिया था। त्रिपाठी जी को यह स्वीकार न था, केवल इसलिए कि वे मुझे अपने अनुज की भांति देखते थे। इस संदर्भ में उनका 22 दिसंबर 1994 का यह अपनत्व उड़ेलता पत्र मैं कभी भुला नहीं सकता-
प्रिय भाई
आपका स्नेह पत्र मिला। आभार। 12 दिसंबर का राष्ट्रीय सहारा यहां तलाषने पर मुझे मिल गया। आपकी प्रस्तुति अच्छी और स्तरीय है। तदर्थ मेरी ओर से बधाई स्वीकारें। चक्रधर नलिन जी गत 22 नवंबर को मेरे घर आए थे। तो आपकी सहारा हेतु परिचर्चा पर उनसे चर्चा हुई थी।
आपने परिचर्चा के प्रति मिलने वाले पारिश्रमिक में से उचित अंष जो मेरे लिए भेजने को लिखा, यह मुझे अच्छा न लगा। आप मेरे लघु भ्राता हैं-अतः इसी बहाने अपने लिए कुछ टाफी, बिस्कुट, खिलौने और गुब्बारे खरीद लें। इसी में मुझे अतिषय प्रसन्नता मिलेगी। इत्यलं।
सस्नेह, रामानुज
रामानुज जी के पास भाषा की अपार सामर्थ्य थी और गुणग्राहकता भी। उनके पत्रों को मैं धरोहर मानकर अपने संग्रह में सजाए हूं। किसी छोटे को भी बड़प्पन का अहसास देने का प्रोत्साहनमयी ऐसा व्यवहार दुर्लभ है। उनके पत्र भी किसी साहित्य से कम न होते थे। देखिए 30 मई 1995 का उनका एक पत्र-
भाई संजय जी
स्नेह पत्र मिला। आप द्वारा प्रदत्त स्नेह, सौहार्द, दाक्षिण्य, कृतज्ञता और आत्मीयता का पंचरत्न निरंतर संभाल कर रखता जा रहा हूं ताकि इतिहास पुरुष भामाषाह की तरह कदाचित प्रयोजन पर बहुजन हिताय वितरित कर सकूं।
बाल कविता को नया षिल्प और नया कलेवर प्रदान करने में उनकी वरेण्य भूमिका है। नवगीत षैली में रचित उनकी कविताएं अपनी सहजता के चलते मन छूती हैं। रोचकता का नया ताना बाना प्रभावित करता है। शब्द भंडार के चलते विन्यास में स्वाभाविकता स्वतः आती जाती है। ...और फिर एक षिक्षक होने के नाते कुछ न कुछ सीख भी गाहे बगाहे वे दे ही डालते हैं।
उपमाओं से रची-पगी रक्षा बंधन पर लिखी उनकी यह कविता मैं कभी नहीं भूलता-
स्नेह की धरती
ममता का
आकाश है रक्षाबंधन।
रक्षाबंधन केवल
राखी का त्योहार
नहीं है,
कुछ धागों में ही
बंध जाने
का व्यवहार
नहीं है।
भाई बहन के रिश्ते
का इतिहास है रक्षाबंधन।
अब आप खुद ही देखिए, कि किस सजीले अंदाज में बातों ही बातों में वे एक परिभाषा भी गढ़ गए और त्योहार के सांस्कृतिक वैभव को बिना किसी आरोपण के सहज रूप से बाल मन पर आच्छादित कर दिया। यही खूबी उन्हें बाल कवियों की भीड़ से अलग एक महनीय स्थान प्रदान करती है।
वर्षा के नयनाभिराम परिदृष्य को जैसे आंखों के समक्ष उतारती उनकी यह कविता भी अनोखी है, जिसमें एक नयी शुरुआत को अभिव्यक्त करने की अभिव्यक्ति देखते ही बनती है-
आए बादल
बरसा पानी।
कभी दिवस में
कभी निशा में
उमड़ घुमड़ कर
दिषा दिशा में
घिर घिर आई
घटा सुहानी।
मेंढक झिल्ली
झींगुर वाली
एक राग
एक सुर वाली
षुरू हो गई
राम कहानी।
प्राकृतिक चित्रण को लेकर उनकी कहन क्षमता का मैं मुरीद रहा। नवगीत से इतर उनके दोहे भी क्या खूब बन पड़े हैं। सर्दी पर कुछ बेहतरीन दोहों का आनंद आप भी लीजिए-
घिर आया कुहरा घना,
खूब पड़ रही ठंड।
सूरज का भी हो गया,
शायद चूर घमंड।
फैल गया है चौतरफ,
जाड़े का आतंक।
ठंडा पानी हो गया,
ज्यों बिच्छू का डंक।
तन है थर थर कांपता,
किट किट करते दांत।
ओढ़ रजाई कट रही है,
जाड़े की रात।
ऐसे ही बसंत पर उनकी यह नवगीत षैली की रचना भी उनकी कुशल अभिव्यक्ति को ही सुप्रस्तुत करती है।
फूलों में
रंग इठलाया
बसंत आया।
घर आंगन उठीं किलकारियां
पीने लगीं रंग पिचकारियां
हाथों में
गुलाल मुसकाया
बसंत आया।
कुंकुम अबीर मले बिन
बीतें न ए रस भरे दिन
मन में फिर नया मोद छाया
बसंत आया।
उनकी कविताएं नयी ताजगी से सराबोर हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि शब्द शब्द नाच रहे हों। ऐसी लयात्मकता कदाचित् अन्यत्र दुर्लभ है। कारण यह भी कि छोटे-छोटे षब्दों को उचित यति-गति के साथ जैसे किसी फ्रेम में जड़ने का हुनर या कहें कि जादुई कला उनके पास थी।
चिड़िया जैसे पुराने विषय पर सहसा उनकी दो कविताएं मुझे याद आ रही हैं। इनका भाषाई चमत्कार देखते ही बनता है-
पेंड़ो की हर
डाल डाल पर
नाच रहीं चिड़ियां ।
नए नए कोमल
किसलय पर
नए राग नव
सुर नव लय पर
थिरक थिरक कर
नए ताल पर
नाच रहीं चिड़ियां ।
छोड़ टहनियां
पुष्प दलों की
लह लह
लहराती फसलों की
हरी सुनहरी
बाल बाल पर
नाच रहीं चिड़ियां ।
दूसरी कविता आशावाद की प्रतिच्छाया है जो बाल मन में वविश्वास और आस के अंकुर उपजाती है और वह भी प्रतीकात्मक रूप से एक भोली चिड़िया के माध्यम से-
मत होना तुम भोली चिड़िया
अपने मन में कभी उदास।
चुगने को हैं पंख तुम्हारे
दो पंजे हैं प्यारे प्यारे
उड़ने को हैं रंग बिरंगे
सुंदर पंख तुम्हारे पास।
तेरी है ये सारी धरती
चुगकर जहां पेट तुम भरती
और फुदकने को है विस्तृत
तेरे लिए खुला आकाश।
हरे भरे पेड़ जंगल के
झूम झूम के मचल मचल के
बुला रहे हैं तुमको देखो
अपने फल में भरे मिठास।
कह सकते हैं कि उन्हें कविता की गहरी समझ थी। कवि ही नहीं, आचार्य भी थे मान्यवर। काष! कि उनकी यत्र-तत्र बिखरी निखरी कविताओं का संचयन हो तो बाल कविता के एक अद्भुत लोक में विहार करने और उसको समझने का आनंद बहुतों को प्राप्त हो सकेगा।
कविताओं में रोचकता के लिए उनके प्रयोग भी अनूठे थे। जैसे एक स्थान पर उन्होंने मच्छर के डंक की तुलना सूंड़ से की है। इससे हास्य की सृष्टि तो हुई ही, साथ ही एक विस्मयकारी आनंद की भी वृष्टि होती है। बालमन उत्फुल्ल होकर उमगता है। विस्मित होता है और कहीं न कहीं एक काल्पनिक संसार में जाकर नई परिकल्पनाओं के निर्माण में भी समर्थ होने की ओर अग्रसर होता है। ...अरे! मच्छर की सूंड़...यह अद्भुत कल्पना तो बड़ों के भी कान खड़े कर देती है-
मच्छर मामा डटे हुए हैं
लेकर अपनी एक जमात
भली नहीं गरमी की रात।
तन ढकने में चूक अगर हो
हाथ पैर मुंह जब बाहर हो
सूंड़ चुभोकर खून चूस लें
मिलकर खूब लगाएं घात।
कविताएं बहुतेरी हैं जिनकी चर्चा विस्तार भय से यहां संभव नहीं। उन पर अलग से अनुशीलन अपेक्षित है। अनुसंधान अपेक्षित है। फिर एक लीक निश्चय ही निर्मित होगी जिस पर चलकर बाल साहित्य के राजपथ पर पहुंचा जा समता है।
अभी तो यही कहूंगा। बार-बार कहूंगा कि रामानुज त्रिपाठी जी को उनका प्राप्य नहीं मिला। जिस सम्मान के वे सुपात्र थे, वह उनको मिले तो यह उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी और बाल साहित्य के लिए भी इससे बेहतर और सम्मानजनक बात हो नहीं सकती।
(यह आलेख 'बाल वाटिका' मासिक, अक्तूबर 2016 अंक में पृष्ठ 51 पर प्रकाशित हुआ था।)
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