tag:blogger.com,1999:blog-30575629539741785722024-03-05T21:11:38.967-08:00बालसाहित्य विमर्शडॉ.नागेश पांडेय'संजय'की समीक्षा-दृष्टिडॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.comBlogger27125tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-61281957743604780392024-01-20T21:46:00.000-08:002024-01-20T21:50:12.234-08:00आलेख 'बाल साहित्य के भगीरथ' : निरंकारदेव सेवक<div class="xdj266r x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; margin: 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; transition-property: none !important;"><span style="color: #2b00fe; font-family: Segoe UI Historic, Segoe UI, Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: medium;"><span style="white-space: pre-wrap;"><b><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhrGG6ZYOYd4YAJOPQs1coBWpcry9wh0mNzpoJC5oE4mOIuAvtXiN9Gsr-r1doRc_rSoHMa6jSt2pEAkNzpDZZOUdQq7LYWCbhIM3IiHqR3Ya6s3xxx9Z9tEONIqLxKCygf2IV_pHPd8Ce7Yz4OgOd-q2FAstbqRPQMHGB_y6M5XQThntkSzyrIr5UjmwuA/s1080/419346104_7065300153549636_1218611464297603846_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1032" data-original-width="1080" height="191" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhrGG6ZYOYd4YAJOPQs1coBWpcry9wh0mNzpoJC5oE4mOIuAvtXiN9Gsr-r1doRc_rSoHMa6jSt2pEAkNzpDZZOUdQq7LYWCbhIM3IiHqR3Ya6s3xxx9Z9tEONIqLxKCygf2IV_pHPd8Ce7Yz4OgOd-q2FAstbqRPQMHGB_y6M5XQThntkSzyrIr5UjmwuA/w200-h191/419346104_7065300153549636_1218611464297603846_n.jpg" width="200" /></a></div>बाल साहित्य के भगीरथ : निरंकारदेव सेवक</b></span></span></div><div dir="auto" style="animation-name: none !important; color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;">- <b>डॉ. नागेश पांडेय 'संजय' </b></div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">30 मई 2002 को भारतीय पत्रकारिता संस्थान द्वारा बरेली में मुझे निरंकारदेव सेवक बाल साहित्य सम्मान मिला था। मैंने प्रशस्तिपत्र देखा तो चौंक कर रह गया। मेरे नाम के साथ बरेली मुद्रित था। मैंने आयोजकों से कहा कि मैं तो शाहजहाँपुर का हूँ। मेरा पता तो गलत छप गया? आयोजक सुरेंद्र सिन्हा जी ने हँसकर कहा था- "आप निश्चिंत होकर प्रशस्तिपत्र स्वीकारिए। संभव है कि समय इस त्रुटि को ठीक कर दे और आप बरेली के हो जाएँ।"</div><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">बात मजाक की थी किंतु सत्य सिद्ध हुई। वर्ष 2007 से बरेली मेरी कर्मभूमि हो गई। शाहजहाँपुर से आते जाते बरेली में जब कचहरी से होकर गुजरता हूँ तो अनायास माथा झुक जाता है। यह कचहरी कभी निरंकार देव सेवक की कर्मभूमि रही है। वहीं से उनके घर की ओर जानेवाले रास्ते के भी दर्शन हो जाते हैं। इस रास्ते का नाम निरंकार देव सेवक मार्ग रखा गया है। मैं उस पथ से गुजरते हुए यह सोचकर बहुत रोमांचित होता हूँ कि बालसाहित्य के लिए राजमार्ग तैयार करने वाले सेवकजी कभी इसी मार्ग से गुजरा करते होंगे। इसी मार्ग से गुजरते हुए कितने विचार बिंदु उनके मन में उपजे होंगे। कितनी योजनाओं की परिकल्पनाएँ इसी मार्ग पर गतिमय हुई होंगी। मैं उन सबके भाग्य को सराहता हूँ, जिन्हें सेवकजी का साथ मिला होगा। एक देवदूत का साथ। बालसाहित्य के सच्चे सेवक का साथ। सही मायनों में बालसाहित्य के भगीरथ का साथ।</div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj8JqOt8Cewno82_gSTN3sZAg-dEy9ypu_JgBvQxsr9MNxsaH8BgCTgaufaRLxF81mUDKCooTNoBxfDT4TmIB5glo25clr7n3GMC8QLqMGxOIuLDM6sLgCy8tMLOm0Lg8-phzNam1e1VAr7ZiHgQCPPxYu4yNgAqXQIMZX7DOmAuKnOaqBAJAfLeHGbIOiw/s1080/420059497_7065341143545537_8552838283074282287_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="714" data-original-width="1080" height="212" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj8JqOt8Cewno82_gSTN3sZAg-dEy9ypu_JgBvQxsr9MNxsaH8BgCTgaufaRLxF81mUDKCooTNoBxfDT4TmIB5glo25clr7n3GMC8QLqMGxOIuLDM6sLgCy8tMLOm0Lg8-phzNam1e1VAr7ZiHgQCPPxYu4yNgAqXQIMZX7DOmAuKnOaqBAJAfLeHGbIOiw/s320/420059497_7065341143545537_8552838283074282287_n.jpg" width="320" /></a></div><br /><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;"><br /></div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">यह सच है कि यदि बालसाहित्य आलोचना के क्षेत्र में सेवकजी का पदार्पण न हुआ होता तो बालसाहित्य के कितने मौन साधक काल के प्रवाह में गुम गए होते। बच्चों को तो लेखक के नाम से कोई मतलब नहीं होता। ... और यदि समीक्षक निष्पक्ष भाव से उन लेखकों के विषय में न लिखे तो भला एक समय के बाद कौन उनको जानेगा ?</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">सेवकजी ने सर्वप्रथम बालगीत साहित्य का इतिहास लिखा। बालसाहित्य के भूले बिसरे हस्ताक्षरों को जैसे पुनर्जीवन दिया।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">बरेली महानगर में 19 जनवरी 1919 को जन्में सेवकजी ने एम.ए. हिंदी, एल-एल.बी., और बी.टी. की शिक्षा प्राप्त की। वे प्रारंभ में शिक्षक रहे और फिर अधिवक्ता हो गए। बाल कविताओं के उनके दर्जनों संकलन प्रकाशित हुए। उनकी बाल कविताएँ स्वयं ही 'बाल कविताओं के लिए मानदंड' जैसी हैं।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">उनका पहला लेख 'बाल साहित्य रचना' वीणा मासिक के नवंबर 1954 अंक में प्रकाशित हुआ था। उस आलेख में उन्होंने लिखा था-'बड़ों को लिखना है तो उन्हें स्वयं बच्चा बनकर बच्चों के संसार में रह बस कर लिखना होगा।' यह एक तरह से बाल साहित्य पर आलोचनात्मक निबंध लिखने का शुभारंभ था। डॉ. हरिकृष्ण देवसरे के अनुसार सेवकजी ने अपने इस लेख में बाल साहित्य रचना के कई आवश्यक तथ्यों को उद्घाटित करते हुए हिंदी में बाल साहित्य आलोचना को जन्म दिया। (हिंदी बाल साहित्य एक अध्ययन, पृ. 32) बाल साहित्य समीक्षा की प्रथम व्यवस्थित कृति उन्होंने ही लिखी बालगीत साहित्य। इसकी पांडुलिपि को देखकर उनके मित्र डॉ. राकेश गुप्त ने कहा भी था- "यह तुमने बिल्कुल नए विषय पर इतना काम किया है। इस पर तो तुम्हें किसी विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट मिल सकती है।" सेवकजी ने उक्त प्रसंग को हँसकर टाल दिया था कि ऐसा होने से भला कौन मुझ वकील को ज्यादा फीस दे देगा। 1966 में इस कृति का प्रकाशन किताब महल, इलाहाबाद से हुआ था। इस कृति से केवल बाल साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में ही नहीं, वरन् विश्वविद्यालयों में भी बाल साहित्य आलोचना तथा अनुसंधान की दिशा में संभावनाओं का सूत्रपात हुआ। बाल साहित्य के प्रारंभिक शोधार्थियों के लिए यह कृति गहन अंधकार में प्रखर प्रकाश जैसी सिद्ध हुई। डॉ. हरिकृष्ण देवसरे ने इसे हिंदी बालसाहित्य में पहली आलोचनात्मक पुस्तक माना है। बाल साहित्य में तात्विक समीक्षा का कार्य हो या इतिहास-लेखन, शोध-कार्य हो या तुलनात्मक सदैव आधार-रूप में विद्यमान रहा है। प्रथम संस्करण की भूमिका में संवक जी ने लिखा था-'जिस भाषा में बालसाहित्य का सृजन नहीं होता उसकी स्थिति उस स्त्री के समान है जिसके संतान नहीं होती।' सेवकजी बालसाहित्य के पहले इतिहासकार थे। जैसे अंधेरी गुफाओं में भटकते हुए, महार्णव में गोते लगाते हुए उन्होने कैसे यह दुरूह कार्य संपन्न किया होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। उन्होंने लिखा भी है- 'हिंदी बालगीत साहित्य का इतिहास लिखने में बहुत कठिनाई हुई है। भाषा या साहित्य के किसी इतिहास में बालसाहित्य पर कुछ भी लिखा हुआ मुझे नहीं मिला।' (बालगीत साहित्य,पृष्ठ 5)</div><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">सेवक जी के इस ग्रंथ में अन्य भाषाओं में रचित बाल साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया गया और बड़ी बात यह कि पूरी निष्पक्षता के साथ कवियों और उनकी रचनाओं की चर्चा की गई। सेवकजी की कृति बालगीत साहित्य बालसाहित्य के क्षेत्र में एक ऐसी अनोखी और अकेली किताब है जो अब तक तीन बार अलग-अलग रूप और अंदाज में प्रकाशित हो चुकी है। दूसरी बार यह कृति 1983 में बालगीत साहित्यः इतिहास एवं समीक्षा नाम से स्वयं सेवकजी के द्वारा ही संशोधित और परिवर्द्धित होकर उ.प्र. हिंदी संस्थान से प्रकाशित हुई थी। उक्त संस्करण में तो कवियों के दुर्लभ चित्र भी उपलब्ध हैं। ग्रंथ में इतिहास के लिए अपेक्षित संदर्भ ग्रंथों का भी ईमानदारी से उल्लेख किया गया है। तीसरी बार इसका प्रकाशन उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान <span style="font-family: inherit;">से ही द्वितीय संस्करण के रुप में प्रो. उषा यादव के कुशल संपादन में हुआ।</span></div><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">बहरहाल, बाल कविता के समूचे परिदृश्य को संजीदगी से समझने के लिए बालगीत साहित्य बहुत ही जरूरी पुस्तक है। सेवकजी एक ऐसे समर्थ रचनाकार थे, जिनकी कविताएँ स्वयं मानक हैं। उनके कथन परिभाषा हैं। उनका मत था कि बाल साहित्य बच्चों के मनोभावों, जिज्ञासाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो। उनकी सोच व्यापक थी, यही कारण है कि बालगीत साहित्य ग्रंथ की रचना करते समय उन्होंने बाल कविता के विस्तृत फलक को अपने अध्ययन का विषय बनाया। कविताओं की चचर्चा करते समय किसी मित्रवाद या क्षेत्रवाद <span style="font-family: inherit;">के वशीभूत नहीं हुए। न जाने कितने लोगों से पत्राचार किया। दिग्गज से दिग्गज, नए से नए और गुमनाम सभी से उनका संपर्क था। इसीलिए चाहे बालक अमिताभ बच्चन के लिए उनके कवि पिता हरिवंशराय बच्चन द्वारा बाल कविता लिखने की बात हो या स्वर्ण सहोदर की प्रकाशन समस्या की पीड़ा। सब कुछ उनकी किताब में सहज मुखरित हुआ। यही कारण था कि उनकी यह कृति केवल बाल कविताओं का ही नहीं, बाल कवियों के अनुभवों और रचना प्रक्रिया का भी दस्तावेज बनी।</span></div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">सेवकजी ने काव्य रचना सात-आठ साल की अवस्था में ही प्रारंभ कर दी थी। अपने अनुज परोपकार देव के साथ खेल-खेल में रचित उनकी तुकबंदी देखिए-मिर्चा, तेल, खटाई, इसको छोड़ो सब भाई। वैसे सेवकजी मूलतः प्रगतिवादी कवि थे। दुर्भाग्य कि उनके इस रूप की जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, नहीं हुई। 1943 में प्रकाशित उनकी पुस्तक चिनगारी तत्कालीन समय में बहुत चर्चित रही थी। सेवकजी मंचों पर भी खूब जाते थे। उनकी कविता विहगकुमार इतनी लोकप्रिय थी कि सेवकजी ही विहग कुमार कहे जाने लगे थे। उनके प्रौढ़ कवि के रूप को जानने समझने के लिए वर्ष 2002 में बरेली से प्रकाशित 'संदर्श' के निरंकार देव सेवक विशेषांक को अवश्य देखना चहिए। सेवकजी का विवाह 1940 में हुआ लेकिन दंपति ने एक अनोखी प्रतिज्ञा की थी कि गुलाम देश में गुलाम संतान पैदा नहीं करेंगे। फलतः सेवकजी सहज ही दूसरों के बच्चों के प्रति आकर्षित हुए फिर उनके साथ खेल-खेल में कविताएँ लिखीं। इस बात की स्वीकारोक्ति सेवकजी ने स्वयं आत्मकथ्य में की है। उस दौर की उनकी एक कविता दृष्टव्य है-तेरे पापा हैं शरमाते, तुझको गोद नहीं ले पाते। पर मैं चाचा, क्यों शरमाऊँ, तुझको चाहे जहाँ घुमाऊँ। चल मैं तुझको पहनाऊँगा दो सौ गुब्बारों का हार। (बाल काव्य की अविरल यात्रा, सं. विनोद चंद्र पांडेय, पृ.35)</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">सेवकजी की पुस्तक मुन्ना के गीत में उन दिनों की अनेक कविताएँ संकलित हैं। उनकी कविता 'मुन्ना और दवाई' में प्रयुक्त शब्द आले तो शायद आज के बच्चे जानते भी न हों। बाल कौतूहल और कौतुक का अत्यंत मनोरम वर्णन इस कविता में है-मुन्ना ने आले पर रक्खी, शीसी तोड़ गिराई। हाथ पड़ा शीसी पर आधा, खींचा उसे पकड़कर। वहीं गिरी वह आले पर से, इधर उधर खड़बड़ कर। (महके सारी गली गली, 1996, पृ. 18)</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">उन्होंने लोरियाँ भी खूब लिखीं। यद्यपि वे मानते थे कि श्रेष्ठ लोरियाँ लिखने की सर्वाधिक क्षमता तो माताओं में ही होती है। उनकी एक लोरी का अंश प्रस्तुत है-मेरा मुना बड़ा सवाना, शाम हुए सो जाता है, ऊधम नहीं मचाता है। बिल्ली रानी, यहाँ न आना अब तुम शोर मचाने को, चूहे, वह बैठी है बिल्ली, तुझे पकड़ ले जाने को। मेरा मुना तुम दोनों के झगड़े से घबराता है, साँझ हुए सो जाता है।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">ऐसे अभिभावक और शिक्षक जो बालकों के भावात्मक विकास के पक्षधर हैं, उनके लिए सेवकजी की कविताएँ सर्वोत्तम उपहार सरीखी है। सेवकजी बाल मन के मर्मज्ञ थे। बालसाहित्य के क्षेत्र में कुछ नया करने की चाह रखने बालों को तो उनकी कविताएँ अवश्य पढ़नी चाहिए। कविताएँ ही नहीं, सेवकजी के कथन भी बालसाहित्य के रचनाधर्मियों के लिए प्रकाश स्तंभ जैसे हैं।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">शंभूप्रसाद श्रीवास्तव, व्यक्तित्व कृतित्व पुस्तक के पृ. 2 पर प्रकाशित अपने आलेख में वह कहते हैं-'बच्चों के लिए साहित्य की कसौटी यही है कि वह बच्चों द्वारा अपनाया जाए। केवल लेखक की आत्माभिव्यक्ति या आत्मतुष्टि के लिए वह नहीं होता।'</div><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjHV-NX8qYbRN7D5SwjOVEWLSQxvShQwclI709WGdB2O1mIHo20OPGgwrKzf9RRqd6bPwIcPxkBWwAoe73_9VbdkHv1Swcbvpi_WHpGQbVlH1RHkrOyrDIg3CCKGa10R2oNtMo2Ue9AujI6Xu5ELQmMf4EaqUXJ3gHxMFpTfr-aRq5mh8NLNyrOTgQo8fWK/s1080/420071838_7065527193526932_1724756585156846506_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; display: inline !important; font-family: inherit; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"><span style="color: #050505; font-family: inherit; text-align: left;"></span></a><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjHV-NX8qYbRN7D5SwjOVEWLSQxvShQwclI709WGdB2O1mIHo20OPGgwrKzf9RRqd6bPwIcPxkBWwAoe73_9VbdkHv1Swcbvpi_WHpGQbVlH1RHkrOyrDIg3CCKGa10R2oNtMo2Ue9AujI6Xu5ELQmMf4EaqUXJ3gHxMFpTfr-aRq5mh8NLNyrOTgQo8fWK/s1080/420071838_7065527193526932_1724756585156846506_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; display: inline !important; font-family: inherit; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em; text-align: center;"></a><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1FdzVk-txBm10F-8PYTVnnpQR2NmmGr3fVofyHSMvfavsKDXnNHvfyzV0dHRbOBnzAhyphenhyphenWlGEbbrv1TcwIm0O_eoukRybZUDBIdAbnG0EOWmc1RbdD4dUiJ5Kcr6nDx650ZSLS8JM4rRAfOsrfDWB5y1oplsIIGK-84W4H8BtneYg8ePmqkMby1ccx_tCc/s1080/420071838_7065527193526932_1724756585156846506_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="959" data-original-width="1080" height="178" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj1FdzVk-txBm10F-8PYTVnnpQR2NmmGr3fVofyHSMvfavsKDXnNHvfyzV0dHRbOBnzAhyphenhyphenWlGEbbrv1TcwIm0O_eoukRybZUDBIdAbnG0EOWmc1RbdD4dUiJ5Kcr6nDx650ZSLS8JM4rRAfOsrfDWB5y1oplsIIGK-84W4H8BtneYg8ePmqkMby1ccx_tCc/w200-h178/420071838_7065527193526932_1724756585156846506_n.jpg" width="200" /></a></div>अपनी पुस्तक बालगीत साहित्य में उन्होंने बाल स्वभाव की सविस्तार चर्चा की है। डा. देवसरे द्वारा संपादित बाल साहित्य रचना और समीक्षा (1979) में प्रकाशित आलेख में भी वे कहते हैं-'बच्चे जिस दृष्टि से सूरज, चाँद तारों, आकाश, बादल.... को देखते हैं, बड़े उन्हें हजार बार देख चुकने के बाद भी उस दृष्टि से नहीं देख पाते। .... बाल स्वभाव के इस प्रकाश में यदि हम बालसाहित्य को देखें तो सोचना पड़ेगा कि जो बाल साहित्य हम बच्चों को देते हैं, उससे उन्हें कितना संतुष्ट कर पाते हैं।' (पृ. 54)</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">बाल साहित्य को लेकर निरंकार देव सेवक की इस लोकप्रिय परिभाषा के आलोक में सिद्धांतों की एक स्पष्ट तस्वीर उभरती है- "बाल साहित्य बच्चों के मनोभावों, जिज्ञासाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो, जो बच्चो का मनोरंजन कर सके और मनोरंजन भी वह जो स्वस्थ और स्वाभाविक हो, जो बच्चों को बड़ों जैसा बनाने के लिए नहीं, अपने अनुसार बनने में सहायक होने के लिए रचा गया हो।" (बाल साहित्य के प्रतिमान, पृ.12)</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">बच्चों के लिए वास्तविक लेखन तभी संभव है, जब रचनाकार के समक्ष सुस्पष्ट प्रतिमान हों। मासिक उत्तर प्रदेश के नवंबर 1987 अंक में प्राथमिक स्तर पर बालगीतों की उपयोगिता आलेख में सेवकजी ने कविता और गीत के अंतर को स्पष्ट करते हुए, गीत रचना के लिए आंतरिक अनुभूति को अनिवार्य तत्व माना था। उन्होंने लिखा था- 'गीत और कविता में आकाश पाताल का अंतर होता है। जिन बातों का अनुभव उन्हें (बच्चों को) वास्तव में नहीं होता, उनका भी अनुभव वह कल्पना में कर लेते हैं। किसी ऊँची गद्दीदार जगह पर बैठकर वह अनुभव करने लगते हैं कि हाथी की पीठ पर बैठकर कहीं जा रहे हों। बादलों में हाथी, घोड़े, भालू, खरगोश और महल बनते देख लेना उन्हीं का काम है।' (पृ. 5)</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">निःसंदेह सेवकजी का लेखन अनुभवसिद्ध लेखन था। बच्चों और बाल साहित्य को लेकर उनके मन में गहरी चिंता थी। अनेकानेक प्रयोगों से उन्होंने बाल साहित्य को समृद्ध किया। बाल साहित्य में नयी शैलियों का भी प्रवर्तन किया। बाल साहित्य जगत में बाल गजल लेखन का शुभारंभ भी उन्होंने ही किया। बाल गजल को परिभाषित करते हुए सेवकजी ने लिखा है- "गजल कोई नज्म नहीं होती, जो किसी एक विषय पर आदि से अंत तक लिखी जाए। गजल का प्रत्येक शेर एक दूसरे से सर्वथा अलग एक भाव लिए होता है और इस दृष्टि से सर्वथा पूर्ण होता है।' मानक बाल गजल के रूप में सेवकजी की यह रचना उदाहरणीय है- हमको लड्डू कचौड़ी गरम चाहिए और सोने को बिस्तर नरमे चाहिए/ पढ़ने लिखने को कहती तो है माँ, मगर/पहले कापी, किताबें, कलम चाहिए / एक चींटी के बच्चे ने मुझसे कहा-नन्हें मुनों पे करना रहम चाहिए / पापा बोले कि बेटा! बड़े अब हुए करना शैतानियां तुमको कम चाहिए। (अभ्यंतर,</div><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">अप्रैल 1991, पृ.14)</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">निरंकार देव सेवक बाल काव्य के युग पुरुष थे। एक से एक नगीने जड़े उन्होंने बाल साहित्य के मुकुट में। किशोर मानसिकता के बच्चे के मन की बात कहती उनकी यह बेजोड़ कविता देखिए-तुम बनो किताबों के कीड़े/हम खेल रहे मैदानों में/तुम घुसे रहो घर के अंदर / तुमको है </div><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">पंडित जी का डर हम सखा तितलियों के बन कर उड़ते फिरते उद्यानों में/ तुम रटो रात- दिन अँगरेजी/कह ए बी सी डी ई एफ जी/ हम तान मिलाते हैं कू कू/करती कोयल की तानों में (प्रतिनिधि बालगीत, 1994, सं. श्रीप्रसाद, पृ. 12)। इस कविता की रचना की कहानी भी अद्भुत है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के टीचर्स टेनिंग कालेज में बी. टी. परीक्षा के दौरान वे इसे उत्तर पुस्तिका पर लिख रहे थे। परीक्षा भवन में काव्यरचना करते देख प्रिंसिपल मलकानी सर ने कहा था, "मैं तुम्हारी सारी कविता भुला दूँगा।" निःसंदेह सेवकजी में बाल काव्य सृजन का जैसे जुनून सा था और इसी के चलते वे बाल साहित्य के भीष्म पितामह बने।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">टमाटर पर संवाद शैली में लिखा उनका एक बाल गीत अनुपमेय है। हिंदी में टमाटर पर तो वैसी प्रस्तुति दूसरी है ही नहीं। यह बच्चों की अंतरंग कविता है। बच्चा इसे चाहे गाये, गाकर झूमे और चाहे अभिनय के माध्यम से इसको जीवंत करे, उसके पास अवसर ही अवसर हैं-लाल टमाटर, लाल टमाटर/मैं तो तुमको खाऊँगा /अभी न खाओ, मैं कुछ दिन में/ और अधिक पक जाऊँगा/लाल टमाटर - लाल टमाटर/मुझको भूख लगी भारी/भूख लगी है तो तुम खा लो/ये गाजर मूली सारी/लाल टमाटर - लाल टमाटर / मुझको तो तुम भाते हो/जो तुमको भाता है भैया/ उसको तुम क्यों खाते हो? (बाल साहित्य सृजन और समीक्षा, पृ. 30)</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">यहां पर यह भी बताते चलें कि मैंने 2012 में प्रकाशित अपनी आलोचना पुस्तक 'बाल साहित्य सृजन और समीक्षा' श्रद्धेय सेवकजी को ही समर्पित की थी।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">उनकी कविता 'अगर मगर' भी लाख टके की है। एकदम सहज विन्यास लेकिन आनुप्रासिक शब्दों के बहाने उसका चामत्कारिक वैभव देखते ही बनता है-अगर मगर दो भाई थे, लड़ते खूब लड़ाई थे। अगर मगर से छोटा था, मगर अगर से खोटा था। अगर मगर कुछ कहता था, मगर नहीं चुप रहता था। बोल बीच में पड़ता था, और अगर से लड़ता था। दोनों के झगड़े के बाद का दृश्य भी गजब का है-माँ यह सुनकर घबराई, बेलन ले बाहर आई! दोनों के दो-दो जड़कर, अलग दिए कर अगर-मगर।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">खबरदार जो कभी लड़े, बंद करो यह सब झगड़े। एक ओर था अगर पड़ा, मगर दूसरी ओर खड़ा। (बालसखा, मई, 1946, पृ. 169) सेवकजी की बहुचर्चित रचनाओं में शिशुगीत 'हाथी राजा' तो विश्व के श्रेष्ठतम शिशुगीत की अग्रिम पंक्ति में रखा जा सकता है। बच्चो की जबान पर चढ़ने वाले ऐसे अमर गीत कभी-कभार ही जन्म लेते हैं- हाथी राजा, कहाँ चले? सूंड हिलाते कहाँ चले? पूँछ हिलाते कहाँ चले? मेरे घर आ जाओ ना, हलुआ-पूरी खाओ ना! आओ, बैठो कुर्सी पर,कुर्सी बोली चर चर चर </div><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">उनके शिशुगीत खासे मजेदार हैं।</div><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">कानावाती कुर्र या और नन्हीं चिड़िया की फुर्र जैसे। तितली पर उनकी कविता तो बहुचर्चित है ही, यह शिशुगीत भी लाजबाव है- मैं अपने घर से निकली, तभी एक पीली तितली। पीछे से आई उड़कर, बैठ गई मेरे सिर पर। तितली रानी बहुत भली, में क्या कोई फूल-कली ?</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">"ऐसे ही 'मच्छर का ब्याह' अत्यंत मनोरंजक शिशुगीत है। मक्खी का दो टूक उत्तर बरबस ही प्रफुल्लित करता है-मच्छर बोला ब्याह करूंगा, मैं तो मक्खी रानी से। मक्खी बोली-'जा-जा पहले, मुँह तो धो आ पानी से! व्याह करूँगी मैं बेटे से, धूमामल हलवाई के, जो दिन-रात मुझे खाने को, भर-भर थाल मिठाई दें।' रानी बिटिया भी निरंकार देव सेवक की विशिष्ट कविताओं में से है। बच्चों के लिए ही नहीं, बड़ों के लिए भी यह कविता जैसे चिंतन का नया आकाश खोलती प्रतीत होती है। रानी बिटिया दिल्ली, चंडीगढ़, जयपुर, रामेश्वर घूमते हुए जब घर लौटती है तो माँ को दिया गया उसका अप्रत्याशित उत्तर मन की पतों को छू-छू जाता है- माँ ने पूछा- 'रानी बिटिया ! कहाँ गई थी बाहर?' बिटिया बोली-'कहीं नहीं माँ, में भी घर के अंदर।' 'घर के अंदर ? रानी बिटिया, ऐसा झूठ सरासर ?' 'झूठ नहीं माँ! सच कहती हूँ, भारत है मेरा घर।' (प्रतिनिधि बालगीत, 1994, सं. श्रीप्रसाद, पू, 14)</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">विभिन्न पाठ्यक्रमों में उनकी सरस कविताएँ वर्षों से पढ़ाई जा रही हैं। चंदा मामा दूर के! कविता को तो हमने भी छुटपन में उछल-उछल गाया है, तारों की उपमा कपूर के दीपकों से, अंगूर के गुच्छों से और मोतीचूर के बिखरे लड्डुओं से करना तो जैसे सेवकजी के ही बस की बात थी -साथ लिए आए तारे, चमक रहे कितने सारे, राजमहल में जैसे जगमग, जलते दीप कपूर के ! चंदा मामा दूर के! दूर-दूर बिखरे तारे, लगते हैं कैसे प्यारे, गिरकर फैल गए हों जैसे, , लड्डू मोतीचूर के! चंदा मामा दूर के! 'दूर देश से आई तितली' कविता भी उत्तर प्रदेश के पाठ्यक्रम के बहाने न जाने कितने बच्चों का कंठहार रही दूर देश से आई तितली, चंचल पंख हिलाती, फूल-फूल पर, कली-कली पर इतराती-इठलाती ।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">उनकी 'पैसा पास होता' कविता में गजब की कल्पनाशीलता है। तोते और घोड़े के बाद चूहे को चना खिलाने से संभावित परिणाम में कितना चुलबुलापन पैसा पास होता तो चार चने लाते, चार में से एक चना को खिलाते, चूहे को खिलाते तो दाँत टूट जाता, दाँत जाता तो बड़ा मजा आता! </div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">बच्चों में निर्भयता के संस्कार जगाती उनकी एक अनूठी कविता नंदन के जून, 1988 अंक में पढ़ी थी- चींटी डरती नहीं कि हाथी, कुचल पाँव से देगा। जुगनू डरता नहीं कि कोई पकड़ हाथ में लेगा। चिड़ियाँ डरती नहीं कि पेड़ों से टकरा जाएगी। मछली डरती नहीं कि मोटी मछली खा जाएगी। तब फिर हम क्यों डरें किसी से, कुत्ता बंदर हो। चूहा, बिल्ली, बकरा बकरी, चाहें शेर बबर हो। (पृ.47) वास्तव में बच्चों को ऐसी ही प्रेरक कविताएँ दी जानी चाहिए।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">सेवकजी ने किशोर मानसिकता की कविताएँ भी खूब रचीं। डॉ. रोहिताश्व अस्थाना द्वारा संपादित चुने हुए बालगीत में उनकी कविता में किशोरों के मन की सफल अभिव्यक्ति देखते ही बनती है- पंडित मोहनलाल तिवारी, हिंदी हमें पढ़ाते हैं। लेकिन वह सीधे शब्दों के, उलटे अर्थ बताते हैं।... मैं जब कहता इन शब्दों का, यह तो अर्थ नहीं होता। तब वह कहते तेरी क्या है, तू तो है रट्टू तोता।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">(पृ.147)</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">सेवकजी की बहुतेरी कविताएँ कथात्मक शैली में हैं। उनकी एक कविता पर तो एक युवा रचनाकार ने अपने नाम से पूरी कहानी ही लिख दी थी। उसके प्रकाशित होने पर मैंने आपत्ति की थी कि इस कहानी के साथ मूल लेखक निरंकारदेव सेवकजी का भी उल्लेख होना चाहिए था। बहरहाल आप उस कविता की अलमस्ती देखिए, जहाँ दो चिड़ियों के रोचक बार्तालाप को चंचल छटाएँ हैं- बच्चा एक बहुत ही सुंदर, रहता है इस घर के अंदर ! मुझे बड़ा प्यारा लगता है, नाम न जाने उसका क्या है। मैं तो उससे ब्याह करूँगी, उसको टॉफी-बिस्कुट दूँगी! कहा दूसरी ने मुसका कर, 'यह घर अच्छा तो लगता है, पर। चिड़ियाँ कहीं ब्याह करती हैं, वह तो बच्चों से डरती हैं। तू यदि उससे ब्याह करेगी, पिंजड़े में बेमौत मरेगी।'</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">सेवकजी ने पद्य कथाएँ खूब लिखीं। उनकी गीत कथाएँ तो खासी चर्चित हुई। हाँ, उन्होंने जीकहानियाँ भी लिखीं। नंदन, अप्रैल, 1988 पू. 61 पर प्रकाशित उनकी कहानी उपवास किशोरोपयोगी है। अभिमानी श्वेतकेतु की रोचक कथा के बहाने किशोरों में अप्रत्यक्ष रूप से संस्कार जगाने की भी कोशिश है।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZcWNqAVgFkQA4BdTAJiXek3R5YqTSG6A786oZsSk5QcfyzzEsK6-AV5zRNadDZaBwQlVIsN2brPL7wLQHPH7BrFbPmjgWc5bVhtTgC3C-7iAo93aLqHgMq4XpdNpkUnTgX9sHD7cYmoaqOwJ3H-gTN87bZy3jysAaLFU2d2wLjO3XTmxv9VfByB0z7VFZ/s1080/420106590_7065527523526899_2381816005705545545_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="603" data-original-width="1080" height="179" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgZcWNqAVgFkQA4BdTAJiXek3R5YqTSG6A786oZsSk5QcfyzzEsK6-AV5zRNadDZaBwQlVIsN2brPL7wLQHPH7BrFbPmjgWc5bVhtTgC3C-7iAo93aLqHgMq4XpdNpkUnTgX9sHD7cYmoaqOwJ3H-gTN87bZy3jysAaLFU2d2wLjO3XTmxv9VfByB0z7VFZ/s320/420106590_7065527523526899_2381816005705545545_n.jpg" width="320" /></a></div>सेवकजी का संपर्क देश के विभिन्न प्रांतों के बाल साहित्यकारों से था। उन्होंने अनुवाद कार्य भी किया है। सुनिर्मल बसु की बंगला कविता का यह अनुवाद देखिए- बना रहे हैं दाल पकौड़ी तलकर चंदा मामा। पास गए खाने को हम सब, शंकर मोहन, श्यामा। बहुत कड़ा उनका मिजाज है मोढ़े पर बैठे हैं। देखो कैसा बना रहे मुँह मन ही मन ऐंठे हैं। (बाल साहित्य समीक्षा, जनवरी 1979) अलिखित बालगीतों पर लिखे अपने एक आलेख में उन्होने अलिखित बाल साहित्य के खजाने को खोजने का आवाहन किया है- 'आवश्यकता है कि हम उस अलिखित बाल साहित्य का उसी प्रकार संकलन कर अध्ययन करें जैसे हमने लोकगीत साहित्य का किया है। इसके बिना हमारा बालगीत साहित्य अधूरा ही रहेगा।' (त्रिविधा, 1994, बाल भवन, पृ. 57) इस दिशा में काम होना चाहिए।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">सेवकजी के बालसाहित्य पर पी-एच.डी . उपाधि हेतु कुछ शोधकार्य भी हुए। यद्यपि यह संख्या अत्यल्प है। रुहेलखंड वि.वि. से डॉ. अवधेश कुमार शुक्ल ने 1987 में निरंकारदेव सेवक के काव्य का समीक्षात्मक अध्ययन, डॉ. नृपेंद्र कुमार ने 1994 में निरंकारदेव सेवक की बाल कविताओं का मनोवैज्ञानिक अध्ययन और आगरा वि. वि. से 2002 में डॉ. चिरौंजी लाल ने निरंकार देव सेवक के बाल साहित्य का समालोचनात्मक अध्ययन विषय पर शोधकार्य किया हैं। उन जैसे बालसाहित्य के सच्चे रचनाकार पर जमकर काम होना चाहिए। शोध निर्देशकों और शोधार्थियों का ध्यान इस ओर जाना चाहिए। ... और उन बालसाहित्यकारों का भी जो अपने निजी संबंधों के आधार पर बस अपने ही ऊपर शोध कार्य की फिराक में रहते हैं। सेवकजी समर्पित बालसाहित्य सेवक थे। बालसाहित्य के लिए जिये। पत्नी और पुत्र के निधन की त्रासदी झेलते हुए भी उन्होंने बाल साहित्य के समर्पण को कम नहीं होने दिया। </div><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgb68mIJBCUa7wsIGNXEf7wX6GDZyqh9SLkgjKP5omWq-uuF2qK9Bqd9hLBZHYFJOwUPk1TzobVQzj2wjOnGdJ3hBgUyPFDd6Yon1C_N4XqPvgVXaCMbFtlES5V6lzc5HQPSAIN4XIJNLzA8MgAelWSqSgTm1aYv8kLWHBhQRJwEDMIFFIaXr3Knw1j4EIH/s1080/420047755_7065301920216126_9115782137165275526_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="723" data-original-width="1080" height="214" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgb68mIJBCUa7wsIGNXEf7wX6GDZyqh9SLkgjKP5omWq-uuF2qK9Bqd9hLBZHYFJOwUPk1TzobVQzj2wjOnGdJ3hBgUyPFDd6Yon1C_N4XqPvgVXaCMbFtlES5V6lzc5HQPSAIN4XIJNLzA8MgAelWSqSgTm1aYv8kLWHBhQRJwEDMIFFIaXr3Knw1j4EIH/w320-h214/420047755_7065301920216126_9115782137165275526_n.jpg" width="320" /></a></div><br />उनकी पुत्रवधू पूनम सेवक के पास उनसे जुड़े ढेरों किस्से हैं। समय रहते उन्हें सहेज लेना चाहिए। सेवकजी से मेरा पत्राचार रहा। उनके लिखे अनेक पोस्टकार्ड मेरी धरोहर हैं। 21 दिसंबर 1990 के उनके एक पत्र को प्रस्तुत करने का लोभ में संवरण नहीं कर पा रहा, जिसे मैं प्रायः अपने माथे पर रख लेता हूँ। तब ऐसा लगता है कि सेवकजी आशीर्वाद दे रहे हैं-</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;"><i>प्रिय छोटे भाई,</i></div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;"><i>आपका उत्तर दो महीने बाद दे पा रहा हूँ। लिखने पढ़ने का काम बहुत है और अकेला मैं करने वाला हूँ।</i></div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;"><i>आपने नया लिखना प्रारंभ किया है, खूब लिखें और खूब पढ़ें। पढ़ें वह जो वैचारिकता का विकास करने वाला हो। आप साहित्य के क्षेत्र में आगे बढ़ें, यही कामना करता हूँ। </i></div><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;"><i>सस्नेह, निरंकार देव सेवक</i></div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">सेवकजी का एक और पत्र जो कानपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका सामाजिक कल्याण संदेश के अक्टूबर 1990 अंक के पृ. 26 पर रामसिंहासन सहाय मधुर के देहांत पर लिखा गया था, भी इसलिए प्रस्तुत कर रहा हूँ, क्योंकि उसमें कहीं न कहीं सेवकजी की अंतर्व्यथा उजागर होती है। दृष्टव्य-<i><b>यह जानकर बहुत दुख हुआ कि बलिया एक ऐसी गौरवमयी विभूति से वंचित हो गया जिस पर हिंदी बालसाहित्य जगत को गर्व था। यह हम हिंदी वालों की दरिद्रता ही है कि उनके जीवन काल में उनका समुचित सम्मान नहीं कर सके। राजनीति सामाजिक जीवन पर ऐसी छाई है कि साहित्यकार और बुद्धिजीवी सब पिछड़कर रह गए हैं। मधुरजी के पीछे अब अपने नंबर की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। -निरंकार देव सेवक</b></i></div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;"> सेवकजी के जन्म शताब्दी वर्ष पर उनकी चुनिंदा कविताएँ प्रकाश मनु के संपादन में आई हैं। बालवाटिका का विशेषांक आया है। अन्य पत्रिकाओं को भी यह</div><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">पुनीत कार्य करना चाहिए।</div><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">एक समय था जब बरेली में प्रतिवर्ष सेवक जी की स्मृति में राष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठी होती थीं। मैं भी उनमें सम्मिलित हुआ हूँ। हम सब सेवकजी के घर पर ठहरते थे। डॉ. श्रीप्रसाद, डॉ. प्रतीक मिश्र, कृष्ण शलभ, सूर्यकुमार पांडेय, पूनम सेवक, निर्मला सिंह, फहीम करार इत्यादि और मैं (नागेश पांडेय संजय) कितनी बार सारी सारी रात जागकर कितना बतियाते थे। सेवक जी की बातो को याद कर भावुक होते हुए रो पड़ते थे। उन दिनों रुहेलखंड विश्वविद्यालय में निरंकारदेव सेवक शोधपीठ की स्थापना की माँग ने जोर पकड़ा था। तत्कालीन कुलपति और जिलाधिकारी महोदय ने आश्वस्त भी किया था लेकिन बात आगे नहीं बढ़ सकी।</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">विनोद चंद्र पांडेय द्वारा संपादित ग्रंथ 'बाल काव्य की अविरल यात्रा' में पृ. 41 पर प्रकाशित निरंकारदेव सेवकजी के आत्मकथ्य में प्रस्तुत उनकी अधूरी इच्छाएँ विगलित करती हैं। खासकर केंद्र सरकार द्वारा बाल साहित्य अकादमी की स्थापना की उनकी चाह पर विशेष रूप से काम होना चाहिए। यह उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी</div></div><div class="x11i5rnm xat24cr x1mh8g0r x1vvkbs xtlvy1s x126k92a" style="animation-name: none !important; background-color: white; color: #050505; font-family: "Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 15px; margin: 0.5em 0px 0px; overflow-wrap: break-word; transition-property: none !important; white-space: pre-wrap;"><div dir="auto" style="animation-name: none !important; font-family: inherit; transition-property: none !important;">डॉ. नागेश पांडेय संजय</div></div>डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-17372514528363550612023-11-24T04:12:00.000-08:002023-11-24T04:12:55.858-08:00प्रतिनिधि बाल कविता संचयन<p></p><p dir="ltr"></p><div style="text-align: center;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhiHEVZYS5OtWZk8bL_neQxUp8WbFb8LqelAmrRiFk67tLoIY8vJ8SmEZ2BJYXx38y5-gMdCqnFJ9UfsKzfZesyGG__OgfSKeKNpTA3fs8EguUOIbHeEJCmufsoKPFsrtwBkCkpgZNPud4uKgE1W1dUsDqIyEUJGiqdmVPDR-rrFQ1Ua5lpovUQypWpiJsp/s1400/Screenshot_20231124-170754_Chrome.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1400" data-original-width="855" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhiHEVZYS5OtWZk8bL_neQxUp8WbFb8LqelAmrRiFk67tLoIY8vJ8SmEZ2BJYXx38y5-gMdCqnFJ9UfsKzfZesyGG__OgfSKeKNpTA3fs8EguUOIbHeEJCmufsoKPFsrtwBkCkpgZNPud4uKgE1W1dUsDqIyEUJGiqdmVPDR-rrFQ1Ua5lpovUQypWpiJsp/s320/Screenshot_20231124-170754_Chrome.jpg" width="195" /></a></div><br />'<b>प्रतिनिधि बाल कविता-संचयन': एक शानदार कोशिश</b></div>
•डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'<br /><br />
पिछले दिनों हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक डा. दिविक रमेश के संपादन में एक महत्वपूर्ण संकलन 'प्रतिनिधि बाल कविता-संचयन' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। यह एक शानदार कोशिश है जिसके लिए साहित्य अकादमी की भरपूर सराहना की जानी चाहिए और अपेक्षा भी कि अन्य विधाओं में भी ऐसे अनुष्ठान भविष्य में निष्पादित होते रहेंगे। संकलन में नए-पुराने 195 रचनाकारों की अलग-अलग शेड्स की बाल कविताएँ हैं। संकलन में उन्हीं बाल कविताओं को चयनित किया गया है, जो आज के बालक की कविताए कही जा सकतीं हैं। इस दृष्टि से संपादक के श्रम और कौशल की प्रशंसा करनी होगी। बकौल संपादकः मेरी निगाह में कविताएँ वैज्ञानिक सोच, प्रतिकूल मूल्यों और अंधविश्वासों से मुक्त, कल्पना और जिज्ञासा को प्रेरित करने वाली लेकिन शैली में विश्वसनीयता की बुनियाद पर टिकी, नये प्रयोगों और नये ट्रीटमेंट से समृद्ध हों। कविताएँ पहले की तरह सीधे-सीधे उपदेशात्मक शैली की न हों। समझ पिरोयी हुई हो सकती है। (पृ. 7)<p></p><p dir="ltr">दिविक जी धुन के धनी और अत्यंत अनुभवी रचनाकार हैं। उन्होंने न केवल श्रेष्ठ बाल कहानियाँ और कविताएँ लिखी हैं बल्कि बाल साहित्य की आलोचना की दिशा में भी गंभीर कार्य किया है। अनुवाद की दृष्टि से भी उनका अवदान उल्लेखनीय है। आज के बच्चे की बदली हुई सोच और परिपक्व मानसिकता की ओर संकेत करते हुए वे संपादकीय में लिखते हैं: आज उसके (बालक के) सामने संसार भर की सूचनाओं का अच्छा खासा भण्डार है और उसका मानसिक विकास पहले के बालक से कहीं ज़्यादा है। वह बड़ों के बीच उन बातों तक में हिस्सा लेने का आत्मविश्वास रखता है जो कभी प्रतिबंधित मानी जाती रही हैं। आज का बच्चा प्रश्न भी करता है और उसका विश्वसनीय समाधान भी चाहता है। आज के सजग बच्चे की मानसिकता पुरानी मानसिकता नहीं है जो प्रश्न के उत्तर में 'डाँट' या 'टाल मटोल' स्वीकार कर ले। वह जानता है कि बच्चा माँ के पेट से आता है चिड़िया के घोंसले से नहीं। दूसरे, हमें बच्चे को पलायनवादी नहीं बल्कि स्थितियों से दो-दो हाथ करने की क्षमता से भरपूर होने की समझ देनी होगी। अहंकारी, उपदेश या अंध आज्ञापालन का जमाना अब लद चुका है। बात का ग्राह्य होना आवश्यक है। और बात को ग्राह्य बनाना, यह साहित्यकार की तैयारी और क्षमता पर निर्भर करता है। (पृ. 13)</p><p dir="ltr">संकलन की भूमिका अत्यंत विचारोत्तेजक और शोधपूर्ण है। दिविकजी ने न केवल बाल कविता के बदलते मिजाज को लेकर गंभीर विमर्श परोसा है अपितु बाल कविता जो कि बाल साहित्य का मूल भी है, के परिप्रेक्ष्य में बाल साहित्य के विविध आयामों की भी तात्विक चर्चा की है। बाल साहित्य में व्याप्त विसंगतियों को लेकर भी वे चिंतित दिखे हैं और बाल साहित्य लेखकों के यथोचित सम्मान हेतु भी उन्होंने तार्किक ढंग से अपनी बात रखी है। संकलन को उन्होंने चयन के रूप में प्रस्तुत किया है और कहा जा सकता है कि यह चयन अभूतपूर्व है। बाल साहित्य की अपनी शास्त्रीयता है। बाल कविता के सौंदर्यशास्त्र की आवष्यकता की ओर भी दिविकजी ने संकेत किया है।</p><p dir="ltr">हिंदी में जबरदस्त बाल कविताओं का अभाव तो नहीं है किंतु जबरदस्ती लिखी बाल कविताओं की खासी भरमार है। छपास के मोह में बहुत से लिक्खाड़ उत्तम साहित्य की सर्जना से बेफिक्र... बस पुस्तकों की संख्या बढ़ाने में लगे रहते हैं। येन केन प्रकारेण पुस्तक आनी चाहिए और उसके लिए कहीं न कहीं से पुरस्कार भी प्राप्त हो जाए, बस यही लक्ष्य रहता है। पिष्टपेषण और पुनरावृत्ति के शिकार रचनाकारों की यात्रा बहुत लंबी नहीं होती।</p><p dir="ltr">दिविक जी ने जहाँ इस संकलन में पुराने रचनाकारों की भी कालजयी रचनाओं को आज के संदर्भ में उपयुक्तता के आधार पर ससम्मान प्रस्तुत किया है, वहीं नए (और कुछ नवसिखुए) रचनाकारों की भी प्रतिनिधि बाल कविताएँ प्रोत्साहन और बाल कविता की वर्तमान स्थिति को जताने के उद्देश्य से संकलित की हैं।</p><p dir="ltr">बकौल संपादकः कहीं न कहीं मन में अधिक से अधिक नये रचनाकारों और उनकी सुयोग्य रचनाओं को स्थान देने की प्रबल इच्छा मन में थी ताकि बाल साहित्य के वर्तमान परिदृश्य के बारे में आकलन हो सके कि वह कितना समृद्ध है अथवा कितना कमजोर है। (पृ. 5)</p><p dir="ltr">बहरहाल बाल काव्य के क्षेत्र में आए नए कवियों में शादाब आलम की तरह कम ही लोग हैं, जिनकी बाल कविताएँ, नवीनता और छंद: दोनों ही दृष्टि से मुकम्मल बाल कविताएँ हों। सृजन अभ्यास चाहता है। कविता केवल तुकबंदी नहीं है। विषय की दृष्टि से अत्युत्कृष्ट कविताओं पर यदि शिल्प की दृष्टि से थोड़ा-सा श्रम कर लिया जाय तो इनका स्वरूप ही कुछ और हो जाता। बाल कविताओं में छद का बड़ा महत्व है, ऐसी कविताएँ बच्चे उछल उछल कर गाते और गुनगुनाते हैं। ऐसी कविताएँ उनके मन में बैठ जाती हैं। जबकि पद्म के रूप में गद्य जैसी कविताएँ बच्चे पढ़ तो लेते हैं किंतु वे उनके स्मृति पटल पर अंकित नहीं हो पातीं। लयहीन कविताओं की स्थिति स्वादिष्ट खीर में कंकड़ की भांति होती है। बच्चा कविताएँ क्यों नहीं पढ़ता ? अन्यथा लेने की बात नहीं है, मछली जल की रानी है जैसी कविताएँ पीढ़ियों से बच्चे की जुबान पर क्यों चढ़ी हैं? नवसृजन करते हुए इसका चिंतन अवष्य करना चाहिए। बच्चों की अदालत में हमारी कविता का हश्र क्या होगा, इस दिशा में लेखकीय जिज्ञासा-तत्परता जरूरी है।</p><p dir="ltr">706 पृष्ठों के इस ग्रंथाकार संकलन को देखकर किसी समुद्र-सा आभास होता है। हालाकि समुद्र में रत्न, मोती, शंख, मणियों के साथ-साथ घोंघे भी होते हैं। यह संकलन भी उस परिस्थिति से पृथक नहीं है।</p><p dir="ltr">यह चयन यह सिद्ध करता है कि बाल कविताओं का फलक अत्यंत व्यापक है। बच्चे की सोच आज पूरी तरह बाल कविताओं में मौजूद होनी चाहिए। यही नहीं, पुराने रचनाकारों की जो बाल कविताएँ बच्चे के मन को समझ कर लिखी गई थी, वे आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए हैं। समय के अनुसार यदि अन्य पुरानी बाल कविताओं में किंचित संशोधन और संपादन कर लिया जाए तो वे भी अपनी प्रासंगिकता सहज ही सिद्ध कर सकती हैं। यह चयन बाल कविता के क्षेत्र में मील के पत्थर की भांति है। बाल साहित्य में सदैव इसकी अनुगूँज बनी रहेगी और भविष्य के उच्चतम संकलनों के लिए यह चयन दिशा बोधक के रूप में कार्य करेगा, इसमें संदेह नहीं।</p><p dir="ltr">संकलन की शुरुआत श्रीनाथ सिंह (जन्म 1901) की कविता 'मुन्नी की हैरानी' से हुई है और संकलन की अंतिम कविता 'बड़ा' चन्द्रदत्त इंदु (जन्म 1935) की है। यानी की रचनाकारों का कोई प्रचलित क्रम (जन्म या अकारादि) नहीं है। संपादक के अनुसार रचनाएँ मिलने का क्रम अनुक्रम का आधार बना है।</p><p dir="ltr">काश! इस महत्त्वपूर्ण संकलन में जन्मतिथि का क्रम अपनाया जाता तो बाल कविता के विकास क्रम को समझने में सहायता मिलती। संकलन में न तो रचनाकारों का परिचय है और न ही पते । कविताओं के साथ कवियों के चित्रों का भी सामंजस्य किया जा सकता था। आगामी संस्करण में यह कार्य हो सके तो यह संकलन दुर्लभ और ऐतिहासिक महत्त्व प्राप्त करेगा। साथ ही इसे बालोपयोगी बनाने के लिए कविताओं के साथ खाली स्थान पर संबंधित चित्र भी दिए जाने पर विचार करना चाहिए।</p><p dir="ltr">...और अब संकलन की कुछ कविताओं पर चर्चा करने से पूर्व बाल कविता के प्रतिमानों पर दिविक जी की यह टिप्पणी अवश्य पढ़ ली जाए जो कि खासी विचारणीय है। रचनाकार के जेहन में उनका यह अभिकथन रहेगा तो बाल कविता के कदम निश्चय ही वैभवोन्मुखी रहेंगे। वे कहते हैं-जब मैं बालक की बात कर रहा हूँ तो मेरे ध्यान में शहरी, कस्बाई, ग्रामीण, आदिवासी, गरीब, अमीर, लड़की, लड़का आदि सब बालक हैं। भारतीय बच्चों का परिवेश केवल कम्प्यूटर, सड़कें, मॉल्ज, आधुनिक तकनीक से सम्पन्न शहरी स्कूल, अंतर-राष्ट्रीय परिवेश ही नहीं है (वह तो आज के साहित्यकार की निगाह में होना ही चाहिए), गांव-देहात तक फैली पाठशालाएँ भी है, कच्चे पक्के मकान-झोंपड़ियाँ भी हैं, उन के माता-पिता भी हैं, उनकी गाय-भैंस-बकरियाँ भी हैं। प्रकृति का संसर्ग भी है। वे भी आज के ही बच्चे हैं। उनकी भी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।</p><p dir="ltr">इस संकलन में ऐसे ही बच्चों की उत्तमोत्तम बाल कविताएँ हैं। शिशु, बालक और किशोर: सभी आयु वर्ग के बालकों के लिए रचनाएँ चयनित की गई हैं।</p><p dir="ltr">हरिवंशराय बच्चन की आनंदित बच्चे के स्वाभाविक मनोभावों से पगी इस कविता का अंदाज देखिए। कोई सीख भी नहीं, फिर भी अंतः प्रेरणा और उत्सुकता जगाने का कैसा कौशल इसमें विद्यमान है-आज उठा में सबसे पहले, सबसे कहता आज फिरूँगा, कैसे पहला पत्ता डोला, कैसे पहला पंछी बोला, कैसे कलियों ने मुंह खोला, कैसे पूरब ने फैलाए बादल पीले, लाल, सुनहले। (पृ. 74)</p><p dir="ltr">भारतभूषण अगवाल की कविता तो जैसे किसी कुलगीत का आनंद देती है-हम पहाड़ पर रहते हैं। देवदार की बांह यहां, करती शीतल छांह यहां। भेड़ें चरती हैं घाटी में, झर झर झरने बहते हैं। हम पहाड़ पर रहते हैं। (पृ. 79) बाल काव्य में प्रकृति लेखकों का प्रिय विषय रहा है। देवेंद्र कुमार ने इस क्षेत्र में दस कदम आगे बढ़कर क्या खूब रचा है-कूड़े पर एक फूल खिला। सुंदर पीला फूल खिला। पृ.196</p><p dir="ltr">मधु पंत पेड़ का मानवीकरण करते हुए पेड़ के चलने की कल्पना करती हैं-यदि पेड़ों के होते पैर, सारा दिन वे करते सैर। (पृ.143) तो गोपाल राज गोपाल ने अगर कहीं जो चलते पेड़, बच्चों जैसे पलते पेड़। बेसुध माता लगती कहने, कहीं नीम को देखा तुमने? चार घड़ी से वह गायब है, वस्त्र हरे थे पहने उसने। (पृ.562) लिखकर बालकविता को किस ऊँचाई पर पहुँचा दिया है!</p><p dir="ltr">निरंकारदेव सेवक की चर्चित कविता: रोटी अगर पेड़ पर लगती, तोड़ तोड़ कर खाते। तो पापा क्यों गेहूँ लाते, और उन्हें पिसवाते। रोज़ सवेरे उठकर हम, रोटी का पेड़ हिलाते। रोटी गिरती टप टप टप टप, उठा-उठा कर खाते। (पृ. 42) यह जताती है कि बालकाव्य का सृजन कितना आह्लादकारी है। महादेवी वर्मा की घर में पेड़ कहाँ से लाएँ, कैसे यह घोंसला बनाएँ। किससे यह सब बात कहेगी। अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी। (पृ. 700) कविता बाल संवेदनाओं से उपजी मार्मिक रचना है। बाल कविता में करुणा का समावेष भावी पीढ़ी में रागात्मक संबंधों की संभावनाएँ निरूपित करता है। <br />
जल संकट और संचय को लेकर इस संचयन में प्रकाश मनु की बेजोड़ कविता है, जिसमें खिलंदड़ापन कूट-कूट कर भरा है- देखो पानी की शैतानी, ओहो चला गया है पानी। अभी बहुत हैं काम अधूरे, घर-भर को अभी नहाना था। छुटकू कूद रहा है कब से, उसको पिकनिक पर जाना था। पृ. 218 प्रभुदयाल श्रीवास्तव की अगर हमारे वश में होता, नदी उठाकर घर ले आते (पृ. 133) कविता की कल्पना भी गजब की है। ... और सुशील शुक्ल की इस नन्हीं कविता के तो कहने ही क्या एक पत्ते पर धूप रखी थी, एक पत्ते पर पानी। धूप ने सारा पानी सूखा, हो गई खतम कहानी। (पृ. 684)</p><p dir="ltr">वर्षा आई-वर्षा आई जैसी सामयिक कविताओं का ढेर लगानेवाले लिक्खाड़ों को सुभद्राकुमारी चौहान की यह कविता अवश्य पढ़नी चाहिए-अभी अभी थी धूप, बरसने लगा कहाँ से यह पानी? किसने फोड़ घड़े बादल के, की है इतनी शैतानी। (पृ. 698) इस तरह की अलग अंदाज की सामयिक कविताएँ कम ही<br />
देखने को मिलती हैं। कृष्ण शलभ का सूरज से संवाद भी बहुत सरस और खिलंदड़ा है-रविवार ऑफिस बंद रहता, मंगल को बाजार भी। कभी-कभी छुट्टी कर लेता, पापा का अख़बार भी। ये क्या बात तुम्हीं बस छुट्टी नहीं मनाते हो? सूरज जी तुम इतनी जल्दी क्यों आ जाते हो? पृ. 243<br />
नई रचनाकार दिशा ग्रोवर की कविता प्राकृतिक उपादानों की अभिलाषा जैसा एकदम नवीन विषय सृजित करती है-हम बच्चों के झूले खातिर, टहनी सदा झुकाएँ। कुछ पीड़ा सहकर भी वे तो, किलकारी फैलाएँ। लिख दे कविता 'पेड़ों पर हम, पेड़ चाहते होंगे। पृ. 434 सृष्टि पांडेय की कविता चिरों देवी सुनो सुनो, पंख नहीं है मेरे पास, बोलो कैसे करूँ प्रयास? क्या जहाज का टिकट कटाऊँ, तुम से भी ऊँचे हो आऊँ। (पृ. 507) चपल बच्चो में उपजती मौलिक युक्तियों की अभिव्यक्ति है। <br />
प्रयाग शुक्ल की बढ़ती जाती नाव, कहाँ नाव के पांव! वह पानी पर चलती. चलती और मचलती। (पृ. 126) प्रयोगधर्मी रचना है।</p><p dir="ltr">संकलन में ऐसी भी कविताएँ हैं जिनमें शिक्षण के अनेकानेक आयाम समाहित हैं। जैसे रमेश कौशिक की पहेलीनुमाँ कविता बताती है कि पेड़ कहां-कहाँ नहीं है- तुम्हारी मेज कुर्सी, जिस पर तुम पढ़ते हो, मैं हूँ। मेले में, काठ का घोड़ा, जिस पर तुम चढ़ते हो, मैं हूँ। पतला सा कागज, जिस पर तुम लिखते हो, मैं हूँ। पृ.101</p><p dir="ltr">बाल कविताएँ बाल चिंतन से अनुप्राणित होनी चाहिए। बाल संदर्भित वयस्क चिंतन से युक्त कविताओं को बाल कविता नहीं कह सकते। ऐसी कविताओं से बड़े तो साहित्यिक आनंद पाते हैं, बच्चे नहीं। वात्सल्य रस के अंतर्गत आनेवाली रचनाएँ भी बाल साहित्य नहीं होतीं। वहाँ बाल क्रीडाओं से वयस्क प्रमुदित होते हैं। इस संकलन के प्रश्न 366 पर प्रकाशित इस वयस्क कविता का अंश देखिए-मुंह अंधेरे, साइकिल पर बस्ते की जगह होता था डीजल का जरीकेन। कभी होती ओस भरी पतली मेंड़ पर, डगमगाती साइकिल के कैरियर में, पुराने रबर ट्यूब से कसी गेहूँ की बोरी। रविवार को ही लगता था साप्ताहिक बाजार, लाना होता था पूरे हफ्ते की सब्जी, डालडा, भैंस के लिए खली, लालटेन का षीषा। यह कविता अच्छी होते हुए भी बाल कविता तो कतई नहीं है।<br />
शिशुगीतों के उस्ताद शेरजंग गर्ग चुटीले अंदाज में लेखन के लिए समाद्भुत हैं। गुड़िया पर हिंदी में ऐसी रचना शायद ही दूसरी हो-गुड़िया है आफत की पुड़िया, बोले हिंदी, कन्नड़, उड़िया। नानी के संग भी खेली थी, किंतु अभी तक हुई न बुढ़िया। पृ. 99<br />
संकलन में मनोरंजन जो बालसाहित्य का अनिवार्य तत्व है, से युक्त अनगिनत कविताएँ हैं। बानगी के तौर पर कुछ कवितांश देखिए आधी सच्ची आधी झूठी, सुनो कहानी। चींटे ने हाथी को काटा, हाथी ने गुस्से में आकर चींटे को जो मारा चांटा। चिल्लाया वो नानी नानी दामोदर अग्रवाल, पृ. 92</p><p dir="ltr">आठ फीट की टांगे होती, चार फीट के हाथ बड़े। तो मैं आम तोड़कर खाता, धरती से ही खड़े-खड़े। कान बड़े होते दोनों ही, दो केले के पत्री से। ती मैं सुन लेता मामा की, बातें सब कलकत्ते से-श्रीप्रसाद, पृ. 62</p><p dir="ltr">घ्एक था राजा एक थी रानी, दोनों करते थे मनमानी। राजा का तो पेट बड़ा था, रानी का भी पेट घड़ा था। काम यही था बक बक-बक बक। नौकर से बस झक झक झक झक-जयप्रकाश भारती पृ. 56</p><p dir="ltr">योगेंद्रदत्त शर्मा रचित सुनो पप्पू! मियाँ गप्पू । उड़ाते हो बिना पर की, सदा बातें अललटप्पू। (पृ. 327) और शादाब आलम की अगर हंसी का चूरन बिकता, खिला-खिला हर मुखड़ा दिखता। घर में कोई मुझे डाँटता, तो लाकर मैं इसे चाटता। (पृ. 390) कविताएँ भी प्रचुर मनोरंजन करती हैं।</p><p dir="ltr">संकलन का आकर्षण एक नए ढंग की लोरी भी है जो रमेश तैलंग ने लिखी है। सच, किताब को थपथपाते हुए बच्चे के सुमधुर स्वर की कल्पना कितनी रोमांचक है-रात हो गई तू भी सो जा, मेरे साथ किताब मेरी। सपनों की दुनिया में खोजा, मेरे हिसाब किताब मेरी। पृ.208</p><p dir="ltr">सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता-अगर कहीं मिलती बंदूक, उसको मैं करता दो टूक। नली निकाल बना पिचकारी, रंग देता यह दुनिया सारी। (पृ. 50) यह सिद्ध करती है कि बालसाहित्य केवल बालको के लिए ही नहीं होता। बड़ों के लिए भी इसके बड़े निहितार्थ हो सकते हैं।</p><p dir="ltr">कुसुम अग्रवाल और परशुराम शुक्ल की कविताएँ बच्चों को बड़ों के बचपन से जोड़ती हैं। साथ ही संवाद की दिषा में भी बच्चों के स्वर में स्वर मिलाती हैं-दादी जब तुम बच्ची थी, क्या हम सबसे अच्छी थी। शैतानी ना करती थीं, सभी बड़ों से डरती थी? कैसी थी तुम पढ़ने में? लड़ने और झगड़ने में? (पृ. 579) कुसुमजी की ही तरह षुक्लजी भी बाल संवाद को स्वर देते हैं-पापा सच-सच मुझे बताना, कुछ भी मुझसे नहीं छिपाना। मेरे जैसे जब बच्चे थे, तब के अपने हाल सुनाना। (पृ. 274)</p><p dir="ltr">पुष्पलता शर्मा की रचना कामकाजी माताओं की संतानों की अपेक्षा का सच्चा प्रतिनिधित्व करती है-आज न दफ्तर जाओ मम्मी। कुछ पल साथ बिताओ मम्मी। (पृ. 611)</p><p dir="ltr">दरअसल बाल अपेक्षा और बाल समस्या पर कलम चलाने की अपार संभावनाएँ हैं। पुताई की स्थिति में घर के हाल और बालक की प्रतिक्रिया इस कविता में देखी जा सकती है-मेरे घर में हुई पुताई, भैया समझो शामत आई। पूरे घर में मचा झमेला, बच्चे बड़े सभी ने झेला। कैसे बाहर हो अलमारी, कहाँ रखें ये चीजे सारी। बाहर सब सामान निकाला, घर लगता था गड़बड़झाला। नागेश पांडेय 'संजय', पृ. 346</p><p dir="ltr">लक्ष्मीशंकर बाजपेई का शहरी बालक गांव देखने की अपेक्षा रखता है-अबकी बार किसी छुट्टी में गांव अगर जाना पापा, कैसा होता गांव, मुझे भी गांव दिखा लाना पापा। पृ. 312</p><p dir="ltr">बालिका प्रधान साहित्य की बड़ी जरूरत है। हिंदी में इसकी मात्रा अत्यल्प है। उषा यादव की कविता में एक बच्ची अपने पुस्तक प्रेम की अभिव्यक्ति कुछ यों करती है-मम्मी मैं भी संग आपके, पुस्तक मेला जाऊँगी। ढेर किताबें छांट छांट कर, रंग बिरंगी लाऊँगी। पृ.185</p><p dir="ltr">अपेक्षाओं के क्रम में योगेंद्र कुमार लल्ला का यह शरारती अंदाज भी बच्चों को खास लुभाएगा-कर दो जी, कर दो हड़ताल। पढ़ने लिखने की हो टाल। बच्चे घर पर मौज उड़ाए, पापा मम्मी पढ़ने जाएँ। पृ.168</p><p dir="ltr">घर का सही पारिभाषीकरण अजय जनमेजय की कविता करती है। बच्चे आधुनिकता में फेर में बड़े होकर माँ-बाप को भूल जाते हैं। काष! उनके मन में बचपन से ही यह भाव घर कर जाए तो वृद्धाश्रम की कल्पना ही समाप्त हो जाएगी-लकड़ी, पत्थर, ईंटों से, नहीं कभी घर बनता है। मम्मी से ही घर है घर, पापा से ही दर है दर। पृ.249</p><p dir="ltr">फोन पर कविताएँ भी मजेदार है। कभी पापा के मोबाइल में बिजी रहने से त्रस्त बच्चे आज कितने चालाक हो गए हैं, मौका पाते ही वे पापा का फोन लपक लेते हैं। दो अलग अलग जमाने के बच्चों की कविताओं में यह परिदृश्य देखा जा सकता है-बूझो मेरा दुश्मन कौन, पापा का मोबाइल फोन-फहीम अहमद (पृ.429) मेरे पापा का मोबाइल, कितना सुंदर कवर है भाई। धीरे से सरकाया मैंने, पापा को जब नींद है आई-संगीता सेठी, पृ. 443</p><p dir="ltr">दिविक रमेश की चर्चित कविता मैं भी माँ दीदी को अब तो, बांधूगा प्यारी-सी राखी। कितना प्यार करेंगी दीदी, जब बांधुंगा उनको राखी। (पृ. 204) बताती है कि जमाना अब बदल गया है। बच्चा अब रुटीन से हटकर कुछ नया और तार्किक सोचता है। यही सोच आज की बाल कविता में ध्वनित होनी चाहिए।</p><p dir="ltr">चिट्ठी और ईमेल पर दो अपनी तरह की अनूठी कविताएँ यहाँ पढ़ सकते हैं। यद्यपि बालकृष्ण गर्ग की इस कविता में बालजीवन भी रचा बसा है, यह जरूरी बात विवरणात्मक बाल कविताएँ लिखने वाले नए लेखकों को समझनी होगी-पापाजी की आई चिट्ठी, समझी मीठी, निकली खट्टी। लंबे लंबे बाल कटेंगे, जेब खर्च भी सभी घटेंगे। (पृ. 140) मन को भाती है ईमेल। कुरियर या स्पीड पोस्ट हो, इसके आगे हैं सब फेल-निशांत जैन, पृ. 457</p><p dir="ltr">हठ कर बैठा चाँद जैसी अमोल कविता के सर्जक रामधारी सिंह दिनकर की केवल एक ही कविता इस संकलन में है-टेसू राजा अड़े खड़े, माँग रहे हैं दही बड़े। बड़े कहाँ से लाऊँ मैं, पहले खेत खुदाऊँ मैं। (पृ. 701) यही कविता पृष्ठ 46 पर निरंकार देव सेवक जी के नाम से भी प्रकाशित है। दोनों एक-सी कविताएँ एक ही संचयन में कैसे चयनित हो गईं? और मूल रचनाकार कौन है, यह आश्चर्य का विषय है।</p><p dir="ltr">समोसे पर बहुत से रचनाकारों ने लिखा किंतु शिवचरण चौहान की तिरकोतीन समोसे भाई, तुमने सारी चीजें खाई। आलू और खटाई खाई, खाया सारा मिर्च मसाला। मुंह तो छोटा-सा है लेकिन, तेल कढ़ाई भर पी डाला। गरम-गरम खाया है सब कुछ, चाय माँगते लाज न आई। (पृ. 630) कविता तो अन्यतम है। ऐसी कविताएँ शायद लिखी नहीं जातीं... लिख जाती हैं।</p><p dir="ltr">संदेश त्यागी की कविता डिस्कवरी पर हमने देखा, एक तमाशा ऐसा। जंगल के राजा के पीछे, लगा जंगली भैंसा। नवीन और पुरातन संदर्भों को जोड़ते हुए चलती है। हां, कविता का आरंभ जिस रिद्म में चला था, वह अंत में बदल गया है-शेरों को भी कभी-कभी तो, सवा शेर मिल जाते हैं। अगर हौसला हो जाए तो तख्त ताज हिल जाते हैं। पृ. 600</p><p dir="ltr">शिवचरण सरोहा की दाल कमाल की है। छोटे मीटर की ऐसी कविताएँ कम ही देखने में आती हैं-खाई, दाल। मिर्च, लाल। पीटे, गाल। नोचे, बाल। बुरा, हाल। पृ. 481</p><p dir="ltr">चाँद पर बाल संवेदना से युक्त यह कविता भी संपादक के श्रेष्ठ चयन और कवि के सृजन कौशल को इंगित करती है-चंदा भैया संभल के सोना, तुम बादल के बिस्तर पर। कहीं नींद में लुढ़क न जाना, तुम धड़ाम से धरती पर-गोपाल महेश्वरी 467<br />
विविध विषयक ऐसी ही एक से बढ़कर एक कविताएँ इस संकलन में भोजूद हैं। विस्तार भय से उनकी चर्चा यहाँ संभव नहीं।</p><p dir="ltr">ग्रंथ का मुद्रण और मुखपृष्ठ आकर्षक है। कागज और बाइंडिंग मजबूत। प्रूफ (त्यौहार-त्योहार, बस-वष, शाबाद-शादाब) की दो चार ही त्रुटियाँ हैं। 706 पृष्ठों के इस अमूल्य संकलन का मूल्य मात्र 550 रुपये है। हर पुस्तकालय में तो इसे स्थान मिलना ही चाहिए। अभिभावकों, अध्यापकों, आलोचकों, संपादकों और शोधार्थियों के निजी संग्रह में भी इसका होना ज़रूरी है। जन्मदिन पर बच्चों को यह अद्वितीय उपहार मिले तो यह भावी पीढ़ी में साहित्यिक संस्कारों के पल्लवन और हस्तांतरण की दिशा में सार्थक कदम होगा।</p><p dir="ltr">अन्य प्रांतों के शासकीय संस्थानों को भी बाल कविताओं तथा अन्य विधाओं के ऐसे ही श्रेष्ठ संकलनों के प्रकाशन को लेकर विचार करना चाहिए। साथ ही,... क्या अच्छा हो कि हिंदी की चयनित इन बाल कविताओं का अनुवाद और प्रकाशन संविधान द्वारा स्वीकृत अन्य भारतीय भाषाओं में भी प्रादेशिक अकादमियों के द्वारा कराया जाए। भावात्मक ऐक्य की दृष्टि से यह बड़ी पहल होगी।</p><p>
</p><p dir="ltr">बाल कविता के क्षेत्र में साहित्य अकादमी का यह प्रयास अविस्मरणीय और अनुकरणीय है।<br />
<span style="background-color: #0866ff;">डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'</span></p><br /> <p></p>डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-82089817749107861372021-08-29T06:10:00.002-07:002021-08-29T06:10:39.701-07:00बच्चों के अमर कवि : द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-UiQx-xuopW8wmhEXhu5pufqw5Rd4_iVoiciZ4O9pnivjhgT0RbYeuNRuZjIgBeoDGGSV6y0KBYrWdp3xkjoz38pPPu1p0VoFv_HHPOS_aDW21WVWqEENaVuXolzddaLoCmD5oGIUtnrD/s474/dwarika-prasad-maheshwari.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="474" data-original-width="400" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg-UiQx-xuopW8wmhEXhu5pufqw5Rd4_iVoiciZ4O9pnivjhgT0RbYeuNRuZjIgBeoDGGSV6y0KBYrWdp3xkjoz38pPPu1p0VoFv_HHPOS_aDW21WVWqEENaVuXolzddaLoCmD5oGIUtnrD/s320/dwarika-prasad-maheshwari.jpg" width="270" /></a></div><br /> बच्चों के अमर कवि : द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी<p></p><p>डॉ. नागेश पाण्डेय 'संजय'</p><p><br /></p><p>वीर तुम बढ़े चलो, जिसने सूरज चांद बनाया, हम सब सुमन एक उपवन के और इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है जैसी न जाने कितनी अमर कविताओं के रचयिता द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी पाँच दशकों से भी अधिक समय तक बाल साहित्य की सेवा में निरंतर संलग्न रहे। उन्होने वह लिखा, जैसा कोई नहीं लिख सका। उनकी कोई भी रचना हो, बच्चे उसे पढ़कर भाव-विभोर हो जाते हैं। चहक उठते हैं। थिरक उठते हैं। सच, वे सही मायनों में बच्चों के अपने कवि थे।</p><p>उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के रोहता गाँव में श्री प्रेमसुख के घर में १ दिसम्बर १९१६ को उनका जन्म हुआ। भारत और लंदन में शिक्षा ग्रहण करने के उपरान्त उन्होंने जीविका के लिए शिक्षा का क्षेत्र चुना और शिक्षक, शिक्षा प्रसार अधिकारी, पाठ्य पुस्तक अधिकारी, उप शिक्षा निदेशक जैसे महत्वपूर्ण पदों के माध्यम से अपनी सेवाएँ अर्पित की। सेवा निवृति के पश्चात वे साक्षरता निकेतन के निदेशक के रूप में अपना अवदान देते रहे। </p><p>माहेश्वरी जी ने बड़ों के लिए लिखना प्रारम्भ किया था। उनका पहला काव्य संग्रह 'दीपक' १९४६ में छपा था। इसके बाद उन्हे आभास हुआ कि बच्चों के लिए स्तरीय साहित्य का अभाव है तो उन्होंने बाल साहित्य सृजन को प्रमुखता से अपना लिया | यह जानते हुए भी कि इस क्षेत्र में न तो प्रतिष्ठा मे है और न पुरस्कार। उन दिनों बाल साहित्य में समीक्षा का कार्य न के बराबर था। बच्चों के लिए उनका पहला कविता संग्रह १९४७ में आया।</p><p> 'कातो और गाओ'नामक इस कृति के पश्चात उनकी ढेरो पुस्तक प्रकाश में आईं। ये पुस्तकें हैं : लहरें (१९५२), बढ़े चलो, अपने काम से काम, बुद्धि बड़ी या बल, माखन-मिसरी (सभी १९५९), हाथी घोड़ा पालकी, सोने की कुल्हाड़ी (दोनों १९६३), 'अंजन (१९६४), सोच समझ कर दोस्ती करो (१९६५), सूरज सा चमकूं मैं, हम सब सुमन एक उपवन के (दोनों १९७०), सतरंगा पुल ( १९७३), गुब्बारे प्यारे (१९७४), हाथी आया झूम के, बाल गीतायन ( १९७५), सीढ़ी-सीढ़ी चढ़ते है (१९७६), हम है सूरज चाँद सितारे, जल्दी सोना, जल्दी जगना, मेरा वंदन है (१९८१), कुशल मछुआरा, नीम और गि लहरी (१९८४), चांदी की डोरी, ना मौसी ना, चरखे और चूहे ( १९९०) ।</p><p><br /></p><p>द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी रचनावली" के खण्ड दो और तीन में उपरोक्त पुस्तकों की कविताएं संग्रहीत हैं। यह ग्रन्थ ४ फरवरी १९९७ को तत्कालीन राष्ट्रपति डा० शंकरदयाल शर्मा को भेंट किया गया था। माहेश्वरी जी ने बच्चों के लिए कहानियाँ भी लिखीं और नवसाक्षरों के लिए कविताएं भी। उनकी तीन कथा पुस्तकें छपीं-श्रम के सुमन ( १९७१), बाल रामायण ( १९८१), शेर भी डर गया (१९९२) नवसाक्षरों के लिए उनकी पुस्तके हैं : एक रहें, नेक रहें ( १९८९), घर की उजियारी, नई कलम, नए कदम ( १९९१) लोकतन्त्र है यही (१९९२), भारत प्यारा देश हमारा (१९९३)</p><p> "बालगीतायन" कृति के लिए उन्हें वर्ष १९७७ में बाल साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार मिला था। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने उन्हें सम्मान राशि और ताम्रपत्र प्रदान किया था। शायद ही कोई ऐसी संस्था हो, जो बाल साहित्य के विकास में संलग्न हो और उसने माहेश्वरी जी को सम्मानित करने का गौरव न प्राप्त किया हो।</p><p><br /></p><p>८६ वर्ष की अवस्था में भी उनकी साहित्यिक सक्रियता देखते ही बनती थी। अन्तिम समय तक उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। यहीं नहीं साहित्यिक समारोहों में भी उनकी सक्रियता जीवन के अंत तक बनी रही। मृत्यु से एक घण्टा पूर्व उन्होंने एक साहित्यिक संगोष्ठी में कविता पाठ किया था। बाथरूम में फिसलकर गिरने से उन्हें ब्रेन हेमरेज हो गया था।</p><p><br /></p><p>वे स्वभाव के बड़े सरल थे। बड़ा स्नेह देते थे। अपने लेखन के प्रारम्भिक काल से ही मेरा उनसे जुड़ाव हो गया था। वे हर पत्र का बड़ा आत्मीय उत्तर देते थे। २३-४-९१ को उन्होंने लिखा था "बस लिखते रहिए | रचनाएँ न भी छपें तो दुखी न होइये। मैंने यही मार्ग अपनाया था। सरकारी सेवा के अनेक बंधन भी थे।"</p><p><br /></p><p>मेरी पहली बाल कथा पुस्तक 'नेहा ने माफी मांगी' प्रेस में जाने को थी। उन्होंने ११-९-९३ के पत्र द्वारा पुस्तक के लिए आशीर्वाद पंक्तियाँ लिख भेजीं। खूब प्रोत्साहित भी किया "तुम्हारी उम्र के एक बीस वर्षीय युवक के लिए लेखन की प्रेरणा की दृष्टि से यह बहुत ही सराहनीय उपलब्धि है। बहुत कम ही को यह सौभाग्य मिल पाता है।"</p><p><br /></p><p>नेहा ने माफी मांगी" पुस्तक पर उन्होंने समीक्षा भी लिखी थी । इसे यू० यस० यम० पत्रिका (गाजियाबाद) और अभिषेक श्री' ( इलाहाबाद) ने अपने बाल साहित्य विशेषांकों में प्रकाशित किया।</p><p><br /></p><p>माहेश्वरी जी से मेरी पहली और आखिरी भेंट कानपुर में हुई। सहसा विश्वास नहीं हुआ था कि बाल साहित्य के आधार स्तंभ माहेश्वरी जी यही है। स्नेही और सादगी से परिपूर्ण। कानपुर के बी० एन० एस० डी० शिक्षा निकेतन के अखिल भारतीय बाल साहित्य रचनाकार सम्मेलन में उन्होंने मेरी पुस्तक 'आधुनिक बाल कहानियाँ' का विमोचन किया। मेरे लिए यह जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। </p><p>दूसरी बार कानपुर के आयोजन में मैं दूसरे दिन विलम्ब से पहुँचा। इसीलिए उनसे मिलना न हो सका। वे श्री शम्भूनाथ टण्डन के यहाँ थे। ९ बजे उनकी ट्रेन थी। राष्ट्रबन्धु जी, सम्पादक' बालसाहित्य समीक्षा' के घर से उनसे फोन से ही बात कर पाया। मिलने के लिए समय शेष न था। आज वह दुर्भाग्य मन को कचोटता है।</p><p><br /></p><p>हमने बाल साहित्य प्रसार संस्थान की स्थापना की तो उन्होंने परामर्शदाता के रूप में अपनी सहर्ष स्वीकृति भेजी। उन्होंने ११-२-९७ के पत्र में किया "अच्छे बाल साहित्य के सृजन, संवर्धन और प्रसार की आज जितनी महती आवश्यकता है, उतनी पहले नहीं थी। मेरा संपूर्ण सहयोग आपके साथ रहेगा।" वे बराबर प्रोत्साहन देते रहे। उन्होंने कभी किसी आयोजन में शाहजहाँपुर जाने का भी आश्वासन दिया था।</p><p><br /></p><p>दिनांक ५-२-९८ को उन्होंने लिखा था मेरा स्वास्थ्य ऐसे ही चल रहा है। ८२ में तो आ ही गया। देखो....... ..उनसे पत्राचार निरन्तर रहा किन्तु ऐसा पत्र उन्होंने पहली बार लिखा था। इस 'देखो' ने मेरे मन को भीतर तक हिला दिया। मैंने उनके दीर्घायु जीवन की कामना की। </p><p>जीवन के 'सत्य' को स्वीकारना पड़ता है लेकिन बालसाहित्य अभी इसके लिए तैयार नहीं था। उनसे बड़ी अपेक्षाएँ थीं। वे विशाल वट वृक्ष थे। न जाने कितने पौध-पात उनकी छाया में पल्लवित हो रहे थे ।</p><p>२९ अगस्त १९९८ को वे चले गए। मृत्यु से दो घण्टे पूर्व उन्होंने अपनी आत्मकथा सीधी राह चलता रहा पूर्ण की थी। </p><p>उनके अनायास इस तरह चले जाने की किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। उनके अभाव की क्षति बहुत गहरी है। इसकी पूर्ति कभी नहीं हो सकती। उनकी प्रेरणा और उनकी रचनाएँ बालसाहित्य के लिए सदैव सम्बल बनी रहेंगी। </p><p>उनकी स्मृति को शत-शत नमन!</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8E_AUBj0N_DmT2qyFDHsuFUmn0RDZGcL9Ox-9qsCQRGgm5x8tLhqvEHynPb-mQNfEhWHtMUYg3c-XqZxjGZA4r3RFT34zaxGGRTupZyOvSFshUcxl2qA-zHeocR7G6lqnin7k-7cmLF7w/s2048/1937504321.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2048" data-original-width="1488" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh8E_AUBj0N_DmT2qyFDHsuFUmn0RDZGcL9Ox-9qsCQRGgm5x8tLhqvEHynPb-mQNfEhWHtMUYg3c-XqZxjGZA4r3RFT34zaxGGRTupZyOvSFshUcxl2qA-zHeocR7G6lqnin7k-7cmLF7w/s320/1937504321.jpg" width="233" /></a></div><br /><p></p><p><br /></p>डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-79793026723438632072021-06-26T03:34:00.005-07:002021-07-11T12:46:19.479-07:00आलेख : रामानुज त्रिपाठी: अनूठे अंदाज के बाल कवि -डा. नागेश पांडेय संजय <p style="text-align: center;"><b> </b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj7tHzsCuZzHHpER9i_CePX3kT0jxK8-lnHSYKkPdOaQUs3n01k8wBTlD4PNBTtq-JBfY_Moa4zRHFcL4mQwcCFdQcZP0tKfW4NBcEkYlnxOT0o82SMWVNPRvNJlGTP4mmh84SpJi-CwNob/s980/Screenshot_20210626-163453_Facebook.jpg" style="font-weight: bold; margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="980" data-original-width="760" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj7tHzsCuZzHHpER9i_CePX3kT0jxK8-lnHSYKkPdOaQUs3n01k8wBTlD4PNBTtq-JBfY_Moa4zRHFcL4mQwcCFdQcZP0tKfW4NBcEkYlnxOT0o82SMWVNPRvNJlGTP4mmh84SpJi-CwNob/w155-h200/Screenshot_20210626-163453_Facebook.jpg" width="155" /></a><b><br /><span style="font-size: medium;">रामानुज त्रिपाठी: अनूठे अंदाज के बाल कवि</span> </b></p><p style="text-align: center;"><b><span style="color: #2b00fe;">आलेख : डा. नागेश पांडेय संजय</span></b> </p><p>रामानुज त्रिपाठी बाल साहित्य के मौन साधक थे किंतु उनकी साधना मुखर थी। जब तक रहे, बाल साहित्य में छाए रहे। पत्र-पत्रिकाओं में धुआंधार छपे। नवें दशक की पत्रिकाओं को उठाइए, आपको कई पत्र-पत्रिकाओं के एक-एक अंक में उनकी दो-दो कविताएं तक पढ़ने को मिलेंगी। बहुत लिखते थे। बहुत अच्छा लिखते थे। अच्छा क्या लिखते थे, वे तो एक लकीर बनाते जा रहे थे। एक पथ आलोकित कर रहे थे जिस पर चलने का प्रयास यद्यपिआगे चलकर बहुतों ने किया लेकिन वैसी सफलता किसी को न मिली। उन्होंने बाल कविता को नई आभा दी। एक अलग रंग-ढंग और तरंग की कविताएं उन्होंने रचीं। कहें कि बाल कविता को नई रवानी दी। नया शिल्प दिया। नयी रूपाकृति दी। नवगीत विधान में कम ही लोग हैं जो बाल साहित्य को कुछ परोस पाए और त्रिपाठी जी तो इस विधा के जैसे मास्टर थे। कविता को गढ़ने का उनका अंदाज अनूठा था। सामान्य विषय पर असामान्य ढंग की कविता लिखने में उनको बड़ी सफलता मिली। विषय की बात करें तो वे बहुधा सामयिक ही होते थे, जैसे कैलेंडर देख के वे बिल्कुल मुस्तैद रहते हों कि हां, अब रक्षाबंधन है, अब बसंत है। अब जाड़े पर-गरमी पर-बरसात पर लिखना है। लिखना क्या है, माल तैयार करना है। किसी हलवाई की तरह त्रिपाठी जी को ग्राहक के स्वाद की परख थी। या मौसम की मांग वे जानते थे तो ये लीजिए मालपुए। ये लीजिए बालूशाही। ये लीजिए गुझियां। ये लीजिए गाजर का हलवा और हां, ये उनकी रसभीनी कविताएं स्वाद में बेजोड़ होती थीं। यही कारण था कि हर दूकान पर ...माफ कीजिए, पत्र-पत्रिकाओं में उनकी कविताएं सजी-धजी मिलती थीं। वे संपादकों के चहेते थे। न कोई जान, न पहचान, न जुगाड। पर वे छा गए थे। ...और इसलिए छा गए थे कि वे बाल मन को भा गए थे। लुभा गए थे। बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाइ की तर्ज पर उन दिनों बच्चे पत्रिकाओं को छुपा कर रखते थे कि पहले-पहल पत्रिका की सामग्री का आनंद उनको ही लेना है। </p><p>मैं बहुधा सोचता हूं कि यदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं के आधार पर भी हिंदी बाल साहित्य में पुरस्कार-सम्मान की परंपरा होती तो कदाचित् रामानुज त्रिपाठी जी के खाते में ढेरों पुरस्कार होते। अफसोस...उनकी ओर संस्थाओं का ध्यान नहीं गया। जाता भी कैसे क्योंकि वे किताब छपवाने के गणित से पूरी तरह अनभिज्ञ थे। और हिंदी बाल साहित्य के क्षेत्र में पुरस्कार पाने की पहली सीढ़ी पुस्तक है। पुस्तक लकदक हो तो सोने पर सुहागा या कहें कि पुरस्कार की पक्की गारंटी। भले ही अंदर कूड़ा हो लेकिन भारी-भरकम बायोडाटा और किताब के नाम पर जाने कितने बाल साहित्य के सर्वोच्च सम्मान हथिया ले गए। भारती से उनकी आरती उतारी गई। और आज भी बाल साहित्य के जिज्ञासु यह जानने को आकुल-व्याकुल हैं कि अमुक सम्मानित का बाल साहित्य में योगदान क्या था? मगर रामानुज त्रिपाठी जैसे मौन आराधकों की ओर संस्थाओं का ध्यान नहीं गया। डा. राष्ट्रबंधु जी का नमन जिन्होंने 1995 में संस्था भारतीय बाल कल्याण संस्थान की ओर से उन्हें सम्मानित कर जैसे अपनी संस्था को ही सम्मानित किया। उनके इस सुनिर्णय के प्रति मैं स्वयं को कृतज्ञ अनुभव करता हूं और आभारी भी कि इसी बहाने उनसे प्रथम भेंट भी मयस्सर हुई। 1995 में जिन नौ बालसाहित्यकारों का सम्मान हुआ था उनमें त्रिपाठी जी के साथ मैं भी था। संयोग कि हम लोग ठहरे भी एक साथ और उनकी सादगी के चलते उनसे ऐसी गहरी छनी कि साथ-साथ खूब घूमें। इस बहाने उनको बहुत करीब से जानने का अवसर भी मिला। उनकी स्थिति-परिस्थिति से भी अवगत हुआ। </p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgsoq2B2jJoNpeh8lhVckLlSv6jvm3fGkQ8KxikMr4rOOf3EKKi3TgYW3Re5x_Y2E1n3xzwRzTh0AG3K6r3_OQWbUOr3imerXAs5osZmycaC96Byed8l0o-UX0bNJzSpJm6Fxw1CY-8RCSS/s2048/1189502477.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2048" data-original-width="1723" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgsoq2B2jJoNpeh8lhVckLlSv6jvm3fGkQ8KxikMr4rOOf3EKKi3TgYW3Re5x_Y2E1n3xzwRzTh0AG3K6r3_OQWbUOr3imerXAs5osZmycaC96Byed8l0o-UX0bNJzSpJm6Fxw1CY-8RCSS/s320/1189502477.jpg" /></a></div><br />लगता है जैसे कल की ही बात हो लेकिन नहीं, दो दशक से ऊपर हो चुके हैं। कानपुर में 29 जुलाई 1995 को कृष्णविनायक फड़के जयंती समारोह था। कितने दिग्गज उसमें पधारे थे। डा. देवसरे, शकुंतला सिरोठिया, सरोजिनी कुलश्रेष्ठ, अनंत कुशवाहा, रामवचन सिंह आनंद, पद्मश्री लक्ष्मीनारायण दुबे, पद्मश्री श्याम सिंह शशि और यही नहीं डा. मुरलीमनोहर जोशी (बाद में गृह मंत्री, भारत सरकार) भी उस आयोजन में सहज उपस्थित थे। जोशी जी ने बच्चों के लिए अलग से बाल मंत्रालय की मांग रखी थी और समाचारपत्रों ने इसे मेन हेडिंग बनाया था। तीन दिन के इस समारोह में पहली बार मैं रामानुज त्रिपाठी जी से मिला था। कानपुर के वैशाली होटल में हम दोनों एक साथ ही ठहरे थे। देर रात में उनका जब आगमन हुआ तो मैं गहरी नींद में था। आंखे मिचमिचाते दरवाजा खोला तो धोती-कुर्ता पहने एक लंबी श्यामवर्ण काया सामने थी। ...मैं रामानुज त्रिपाठी, सुल्तानपुर से। <p></p><p>मैं विस्मय से भर उठा और तपाक से बोला-जी, और मैं रामानुजानुज, शाहजहांपुर से।</p><p>अच्छा। अच्छा नागेश जी। और त्रिपाठी जी ने मुझे गले से लगा लिया था। </p><p>उनसे मेरा पत्राचार था। मैंने एक बार स्वयं को भवदीय में रामानुजानुज (रामानुज का अनुज) क्या लिखा कि फिर तो यह सहज संबोधन हमारे पत्राचार का अंग हो गया था। </p><p>तो हम तीन दिन साथ रहे। आयोजन कई जगह पर थे तो हम लोग जाते भी एक साथ। मजेदार किस्सा बताऊँ कि इसी यात्रा में उनकी अटैची एक रिक्शेवाले ने पार कर दी थी। हम दोनों एक ही रिक्शे पर थे। जब बेनाझाबर पहुंचे तो आगे वाले रिक्शे पर बैठे वयोवृद्ध रामस्वरूप दुबे जी को उतारने के लिए मैं आगे बढ़ गया। बेचारे त्रिपाठी जी भी सहयोग के लिए पीछे-पीछे आ गए और इतनी देर में रिक्शा वाला चंपत। अटैची गायब। मैंने जब ये बात राष्ट्रबंधु जी को बताई तो उन्होंने नई अटैची और उसमें रखा सारा नया सामान मंगवाया। जब साहित्यकारों का सम्मान हुआ तो त्रिपाठी जी को साथ में नयी अटैची भी दी गई। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="white-space: pre;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjgQjZr994cYah8s8C8Fet-32zaGClkczo2f-YtFYo5XdL9G8N_d72wyXpKBW4fUS9GkeEL58sRYlSBW7CAC55IhDYIKfNT-Lp_MhYXw-Ld1aKV_zNhASY1OdnvdvZLTTPkB6m99SvlxgFT/s2048/1684458188.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1676" data-original-width="2048" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjgQjZr994cYah8s8C8Fet-32zaGClkczo2f-YtFYo5XdL9G8N_d72wyXpKBW4fUS9GkeEL58sRYlSBW7CAC55IhDYIKfNT-Lp_MhYXw-Ld1aKV_zNhASY1OdnvdvZLTTPkB6m99SvlxgFT/s320/1684458188.jpg" width="320" /></a></span></div>कई मित्रों ने बाद में उनसे मजाक भी किया था-त्रिपाठी जी, ऐसा पता होता तो हम तो अपना सामान जानबूझकर गायब करा देते।खैर... इस भेंट के बहाने हमारी आत्मीयता और प्रगाढ़ हो गई। उन दिनों फोन का चलन तो था नहीं। तब आज की तरह मेल और फेसबुक भी नहीं थे। केवल डाक या बुकस्टाल का ही सहारा था। मेरी न जाने कितनी अनुपलब्ध रचनाएं त्रिपाठी जी ने मुझे डाक से भिजवाई। मैं निःसंकोच उनसे आग्रह कर लेता था। इसलिए भी कि उनके कालेज के पुस्तकालय में कई पत्रिकाएं आती थीं। एक बार साप्ताहिक हिंदुस्तान में मेरा बालगीत दादी अम्मा छपा। पेमेंट तो आ गया, पर प्रति न मिली। भला ये कैसे गंवारा होता। मैंने उन्हें याद किया और फिर ये देखिए 1 नवंबर 1992 का उनका पत्रोत्तर- <p><i>भैया संजय जी, आपका पत्र मिला था। आपने अपनी कविता से संबंधित साप्ताहिक हिंदुस्तान का अंक मुझे सुरक्षित रख लेने और वह अंक मुझसे ही प्राप्त करने का निर्देश दिया था। साप्ताहिक हिंदुस्तान मेरे कालेज के वाचनालय में नियमित आता है। यदि वह अंक न मिला हो ओर उसे चाहते हों तो मुझे अविलंब सूचित करें। यदि अंक मिल गया हो तो मैं उसे पुनः वाचनालय में वापस कर दूं। यथाआवष्यक समझिएगा लिखिएगा। </i></p><p>इधर बाल भारती के अक्टूबर अंक में भी आपका एक गीत दीवाली षीर्षक से छपा है। उसी पृष्ठ पर मेरा भी आई है दीवाली षीर्षक गीत प्रकाषित हुआ है किंतु मेरे गीत में छपाई की त्रुटि है। जाने क्यों बाल भारती में हर बार कुछ न कुछ गलत ही छपता है, जिससे रचना में अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं। सस्नेह, रामानुज</p><p>तो आप देखिए कि किस तरह से पत्राचार के बहाने पर बाल साहित्य की दषा-दिषा पर भी विमर्ष चलता रहता था। बाल साहित्य के प्रति उनके मन में चिंता थी। मैंने जब राष्ट्रीय सहारा में बाल साहित्य स्तरीय परख की जरूरत विषय पर एक परिचर्चा आयोजित की तो तत्कालीन दिग्गज बाल साहित्यकारों के साथ-साथ उनके भी विचार आमंत्रित किए। 12 दिसंबर 1994 को इस परिचर्चा में प्रकाषित उनके विचार द्रष्टव्य हैं -हम बच्चों को कविताओं के नाम पर बे सिर पैर की तुकबन्दियाँ परोस रहे हैं। उत्कृष्ट बाल साहित्य का अकाल सा पड़ रहा है और लेखन में मौलिकता में कमी आई है।</p><p>अभिभावक भी बच्चों को साधन सम्पन्न बनाने की सनक में शीघ्र अधिकाधिक ज्ञान सम्पन्न कम्प्यूटर बनाना चाहता है। स्कूली शिक्षा बच्चों पर पुस्तकों का भारी बोझ लादकर उन्हें अनेक स्तर से अधिक ऊँची प्रतियोगिताओं में झोंक रही है, फलतः सांस्कृतिक तृप्ति देने वाले साहित्य से बच्चा परे रह जाता है।</p><p>बाल साहित्य की समस्त विधाओं में सृजन स्तर पर संप्रति बाल मनोवृत्ति की स्तरीय परख की जरूरत है, उसके अभाव में बाल साहित्य कभी तृप्ति देने वाला नही होगा।</p><p>मैंने इस परिचर्चा से प्राप्त पारिश्रमिक सभी बाल साहित्यकारों को समान रूप से भेजने के लिए प्रारंभ में ही निवेदन कर दिया था। त्रिपाठी जी को यह स्वीकार न था, केवल इसलिए कि वे मुझे अपने अनुज की भांति देखते थे। इस संदर्भ में उनका 22 दिसंबर 1994 का यह अपनत्व उड़ेलता पत्र मैं कभी भुला नहीं सकता-</p><p> प्रिय भाई</p><p>आपका स्नेह पत्र मिला। आभार। 12 दिसंबर का राष्ट्रीय सहारा यहां तलाषने पर मुझे मिल गया। आपकी प्रस्तुति अच्छी और स्तरीय है। तदर्थ मेरी ओर से बधाई स्वीकारें। चक्रधर नलिन जी गत 22 नवंबर को मेरे घर आए थे। तो आपकी सहारा हेतु परिचर्चा पर उनसे चर्चा हुई थी। </p><p>आपने परिचर्चा के प्रति मिलने वाले पारिश्रमिक में से उचित अंष जो मेरे लिए भेजने को लिखा, यह मुझे अच्छा न लगा। आप मेरे लघु भ्राता हैं-अतः इसी बहाने अपने लिए कुछ टाफी, बिस्कुट, खिलौने और गुब्बारे खरीद लें। इसी में मुझे अतिषय प्रसन्नता मिलेगी। इत्यलं।</p><p>सस्नेह, रामानुज</p><p>रामानुज जी के पास भाषा की अपार सामर्थ्य थी और गुणग्राहकता भी। उनके पत्रों को मैं धरोहर मानकर अपने संग्रह में सजाए हूं। किसी छोटे को भी बड़प्पन का अहसास देने का प्रोत्साहनमयी ऐसा व्यवहार दुर्लभ है। उनके पत्र भी किसी साहित्य से कम न होते थे। देखिए 30 मई 1995 का उनका एक पत्र-</p><p>भाई संजय जी </p><p>स्नेह पत्र मिला। आप द्वारा प्रदत्त स्नेह, सौहार्द, दाक्षिण्य, कृतज्ञता और आत्मीयता का पंचरत्न निरंतर संभाल कर रखता जा रहा हूं ताकि इतिहास पुरुष भामाषाह की तरह कदाचित प्रयोजन पर बहुजन हिताय वितरित कर सकूं। </p><p>बाल कविता को नया षिल्प और नया कलेवर प्रदान करने में उनकी वरेण्य भूमिका है। नवगीत षैली में रचित उनकी कविताएं अपनी सहजता के चलते मन छूती हैं। रोचकता का नया ताना बाना प्रभावित करता है। शब्द भंडार के चलते विन्यास में स्वाभाविकता स्वतः आती जाती है। ...और फिर एक षिक्षक होने के नाते कुछ न कुछ सीख भी गाहे बगाहे वे दे ही डालते हैं। </p><p>उपमाओं से रची-पगी रक्षा बंधन पर लिखी उनकी यह कविता मैं कभी नहीं भूलता-</p><p>स्नेह की धरती</p><p>ममता का </p><p>आकाश है रक्षाबंधन। </p><p>रक्षाबंधन केवल </p><p>राखी का त्योहार </p><p>नहीं है,</p><p>कुछ धागों में ही </p><p>बंध जाने </p><p>का व्यवहार </p><p>नहीं है।</p><p>भाई बहन के रिश्ते</p><p>का इतिहास है रक्षाबंधन।</p><p>अब आप खुद ही देखिए, कि किस सजीले अंदाज में बातों ही बातों में वे एक परिभाषा भी गढ़ गए और त्योहार के सांस्कृतिक वैभव को बिना किसी आरोपण के सहज रूप से बाल मन पर आच्छादित कर दिया। यही खूबी उन्हें बाल कवियों की भीड़ से अलग एक महनीय स्थान प्रदान करती है। </p><p>वर्षा के नयनाभिराम परिदृष्य को जैसे आंखों के समक्ष उतारती उनकी यह कविता भी अनोखी है, जिसमें एक नयी शुरुआत को अभिव्यक्त करने की अभिव्यक्ति देखते ही बनती है- </p><p>आए बादल </p><p>बरसा पानी।</p><p>कभी दिवस में</p><p>कभी निशा में </p><p>उमड़ घुमड़ कर</p><p> दिषा दिशा में </p><p>घिर घिर आई </p><p>घटा सुहानी।</p><p>मेंढक झिल्ली </p><p>झींगुर वाली</p><p>एक राग </p><p>एक सुर वाली</p><p>षुरू हो गई</p><p> राम कहानी।</p><p>प्राकृतिक चित्रण को लेकर उनकी कहन क्षमता का मैं मुरीद रहा। नवगीत से इतर उनके दोहे भी क्या खूब बन पड़े हैं। सर्दी पर कुछ बेहतरीन दोहों का आनंद आप भी लीजिए-</p><p>घिर आया कुहरा घना,</p><p>खूब पड़ रही ठंड।</p><p>सूरज का भी हो गया,</p><p>शायद चूर घमंड।</p><p>फैल गया है चौतरफ, </p><p>जाड़े का आतंक। </p><p>ठंडा पानी हो गया, </p><p>ज्यों बिच्छू का डंक। </p><p>तन है थर थर कांपता,</p><p>किट किट करते दांत।</p><p>ओढ़ रजाई कट रही है,</p><p>जाड़े की रात।</p><p>ऐसे ही बसंत पर उनकी यह नवगीत षैली की रचना भी उनकी कुशल अभिव्यक्ति को ही सुप्रस्तुत करती है। </p><p>फूलों में </p><p>रंग इठलाया</p><p>बसंत आया।</p><p>घर आंगन उठीं किलकारियां</p><p>पीने लगीं रंग पिचकारियां</p><p>हाथों में</p><p>गुलाल मुसकाया</p><p>बसंत आया।</p><p>कुंकुम अबीर मले बिन</p><p>बीतें न ए रस भरे दिन</p><p>मन में फिर नया मोद छाया</p><p>बसंत आया।</p><p><br /></p><p>उनकी कविताएं नयी ताजगी से सराबोर हैं। कई बार तो ऐसा लगता है कि शब्द शब्द नाच रहे हों। ऐसी लयात्मकता कदाचित् अन्यत्र दुर्लभ है। कारण यह भी कि छोटे-छोटे षब्दों को उचित यति-गति के साथ जैसे किसी फ्रेम में जड़ने का हुनर या कहें कि जादुई कला उनके पास थी। </p><p>चिड़िया जैसे पुराने विषय पर सहसा उनकी दो कविताएं मुझे याद आ रही हैं। इनका भाषाई चमत्कार देखते ही बनता है- </p><p>पेंड़ो की हर</p><p>डाल डाल पर</p><p>नाच रहीं चिड़ियां ।</p><p>नए नए कोमल </p><p>किसलय पर </p><p>नए राग नव </p><p>सुर नव लय पर </p><p>थिरक थिरक कर </p><p>नए ताल पर </p><p>नाच रहीं चिड़ियां ।</p><p>छोड़ टहनियां </p><p>पुष्प दलों की </p><p>लह लह </p><p>लहराती फसलों की </p><p>हरी सुनहरी </p><p>बाल बाल पर </p><p>नाच रहीं चिड़ियां ।</p><p>दूसरी कविता आशावाद की प्रतिच्छाया है जो बाल मन में वविश्वास और आस के अंकुर उपजाती है और वह भी प्रतीकात्मक रूप से एक भोली चिड़िया के माध्यम से-</p><p>मत होना तुम भोली चिड़िया </p><p>अपने मन में कभी उदास।</p><p>चुगने को हैं पंख तुम्हारे</p><p>दो पंजे हैं प्यारे प्यारे</p><p>उड़ने को हैं रंग बिरंगे </p><p>सुंदर पंख तुम्हारे पास।</p><p>तेरी है ये सारी धरती</p><p>चुगकर जहां पेट तुम भरती</p><p>और फुदकने को है विस्तृत </p><p>तेरे लिए खुला आकाश।</p><p>हरे भरे पेड़ जंगल के </p><p>झूम झूम के मचल मचल के </p><p>बुला रहे हैं तुमको देखो</p><p>अपने फल में भरे मिठास।</p><p><br /></p><p>कह सकते हैं कि उन्हें कविता की गहरी समझ थी। कवि ही नहीं, आचार्य भी थे मान्यवर। काष! कि उनकी यत्र-तत्र बिखरी निखरी कविताओं का संचयन हो तो बाल कविता के एक अद्भुत लोक में विहार करने और उसको समझने का आनंद बहुतों को प्राप्त हो सकेगा।</p><p>कविताओं में रोचकता के लिए उनके प्रयोग भी अनूठे थे। जैसे एक स्थान पर उन्होंने मच्छर के डंक की तुलना सूंड़ से की है। इससे हास्य की सृष्टि तो हुई ही, साथ ही एक विस्मयकारी आनंद की भी वृष्टि होती है। बालमन उत्फुल्ल होकर उमगता है। विस्मित होता है और कहीं न कहीं एक काल्पनिक संसार में जाकर नई परिकल्पनाओं के निर्माण में भी समर्थ होने की ओर अग्रसर होता है। ...अरे! मच्छर की सूंड़...यह अद्भुत कल्पना तो बड़ों के भी कान खड़े कर देती है-</p><p>मच्छर मामा डटे हुए हैं </p><p>लेकर अपनी एक जमात</p><p>भली नहीं गरमी की रात।</p><p>तन ढकने में चूक अगर हो </p><p>हाथ पैर मुंह जब बाहर हो</p><p>सूंड़ चुभोकर खून चूस लें </p><p>मिलकर खूब लगाएं घात।</p><p>कविताएं बहुतेरी हैं जिनकी चर्चा विस्तार भय से यहां संभव नहीं। उन पर अलग से अनुशीलन अपेक्षित है। अनुसंधान अपेक्षित है। फिर एक लीक निश्चय ही निर्मित होगी जिस पर चलकर बाल साहित्य के राजपथ पर पहुंचा जा समता है। </p><p>अभी तो यही कहूंगा। बार-बार कहूंगा कि रामानुज त्रिपाठी जी को उनका प्राप्य नहीं मिला। जिस सम्मान के वे सुपात्र थे, वह उनको मिले तो यह उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी और बाल साहित्य के लिए भी इससे बेहतर और सम्मानजनक बात हो नहीं सकती। </p><p>(<b><span style="font-size: x-small;">यह आलेख 'बाल वाटिका' मासिक, अक्तूबर 2016 अंक में पृष्ठ 51 पर प्रकाशित हुआ था।)</span></b></p><div style="text-align: left;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiK2P2208fzQ-hQr5yxN2BpGXlZyhCFiGf4yPWEKC3hjcIDMqvGZUDu73si59fI_MardugHom5S02uOhkliyaZow8Q7D6KOBlsS9Jdo1uH2IjpBhIh5FcNvCqIZeMFeIsXr3c9r5hRPN8yS/s1298/Screenshot_20210626-164022_Facebook.jpg" style="clear: left; margin-bottom: 1em;"><img border="0" data-original-height="1298" data-original-width="1045" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiK2P2208fzQ-hQr5yxN2BpGXlZyhCFiGf4yPWEKC3hjcIDMqvGZUDu73si59fI_MardugHom5S02uOhkliyaZow8Q7D6KOBlsS9Jdo1uH2IjpBhIh5FcNvCqIZeMFeIsXr3c9r5hRPN8yS/w161-h200/Screenshot_20210626-164022_Facebook.jpg" width="161" /></a></div><br /><p></p><p><br /></p>डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-63332683963410555752021-06-22T05:25:00.012-07:002021-06-22T10:40:09.014-07:00संस्मरणात्मक आलेख : 'बाल कविताओं के समंदर' के कुशल गोताखोर कृष्ण शलभ -डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'<table align="center" cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjgx1KOuAvE6IUY1kByHUknP2U-QZKF9sf9rLkXAgUjbjqwmmEHhDcFp4XJS0-uOluI6Bfab7-DPKikzOxxYxAuQr5NsOabIrFxz24F6mP64p1U97zCTIUfBrNYnXGAE1p8XpUzBNIZtGZ4/s1080/Screenshot_20210622-175323_WhatsApp.jpg" style="margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1026" data-original-width="1080" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjgx1KOuAvE6IUY1kByHUknP2U-QZKF9sf9rLkXAgUjbjqwmmEHhDcFp4XJS0-uOluI6Bfab7-DPKikzOxxYxAuQr5NsOabIrFxz24F6mP64p1U97zCTIUfBrNYnXGAE1p8XpUzBNIZtGZ4/s320/Screenshot_20210622-175323_WhatsApp.jpg" width="320" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b><span style="font-size: xx-small;">कृष्ण शलभ जी के साथ डॉ. नागेश</span></b></td></tr></tbody></table><span style="font-family: Mangal, serif;"><div style="text-align: center;"><b><span style="background-color: #fcff01; color: #2b00fe;">पकड़ सको तो पकड़ो, मेरे लगे हवा के पर...</span></b></div><div style="background-color: white; text-align: center;"><span style="color: #660000; font-size: medium;"><b>'बाल कविताओं के समंदर' के कुशल गोताखोर कृष्ण शलभ</b></span></div><div style="background-color: white; text-align: center;"><span style="color: #2b00fe;"><b>आलेख- डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'</b></span></div><div style="background-color: white; color: #222222;"><span> </span>दिखा अँगूठा, बोला मुन्ना टिली लिली झर। पकड़ सको तो पकड़ो, मेरे लगे हवा के पर।</div><div style="background-color: white; color: #222222;">कृष्ण शलभ जी की यह बेजोड़ कविता मुझे चिढाती सी लग रही है। हवा के पंख लगाकर वे उड़ गए। हमारी पकड़ से बाहर बहुत दूर चले गए। बहुत ही दूर..., जहाँ से वे क्या, कोई भी नहीं लौटता। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">ज्यादा दिन तो नहीं हुए। जैसे कल ही की बात लगती है। हम लोग साहित्य अकादमी, नई दिल्ली की ओर से बाल साहित्य कार्यशाला (21-22 जून, 2017) में भाग लेने राजसमन्द गए थे। दिल्ली से सभी के टिकिट एक साथ थे। सहारनपुर से मेरे लिए खाना लेकर आए थे। वापसी का टिकिट भी साथ था लेकिन गुर्जर आंदोलन के चलते हमारी ट्रेन कैंसिल हो गयी। एक ही कार से से हम लोग स्टेशन की ओर जा रहे थे। आदतन मैंने ट्रेन चेक की तो पता चला कि कैंसिल। उनसे सटकर ही तो बैठा था। साथ में उनकी पत्नी हेम जी भी थी। बाल साहित्य के ऐसे बहुत कम आयोजन मुझे याद आते हैं, जिनमें वे अकेले गए हों। यह जोड़ी अटूट थी जो टूट गई। हम लोग उनके बिछोह को दिल से महसूस रहे हैं तो पत्नी के कलेजे पर क्या बीत रही होगी, इसकी तो कल्पना ही की जा सकती है।</div><div style="background-color: white; color: #222222;">जब उनसे बीच राह में विदा ली थी तो सपने में भी न सोचा था कि यह हमारी अंतिम भेंट है। यों राजसमन्द में उनके साथ घूमते फिरते जाने कब उनके मुख से निकल गया था कि जिंदगी का क्या भरोसा।<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqQlu7Nru8gkjj8jGLrem-Q3J7WFvuOltBzfxbiPbWE5J01elL_gZHtI0coEOA74A8zByV8e13Rb5U7Iamh-L7_dnkIbdPlETVG1piI-ZSQ1aHPY-oSjb_qiUjXTs3ICVwWzrL1HpBzfae/s504/%25E0%25A4%259D%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25B2+1.jpg" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="504" data-original-width="294" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhqQlu7Nru8gkjj8jGLrem-Q3J7WFvuOltBzfxbiPbWE5J01elL_gZHtI0coEOA74A8zByV8e13Rb5U7Iamh-L7_dnkIbdPlETVG1piI-ZSQ1aHPY-oSjb_qiUjXTs3ICVwWzrL1HpBzfae/s320/%25E0%25A4%259D%25E0%25A5%2580%25E0%25A4%25B2+1.jpg" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: red;"><b><span style="font-size: x-small;">राजस्थान में अंतिम भेंट</span></b> </span></td></tr></tbody></table>मैंने बेहिचक कहा था नहीं, अभी तो आप को 1000 शिशुगीतों का काम पूरा करना है और उनके चेहरे पर चमक आ गयी थी। बड़ी तन्मयता से वे इस काम में लगे थे। ठीक वैसे ही, जैसे बचपन एक समंदर ग्रन्थ का भागीरथी प्रयत्न उन्होंने किया था। भगीरथ जी पूर्वजों के उद्धार हेतु गंगा उतारकर लाए थे और शलभ जी तो जैसे बाल साहित्य के उद्धार हेतु सागर ही उतार लाए। सच, उनके इस बड़े काम के बाद छाती चौड़ी हो गयी थी। हम गर्व से इस ग्रन्थ का उल्लेख्य करते थे। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">जो कहते थे कि बाल साहित्य में गम्भीर काम देखने को नहीं मिलता, उन्हें निस्सकोंच परामर्श देते थे कि <b><a href="https://www.amazon.in/dp/8190508911/ref=cm_sw_r_wa_apa_glt_fabc_14PQVGT1KCMRJ1K7VB7Y" target="">बचपन एक समंदर देखिए</a></b>, सब पता चल जाएगा। लोग हास्यास्पद डिग्रियों के बल पर खुद को डॉक्टर लिखने में बड़ा गर्व महसूस करते हैं। इस ग्रन्थ में शलभ जी की भूमिका देखकर लगता है कि डॉक्टरेट की उपाधि के असली हकदार तो ये लोग है। ...तो ऐसी ही तन्मयता से वे लगे थे। हजार शिशुगीतों का संकलन करने के लिए वे कितना दौड़े। कितना भागे। शायद ही इसका सहज अनुमान किया जा सके। कितनी दुर्लभ पांडुलिपियां उन्होंने एकत्र कीं। वर्ष 2016 में 12 जून को मैं डॉ. आर. पी. सारस्वत की पुस्तक विमोचन के लिए सहारनपुर गया था। गया क्या था, उन्होंने ही बुला लिया था। बिलकुल आदेश के स्वर में वे मेरे घर पर पत्नी से भी कह गए थे कि समीक्षा तुम्हें भी आना है। फिर हम सब साथ साथ शाकुम्भरी देवी के दर्शन को चलेंगे। और फिर ऐसा ही हुआ। पत्नी और बेटी सृष्टि के साथ मैं गया। एक दिन पूरा उनके घर बिताया। बच्चे तो उनके परिवार के साथ मस्त हो गए और मैं बेड पर बैठा उनके साथ इसी पाण्डुलिपि पर चर्चा करता रहा। मैं उनका श्रम देख चकित था। कहीं न कहीं शर्म भी महसूस कर रहा था। हजार शिशुगीतों की तैयार हो रही पांडुलिपि का अधिकांश उन्होंने स्वयं तैयार किया था। छोटे-छोटे मोती जैसे अक्षर चिढा रहे थे। इसे कहते हैं काम।</div><div style="background-color: white; color: #222222;"> मैं तो प्रतिदिन की अपनी यात्राओं की थकन में कुछ नहीं कर पाता। कितनी बार उन्होंने मुझे कहा कि शिशुगीत भेजो। अपने भी और जिन्हें तुम श्रेष्ठ समझते हो वे भी। कितने आग्रहों के बाद मैं उन्हें कुछ भेज पाया था और वे कि सैकड़ों रचनाओं को खोजकर खुद हाथ से लिखने का मशक्कत भरा काम कितनी सहजता से निबटाने में लगे थे।</div><div style="background-color: white; color: #222222;"> मैंने कहा -दादा, ये काम आप ही कर सकते थे। कुछ साहित्यकार हैं जिनके पास सामर्थ्य है लेकिन समय नहीं। कुछ हैं जिनके पास समय है लेकिन सामर्थ्य नहीं। आप ऐसे बिरले हैं कि समय और सामर्थ्य दोनों के ही स्वामी हो। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">वे हँस भर दिए थे। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">तो यह बड़ा काम उन्होंने कर दिखाया। फोन पर बताया था कि इसकी पांडुलिपि प्रकाश मनु जी की परामर्श के लिए भेज रहा हूँ। वे देख लें और समय दें तो फरीदाबाद जाऊँ। दुर्भाग्य कि ऐसा हो न सका। उनके निधन की सूचना मनु जी को दी तो वे कुछ पल के लिए निशब्द रह गए थे।</div><div style="background-color: white; color: #222222;"> नियति को यही स्वीकार था। पर जाने क्यों आज भी मन उनका जाना स्वीकार नहीं कर रहा। बार बार लगता है कि अभी उनका रहना बहुत जरूरी था। ऐसे लोग हैं ही कितने? जिनके दिलों में बाल साहित्य धड़कन बन धड़कता है। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">वे अकेले नहीं गए, बहुतेरे सपने साथ चले गए। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">मेरा उनसे पुराना नाता था। 1995 में पहली बार मिले थे। उनके मुख से टिली लिली झर गीत क्या सुना, उनका दीवाना हो गया था। इस कदर कि एक आलेख में ही मैंने लिखा था कि यदि हिंदी के दस अलमस्ती में गाए जानेवाले बालगीतों का चयन मुझे करना हो तो उनमें से एक शलभ जी का गीत टिली लिली झर होगा। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">यह गीत नन्दन में छपा था। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">इसकी भी गजब कहानी है। तत्कालीन सम्पादक जयप्रकाश भारती ने इसे औपबंधिक स्वीकृति दी थी। लिखा था कि मुखड़ा बहुत सुंदर है लेकिन आगे के बंद और तराशिए। फिर तीन बार की कोशिश में यह मुकम्मल गीत बना। बार बार सोचता हूँ कि ऐसे सम्पादक और कवि भला कितने है जो एक सम्पूर्ण रचना को तैयार करने के लिए इतना यत्न करें।</div><div style="background-color: white; color: #222222;">तो जिस तरह आँख बंद कर वे इसे गाते थे और अनूठे अंदाज में कहते कि वो देखो वो चिड़ी चिड़े के ले गयी कान कतर। तो कभी न गानेवाले मुझ जैसे बेसुरे के कंठ से भी सुर फूट पड़ते थे। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">कभी ऐसा हुआ नहीं कि वे मिले हों और कविता पाठ के वक्त मैंने उनसे इस गजब गीत की फरमाइश न की हो। </div><div style="background-color: white;"><span style="color: #222222;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhcm_VshX2KKJ0C_vFR-ocYL4FyRgVaImi_XFMip3LDAo5-ByYb781J3WeFY2G3d5cZliouusTZEwwfHU1l2QYd-Qldkgkg9kKk9tl5neEk_T7iRrG3CJrODzwOgVrElx3tYr_FXEApyNPy/s2048/2+phot.JPG" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1356" data-original-width="2048" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhcm_VshX2KKJ0C_vFR-ocYL4FyRgVaImi_XFMip3LDAo5-ByYb781J3WeFY2G3d5cZliouusTZEwwfHU1l2QYd-Qldkgkg9kKk9tl5neEk_T7iRrG3CJrODzwOgVrElx3tYr_FXEApyNPy/s320/2+phot.JPG" width="320" /></a></div></span><span style="color: red;"><a href="http://baalsahityasamman.blogspot.com/2017/04/blog-post.html" target="_blank"> </a><a href="http://baalsahityasamman.blogspot.com/2017/04/blog-post.html" target="_blank">प्रभा <span style="color: red;">बाल साहित्य सम्मान समारोह</span></a></span><span style="color: #222222;"> की अध्यक्षता के लिए वे 8 मई 2016 को शाहजहांपुर आए थे। संयोजक अजय गुप्त ने उन्हें बुलाया था। सबने खूब उन्हें सुना था। कन्नड़ मूल के जिलाधिकारी विजय किरन आनंद भी देर तक बैठे रहे थे। जब उन्होंने कहा कि अंतिम रचना पढ़ रहा हूँ तो मैं तपाक से खड़ा हो गया, न दादा। टिली लिली के बिना तो काव्य पाठ पूरा न होगा।<a href="https://youtu.be/j1T6-EJgZsU" target="_blank"> </a></span><b><span style="color: red; font-size: x-small;"><a href="https://youtu.be/j1T6-EJgZsU" target="_blank">(यह वीडियो देखने के लिए <span style="color: red;">यहाँ क्लिक करें)</span></a></span></b></div><div style="background-color: white; color: #222222;">फिर ...राजसमन्द में आखिरी बार उनके मुख से यह गीत सूना। अंतिम बार यह गीत सुन रहा हूँ, मैंने न सोचा था। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">खुटार में 1996 में मैंने बाल साहित्य प्रसार संस्थान की ओर से बाल साहित्यकार सम्मेलन किया था। वे आए तो अतिथि के रूप में थे लेकिन भूमिका संयोजक की निभाई। डायस से लेकर माइक तक सब कुछ व्यवस्थित कराया। वे एक कुशल आयोजक थे। जिन्होंने समन्वय, सहारनपुर के आयोजन देखे हों, वे मेरी बात से सहज सहमत होंगे।<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: right;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhey4N3mUy0ViAwVPp97y-880Y-4B2bRrmecTk7LpLillSPZjMtdZ9fCy_vQTMSpO2gC-EsbBNcz69KCnBvn-oIOKDu44YUjUH-k7pOZr4HOzmt2TTGdFIS6xrEji9oa0f6dmZk8Q12xEiG/s1062/rrrrrr.jpg" style="clear: right; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="704" data-original-width="1062" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhey4N3mUy0ViAwVPp97y-880Y-4B2bRrmecTk7LpLillSPZjMtdZ9fCy_vQTMSpO2gC-EsbBNcz69KCnBvn-oIOKDu44YUjUH-k7pOZr4HOzmt2TTGdFIS6xrEji9oa0f6dmZk8Q12xEiG/s320/rrrrrr.jpg" width="320" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: red; font-size: x-small;"><b>1.इंदौर 2.भीलवाडा 3.कोलकाता और 4.मसूरी के स्मृति चित्र</b></span> </td></tr></tbody></table></div><div style="background-color: white; color: #222222;"><span> </span>इलाहाबाद, इंदौर, दिल्ली, कोलकाता, मसूरी, भीलवाड़ा : न जाने कितनी यात्राएं मैंने उनके साथ कीं। बाल साहित्य के विमर्श में मेरी उनसे खूब छनती थी। भीमताल में हिंदी बाल कहानी पर मेरा व्याख्यान था। बाद में बोले, एक बात कहूँ नागेश? तुम बख्शते किसी को भी नहीं। और इससे पहले कि मैं कुछ कहता, खिलखिलाकर हँस पड़े थे। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">फोन पर जब भी उनसे बात होती थी तो लम्बी बात होती थी। कई बार जब उनका फोन न लगता तो साधिकार भाव से मैं उनकी पत्नी को फोन मिला देता। वे कबहुँक अंब अवसर पाइ, मेरी सुधि ध्याइबो, कछु करुण कथा चलाइ की तर्ज पर मेरी बात करा ही देतीं थीं। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">शलभ जी से अक्सर मैं एक चुटकी लेता था और वे मुस्कुरा उठते थे। मैं पूछता कि बताओ दादा, आपके ऊपर जुलम किसने किया?</div><div style="background-color: white; color: #222222;">शुरू में तो दो चार बार उन्होंने सहसा चौंक कर पूछा कि कैसा जुलम ? मगर बाद में यह प्रसंग हम लोगों के आनन्द लेने का हेतु बन गया। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">बात कोलकाता की है। 2003 की। पुष्करलाल केडिया जी द्वारा आयोजित मनीषिका के बाल साहित्यकार सम्मेलन के बाद, हम लोग गंगासागर से लौटे थे। वापसी की ट्रेन एक ही थी। हावड़ा पहुंचे तो कोच देखने के लिए अपने-अपने टिकट निकाले। मगर उनका टिकट तो गुम।</div><div style="background-color: white; color: #222222;"> प्लेटफार्म पर बैग खोला फिर अटैंची। सारा सामान बिखेर दिया। मगर टिकट की समस्या विकट। बेचारे बार-बार माथा पकड़ते। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">पत्नी पर झुंझलाते-हेम, आज तुमने बड़ा जुलम किया। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">मैंने कहा, दादा । अब ट्रेन का टाइम हो रहा है। सारा सामान समेटिए। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">क्या होगा नागेश ?</div><div style="background-color: white; color: #222222;">मैंने कहा-दादा अब जो होगा। ट्रेन में होगा। फ़िलहाल टेंशन छोड़िए। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">अचानक मैंने उनकी डायरी खंगाली और वाह ! टिकट महाशय तो वहीं छुपे बैठे थे। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">दोनों को जो सुख मिला, उसकी व्याख्या कठिन है।</div><div style="background-color: white; color: #222222;"><span> </span>शलभ जी बड़े कद के बालकवि थे। बाल कवि क्या, बालगीतकार थे। बाल कविता और बालगीत में अंतर है। वे इसे बखूबी समझते और समझाते थे। उनके बालगीत बाल साहित्य की अनमोल थाती है। पिछले दिनों उनका एक बहुत ही प्यारा बाल गीत बाल वाटिका में छपा था -खिड़की खुली मकान की। खिड़की खुलने के बाद के अलबेले दृश्यों को एक बच्चे के नटखट अंदाज से देखते हुए उनकी यह रचना स्वयं में अद्भुत और अपूर्व है जो घिसे-पिटे विषयों पर लिखने वाले छपास के रोगियों के लिए एक आमंत्रण जैसी है। लिखो, लिखो ऐसे बहुतेरे विषय आपके इर्द गिर्द बिखरे पड़े हैं। लिखो, उन पर लिखो।</div><div style="background-color: white; color: #222222;">शलभ जी का सृजन ही उनका सबसे बड़ा पुरस्कार सम्मान था। यों शलभ जी को बहुतेरे पुरस्कार सम्मान मिले। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">स्तुत्य समर्पण के लिए बाल वाटिका ने भी शलभ जी का सारस्वत सम्मान किया था। वे इस सम्मान से अभिभूत थे। उनका प्रशस्ति पत्र मैंने ही तैयार किया था। जब उन्होंने प्रशस्तिपत्र की प्रशंसा की तो डॉ. भैरूंलाल गर्ग ने विनम्रतापूर्वक उनको बता दिया कि इसे तो डॉ. नागेश ने लिखा है। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">वे गदगद थे । मुझे धन्यवाद कहने से न चूके, यह उनका बड़प्पन था। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">आज उस प्रशस्ति पत्र का सहज स्मरण स्वाभाविक है-</div><div style="background-color: white; color: #222222;"><i><b>बाल साहित्य सृजन और संपादन के क्षेत्र में प्रण-प्राण से समर्पित कृष्ण शलभ हिंदी के सर्वाधिक सक्रिय बाल साहित्यकारों में से हैं. उन्होंने बाल साहित्य की अलख जगाई है और एक तरह से हिंदी बाल साहित्य का परचम राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्सरित किया है. बाल साहित्य के प्रति उनके मन में चिंतन भी है और चिंता भी . यही कारण है कि अनवरत सृजनरत रहते हुए उन्होंने जहाँ स्वयं बाल कविता के क्षेत्र में उच्च कोटि का प्रचुर लेखन किया , वहीँ इसकी सर्जना की दिशा में भी निरंतर परिवेश का निर्माण करने की दिशा में तन्मयतापूर्वक सजग रहे हैं .ओ मेरी मछली , टिली लिली झर सूरज को चिट्ठी, 51 बाल कविताएँ आदि कृतियाँ बाल साहित्य के क्षेत्र में उनके अनवरत सृजन को रेखांकित करती हैं . </b></i></div><div style="background-color: white; color: #222222;"><i><b>बाल साहित्य में शोध कार्य के प्रति उनके मन में सहज अनुराग है वे स्वभाव से ही खोजी और शोधी प्रवृत्ति के हैं . यही कारण है कि उनके द्वारा बचपन एक समंदर जैसे मानक और भारतीय भाषाओं में इस प्रकार के एक मात्र ग्रन्थ का संपादन प्रकाशन संभव हो सका। इस वृहदाकार ग्रन्थ से बाल साहित्य के प्रति समाज में विमर्श और सम्मान को प्रोत्साहन मिला है और इसने बाल साहित्य में शोध और समालोचना को भी आधारभूमि प्रदान की है।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://www.amazon.in/dp/8190508911/ref=cm_sw_r_wa_apa_glt_fabc_14PQVGT1KCMRJ1K7VB7Y" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;" target="_blank"><img border="0" data-original-height="1690" data-original-width="1080" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgjT4cQvSUKDq22Ey5eC_t0dwohcK8zteHMlyu5J_-_EFFSqAhGrlFNPrgJqIZU1ML6RYv5UKH8CghepTv4HFO9bvPSmS2VCiAQ6nWxyEqbfDJP9s96c3eyKa65vgLblM4qDjKyW1R3e8-M/w127-h200/tempFileForShare_20210622-193718.jpg" width="127" /></a></div></b></i></div><div style="background-color: white; color: #222222;">बचपन एक समंदर जैसा चमत्कारी कार्य करने वाले शलभ जी की रचनाओं में भी समंदर जैसी गहराई है। और फिर उनकी रचना यदि समंदर पर हो तो कहने ही क्या, बाल सुलभ जिज्ञासाएँ देखते ही बनती हैं- मोती की खेती की मौलिक कल्पना और किसी चिड़ियाघर या सर्कस के तम्बू का आभास तो वास्तव मे कृष्ण शलभ की ही तूलिका से सम्भव था- बोल समंदर सच्ची-सच्ची, तेरे अंदर क्या, जैसा पानी बाहर, वैसा ही है अंदर क्या? रहती जो मछलियाँ बता तो कैसा उनका घर है? उन्हें रात में आते-जाते, लगे नहीं क्या डर है?</div><div style="background-color: white; color: #222222;">तुम सूरज को बुलवाते हो, भेज कलंदर क्या?</div><div style="background-color: white; color: #222222;">बाबा जो कहते क्या सच है, तुझमें होते मोती, मोती वाली खेती तुझमें, बोलो कैसे होती! मुझको भी कुछ मोती देगा, बोल समंदर क्या?</div><div style="background-color: white; color: #222222;">जो मोती देगा, गुड़िया का, हार बनाऊँगी मैं, डाल गले में उसके, झटपट ब्याह रचाऊँगी मैं!</div><div style="background-color: white; color: #222222;">दे जवाब ऐसे चुप क्यों है, ऐसा भी डर क्या?</div><div style="background-color: white; color: #222222;">इस पानी के नीचे बोलो, लगा हुआ क्या मेला, चिड़ियाघर या सर्कस वाला, कोई तंबू फैला- जिसमें रह-रह नाच दिखाते, भालू-बंदर क्या?</div><div style="background-color: white; color: #222222;">शलभ जी के अनूठे सृजन में कथाओं जैसा आनन्द भी है- मेढक बोला- ‘टर्रम-टूँ, जरा इधर तो आना तू, खाज़ लगी मेरे सिर में, जरा देखना कितनी जूँ!’ कहा मेढकी ने इतरा- ‘चश्मा जाने कहाँ धरा, बिन चश्मे के क्या देखूँ , कहाँ कहाँ है कितनी जूँ!</div><div style="background-color: white; color: #222222;"> बहुत सी उनकी रचनाएँ बतकही शैली में है। भोला संवाद और चुटीली जिज्ञासाएँ। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">सूरज पर उनके बालगीत की श्रेष्ठता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि इसे एक छद्म कविराज ने चुराकर अपने नाम से एक प्रतिष्ठित पत्रिका में छपवा लिया था। शलभ जी ने उन कविराज को ऐसा नोटिस दिया कि फिर किसी अन्य कवि को उन्होंने वैसा सौभाग्य न दिया। बहरहाल आप उस बालगीत से रूबरू होइए -सूरज जी, तुम इतनी जल्दी क्यों आ जाते हो! लगता तुमको नींद न आती और न कोई काम तुम्हें, ज़रा नहीं भाता क्या मेरा, बिस्तर पर आराम तुम्हें। खुद तो जल्दी उठते ही हो, मुझे उठाते हो!</div><div style="background-color: white; color: #222222;">कब सोते हो, कब उठते हो, कहाँ नहाते-धोते हो, तुम तैयार बताओ हमको, कैसे झटपट होते हो। लाते नहीं टिफिन, क्या खाना खाकर आते हो?</div><div style="background-color: white; color: #222222;"> कृष्ण शलभ जी ने बहुत पहले चिड़िया पर एक संकलन सम्पादित किया था। यह एक छोटी सी पुस्तक थी। पर थी गागर में सागर सी। चिड़िया पर बहुत ही सुंदर कविताएँ उसमे थीं। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">शलभ जी का भी एक बाल गीत चिड़िया पर है, जो मुझे विशेष प्रिय है। इसलिए भी कि चिड़िया से बातें करते करते वे उसे सलाह भी देते हैं और कविता के मर्म तक जा पहुँचते हैं -</div><div style="background-color: white; color: #222222;">जहाँ कहूँ मैं बोल बता दे, क्या जाएगी, ओ री चिड़िया। उड़ करके क्या चन्दा के घर</div><div style="background-color: white; color: #222222;">हो आएगी, ओ री चिड़िया।</div><div style="background-color: white; color: #222222;">चन्दा मामा के घर जाना, वहाँ पूछ कर इतना आना। आ करके सच-सच बतलाना, कब होगा धरती पर आना।</div><div style="background-color: white; color: #222222;">कब जाएगी, बोल लौट कर, कब आएगी, ओ री चिड़िया।</div><div style="background-color: white; color: #222222;">उड़ करके क्या चन्दा के घर, हो आएगी, ओ री चिड़िया।</div><div style="background-color: white; color: #222222;">शलभ जी सूरज से भी किरणों का बटुआ लाने की फरमाइश करने से नहीं चूकते-</div><div style="background-color: white; color: #222222;">पास देख सूरज के जाना, जा कर कुछ थोड़ा सुस्ताना, दुबकी रहती धूप रात-भर, कहाँ? पूछना, मत घबराना। सूरज से किरणों का बटुआ, कब लाएगी, ओ री चिड़िया।</div><div style="background-color: white; color: #222222;">उड़ करके क्या चन्दा के घर हो आएगी, ओ री चिड़िया।</div><div style="background-color: white; color: #222222;">और कविता का अंत तो जैसे बड़ों से भी सवाल करता प्रतीत होता है। टेक्नलॉजी के इस युग में भले ही हम अंतरिक्ष के कोनों को खंगालने में जुटे हैं। हर हाथ में मोबाइल और टेब हो और हर आँख में आकाश को छूने की ललक लेकिन अपनी धरती से भी जुड़े रहने की दमक और उसकी सोंधी गन्ध की महक तो उनकी रचनाओं में गाहे बगाहे आ ही जाती है, जिसमे सन्देश और सवाल दोनों ही अपनी चिरपरिचित शैली में अभिव्यक्त होते हैं- चुन-चुन-चुन-चुन गाते गाना। पास बादलों के हो आना, हाँ, इतना पानी ले आना। उग जाए खेतों में दाना। उगा न दाना, बोल बता फिर क्या खाएगी, ओ री चिड़िया?</div><div style="background-color: white; color: #222222;">उड़ करके क्या चन्दा के घर हो आएगी, ओ री चिड़िया</div><div style="background-color: white; color: #222222;"><span> </span>ऐसी न जाने कितनी रचनाएँ हैं जो याद आती है। जो याद आएँगी और याद आते रहेंगे शलभ जी। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">शलभ जी अक्सर घर बदलते थे। उनका पता बदल जाता था। ...इस बार तो उन्होंने दुनिया ही बदल दी। उनका नया पता किसी को नहीं पता। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">काश ! ऐसी कोई चिड़िया होती जो उनका पता खोज लाती। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">काश ! ऐसा कोई वाहक होता जो उन तक सन्देश पहुंचाता। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">शब्दों के जादूगर शलभ जी, आपके अचानक चले जाने से बहुत दुःखी हैं सब। आपसे नाराज भी हैं। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">31 अक्टूबर 2017 को आप तो घर को लौट रहे थे। आ ही गए थे घर तक। घर के मोड़ तक। कोई अबुद्धि आपको बाइक से टक्कर मार गया। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">उसे नहीं पता कि क्या छिन गया। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">जिन्हें पता है, वे बहुत बेबस और बेकल हैं। </div><div style="background-color: white; color: #222222;">भीगे नयनों में बस...आपका मुस्कुराता हुआ चेहरा तैर रहा है, जो कुछ बोलता नहीं। ....</div><div style="background-color: white; color: #222222;"><br /></div><div style="background-color: white; color: #222222;">फिर कानों में ये आवाज कहाँ से गूँज रही है ....पकड़ सको तो पकड़ो मेरे लगे हवा के पर।</div><div style="background-color: white; color: #222222;">(<b><span style="font-size: x-small;">यह आलेख 'बाल वाटिका' मासिक के दिसम्बर,2017 अंक के पृष्ठ 8 पर प्रकाशित हुआ था।)<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhbXUJzbKbPFbJZuLQQQt95jJ9MIjZzUMX-n0h4ZYOkPz1b_IE_UjnoVYQODlTGj-8OX6jeF3KpXARjFUJ4TDTvZmHVpPalszHxi-DxquJ2S6_DvNq0ED2Z2rSxOIRbQy8IEPnzoBC9UQhF/s1358/Screenshot_20210622-213002_Facebook.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1358" data-original-width="1054" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhbXUJzbKbPFbJZuLQQQt95jJ9MIjZzUMX-n0h4ZYOkPz1b_IE_UjnoVYQODlTGj-8OX6jeF3KpXARjFUJ4TDTvZmHVpPalszHxi-DxquJ2S6_DvNq0ED2Z2rSxOIRbQy8IEPnzoBC9UQhF/w155-h200/Screenshot_20210622-213002_Facebook.jpg" width="155" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"></td></tr></tbody></table><br /></span></b></div><div style="background-color: white; color: #222222;"><b><span style="font-size: x-small;"><br /></span></b></div></span>डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-35731748387429837762021-06-12T07:40:00.005-07:002021-06-12T08:30:45.816-07:00आलेख : 'आधुनिक सोच के लेखक : पराग के संपादक : आनंद प्रकाश जैन'- डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'<p style="text-align: center;"><span style="font-size: medium;"><b></b></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAM9r9f_4Bk0IvXMGChel_tUXGeYOtncA086DvfBpTvZe7S-PcU7sfb4S21zmyVdepwjJWmebq7CXfFER0WWS2hW_O0-ioV-7tAA18NV-KPsZ1sPKFmBYqIySTzLxwX5jkcLps1YUgAhMC/s950/anad.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="950" data-original-width="632" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAM9r9f_4Bk0IvXMGChel_tUXGeYOtncA086DvfBpTvZe7S-PcU7sfb4S21zmyVdepwjJWmebq7CXfFER0WWS2hW_O0-ioV-7tAA18NV-KPsZ1sPKFmBYqIySTzLxwX5jkcLps1YUgAhMC/s320/anad.jpg" /></a></span></div><span style="background-color: #fcff01; font-size: large;">आधुनिक सोच के लेखक : 'पराग' मासिक के संपादक : आनंदप्रकाश जैन</span><p></p><p style="text-align: center;"><b style="text-align: left;"><span style="color: #2b00fe;">आलेख : डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'</span></b></p><p><span> </span>बात नवें दशक की है, जब मैं बालसाहित्य में नया-नया आया था। कहाँ-कौन छपा, कौन ज्यादा छपा, इसकी बड़ी जिज्ञासा रहती थी। बालसाहित्य में उन दिनों दो आनंद थे। एक बिहार के रामवचनसिंह 'आनंद' और दूसरे बंबई के आनंदप्रकाश जैन दोनों खूब छपते थे। उनकी रचनाएँ बेजोड़ होती थीं। मैं उनका उत्सुक पाठक और प्रशंसक था। जहाँ रामवचन सिंह 'आनंद' की कविताएँ 'सीके से बर्फी चुराई किसने/बोलो जी बोलो?' या 'दादा जी का खर्राटा' मेरे मन पर अपना जादुई असर कर गई थीं, वहीं आनंदप्रकाश जैन को 1989 में पहली बार ही पढ़ कर मैं उनका मुरीद हो गया। था। यद्यपि जैन साहब की ख्याति एक कथाकार के रूप में है लेकिन मैं जब भी उन्हें याद करता हूँ तो सबसे पहले उनका एक मजेदार शिशुगीत 'इलाज' मेरे में चहक उठता है। बड़े ही नटखट और अटपटे चटपटे अंदाज में लिखे इस शिशुगीत के क्या कहने शायद ऐसी बेजोड़ रचनाएँ लिखी नहीं जातीं, लिख जाती हैं और इसीलिए मन को भा जाती हैं। उस पर छा जाती हैं पराग के अप्रैल 1989 अंक में पृष्ठ 38 पर प्रकाशित आनंदजी के इस मजेदार शिशुगीत का, आप भी आनंद लीजिए रामू को जुकाम ने जकड़ा / फौरन खटिया पकड़ी। नाक निरख कर डाक्टर बोला फीस लगेगी तगड़ी बैग खोलकर डॉक्टर ने फिर चाकू एक निकाला। नाक काटनी होगी बेटा/ यह क्या झंझट पाला ? खटिया से छलांग लगाई खाक उड़ी ना धूल पंख लगाकर रामू पहुँचा पल भर में स्कूल।</p><p><span> </span>बच्चों की आम बहानेबाजी वाले इस गीत को पढ़कर सहज ही शरारती मुस्कान तैर उठती है यह शिशुगीत मुझे इतना पसंद है कि बाद में मैंने इसका प्रासंगिक उपयोग अपने उपन्यास 'टेढ़ा पुल' में भी किया।</p><p><span> </span>पराग के उसी अंक में जैन साहब की एक कहानी भी छपी थी लीडर जी छात्र और छात्रावास जीवन में किशोरों की परिपक्व होती मानसिकता और उसके बल पर परिस्थितिजन्य समस्याओं के स्वतः समाधान की सूझबूझ पर यह अनोखी-चोखी हास्य कहानी है जिसे एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद पाठक मंत्रमुग्ध होकर पढ़ता चला जाता। है कहानी में महानगरीय परिवेश है और आधुनिक जीवन शैली का सहज चित्रण है। पुरातन से अधुनातन सोच लेने की उनकी कला भी देखते ही बनती है।</p><p><span> </span>पारंपरिक कहानियों के समय में इस तरह की आधुनिक कहानियों के सृजन में जैन साहब की तत्परता सजगता को देखकर मन उनके प्रति आदर से भर उठता है।</p><p><span> </span>....तो पराग के एक ही अंक में उनकी दो-दो बेजोड़-मनभावन रचनाएँ देख मैं उनका भक्त हो गया। पराग में लेखकों के पते भी छपते थे। आगे चलकर मैंने उनको पत्र लिखा और अपनी लेखकीय रुचि और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही अपनी रचनाओं के बारे में भी उन्हें बताया। एक तरह से अपनी लेखकीय प्रगति की सूचना देते हुए उनके आशीर्वाद की कामना की। मेरा अहोभाग्य कि लौटती डाक से उनका एक अत्यात्मीय पत्र मुझे मिला। पत्र क्या धरोहर कहूँ प्रशस्तिपत्र भी कहा जा सकता है। मुझे स्मरण है कि उन दिनों उनका वह स्नेहिल पत्र, मैं मित्रों को दिखाते न थकता था। एक-एक शब्द में कितना रस भरा था उन्होंने कि मेरे जैसा कोई भी नया लेखक भला उसके जादुई प्रभाव से कैसे बच सकता था? लगा था कि उनसे पुराना परिचय है और वे मेरे सहज संरक्षक हैं।</p><p><span> </span>उन्होंने लिखा कि तुम शायद नहीं जानते कि बड़ों को जब पता चलता है कि उनके स्नेहभाजन घुटनुओं चलना छोड़कर दौड़ने लगे हैं तो उन्हें कितनी प्रसन्नता होती है।</p><p><span> </span>पत्र इलेक्ट्रानिक टाइपराइटर से लिखा गया था, इसलिए मेरे पास उपलब्ध साहित्यकारों के ढेर सारे पत्रों में वह एकदम अलग था। बाद में उनकी पत्नी चंद्रकांता जैन के एक आलेख से जानकारी हुई कि वे रचनाएँ भी टाइपराइटर से ही लिखते थे दृष्टव्य सन् 1950 से तो टाइपराइटर ही इनकी कलम बन गया। बजाय एक हाथ के दोनों हाथों से लिखा जाने लगा। अपने समय के ये सबसे तेज लेखकों में गिने जाते थे। एक दीपावली पर मुझे अच्छी तरह याद है तेरह पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांको में इनकी कहानियाँ छपी थीं (बाल साहित्य समीक्षा, अगस्त 1990, आनंदप्रकाश जैन विशेषांक, पृष्ठ 13)</p><p><span> <span> </span></span>आज सोचिए तो लगता है कि वे वास्तव में उस जमाने में आधुनिक ढंग से सृजन में आधुनिक रंग भरनेवाले लेखक थे।</p><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi7J9oC_mNov7brEe7f5YCkN7BaITp1_frizMb6_-qKS0rj2YyDxzmdfWzVXD3iKKg9HQOyytdIUNenQYnUKX-0YHAIA9vP3NwjigY28CyzgiBT-Y-Ooy93owN5SKCqOE1tPQX680vQOjIE/s1280/IMG-20210612-WA0003.jpg" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="914" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi7J9oC_mNov7brEe7f5YCkN7BaITp1_frizMb6_-qKS0rj2YyDxzmdfWzVXD3iKKg9HQOyytdIUNenQYnUKX-0YHAIA9vP3NwjigY28CyzgiBT-Y-Ooy93owN5SKCqOE1tPQX680vQOjIE/w143-h200/IMG-20210612-WA0003.jpg" width="143" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><b><span style="font-size: xx-small;">परिवार के साथ </span></b></td></tr></tbody></table><br /><p></p><p><span> </span>आनंदजी से मैं जुड़ा तो जुड़ता ही चला गया। उन दिनों बालहंस में एक स्तंभ था- बालसाहित्य के गौरव। इसके नवें क्रम में आनंदजी के बारे में विस्तृत परिचयात्मक आलेख छपा। यद्यपि इसे चंद्रपालसिंह यादव 'मयंक' से भेंटवार्ता के रूप में प्रकाशित किया गया था लेकिन था यह विवरणात्मक आलेख खैर... इस आलेख को पढ़कर उनके बारे में विस्तार से जानने को मिला। यह जाना कि वे कथा साहित्य के महारथी हैं और उनके ढेरों बालउपन्यास छप चुके हैं और वह भी केवल उनके नाम से ही नहीं बल्कि छद्मनाम चंदर से भी। यह जाना कि वे मूलतः कवि थे। यह जाना कि वे पराग के संपादक रह चुके हैं और अपने संपादन काल में उन्होंने लेखकों का पारिश्रमिक लगभग दस गुना बढ़वा दिया था। वे वास्तविक संपादक थे। रचना को वापस करते समय प्रायः उनकी टिप्पणियाँ, रचनाओं से भी लंबी हो जाती थीं।</p><p><span> <span> </span></span>दो माह बाद ही डॉ. राष्ट्रबंधु जी ने बालसाहित्य समीक्षा पत्रिका के अगस्त और सितंबर 1990 अर्थात दो अंक आनंदप्रकाश जैन विशेषांक के रूप में प्रकाशित किए। इनसे उनके बारे में और अधिक जानने का अवसर मिला।</p><p><span> </span>नि:संदेह लेखक के रूप में तो वे प्रणम्य हैं ही, संपादक के रूप में भी उनकी स्तुत्य भूमिका है। पराग के बहाने उन्होंने किशोर साहित्य को खूब बढ़ावा दिया और वे शिशुगीतों की तो एक अविरल परंपरा के ही संवाहक हैं। उन्होंने शिशुगीत रचनाकारों के समक्ष सृजन के मानदंड प्रस्तुत किए। सच बात तो यह है कि उनके एक आलेख 'अटपटे शिशुगीतों का चटपटा संसार, से मैंने भी बहुत कुछ सीखा। खासकर जो उदाहरण इस आलेख में उन्होंने प्रस्तुत किए थे, उनमें से कई आज भी मेरी जबान पर चढ़े हैं और बहुधा उनकी चर्चा कर ही बैठता हूँ। छोटा सा यह आलेख जैसे शिशुगीतों का घोषणापत्र है जिसे पढ़ते हुए शिशुगीतों की लंबी राह की अंतरंग यात्रा का सुख मिलता है।</p><p><span> </span>इस आलेख के प्रारंभ में ही वे बताते हैं कि सबसे पहले शिशुगीत का अंकन फ्रांसीसी भाषा में 13वीं शताब्दी में हुआ। गीत था थर्टी डेज हैथ सेप्टेंबर... फिर इस यात्रा की चर्चा करते हुए वे सैद्धांतिक विवेचन और अपने अनुभवों को भी प्रस्तुत करते हैं। शिशुगीतों की अंतर्प्रकृति का जितना सहज और स्पष्ट चित्रण कम शब्दों में उन्होंने किया है, कदाचित् ही अन्यत्र दृष्टिगत हो। जैन साहब के शब्दों में शिशुगीतों की भाषा कोई भी हो, उनकी पहली शर्त यही है कि उनमें कुछ ऐसा अटपटापन हो, जो बरबस ही गुदगुदाए, खासतौर पर बच्चों के सरलबोध को और उन बड़ों को भी जिनकी प्रवृत्ति बच्चों के समान हो। फिर दूसरी शर्त ठहरती है शिशुगीत के चटपटे होने की यह कोई तुकबंदी का मसला नहीं है। न ही सिद्धहस्त और धुरंधर कवियों के काव्य बोध से इसका कोई सरोकार है। यह है हम आप जैसे सामान्य लिखने बोलने वालों की आंतरिक विनोदप्रियता की सहज अभिव्यक्ति, जो अचानक बच्चों को मुदित करने के लिए फूट पड़ती है। इस प्रकार के कवियों को हम अल्हड़ कवि कह सकते हैं।' (शंभूप्रसाद श्रीवास्तव: व्यक्तित्व कृतित्व, पृष्ठ 49 )</p><p><span> </span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiQAQHU0sKpU7Drfbc_KhtHIwb1vHRDfIKss749zJEH43ytl_LV06fytnCRzs3wLt3je83GUtR7Z-g3lY7py658m0kaeSFyXXjxPTvWu0UJEZsy_K8tRS3tDFMDoy8qIGPJ_JVtAC0qoxrI/s1280/IMG-20210612-WA0004.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1280" data-original-width="858" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiQAQHU0sKpU7Drfbc_KhtHIwb1vHRDfIKss749zJEH43ytl_LV06fytnCRzs3wLt3je83GUtR7Z-g3lY7py658m0kaeSFyXXjxPTvWu0UJEZsy_K8tRS3tDFMDoy8qIGPJ_JVtAC0qoxrI/w134-h200/IMG-20210612-WA0004.jpg" width="134" /></a></span></div><span><br /> </span><b>आनंद प्रकाश जैन जी 1960 से 1972 तक पराग के संपादक रहे। </b>इस अवधि में उन्होंने पूरे दो पृष्ठों में शिशुगीत प्रकाशित करने की परंपरा विकसित की। उन्होंने आत्मकथ्य में स्वीकार किया है कि केवल बड़े लेखकों के प्रभाव में आए बगैर उन्होंने सहज भाव से नई प्रतिभाओं का सम्यक् उपयोग किया। फलस्वरूप श्रेष्ठ शिशुगीत स्वाभाविक रूप से प्राप्त होते गए।<p></p><p><span> </span>उन्होंने किशोर साहित्य को लेकर खुलेपन की हद तक प्रयोग किए और शायद इसी कारण पराग को त्यागपत्र भी देना पड़ा। यह अति मुखरता का परिणाम था ।</p><p><span> </span>आनंदजी के पास कारयित्री और भावयित्री दोनों ही प्रतिभाएँ थीं। जहाँ अपने आलेखों के माध्यम से वे मानकों की वकालत करते रहे, वहीं अपने रचनाकर्म के द्वारा उन्होंने मानकों को प्रस्तुत भी किया । बालसाहित्य के माध्यम से वे भावनात्मक पोषण के हिमायती थे। वे आडंबर के प्रबल विरोधी थे। वे आरोपित बालसाहित्य की बजाय, स्वाभाविक बालसाहित्य की बात करते थे। एक आलेख में उन्होंने खिचड़ी बालसाहित्य को लेकर चिंता व्यक्त की और केवल लिखने के • लिए लिखे गए बालसाहित्य के प्रकाशन पर प्रकाशकों को आड़े हाथों लेते हुए कहा था प्रकाशक को लेखक नहीं, लिक्खाड़ चाहिए।' उनका कहना था कि बच्चों को आगे बढ़ो जैसे अमूर्त बोध न दें। बल्कि ..' किस तरह वह आगे बढ़े, क्या करे, कौन सी तरकीबें आजमाए कि वह आज की जानलेवा होड़ में, सफलताओं की प्राप्ति के लिए अगली पंक्तियों में खड़ा हो सके, इसका व्यावहारिक ज्ञान उसे चाहिए। कोरी और अव्यावहारिक बातों के संदर्भ में उन्होंने साफ किया है कि देश प्रेम जैसी भावनाएँ भरना बहुत बड़ा अनुष्ठान है। उससे पहले व्यक्ति प्रेम, पड़ोसी प्रेम और साहित्य प्रेम जैसी भावनाएँ तो हम बच्चों में भरने की सोचें । जब हम अपने पड़ोसी के ऊपर जान नहीं दे सकते तो देश के लिए क्या जान देंगे।' (भारतीय बालसाहित्य के विविध आयाम, पृष्ठ 31)</p><p><span> </span>बालसाहित्य के मानदंड शीर्षक आलेख में जैन साहब ने लाख टके की बात, और वह भी आज से पचास साल पहले कही है। खासकर बड़ों के साहित्य की पठनीयता के समक्ष आसन्न संकट और साहित्यिक पलायन को लेकर चिंता व्यक्त करते हुए सहज समाधान भी परोसा है- 'सबसे बड़ी बात वर्तमान भारतीय बालसाहित्य को आधुनिक रूप देना इसलिए भी आवश्यक है कि बड़े होकर इस बालसाहित्य के पाठकों को उस बौद्धिक साहित्य का अनुशीलन करने का अवसर अधिक सुविधा के साथ मिल सके, जिसे आज के बड़े कहलानेवाले बच्चे समझने में कठिनाई अनुभव करते हैं और सस्ते तथा अवांछनीय साहित्य की ओर दौड़ते हैं।' (मधुमती, जुलाई-अगस्त, 1967, भारतीय बाल साहित्य विवेचन विशेषांक, पृष्ठ 375)</p><p><span> </span>आनंदप्रकाश जैन जी बालसाहित्य के सजग लेखक और संपादक थे। उनके विचार समसामयिक हैं। सार्वकालिक हैं। कविता और कहानी ही नहीं, उन्होंने बाल नाटक भी लिखे। आधुनिकता का पुट वहाँ भी बरकरार है। उनका एक नाटक है 'परियों के देश में, जिसके नाम पर न जाइए। कल्पनाशीलता के बल पर यथार्थ का चित्रण ही तो उनकी खूबी है जिसे वे बखूबी निभाते हैं, चाचा रंगीराम और भतीजे विपिन के बहाने बच्चों को जीवन के सच से जोड़ने का उपक्रम जिस मजेदार ढंग से इस नाटक में किया गया है। उसकी सराहना करना कठिन है। नाटक में काव्य पंक्तियों के प्रयोग से वैशिष्ट्य आ गया है। फूड परी और अमरूद को रसगुल्ला समझने की कल्पना अपूर्व है। ( साहित्य अमृत, नवंबर 2012, पृष्ठ 125)</p><p><span> </span>रोचकता ही बालसाहित्य का प्राण तत्व है और इस दृष्टि से जैन साहब बाल साहित्य में प्राण फूँकते हैं। एक मजेदार बात, शायद मुझे ही लगता हो कि वे अपनी अधिकांश कहानियों में गाहे-बगाहे कोई न कोई खाने की मजेदार चीज जरूर ले आते हैं। जैसे कहने को इतिहास कथा 'आगे बढ़ो' में राजस्थान के एक राजा के बेटों हिम्मत सिंह और बप्पालाल की कहानी किस्सागोई शैली में है और काल्पनिक पात्रों बीरवल और चाणक्य को भी उसमें शामिल कर लिया गया है लेकिन आधुनिक परिवेश के जिज्ञासु बच्चों की हुंकारियों के साथ कहानी जिस नवेले अंदाज में बढ़ती जाती है और वह भी अंतर्कथाओं की उपमाओं के साथ-साथ कि कहानी में उपन्यास जैसा आनंद आने लगता है। इस</p><p><span> </span>कहानी के प्रारंभिक चुटीले संवाद देखिए : चाणक्य ने एक गरम पुआ मुँह में डालते हुए हमसे कहा- 'आगे</p><p><span> </span>'किधर आगे बढ़ें?' हमने सवाल किया। 'मालपुआ हम भी खाना चाहते थे।'</p><p><span> </span>'हाँ, ' चाणक्य ने भी अपनी चुटिया हिलाई 'हमने पाँच गरमागरम मालपुए आपके लिए रख छोड़े हैं। अगर आपने उस कहानी से हमें आगे बढ़ो का अर्थ समझा दिया तो पाँचो आपके।'</p><p><span> </span>'मगर यह याद रखिए कि... कहानी से यह स्पष्ट संकेत मिलना चाहिए कि हम किधर को आगे बढ़ें, जिससे..'</p><p><span> </span>'हमारी पढ़ाई लिखाई की समस्या हल हो' चाणक्य ने कहा। 'औल हमें लोज-लोज मालपुए खाने को मिलें। तोतूराम ने कहा। (बालहंस, जून द्वितीय, 1990, पृष्ठ 10)</p><p><span> </span>तो वहाँ अमरूद की बात थी, यहाँ मालपुए की और ऊपर जिस लीडर कहानी की बात मैंने की थी, उसमें अमरूद के रस का जिक्र हुआ है।</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgXxYzyOpIdHQW-NOvzSR_e6IbKCFHTZ9UU6Lo2tToGBFAV-osdQwl-nYCODxDkaOJ21FDxNFVhb8QgmsGv7sIW9fFyWaBA7P6xwilJ_Z2p2yoOh4MKtAy07BAqA5hWny4e-5t4xzyeQhbl/s1059/14.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="811" data-original-width="1059" height="153" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgXxYzyOpIdHQW-NOvzSR_e6IbKCFHTZ9UU6Lo2tToGBFAV-osdQwl-nYCODxDkaOJ21FDxNFVhb8QgmsGv7sIW9fFyWaBA7P6xwilJ_Z2p2yoOh4MKtAy07BAqA5hWny4e-5t4xzyeQhbl/w200-h153/14.jpg" width="200" /></a></div><br /><p></p><p><span> </span>जो भी..., आनंद जी का बालसाहित्य आनंद रस से भरपूर है। कहानी में कहानी गढ़ने में माहिर आनंदजी की रससिद्ध रचनाएँ आने वाले समय में भी अपनी श्रेष्ठता के कारण महत्वपूर्ण रहेंगी। उनकी सम्पूर्ण बाल कहानियाँ प्रकाश मनु जी के संपादन में दिल्ली पुस्तक सदन से प्रकाशित हुईं हैं। </p><p><span> </span>डॉ. भैरूंलाल गर्ग के संपादन में उन पर केन्द्रित 'बाल वाटिका' का विशेषांक बहुचर्चित हुआ है ।</p><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="text-align: left;"> </span><span style="text-align: left;">बालसाहित्य में नये संदर्भों को जोड़ने और बालसाहित्य धारा को मोड़ने के लिए उन्हें सदैव याद किया जाएगा। </span><span style="text-align: left;"> </span><span style="text-align: left;">आधुनिक सोच के महारथी और पराग जैसी पत्रिका स्थापित करनेवाले आनंद प्रकाश जैन को मेरा सादर नमन </span><b><span style="font-size: x-small;"><span style="color: red;"><span style="text-align: left;">(यह आलेख </span><span style="text-align: left;"> </span></span><span style="text-align: left;"><span style="color: red;">'बाल वाटिका' मासिक के जुलाई 2016अंक में पृष्ठ 38 पर प्रकाशित हुआ था)</span><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgD_zZVp6oukOzUhXG2X4lfsi5G9iFPQt1Xc_g62w2OKo-oBPCYb0JSQmWZ2ThaYHSTDo21ZbDEkgX0vniJ54pXftWzZ7EAh_ufKZYjndh1sbPmduDqi-D0C-cd9ceOSMqS_rlSNPSo7qT4/s1658/12.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1056" data-original-width="1658" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgD_zZVp6oukOzUhXG2X4lfsi5G9iFPQt1Xc_g62w2OKo-oBPCYb0JSQmWZ2ThaYHSTDo21ZbDEkgX0vniJ54pXftWzZ7EAh_ufKZYjndh1sbPmduDqi-D0C-cd9ceOSMqS_rlSNPSo7qT4/s320/12.jpg" width="320" /></a></div></span></span></b></div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><span style="font-size: x-small;"><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2KybCuHqxb-SZby4rVafKMV03c9jm07m-YYcKAE8OwKWjIfMGqRtQ2_8gWbpabpRX4wWXujITCqroafA-GHVwoBk0WP6gfNUUilAszgyIdnA0ItyklMYaNXEKanPsKs8u1OcyzbA5pVQ7/s1654/135.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1034" data-original-width="1654" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj2KybCuHqxb-SZby4rVafKMV03c9jm07m-YYcKAE8OwKWjIfMGqRtQ2_8gWbpabpRX4wWXujITCqroafA-GHVwoBk0WP6gfNUUilAszgyIdnA0ItyklMYaNXEKanPsKs8u1OcyzbA5pVQ7/s320/135.jpg" width="320" /></a></div></span></b></div><p></p>डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-62792384679656559282021-06-03T08:46:00.005-07:002021-06-05T21:46:54.439-07:00आलेख : ‘बाल साहित्य की अमिट हस्ताक्षर शकुंतला सिरोठिया' -डा. नागेश पांडेय ’संजय'<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgTNj6fTJ6pvQoaoGbmdkZeouH7RLTzUV5Ujsm49q1qvI_E_PxNAT4OLQh1ead-gjNDtBFGpFl1jUGGZtQIrPQn-RzAjvUi98rf-pv_zb3wyPVxnwWlPi5Q4szS6PSRM213mTooTvrRcB_8/s903/shakuntla+sirothiya.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="903" data-original-width="707" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgTNj6fTJ6pvQoaoGbmdkZeouH7RLTzUV5Ujsm49q1qvI_E_PxNAT4OLQh1ead-gjNDtBFGpFl1jUGGZtQIrPQn-RzAjvUi98rf-pv_zb3wyPVxnwWlPi5Q4szS6PSRM213mTooTvrRcB_8/s320/shakuntla+sirothiya.jpg" /></a></div><div style="text-align: center;"><b><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;">बाल साहित्य की अमिट हस्ताक्षर शकुंतला सिरोठिया</span></b></div><div style="text-align: center;">आलेख : डा. नागेश पांडेय ’संजय'</div><p></p><p><span> </span>ठंड बड़ी अकड़ी है/बर्फ से जकड़ी है। छम्मक छबीली है/ बेहद नखरीली है। कौड़ी बिक जाएगी, गर्मी तो आने दो। बच्चों को खिलाती है/ बूढ़ों को सताती है। अमीरों को हंसाती तो गरीबों को रुलाती है। पीछे पछताएगी/ धूप गरमाने दो। रात खिलखिलाती है/ओस से नहाती है। सुबह मुस्कुराती है/धूप को चिढ़ाती है। ऐंठ निकल जाएगी, फागुन तो आने दो। (राष्ट्रधर्म, फरवरी,1997,पृ. 52)</p><p><span> </span>जी,हां। यह शकुंतला सिरोठिया जी की वह कविता है जो मुझे कितना प्रिय है, यह कहना मेरे लिए कठिन है। धाराप्रवाह पढ़ते-पढ़ते कविता एकदम जो उठान देती है कि बांछे खिल जाएं। मन खिलखिला उठे। कौड़ी बिक जाएगी, पीछे पछताएगी या ऐंठ निकल जाएगी जैसी पंक्तियों को बोलते या उन तुकान्तों पर बल देते हुए लगता है कि हम महारथी हैं और नाच नचाने वाली नखरीली ठंड हमारे आगे खड़ी कांप रही हैं।</p><p><span> </span>यह अनोखी कविता 1996 में अपने हाथों से लिखकर सिरोठिया जी ने मेरे विशेष आग्रह पर मुझे भेजी थी। मैं उन दिनों राष्ट्रधर्म मासिक पत्रिका में नियमित रूप से 'बाल साहित्य मनीषी स्तंभ' लिख रहा था। इसमें बाल साहित्य के अग्रगण्य रचनाधर्मियों पर मेरे आलेख के साथ-साथ उनकी एक उत्कृष्ट रचना भी प्रकाशित की जाती थी। सिरोठिया जी की यह कविता तो कुछ ऐसे मेरे मन चढ़ी कि आज भी चाहे सर्दी की बात चले और चाहे सिरोठिया जी की, यह कविता किसी हंसिनी सी मेरे मन सरोवर में तैरने लगती है। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEibV3QJabBmiJ3lxvU-yTvv9_tg9buAFJu_nPePlk75Bj9kx1lZRdcompqqp5x7trVjW-hxHl6TlSWcl171dqvm7E3GH1nyP7Ge1EPFISUa5S-EY5z_beko9v96aXHpxKExfPXoCgI-qUnf/s2048/%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25B0%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25A0%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25AF%25E0%25A4%25BE_6.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="2048" data-original-width="1489" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEibV3QJabBmiJ3lxvU-yTvv9_tg9buAFJu_nPePlk75Bj9kx1lZRdcompqqp5x7trVjW-hxHl6TlSWcl171dqvm7E3GH1nyP7Ge1EPFISUa5S-EY5z_beko9v96aXHpxKExfPXoCgI-qUnf/s320/%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25B0%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25A0%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25AF%25E0%25A4%25BE_6.jpg" /></a></div><br /><p></p><p><span> </span>शकुन्तला जी से मेरा परिचय 1988 में हुआ। कानपुर से बाल दर्शन पत्रिका छपती थी। उसकी प्रधान संपादक मानवती आर्या जी थीं। सिरोठिया जी उसमें बालमंच की संपादक थीं। मैंने नया-नया लिखना शुरू किया था। इलाहाबाद के पते पर उन्हें एक कविता भेजी-राजू जागो। जल्दी ही उनका स्वीकृति पत्र आ गया। किसी पत्रिका में प्रकाशन के लिए स्वीकृत होने वाली मेरी यह पहली कविता थी। भले ही इसका प्रकाशन बाद में हुआ और पहली बार मेरी कविता बाल साहित्य समीक्षा में प्रकाशित हुई। फिलहाल वह पोस्टकार्ड आज भी मेरे पास सुरक्षित है। सच कहूं, तो किसी सम्मान पत्र से कम नहीं।</p><p><span> 15 दिसम्बर 2015 को जन्मीं </span>सिरोठिया जी बाल साहित्य की अनुपम साधिका थीं। गद्य और पद्य दोनों ही विधाओं में उन्होंने लिखा और अनूठा लिखा। उनकी लोरियां अद्भुत हैं। निरंकारदेव सेवक ने लिखा भी है कि जैसी लोरियां शकुंतला जी ने लिखीं वैसी किसी ने नहीं लिखीं। वास्तव में उनकी लोरियों की अजब ही छटा है। वे गढ़ी हुई नहीं लगतीं। बाल साहित्य के मुकुट में अमोल रत्नों की तरह जड़ी हुई लगती हैं। जिसने भी कहा, उन्हें ‘लोरी साम्राज्ञी’ ठीक ही कहा है। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूं कि उनके मुख से न जाने कितनी उनकी लोरियां सुनी हैं। लखनऊ, कानपुर, इंदौर, इलाहाबाद आदि जाने कितने स्थानों पर उनके साथ आयोजनों में सम्मिलित हुआ हूं। उज्जैन तो मैं कभी भूल नहीं सकता जब एक ही कार में उनके साथ महाकालेश्वर मंदिर गया और उनका हाथ पकड़कर सीढ़ियां चढ़ी-उतरी थीं। </p><p><span> </span>मैं उनके घर भी गया हूं। भोजन किया है। ...और उनके घर पर ही 1995 में अपनी पुस्तक ’नेहा ने माफी मांगी‘ के लिए शकुंतला सिरोठिया बाल साहित्य पुरस्कार(गद्य) प्राप्त किया है। जी, हां, यह पुरस्कार प्रयाग की संस्था अभिषेक श्री के द्वारा प्रतिवर्ष दिया जाता था और उनके जीवन के पश्चात नहीं चल सका। उन दिनों बाल साहित्य में इने-गिने पुरस्कार थे और इस पुरस्कार की घोषणा की प्रतीक्षा बाल साहित्य जगत में विशेष उत्सुकता के साथ की जाती थी। इसके नेपथ्य में श्रेष्ठ बाल साहित्य को प्रोत्साहित करने का भाव था। वरेण्य साधकों के हाथों यह पुरस्कार दिया जाता था। पहले ही कार्यक्रम की अध्यक्षता छायावाद की आधार स्तंभ महादेवी वर्मा ने की थी। मुझे यह पुरस्कार कवि केसरी नाथ त्रिपाठी के हाथों मिलना था। संयोग से उसी तिथि में मेरी परीक्षा पड़ गई। मैं जा न सका तो उन्होंने बाद में अपने घर पर कार्यक्रम रखा। इस पुरस्कार को लेकर एक रोचक वाकया मुझे याद आ रहा है। इसकी निर्णायक समिति में एक बिहार के रामवचन सिंह आनंद भी थे। वे मुझसे बहुत स्नेह करते थे। इस पुरस्कार की घोषणा से पूर्व ही उन्होंने मुझे पत्र लिख दिया-नागेश, निकट भविष्य में तुम्हें एक पुरस्कार मिलने वाला है। मैं उन दिनों नया रंगरूट था। बीस साल की उमर थी। बाल साहित्य का कोई पुरस्कार तो मिला नहीं था और केवल शकुंतला सिरोठिया पुरस्कार के लिए ही प्रविष्टि भेज रखी थी, इसलिए तुरंत ही अनुमान लगा लिया कि हो न हो, यह शकुंतला सिरोठिया पुरस्कार ही होगा। एक माह तक कोई सूचना न मिली तो इस बारे में पत्र लिखकर सीधे सिरोठिया जी से ही पूछ बैठा। बस, फिर क्या था। बेचारे रामवचन सिंह जी। उनको कोपभजन बनना पड़ा। दोबारा निर्णायक भी नहीं बनाए गए। मुझे भी सिरोठिया जी ने लिखा कि आपको पुरस्कार मिलेगा या नहीं, इसका निर्णय तो दूसरे निर्णायक से अंक प्राप्त होने के बाद ही स्पष्ट हो सकेगा। आज भी जब अपनी वह बचकानी हरकत याद आती है तो हंसता भी हूं और कहीं न कहीं मन में खीझ भी उठती है कि भला ऐसी भी क्या व्यग्रता?</p><p><span> </span>बहरहाल इससे यह तो सिद्ध होता ही है कि उनके संयोजन में पुरस्कार की व्यवस्था कितनी पारदर्शी और चुस्त-दुरुस्त थी। </p><p><span> </span>काश ! कि उनके जीवनकाल के बाद भी यह पुरस्कार चलता रहता। बाल साहित्य जगत या कम से कम उनके परिवार वालों को तो इस दिशा में सोचना ही चाहिए।</p><p> <span> </span>सिरोठिया जी बाल साहित्य की सौभाग्यशाली लेखिका हैं जिनका समग्र बाल साहित्य हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी से प्रकाशित हो चुका है।</p><p><span> </span>सिरोठिया जी अध्यापिका थीं। राजकीय महिला शिशु प्रशिक्षण केंद्र, प्रयाग से उन्होंने अवकाश ग्रहण किया था। एक तरह से शिशुओं और माताओं के हृदयों की गहराइयों का गहन अध्ययन उन्होंने किया था। सूर का संदर्भ लेकर यह भी कह सकता हूं कि वे शिशु और मातृ मन का कोना-कोना झांक ही नहीं, आंक भी आईं थीं। यही कारण है कि माताओं के लिए जहां उनकी लोरियां अद्भुत हैं, वहीं शिशुओं के लिए उनके गीत भी नायाब हैं। सो जा मेरे लालना, चंदा प्यारे आ जाओ, तारों का बाजार लगा, निंदिया प्यारी आ जा तू, सो जा राजदुलारी तथा सो जा मेरे लालना जैसी लोरियों की तो चर्चा खूब ही हुई है। मैं उनकी एक से बढ़कर एक लोरियों में अपने अनूठे सानुप्रासिक शब्द संयोजन, भाव-भंगिमा और गजब की ध्वन्यात्मकता के चलते इस लोरी की तो प्रशंसा करते नहीं थकता जिसे अपने निंदियारे बच्चे को कंधे पर लगाए जब आप गुनगुनाएंगे तो मेरा वादा है कि कहीं उसके आनंद की स्निग्धता से आप स्वयं भी झपकी न लेने लग जाएं -निंदिया थम-थम-थम। चंदा चम-चम-चम! तारे दम-दम-दम! निंदिया थम-थम-थम। पानी झम-झम-झम! गेंदा गम-गम-गम! निंदिया थम-थम-थम! ढोलक ढम-ढम-ढम! पायल छम-छम-छम! निंदिया थम-थम-थम। </p><p><span> </span>आइए, उनके कुछ अटपटे-चटपटे शिशुगीतों की बानगी देखें। ’गुड़िया की परेशानी‘ शिशुगीत में हास की उत्फुल्ल छटाएं हैं। यों चूहे से परेशान गुड़िया की व्यथा बड़ी मार्मिक है-रोती-रोती गुड़िया आई/किससे अपनी बात कहूं। चूं-चूं ने आफत कर डाली/ऐसे घर में कहां रहूं। कुतरी चुनरी गोटे वाली/लाल रंग की प्यारी-प्यारी। डाल नहीं घूंघट पाऊंगी/दूल्हे संग कैसे जाऊंगी। मर जाऊंगी लाज की मारी/ कैसे अब ससुराल रहूं।</p><p><span> </span>ऐसे ही ढुम्मुक-ढुम शिशुगीत की ध्वन्यात्मकता झूमने को मजबूर करती है-मंटू-बंटू दोनों भाई/दोनों में हो गई लड़ाई। गिर गए दोनों ढुम्मुक-ढुम। ढुम्मुक-ढुम भाई ढुम्मुक-ढुम/ मैं हूं राजा, नौकर तुम। </p><p><span> </span>खास बात कि पैनी नजर के चलते उनके शिशुगीतों में हास की सहज ही सृष्टि संभव हो जाती है। टिड्डे के हरे धनिया पर बैठने की कल्पना और उसे देखकर उत्पन्न भय का यह प्रसंग भी मजेदार है-धनिया पर बैठा था हरा-हरा टिड्डा/ लंबू बेहोश होकर गिर गए थे।</p><p><span> </span> उनके शिशुगीतों और बाल कविताओं में मार्मिकता और संवेदना भी है। नयापन तो है ही। बच्चे की प्रतीक्षा में मां की अन्यमनस्कता और बेचैनी पर भी उनकी यह रचना उद्धरणीय है, जिसमें बकरी के बहाने वे अपनी बात कहने में सफल हुई हैं-मेरी मुनिया, अरे अरे। क्यों करती है में में में? तेरा बच्चा कहां गया? खोज रही है उसको क्या? पढ़ने कहीं गया होगा/टीचर ने रोका होगा।</p><p><span> </span>उनकी कविताओं में बालसुलभ प्रवृत्तियां सहज दृष्टिगत होती हैं। खीर गिर जाने से बच्ची के भूखे रहने की चिंता का वर्णन भी कुछ ऐसा ही है- गीता मूढ़े पर बैठी थी/चम्मच से खाती थी खीर। मकड़ी एक पीठ पर कूदी/गिर गयी चम्मच, बिखरी खीर। अब क्या गीता खाएगी/क्या भूखी रह जाएगी?</p><p><span> </span>शकुंतला सिरोठिया जी ने बच्चों के लिए उपन्यास भी लिखे हैं और नाटक भी। गंधराज और जंगली जानवरों के बीच अकेली लड़की दानों ही बालिकाप्रधान हैं और एक तरह से बालिका साहित्य की कमी की दिशा में बड़ी भरपाई करते हैं। बालिकाओं में अदम्य साहस जगाने और कुछ नया करने की प्रेरणा से लबरेज उनके ये उपन्यास भाषा की दृष्टि से समृद्ध हैं। कोई कठिनाई नहीं, बच्चे पढ़ते-पढ़ते हृदयंगम करते चलते हैं। </p><p><span> </span>उनके कथा साहित्य में जाति, धर्म, क्षेत्र के पूवाग्रहों से बहुत ऊपर उठकर केवल मानवीय संवेदनाओं की झांकी है। जिसे निहारते हुए मन चहक उठता है। अंदाज भी निराला होता है जिससे कथ्य को स्वाभाविक गति मिलती है। उनकी कहानी ’अपने ही घर में‘ का संदेश उन बड़ों के लिए भी ग्रहणीय है जो मजहबी दायरों में इंसानियत की बलि चढ़ा देते हैं लेकिन यह कहानी तो ऐसे उदारमना इंसानों की अनूठी आत्मीयता और विश्वास को बयां करती है जिस पर बलिहारी होने को मन करता है। राकेश और नईम ही जिगरी दोस्त नहीं हैं, बल्कि उनके परिवार में भी वही विश्वास कायम है। हिंदू-मुस्लिम के झगड़े के दौरान राकेश को नईम के घरवाले पूरी पनाह देते हैं और यही नहीं, राकेश के पिता भी उससे फोन पर वहीं रहने की सलाह देते हुए कहते हैं कि समझ ले तू अपने पिता के ही घर में है। तू वहां ज्यादा सुरक्षित है। </p><p><span> </span>सिरोठिया जी की पद्य कथाएं भी अप्रतिम हैं। दुलहिन चुहिया दूल्हा बिल्ला, राणा रणजीत सिंह, शेर और बकरी, भोला और शेरा, तीन भालू तथा बिल्ली रानी उनकी बड़ी ही मजेदार पद्य कथाएं हैं। इनमें मनोरंजन की प्रचुरता के साथ सहज संदेश भी सन्निहित है। उनकी रचना ’फूल का पहरेदार‘ तो महाराष्ट्र के कक्षा 6 के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती रही।</p><p><span> </span>उन्होंने नाट्यरूपक भी लिखे। चतुर ओडीसस और स्वतंत्रता के पथ पर किशोरों की दृष्टि से बेहतर हैं। कवि हृदया होने के कारण नाटकों में आए गीत भी चुस्त-दुरुस्त हैं लेकिन वर्षापति का दरबार तथा शिशुनगर नाटकों के संवाद प्रायः बहुत लंबे हो गए हैं। मंचीयता की दृष्टि से बाल पात्रों को इन्हें याद करने में कठिनाई होगी। </p><p><span> </span>सिरोठिया जी का एक काम और भी बहुत बड़ा है, जिसकी चर्चा यद्यपि कम हो सकी। शिशु चित्रकला नामक उनकी पुस्तक अपने ढंग की अद्वितीय कृति है।</p><p><span> </span>सिरोठिया जी ने 1928 में लेखन आरंभ किया था। उनकी पहली रचना शिशु मासिक में 1929 में शकुंतला शर्मा के नाम से प्रकाशित हुई थी। वे जीवन पर्यंत लिखती रहीं। </p><p><span> </span>हिंदी में उनके हस्ताक्षर मुझे बहुत अच्छे लगते थे। वस्तुतः वे बाल साहित्य की अमिट हस्ताक्षर हैं। बाल साहित्य की बात चलेगी। बाल साहित्य में लोरियों की बात चलेगी। वे याद आएंगी और हमारा माथा उनके सम्मान में झुक-झुक जाएगा।</p><p><span> </span>5 जून 2005 को सिरोठिया जी हमसे बिछुड़ गईं। उनके जन्म शताब्दी वर्ष पर डॉ. भैरूंलाल गर्ग जी ने बाल वाटिका मासिक का बहुत ही सुंदर विशेषांक प्रकाशित किया था। उनकी पावन स्मृति को हमारा भी नमन और अशेष श्रद्धांजलि !</p><p><b><span style="font-size: x-small;">(यह आलेख बाल वाटिका मासिक, दिसम्बर 2015 के विशेषांक में पृष्ठ 30 पर प्रकाशित हुआ था )</span></b></p><p><b></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-G3NNHxW_vdzW90UqQG9t-Jdqb8b5Ia5EJM8PbVrV-E5vQrq6ZJ-9HuR30c8Vrj9jazpIUUcjEn373d8DoYDk2cEl9fBx_TciFKzvklXG3vRHGQcHhy7kYYSuq4yrTLG41yftf-VRIqd-/s1046/%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25B0%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25A0%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25AF%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25B6%25E0%25A5%2587%25E0%25A4%25B7%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%2582%25E0%25A4%2595.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="646" data-original-width="1046" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi-G3NNHxW_vdzW90UqQG9t-Jdqb8b5Ia5EJM8PbVrV-E5vQrq6ZJ-9HuR30c8Vrj9jazpIUUcjEn373d8DoYDk2cEl9fBx_TciFKzvklXG3vRHGQcHhy7kYYSuq4yrTLG41yftf-VRIqd-/s320/%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25B0%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25A0%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25AF%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25B6%25E0%25A5%2587%25E0%25A4%25B7%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%2582%25E0%25A4%2595.jpg" width="320" /></a></b></div><b><br /><span style="font-size: x-small;"><br /></span></b><p></p>डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-14513226460650918772021-06-03T02:34:00.008-07:002021-06-03T02:48:49.338-07:00 हिंदी, गुजराती और सिंधी के बालसाहित्यकार : डॉ. हूंदराज बलवाणी<p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiY1uWlDEGjtk45cBymVK3f9vV1t2-QWJzWJAMU1AU9-8rlLcPF_Mnn5-3GnWufdm8_9tqEGqw7Tx1Z2EkUJsvN99mvy7HbnhBIFAIebQNmo6eDTB0vdiejoWpkSnHuwAg-jjOd1dokPQ0O/s1084/%25E0%25A4%25B9%25E0%25A5%2581%25E0%25A4%25A8%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25A6+%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%259C+%25E0%25A4%25AC%25E0%25A4%25B2%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25A8%25E0%25A5%2580.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="841" data-original-width="1084" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiY1uWlDEGjtk45cBymVK3f9vV1t2-QWJzWJAMU1AU9-8rlLcPF_Mnn5-3GnWufdm8_9tqEGqw7Tx1Z2EkUJsvN99mvy7HbnhBIFAIebQNmo6eDTB0vdiejoWpkSnHuwAg-jjOd1dokPQ0O/s320/%25E0%25A4%25B9%25E0%25A5%2581%25E0%25A4%25A8%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25A6+%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%259C+%25E0%25A4%25AC%25E0%25A4%25B2%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25A8%25E0%25A5%2580.jpg" width="320" /></a></div><div style="text-align: center;"><b style="background-color: #fcff01;"><span style="color: #2b00fe;"> हिंदी, गुजराती और सिंधी के बालसाहित्यकार : डॉ. हूंदराज बलवाणी</span></b></div><div style="text-align: center;"><span style="color: #2b00fe; font-size: x-small;"><b>टिप्पणी : डॉ. नागेश पांडेय 'संजय' </b></span></div><p></p><p> <span> </span>डॉक्टर हूंदराज बलवाणी जी हिंदी, गुजराती और सिन्धी बाल साहित्य के सेतु पुरुष है; उन्होंने कविता और कहानी : दोनों ही विधाओं में उच्च कोटि का बाल साहित्य लिखा और अनुवाद के माध्यम से भी उसे बच्चों तक पहुंचाया। बालसाहित्य के शोधकर्ता और पाठ्यपुस्तक अधिकारी के रूप में भी उनकी बड़ी भूमिका है।</p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTaZA40Jz-c9r8HxDZ_all3tyrasdN6yUewHZ5qGBwxeWKbYshosaZ5qNL47_8cbe5-Xi0zVhbvq045TCbU9qxjUJFp3TufBZxUjZ9azkpYI1voaPuHwuIvaRL1rVC9ec7XqkzKVQWeXKX/s1461/%25E0%25A4%25AC%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B2.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1461" data-original-width="993" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTaZA40Jz-c9r8HxDZ_all3tyrasdN6yUewHZ5qGBwxeWKbYshosaZ5qNL47_8cbe5-Xi0zVhbvq045TCbU9qxjUJFp3TufBZxUjZ9azkpYI1voaPuHwuIvaRL1rVC9ec7XqkzKVQWeXKX/w136-h200/%25E0%25A4%25AC%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B2.jpg" width="136" /></a></div><br /><p></p><p><span> </span> मेरा सौभाग्य है कि विगत 27 वर्षों से निरंतर उनके संपर्क में हूँ। 1994 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के निदेशक विनोद चंद्र पांडे द्वारा आयोजित सर्व भाषा बाल साहित्य समारोह में उनसे पहली बार भेंट हुई थी।.. और तब से निरंतर एक शुभचिंतक अग्रज की भांति उन्होंने मुझे अपना आशीर्वाद प्रदान किया है।</p><p><span> </span> कानपुर, दिल्ली, भीलवाड़ा आदि-इत्यादि अनेक स्थानों पर उनसे मिलना जुलना होता रहा। कानपुर में वे हम लोगों के लिए गुजराती मिठाई लेकर आए थे। अधिकार भाव से कहा था, 'नागेश, तुम सबसे छोटे हो इसलिए सबसे ज्यादा मिठाई खाओगे। मैं जलेबी जैसी उस गुजराती मिठाई का नाम तो भूल गया किंतु उसका स्वाद और दादा का अपनापन आज भी याद है। उन्होंने मेरी अनेक रचनाओं का हिंदी और गुजराती में अनुवाद किया।</p><p><span> </span> मैंने जब 2005 में 'किशोरों की श्रेष्ठ कहानियां' संकलन संपादित किया था तो उनकी 'मुकाबला' कहानी को आग्रहपूर्वक मंगाया था। उस संकलन का आवरण उनकी ही कहानी पर आधारित है। सभी कहानियों के साथ लेखकों के स्केच फ़ोटो भी प्रकाशित हुए थे। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNFVgtjUFb7xRgOO8aoJK_AQuAsSNrIR_xWeOSQPr2fasQqJq0CGqXp7dggzxhn0xDqONRgYZy3H9K1M5nEBFUzkIcGKdlKBmRbssJY0xqyVBOpARzY76XOgUFS6oGwPiASuOc6fjWDHLq/s1584/%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25B6%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25B0.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1584" data-original-width="998" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNFVgtjUFb7xRgOO8aoJK_AQuAsSNrIR_xWeOSQPr2fasQqJq0CGqXp7dggzxhn0xDqONRgYZy3H9K1M5nEBFUzkIcGKdlKBmRbssJY0xqyVBOpARzY76XOgUFS6oGwPiASuOc6fjWDHLq/s320/%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25B6%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25B0.jpg" /></a></div><p></p><p>मुझे गुजराती नहीं आती लेकिन अपनी बेटी की मदद से मैंने उनके गुजराती बाल साहित्य का भी आनन्द प्राप्त किया है। </p><p>मेरी ईश्वर से प्रार्थना है, हिंदी, गुजराती और सिंधी के वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. हूंदराज बलवाणी सदैव-स्वस्थ सानंद रहें। उनका आशीर्वाद सदैव हमें प्राप्त होता रहे।</p>डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-45695397451651226322021-05-30T05:33:00.013-07:002021-06-26T19:35:47.786-07:00 आलेख : 'बहुआयामी कृतित्व के धनी : जयप्रकाश भारती' - डॉ. नागेश पांडेय 'संजय' <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhP-t5EOOINJDoyaCtfZkc0rr6kZEuS35tU_j0LHEFInOsYMJyKO7_jC0Vp6OHBcL0gEaS2Z5UN4nIMAWikYhvJUowHNS1Lv8I852GpPuF3p3JKHJ_aoCCtpSZwDJ7dqR5ZGfD63073c5_D/s769/Ph.+D.+Hindi+Degree++Nagesh.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="769" data-original-width="749" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhP-t5EOOINJDoyaCtfZkc0rr6kZEuS35tU_j0LHEFInOsYMJyKO7_jC0Vp6OHBcL0gEaS2Z5UN4nIMAWikYhvJUowHNS1Lv8I852GpPuF3p3JKHJ_aoCCtpSZwDJ7dqR5ZGfD63073c5_D/s320/Ph.+D.+Hindi+Degree++Nagesh.jpg" /></a></div><br /><div style="text-align: center;"> <b><span style="color: #2b00fe; font-size: medium;"> 'बहुआयामी कृतित्व के धनी : जयप्रकाश भारती' </span></b></div><p></p><p style="text-align: center;"><span style="white-space: pre;"> </span>आलेख : डॉ. नागेश पांडेय 'संजय' <span style="white-space: pre;"> </span> </p><p><span> </span>जयप्रकाश भारती जी से मेरी पहली भेंट नंदन कार्यालय में हुई थी। 1995 की जनवरी यानी कड़ाके की ठंड। मैं दिल्ली बालकन जी बारी इंटरनेशनल के आयोजन में गया था। मुझे ज्ञात था कि समारोह के मुख्य अतिथि भारतीजी हैं लेकिन मैं नहीं चाहता था कि उनसे भेंट की मेरी बहुत पुरानी इच्छा दिल्ली आकर भी प्रतीक्षा के बोझ से दबे। सूर्य का कार्यालय बंद हो चुका था लेकिन बालसाहित्य का यह सूर्य तो बड़ी ही तत्परता और सजगता से अपने कार्यालय में मुस्तैद था। मेज पर ढेर सारी डाक पड़ी थी और भारतीजी उसे छाँटने में लगे हुए थे। मुझे लगा कि ऐसे समय पर पहुँचकर मैंने गलती की है लेकिन नहीं, यदि उस समय न पहुँचता तो एक उदात्त व्यक्तित्व की महानता और आत्मीयता का साक्षात् कैसे संभव होता? तब मुझे अनुभूति हुई थी कि भारतीजी केवल संस्कारवान साहित्य के ही नहीं, अपितु तदनुरूप आचरण के भी कुबेर हैं। </p><p><span> </span>मैं लगभग एक घंटे उनके साथ रहा। ढेरों बातें हुई। बालसाहित्य के प्रति उनकी गहरी निष्ठा और चिंता को बहुत करीब से अनुभव किया। मैंने जाना कि यह व्यक्ति तो वास्तव में बालसाहित्य का पर्याय है। गजब की अंतरंगता और इसके साथ-साथ अभूतपूर्व साहस भी। बालसाहित्य के महत्व को प्रतिपादित करने का साहस। बालसाहित्य के प्रति भ्रांतिपूर्ण दृष्टिकोणों को तोडने का साहस। जी हाँ, बालसाहित्य को मान्यता दिलाने का साहस। </p><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhfkRTYcepGwGcz15EVRoA3NRU7OFLKGnn7YiaEypkz9i_ujE6nkURAV7GsAGSZQ8_6kUYh7-HZYXZwyWzQTtX4zJAOscOO76OJjhyphenhyphenon2pkmOooOpXKJzXMJ215OnO-U_cDovVHtYCwiln7/s798/Ph.+D.+Hindi+Degree++Nagesh10.jpg" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="645" data-original-width="798" height="162" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhfkRTYcepGwGcz15EVRoA3NRU7OFLKGnn7YiaEypkz9i_ujE6nkURAV7GsAGSZQ8_6kUYh7-HZYXZwyWzQTtX4zJAOscOO76OJjhyphenhyphenon2pkmOooOpXKJzXMJ215OnO-U_cDovVHtYCwiln7/w200-h162/Ph.+D.+Hindi+Degree++Nagesh10.jpg" width="200" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-size: xx-small;">जयप्रकाश भारती, पद्मश्री श्याम सिंह शशि, पद्मश्री उषा यादव, डॉ. राष्ट्रबंधु, डॉ. राजकिशोर सिंह के साथ लेखक</span> </td></tr></tbody></table><br /><p></p><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj16CJRO5t_2xF4z5L6qTxl2U4mXPXsTs96nP7lTL7bnq9LMHdeXre7Y8fCRiv5uzdTzgeNcV4lbr6qDuipIypJncAtvTj8lyB-ExqzAFMaG56-wZIavf7EMcSUMx6uDmMZfQhRje8_o6ES/s710/%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25AE%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25A8+%25E0%25A4%259C%25E0%25A4%25AF%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B6+%25E0%25A4%25AD%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25A4%25E0%25A5%2580+%25E0%25A4%25A6%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25BE.jpg" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="479" data-original-width="710" height="135" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj16CJRO5t_2xF4z5L6qTxl2U4mXPXsTs96nP7lTL7bnq9LMHdeXre7Y8fCRiv5uzdTzgeNcV4lbr6qDuipIypJncAtvTj8lyB-ExqzAFMaG56-wZIavf7EMcSUMx6uDmMZfQhRje8_o6ES/w200-h135/%25E0%25A4%25B8%25E0%25A4%25AE%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25AE%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25A8+%25E0%25A4%259C%25E0%25A4%25AF%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B6+%25E0%25A4%25AD%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25A4%25E0%25A5%2580+%25E0%25A4%25A6%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25BE.jpg" title="भीलवाडा में" width="200" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-size: xx-small;">भीलवाडा में </span></td></tr></tbody></table><br /><p><br /><br /></p><p><br /></p><p><br /></p><p>इस भेंट के बाद भारतीजी से कई बार मिला। कभी दिल्ली, कभी कानपुर तो कभी आगरा में आगरा विश्वविद्यालय और केन्द्रीय हिंदी संस्थान और कभी भीलवाड़ा में । मैं हमेशा उनके साहस का कद्रदान रहा। बेबाक टिप्पणी उनकी आदत थी। हिंदी के बालसाहित्यकारों में एक बड़ी कमी है, बालसाहित्य के बारे में उनका सामान्य ज्ञान बहुत कम है। अतीत की तो छोड़ दीजिए, बालसाहित्य के वर्तमान के बारे में भी ठीक से जानकारी नहीं रखते। बालसाहित्य के बारे में कोई कुछ भी कह-बोल दे, हिंदी के बालसाहित्यकार प्राय: मूक श्रोता होते हैं। कोई प्रतिरोध नहीं। इस दृष्टि से भारतीजी के स्वाभिमान की सराहना करनी होगी। उनकी बेबाकी से न केवल जनसामान्य का अपितु दिग्गज आलोचकों का ध्यान भी बालसाहित्य की ओर गया। बड़े-बड़े लेखकों से उन्होंने बालसाहित्य लिखवाया और आजीवन बालसाहित्य को लेकर अभिनव प्रयोग करते रहे। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiKwbxKNfOqdLt3_ReZyGE56DSsNJujJnnEZLJBmps2p76ikvsCGCzSiv3FKcPrdM6wttEgCP04Ocw6YRSkDhILUoSFM_EzpGvCT1qyPEAtpq00bUMjksvQK3KsXPDVG2uxT7HH_Z3Dmghr/s768/Ph.+D.+Hindi+Degree++Nagesh6.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="551" data-original-width="768" height="144" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiKwbxKNfOqdLt3_ReZyGE56DSsNJujJnnEZLJBmps2p76ikvsCGCzSiv3FKcPrdM6wttEgCP04Ocw6YRSkDhILUoSFM_EzpGvCT1qyPEAtpq00bUMjksvQK3KsXPDVG2uxT7HH_Z3Dmghr/w200-h144/Ph.+D.+Hindi+Degree++Nagesh6.jpg" width="200" /></a></div><p></p><p>कहानी, कविता, नाटक, लेख विज्ञान और समीक्षा-हर क्षेत्र में उनका अवदान है। उनके साहित्य के विविध रंग है। उसमें कल्पना का प्राचुर्य भी है और यथार्थ की स्निग्धता भी। एक शिशु का तोतलापन है तो एक बालक का खिलंदड़ापन आर एक किशोर-मन की कुलबुलाहट ओर चिंतन भी। यही उनकी रचनाधर्मिता की खूबी है कि उन्होंने किसी वाद से बँधकर नहीं लिखा। जी हाँ, मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि जब उन पर प्राचीनता के पोषक होने का आरोप मढ़ा देखता हूँ। वह राजा-रानी और परीकथाओं के पक्षधर थे, यह बात तो दीगर है लेकिन उन्होंने आधुनिकता की उपेक्षा की हो, पता नहीं कुछ स्वनामधन्य आलोचकों को ऐसा क्यों लगता है? स्वयं भारतीजी के शब्दों में- क्या अपनी धरती से कट जाना ही आधुनिकता है? आधुनिकता पुराने को पूरी तरह त्याग देने में नहीं होती। हाँ, नित नूतन बने रहने में होती है।(बालसाहित्य : इक्कीसवी सदी में, पृ. 36) इसी पुस्तक में उन्होंने लिखा है- बाल रुचि को किसी एक तरह की कहानियों के घेरे में नहीं बाँधा जा सकता। बालक सभी तरह की कहानियों में रुचि रखते हैं। कभी-कभी आयु के अनुसार रुचि में अंतर होता है। जैसे छोटे बच्चे पशु-पक्षियों की कथाएँ अधिक पसंद करते हैं जबकि बड़े बच्चे इनमें कम रस ले पाते हैं। भारतीजी का साहित्य वाद-मुक्त और मनोवैज्ञानिकता से परिपूर्ण है। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="text-align: left;"><span> </span>हीरों का हार , रंग -रंग के फूल खिले, झिलमिल कथाएँ और मेरी प्रिय बालकहानियाँ जैसी कथा-पुस्तकों के बहाने उन्होंने खेल-खेल में मनोरंजन करते हुए बच्चों को जीवनोपयोगी शिक्षाएँ दी हैं। इनमें राजा-रानी, परी और आधुनिक हर तरह की कथाएँ हैं। </span></div><p></p><p><span> </span>उनकी कहानी आमिर गरीब (श्रेष्ठ बालकहानियाँ, पृष्ठ509, संपादक-डॉ. बालशौरि रेड्डी) मेहनत और लगन की महता प्रतिपादित करती है। अन्य कहानी माँ की अमानत (हिंदी की श्रेष्ठ बालकहानियाँ, पृष्ठ-79, संपादक-डॉ. उषा यादव) की शैली अद्भुत है। खासकर कहानी आरंभ से ही पाठकों को बाँधने में सक्षम है-ठुम्मक ठुम्मक......ठुम्मक ठुम्मक...। ऊँटगाड़ी दिल्ली की ओर चली जा रही थी। यह कहानी एक लुटेरे जगमल के हृदय परिवर्तन को इस अंदाज में बयां करती है कि पाठक का मन ही भीग जाता है। ऐसे ही कहानी गुब्बारे (किशोरों की श्रेष्ठ कहानियाँ, पृष्ठ 34, संपादक-नागेश पांडेय संजय) यह मिथक तोड़ती है कि वे पारंपरिक कहानियों के पोषक थे। कहानी का पात्र संजीव अपंग है किंतु असमर्थता और उपहास उसके लक्ष्य को डिगा नहीं पाते और वह एक दिन कीर्तिमान स्थापित करता है। दीप जले, शंख बजे (चुनी हुई बालकहानियाँ, पृष्ठ-82, संपादक-डॉ. रोहिताश्व अस्थाना) बालिका कथा है। हिंदी में बालिकाओं के जीवन और अनुभूतियों की कम ही कहानियाँ हैं। यह कहानी पैल्दी नामक लड़की के जीवत और उच्च संस्कारों की मनोरम प्रस्तुति है। </p><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgP7AQGZ_IZl5guah5dtclphyxcEm_1tCP1eSB_r2LYUw8DqG6VmQ6VRdYFGmaml-SWwyl-jW3tEoWZjFASOv4M2ZVYyIQRS81zY5b1mc8i0HrD9li0G0VZWSPwmBhj3D_xyP0JwgCKX7RZ/s952/%25E0%25A4%259C%25E0%25A4%25AF%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B6+%25E0%25A4%25AD%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25A4%25E0%25A5%2580+%25E0%25A4%25A6%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%2595.jpg" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="645" data-original-width="952" height="136" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgP7AQGZ_IZl5guah5dtclphyxcEm_1tCP1eSB_r2LYUw8DqG6VmQ6VRdYFGmaml-SWwyl-jW3tEoWZjFASOv4M2ZVYyIQRS81zY5b1mc8i0HrD9li0G0VZWSPwmBhj3D_xyP0JwgCKX7RZ/w200-h136/%25E0%25A4%259C%25E0%25A4%25AF%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%2595%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B6+%25E0%25A4%25AD%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25A4%25E0%25A5%2580+%25E0%25A4%25A6%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25B5%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%2595.jpg" title="मंच पर जयप्रकाश भारती और दिविक रमेश की उपस्थिति में वक्तव्य" width="200" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="font-size: xx-small;">कानपुर में मंच पर भारती जी </span></td></tr></tbody></table><p></p><p>फूलों के गीत, विज्ञानं गीत, गा गा गा, रुनझुन रुनझुन शिशु के गुनगुन गीत जैसी पुस्तकों में उनकी सरस-सहज कविताएँ हैं। विज्ञान के क्लिष्ट विषयों पर ग्राह्य भाषा में लेखन नि:संदेह उन्हें विशिष्ट बनाता है। रॉकेट पर उनकी एक चर्चित कविता देखिए- </p><p>राकेट उड़ा हवा में एक, लाखों लोग रहे थे देख। पहले खूब लगे चक्कर, हुआ अचानक छू-मंतर। जा पहुँचा चंदा के पास, जहाँ न पानी, जहाँ न घास। </p><p>उलटे पाँव लौट आया, साथ धूल-मिट्टी लाया। </p><p>ऐसे ही बालकों के ज्ञानवर्धक, मनोरंजन और बौद्धिक व्यायाम की दृष्टि से लिखित उनकी पहेली भी उल्लेखनीय है-</p><p>बसा पेट में एक नगर, नहीं नगर में रहूँ मगर। सदा तैरता हूँ जल पर, मगर न कहना मुझे मगर। (जहाज)</p><p><span> </span>उनके एकांकी संग्रह चाँद पर पर चहल-पहल के क्या कहने! इसमें 8 मंचीय एकांकी हैं। सामाजिक, आधुनिक और वैज्ञानिक विषयों पर। अभिनेयता इनमें प्राणवत विद्यमान है। </p><p><span> </span>भारतीजी मूलत: विज्ञान के विद्यार्थी थे। उनका वैज्ञानिक लेखन प्रामाणिक और रोचक है। अंतरिक्ष कितना जाना-कितना अनजाना, भारत का प्रथम अंतरिक्ष यात्री , चलो चांद पर चले, अनंत आकाश, अथाह सागर, सच होते सपने, बिजली रानी की कहानी जैसी न जाने कितनी पुस्तकें उन्होंने बच्चों के लिए लिखीं। उनका निबंध पानी में चाँद और चाँद पर आदमी आज भी उ.प्र. के हाई स्कूल के पाठ्यक्रम में है। इस सबके बाद भी यदि कोई उन्हें प्राचीनता का पोषक या आधुनिकता का विरोधी कहता है तो यह सिर्फ उसकी दरिद्र और दयनीय मानसिकता का ही द्योतक है।</p><p><span> </span>बालसाहित्य के क्षेत्र में प्राचीनता और आधुनिकता को लेकर बहुत वाक्-व्यायाम चला लेकिन बिना विचलित हुए भारतीजी अपने काम में लगे रहे। नंदन उनके संपादन काल में लोकप्रियता के कीर्तिमानों का स्पर्श करता रहा। विश्व की न जाने कितनी अद्वितीय कृतियों (जिनमें अधिकांशत: आधुनिक ही थी) के अनुवाद नंदन में उन्होंने प्रकाशित किए । </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgH0Rt43O043mrFzkGxjzK8a_5rWsowggDtz6A-lrRY-_ylFKjLBU5TMnuPvceRH6uMjaNxAu_XWg2IiMk5g9L9reMPjvuXUp9VRpNMgrR6KhmGr7X2SFU5CBmuu_V9bzZC0oP5JAuUlCSC/s1042/20210530_172054.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1042" data-original-width="703" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgH0Rt43O043mrFzkGxjzK8a_5rWsowggDtz6A-lrRY-_ylFKjLBU5TMnuPvceRH6uMjaNxAu_XWg2IiMk5g9L9reMPjvuXUp9VRpNMgrR6KhmGr7X2SFU5CBmuu_V9bzZC0oP5JAuUlCSC/s320/20210530_172054.jpg" /></a></div><p></p><p><span> </span>भारतीजी ने समीक्षा का क्षेत्र पकड़ा तो कई कृतियों से बालसाहित्य का भंडार भर दिया। 'बाल पत्रकारिता स्वर्ण युग की ओर', 'बाल साहित्य इक्कीसवी सदी मे', 'कम्प्यूटर क्रांति और बालक' उनकी बेजोड़ समीक्षा पुस्तकें हैं इनमें उनके दीर्घकालीन बालसाहित्यिक अनुभवों जिनमें कटु अनुभव भी हैं) का निचोड़ है। बालक से जुड़े हर व्यक्ति के लिए इनकी महता है क्योंकि इनमें चिंतन है, मनन है, आकलन है और शोध दृष्टि भी। 'बाल पत्रकारिता स्वर्ण युग की ओर' पुस्तक पर तो पहली बार भारत सरकार से भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार दिया गया था। हां, पुस्तक 'बालसाहित्य इक्कीसवीं सदी में' पुस्तक में भारतीजी ने भले ही (भूमिका में ही) पृष्ठ -सीमा की दुहाई देते हुए अनेक लेखकों की चर्चा न हो सकने की विवशता प्रदर्शित कर दी हो लेकिन बहुत से महत्वपूर्ण ओर अत्याज्य नामों की चर्चा न होना उचित नहीं लगता । महत्त्वपूर्ण नाम छूटने से इतिहास प्रभावित ओर विकृत होता है। </p><p>यहाँ पर उनके संपादन में प्रकाशित 125 बालगीतों के संग्रह हिंदी के श्रेष्ठ बालगीत की चर्चा भी जरूरी है। इसे भारतीय भाषाओं में सबसे बड़ा संग्रह बताया गया है जबकि पूर्व में पिल्ललु पाटलु् शीर्षक से 500 बालगीतों को संग्रह तेलगु में छप चुका था। ऐसी भूलों (जो किसी से भी संभव है) का निराकरण अवश्य किया जाना चाहिए। </p><p><span> </span>खैर...., कोई भी संपूर्णता का दावा नहीं कर सकत। सीमाओं के लिए तो हर कहीं अवसर हैं, किंतु इससे भारतीजी के समर्पण, श्रम और सामथ्र्य पर प्रश्न चिह्न नहीं लगाया जा सकता। उनका कृतित्व बहुआयामी था। वे सच्चे बालमित्र थे। मौलिक सूझ-बूझ, अदम्य साहस और अपने ढंग के अनूठे प्रयासों के लिए वे हमेशा जाने और माने जाएँगे। <span> </span>भारतीजी का एक बड़ा काम, जिसकी चर्चा कम हो सकी या कह सकते हैं कि तथाकथित महानुभावों ने जानबूझ कर ही उसकी चर्चा न की हो।<b> उन्होंने एक महत्वपूर्ण ग्रंथ संपादित किया था - भारतीय बालसाहित्य का इतिहास। वर्ष 2002 में इसे अखिल भारती, 3014, चर्खे वालान, दिल्ली-110016 ने प्रकाशित किया</b> था। उस दौर में लोग-बाग हिंदी साहित्य के इतिहास में बालसाहित्य के उल्लेख न होने का रूदन भर करते थे किंतु भारतीजी ने इस दिशा में पहल की ओर बालसाहित्य के इतिहास लेखन हेतु मार्ग प्रशस्त किया। <span> </span></p><p><span> </span>भारतीजी कुशल वक्ता थे। कई बार वे एक गर्वोक्ति भी करते थे, आप पाँच हजार आदमी मेरे सामने खड़े कर दो। मैं अपने वक्तव्य से उन्हें बाँध सकता हूँ। लेकिन यह बात सोलह आने सच थी। </p><p><span> </span>जीवन के अंतिम समय में वे कई आयोजनों में जाने लगे थे। बाल वाटिका, भीलवाडा द्वारा आयोजित बाल साहित्य शताब्दी समारोह से वे बहुत प्रभावित हुए थे। उन्होंने कहा भी था, यहाँ आकर मुझे बहुत परितोष मिला हैं। डॉ. गर्ग मेें बालसाहित्य के प्रति अद्भूत समर्पण है।</p><p>भारती जी 31 वर्षों तक नंदन के सम्पादक रहे। उनके संपादन काल मे नंदन बाल साहित्य जगत में छाई रही। एक पत्रिका को लोकप्रियता के शिखर पर कैसे पहुंचाया जाए, यह जानने के लिए नंदन के उनके सम्पादनकाल के अंक पलटने होंगे। </p><p>जयप्रकाश भारतीजी के साथ मेरे ढेरों संस्मरण हैं। कभी वक्त पाकर उन्हें लिखूँगा। मगर आगरा में उनके साथ बिताए पल मैं भूल नहीं पाता। किसी ने कहा था कि आलोकनगर के पास खुरचन बहुत अच्छी मिलती है। खुरचन खाने के मोह में हम लोग जाने कितना पैदल चले गए थे मगर बाद में रबड़ी खाकर संतोष करना पड़ा। </p><p>उन्हीं दिनों मूर्धन्य बालसाहित्यकार द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी का निधन हुआ था। भारतीजी, डॉ. राष्ट्रबंधु जी और मैं उनके घर पहुँचे। माहेश्वरी जी की छड़ी, उनका चश्मा-उनकी टोपी, उनके बेटे डॉ. विनोद माहेश्वरी जी ने बड़े सलीके से रखी थी। कितनी देर तक हम लोग उसे निहारते रहे थे। उनके घर के पास द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी मार्ग की स्थापना की गई थी। भारतीजी यह देखकर बहुत प्रसन्न हुए थे। </p><p><span> </span>क्या ऐसा प्रयास भारतीजी को लेकर दिल्ली में नहीं होना चाहिए? </p><p><span> </span>आज भारतीजी नहीं हैं। अपनी पुस्तक 'बाल साहित्य इक्कीसवीं सदी मे' की भूमिका में उन्होंने लिखा था, जीवन की ढलान पर मैं खड़ा हूँ। ......इक्कीसवीं सदी बालक की है। अगले कई दशकों में बालक के बारे में अध्ययन, मनन और शोध का कार्य बहुत अधिक होगा। बालक की पुस्तक के बारे में दिलचस्पी जगेगी।... उन दिनों मैं इस ढलान से फिसल चुका होऊँगा।</p><p> 5 फरवरी 2005 को दिल्ली में उनका देहांत हो गया। </p><p><span> </span> वाकई भारतीजी भले ही आज हमारे मध्य नहीं है किंतु उनके स्वप्न जीवित हैं। उनकी आशाएँ साकार होती दिख रही हैं। उनका विश्वास जगमगा रहा है और उसकी दमक से बालसाहित्य निखर उठा है। </p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjPMEHw7R80nVhtSKjw8ZzhS9kmR4hxprtuyvMepOsTDyAqaasotYtZaaHyHUA7Yc9CxRFV18q1f23eJn-VFnSqnbyM_W6kMZ_nfZnYSKqJXZpWiIx7zqo4Wk3UB0ka_XF748cVNlmDDrQI/s2048/1435317734.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1550" data-original-width="2048" height="151" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjPMEHw7R80nVhtSKjw8ZzhS9kmR4hxprtuyvMepOsTDyAqaasotYtZaaHyHUA7Yc9CxRFV18q1f23eJn-VFnSqnbyM_W6kMZ_nfZnYSKqJXZpWiIx7zqo4Wk3UB0ka_XF748cVNlmDDrQI/w200-h151/1435317734.jpg" width="200" /></a></div><p><b><span style="color: #2b00fe; font-size: x-small;">(जयप्रकाश भारती जी पर डॉ. शकुन्तला कालरा जी के सम्पादन में भावना प्रकाशन, दिल्ली से दो पुस्तकें आई हैं. मेरा यह आलेख बाल साहित्य के युग निर्माता पुस्तक में प्रकाशित हुआ था, यह आलेख मेरी पुस्तक 'बाल साहित्य का शंखनाद' में भी संकलित है.)</span></b></p><p><br /></p><div><br /></div>डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-58381756524139013372021-05-20T01:11:00.003-07:002021-05-20T01:14:34.729-07:00संपर्क <b>पत्राचार </b><div>डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'</div><div>237, सुभाष नगर, </div><div>शाहजहांपुर-242 001 (उत्तर प्रदेश)</div><div><br /></div><div><b>ई मेल </b></div><div><b>dr.npsanjay@gmail.com</b></div><div><br /></div><div><b>दूरभाष</b> </div><div>094516 45033</div><div><br /></div><div><br /></div>डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-8520918175294501532021-05-20T00:12:00.005-07:002021-05-20T00:48:51.394-07:00पुस्तक समीक्षा : राष्ट्रीय फलक पर स्वातंत्र्योतर बाल कविता का अनुशीलन मध्यप्रदेश के विशेष संदर्भ में <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNrfALPybRh-1Cs4_lZE7mwkGksffrfUW-G2DeEGnhD4kgWLlF3AzXr4TQRFEjzy-nP0DA6AD_HzouGtgdtK8yZlasCF5t_zKV8jnPidhivJV-xfG9FFDfAfIZ0QZSvP_-iiJddvd3TwYH/s498/%25E0%25A4%25B6%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25A7+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%2581%25E0%25A4%25A7%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%2597%25E0%25A5%2581%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25A4%25E0%25A4%25BE.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="498" data-original-width="366" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgNrfALPybRh-1Cs4_lZE7mwkGksffrfUW-G2DeEGnhD4kgWLlF3AzXr4TQRFEjzy-nP0DA6AD_HzouGtgdtK8yZlasCF5t_zKV8jnPidhivJV-xfG9FFDfAfIZ0QZSvP_-iiJddvd3TwYH/w147-h200/%25E0%25A4%25B6%25E0%25A5%258B%25E0%25A4%25A7+%25E0%25A4%25B8%25E0%25A5%2581%25E0%25A4%25A7%25E0%25A4%25BE+%25E0%25A4%2597%25E0%25A5%2581%25E0%25A4%25AA%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25A4%25E0%25A4%25BE.jpg" width="147" /></a></div><p></p><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><div dir="auto"><b>पुस्तक : राष्ट्रीय फलक पर स्वातंत्र्योतर बाल कविता का अनुशीलन </b></div><div dir="auto"><b>(मध्यप्रदेश के विशेष संदर्भ में)</b></div><div dir="auto" style="font-size: small;">लेखक : <b>डॉ सुधा गुप्ता अमृता </b></div><div dir="auto" style="font-size: small;">प्रकाशक : नमन प्रकाशन नई दिल्ली</div><div dir="auto" style="font-size: small;"> मूल्य : 650 ₹</div><div dir="auto" style="font-size: small;"><b>समीक्षक : डॉ नागेश पांडेय संजय</b></div><div dir="auto" style="font-size: small;"><br /></div></div><div dir="auto" style="font-family: Arial, Helvetica, sans-serif;"><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-size: small;"><span> </span>हिंदी बालसाहित्य के विकास में मध्यप्रदेश का महत्वपूर्ण योगदान है। बालसाहित्य के क्षेत्र में एक अभिनव क्रांति का सूत्रपात करने वाले कीर्तिशेष हस्ताक्षर डॉ. हरिकृष्ण देवसरे मध्यप्रदेश के ही थे जिन्होंने न केवल बालसाहित्य के क्षेत्र में युगांतरकारी परिवर्तन किए, अपितु हिंदी में बालसाहित्य पर सर्वप्रथम शोध प्रबंध लिखकर पी एच. डी. उपाधि भी प्राप्त की । डॉ. सुधा गुप्ता 'अमृता' भी मध्यप्रदेश की हैं, जो मूलत: अध्यापन से जुड़ी हैं और बालसाहित्य के प्रति उनके मन में असीम अनुराग है। उन्होंने उत्कृष्ट बाल साहित्य का प्रणयन तो किया ही है; बालसाहित्य को मान्यता दिलाने के प्रति भी सजग और सचेत रही हैं।</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-size: small;">समीक्ष्य कृति इस तथ्य का सहज प्रमाण है, जिसके माध्यम से मध्यप्रदेश में स्वातंत्र्योत्तर बालकविता की दशा और दिशा को अत्यंत श्रम एवं विद्वता के साथ उकेरने की कोशिश की गई है। हिंदी बालसाहित्य के क्षेत्र में संपन्न अधिकांश शोध प्रबंध प्राय: आधे और अधूरे होते हैं । इसका मूल कारण यह भी है किबाल साहित्य की सही स्थिति का ज्ञान न तो निर्देशक को होता है और न ही उस बेचारे शोधकर्ता को जिसका उद्देश्य येन–केन प्रकारेण महज उपाधि प्राप्त करना होता है । इस दृष्टि से डॉ. सुधा की प्रशंसा करनी होगी क्योंकि स्वयं बालसाहित्य की लेखिका होने के नाते जहाँ उन्होंने बाल साहित्य के महत्वपूर्ण ग्रंथों का अनुशीलन किया है, वहीँ अपने वृहद संपर्क के बल पर जो मानक शोध सन्दर्भ सामग्री जुटाई है, वह अभूतपूर्व है।</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-size: small;"><span> </span>बालकवि बैरागी जी ने उनके विषय में ठीक ही लिखा है कि उन्होंने अगले शोधार्थियों के लिए इस आँगन को बुहार दिया है। निःसंदेह शोध एक अनंत परंपरा है, यह पुस्तक इस तथ्य को भी बखूबी प्रमाणित करती है कि बाल साहित्य पर उत्कृष्ट सामग्री का अब अभाव नहीं है। अभाव है तो मनोयोग से समर्पित उन जिज्ञासुओं का जो अपने अध्ययन, अनुशीलन से काल के कपाल पर अपने स्वर्णिम हस्ताक्षर कर सकें।</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-size: small;"><span> </span>डॉ. सुधा गुप्ता का यह शोध प्रबंध नौ विशिष्ट अध्यायों में विभक्त है। यद्यपि अपने प्राक्कथन से ही उन्होंने बालसाहित्य के अभिनव सरोकारों की बाँकी- बाँकी झांकी प्रस्तुत कर दी है जिसकी रम्यता पाठक को सहज, उत्सुक और उत्साहित कर देती है। उनकी यह परिभाषा मैं विशेष रूप से उद्धृत करना चाहूंगा कि, 'बालसाहित्य ही वह जीवन घूंटी है जो बालमन को पुष्ट कर उसे जीवन जीने की कला सिखाता हुआ समस्याओं से जूझकर निकल आने की कला सिखाता है।' डॉ. सुधा गुप्ता 'अमृता' की यह पंक्ति जैसे बालसाहित्य के समग्र स्वरूप को सहज रेखांकित कर देती है और बालसाहित्य के चिरस्थायी महत्त्व और उसकी गरिमा का बोध जनमानस को बड़ी ही संजीदगी के साथ कराने में जैसे किसी वकालतनामे सी प्रतीत होती है। प्रथम अध्याय में बालसाहित्य की अवधारणा को स्पष्ट करने में उन्हें पूर्ण सफलता मिली है। बालसाहित्य की चर्चित सुचर्चित परिभाषाओं को उद्धृत कर उन्होंने इस अध्याय को विशेष प्रामाणिक बना दिया है । दूसरे अध्याय का शीर्षक थोड़ा अटपटा है। क्योंकि तीन बिंदुओं और भी लम्बे-लम्बे वाक्यों में विभक्त है किन्तु, यह अध्याय 'गागर में सागर' से कम भी नहीं है।</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-size: small;"><span> </span>लेखिका ने चर्चित हस्ताक्षरों के माध्यम से बालसाहित्य की सामयिक स्थिति का आकलन उसकी महत्ता को निरूपित करते हुए किया है। अगले अध्यायों में बालसाहित्य की लोकप्रिय विधा कविता के विविध सोपानों की चर्चा है। खासकर पांचवें और छठे अध्यायों के बहाने बालसाहित्य के भाषायी अभिलक्षणों का गहन और विशद विवेचन करने के लिए सुधा जी की भूरि भूरि प्रशंसा करनी होगी स बुंदेली, बघेली, निमाड़ी और मालवी जैसी विभाषाओं में लुप्तप्राय: साहित्य को याद करते हुए उन्होंने जिस शास्त्रीयता के साथ सृजित साहित्य पर दृष्टिपात किया है, वह तत्वाभिनिवेशी दृष्टि उन्हें एक गंभीर समीक्षक भी सिद्ध करने में समर्थ है। अच्छी बात यह भी है कि इन अध्यायों के बहाने बालसाहित्य पूर्व निर्धारित प्रतिमानों की भी सविस्तार चर्चा हुई है जिसका अध्ययन हर उस बालसाहित्यकार हेतु आवश्यक है जो बालसाहित्य के क्षेत्र में समर्थ लेखनी का हिमायती है।</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-size: small;"><span> </span>सातवें और आठवें अध्याय का सम्बन्ध बालसाहित्य के व्यावहारिक पक्ष से है। बाल साहित्य और बालक की रुचि की उपेक्षा के दुष्परिणामों की ओर संकेत करते हुए बालसाहित्य की अनिवार्यता उदघाटित की गई है। आठवें अध्याय में मीडिया के दोनों अर्थात इलेक्ट्रानिक और प्रिंट पक्षों में बालसाहित्य की जरूरत को विशिष्ट तर्कों के साथ उद्घाटित किया गया है।</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-size: small;"><span> </span>नवें अर्थात अंतिम अध्याय में मध्यप्रदेश के बाल साहित्यकारों पर चर्चा की गई है। नि:संदेह मध्यप्रदेश की पावन माटी में बाल साहित्य के समर्थ रचनाधर्मियों का वर्चस्व है। यह अध्याय शोध की नवीन संभावनाओं की ओर भी ध्यान आकर्षित करता है । स्वतंत्र रूप से भी मध्यप्रदेश के अन्यान्य बाल साहित्यकारों के कृतित्व पर कार्य की संभावनाएं अभी शेष हैं।</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-size: small;"><span> </span>परिशिष्ट के रूप में बालसाहित्य के यायावर साधक डॉ. राष्ट्रबन्धु और बालकवि बैरागी के साक्षात्कार भी संकलित हैं जिनसे पुस्तक को गरिमा मिली है। डॉ. राष्ट्रबंधु ने विश्वविद्यालयों में बाल साहित्य के पठन-पाठन की जिस जरूरत की ओर संकेत किया, वह विचारणीय है। भावी माता पिता को यदि बाल साहित्य का ज्ञान नहीं होगा तो निश्चय ही बालकों में बाल साहित्य के प्रति रुचि कैसे जाग्रत हो सकेगी ?</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-size: small;"><span> </span>बाल साहित्यकारों को बहुभाषाविद होने का भी उनका सुझाव गौरतलब है क्योंकि अभी भी बहुतेरा उत्कृष्ट बालसाहित्य अनुवाद की बाट जोह रहा है। और इसकी कमी के चलते भारत के नौनिहालों को बालसाहित्य अप्राप्य है। भारत विविध संस्कृतियों का देश है अस्तु बालकों को भी विविध क्षेत्रों के बालसाहित्य से परिचित कराना सामाजिक दायित्व है।</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-size: small;"><span> </span>कुल मिलकर यह शोध प्रबंध पुस्तक रूप में अपनी महत्ता सदैव सिद्ध करता रहेगा स डॉ. सुधा गुप्ता को उनके अनथक श्रम और सार्थक प्रयत्न के लिए बधाई दी। जानी चाहिये और उनके लिए सर्वोत्तम बधाई यही होगी कि इस पुस्तक का व्यापक प्रचार प्रसार हो। यह पुस्तक बालसाहित्य से जुड़े हर अनुरागी तक पहुंचे, यही इसकी सार्थकता है ।</div><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-size: small;"><span> </span>आकर्षक आवरण और सुरुचिपूर्ण मुद्रण से सुसज्जित इस पुस्तक का मूल्य किंचित अधिक है, किन्तु श्रेष्ठ सामग्री और मंहगाई के युग में प्रयुक्त अच्छे कागज को देखते हुए यह ज्यादा गौरतलब नहीं है । डॉ. सुधा गुप्ता का अत्यंत समर्पण एवं मनोयोग से किया गया बालकविता का यह अनुशीलन बाल साहित्य की श्रीवृद्धि में अपनी उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह करेगा, इसमें संदेह नहीं । लेखिका के साथ-साथ उनके निर्देशक और प्रकाशक को भी हार्दिक बधाई</div><span><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-size: small;"><br /></div><div dir="auto"><span style="color: #2b00fe;"><b style="background-color: #fcff01;"> • डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'</b></span></div><div dir="auto" style="background-color: white;"><span style="color: #2b00fe;"><b>(शाश्वत सृजन,मासिक, उज्जैन, पृष्ठ :7, ISSN : 2455-1201)</b></span></div><div class="separator" style="background-color: white; clear: both; color: #222222; font-size: small; text-align: center;"><a href="https://shashwatsrijan.com/wp-content/uploads/2021/02/shashwatsrijan_FEBRUARY_2021.pdf" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;" target="_blank"><img border="0" data-original-height="773" data-original-width="998" height="155" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifzt-4GiLza6KMSAgMkCNk0nkb-zYUBf1slvDfG4LwAR2hmH_neERdV8hAAh012BstYYwI5krDvvsYdv8UMjMGsIXt7IJq90mgughHp3Txce1edU7hVg-vHk34geIu7oHhAPYaWuA7OBIk/w200-h155/Screenshot_20210520-122253_WPS+Office.jpg" width="200" /></a></div><br /><div dir="auto" style="background-color: white; color: #222222; font-size: small;"><br /></div></span></div><p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><br /></div><p></p>डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-15607233454062676312021-05-18T08:25:00.004-07:002021-05-18T08:40:01.979-07:00 डॉ. नागेश पांडेय 'संजय' के पत्र/पत्रिकाओं में प्रकाशित आलेखों का विवरण <p><b><span style="font-size: x-small;"> (इन प्रकाशित आलेख /शोधपत्र/साक्षात्कार/परिचर्चा इत्यादि को प्राप्त करने के लिए लेखक के ईमेल dr.npsanjay@gmail.com पर सम्पर्क कर सकते हैं.) </span></b></p><p>1.बाल साहित्य स्तरीय परख की जरूरत, <span style="font-size: x-small;">परिचर्चा,</span> राष्ट्रीय सहारा, 12 दिसंबर 1994, नई दिल्ली</p><p>2.आज का बाल साहित्य, संग्रथन, जनवरी 1995, पृ 15, हिंदी विद्यापीठ केरल</p><p>3.रचना नियोजन धर्मी डा. राष्ट्रबंधु, बाल साहित्य समीक्षा, मार्च 1995, पृ. 12</p><p>4. अथ श्री बाल साहित्य कथा, पंजाब सौरभ, मई 1995, पृ. 37, भाषा विभाग, पंजाब सरकार</p><p>5. श्रेष्ठ बाल साहित्य की जरूरत,(तमिल चंदामामा के संपादक स्वामी नाथन से साक्षात्कार ) दिव्या, जुलाई 1995, पृ. 36, दिल्ली</p><p>6. बालक और उसकी नैतिकता को निर्धारित करने वाले घटक, विश्वज्योंति, अप्रैल-मई,1995, पृ. 87, विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होश्यारपुर (पंजाब)</p><p>7.दादी अम्मा मानवती आर्या, बाल साहित्य समीक्षा, अक्टूबर, 1995, पृ.23</p><p>8. वर्तमान बाल साहित्य एक अवलोकन, प्रज्ञा साहित्य,पृ. 17, लखनऊ, जनवरी 1996</p><p>9. बालकों में सृजन क्षमता का विकास, विश्वज्योंति, जून 1996 पृ.179 विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान, होश्यारपुर (पंजाब)</p><p>10. जयदेव शर्मा कमल शेषाशेष स्मृतियां, बाल साहित्य समीक्षा, जुलाई 1996, पृ. 28, कानपुर</p><p>11. बाल पहेलियां सृजन और सार्थकता, राष्ट्रीय सहारा, 24 नवंबर 1996</p><p>12. सृजन और स्थिति की दृष्टि से बाल साहित्य, परिचर्चा, मृदुलय नव-दिस. 1996, आगरा</p><p>13. बाल साहित्य सेवक भालचंद सेठिया, बाल साहित्य समीक्षा, मार्च 1997, पृ. 29</p><p>14. बाल साहित्य गतिविधिया और परिलब्धियां, बाल साहित्य समीक्षा, मई 1997,पृ. 21</p><p>15. बाल साहित्य प्रसारक, बाल साहित्य समीक्षा, सितंबर 1997, पृ. 26</p><p>16. नैतिक शिक्षा के सोपान के रूप में बाल साहित्य की भूमिका, बाल साहित्य समीक्षा, मार्च 1998, पृ. 23</p><p>17. जिनकी हर प्रस्तुति मौलिक कृष्ण शलभ, बाल साहित्य समीक्षा, जून 1998 पृ.10</p><p>18.बाल साहित्य में स्वस्थ आलोचना की जरूरत, बच्चे और आप, 16 मार्च 1999, पृ. 1</p><p>19. बाल साहित्य के समर्पित साधक राजनारायण चौधरी, बाल साहित्य समीक्षा, जून 1999, पृ, 23</p><p>20. बाल वाटिका की वार्षिक यात्रा, बाल वाटिका स्मारिका 1999, भीलवाड़ा, पृ 13 </p><p>21. बाल कहानियाँ स्वरूप और सार्थकता, नेपाल बाल साहित्य समाज, जर्नल, काठमांडू 2000</p><p>22. किशोर साहित्य कल और आज, राष्ट्रीय सहारा, नई दिल्ली, 27 फरवरी 2000<span style="white-space: pre;"> </span></p><p>23. बच्चों के अमर कवि द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी , बाल साहित्य समीक्षा, मई 2000 पृ.27</p><p>24. बाल साहित्य के तत्वाभिनिवेशी, बाल साहित्य समीक्षा, जुलाई 2000 पृ.20</p><p>25. बाल साहित्य और अभिभावक, बच्चो का देश, नवंवर 2000, पृ. 31, जयपुर</p><p>26. नवयुग बाल साहित्य का स्वर्ण युग, फरवरी 2001, विश्वज्योंति, पृ. 30</p><p>27. बाल कहानी दशा-दिशा, बाल वाटिका, नवम्बर,2001, पृ.15</p><p>28. बच्चो की यथार्थ कहानियाँ, आजकल, नवम्बर,2001, पृ. 20, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, नई दिल्ली</p><p>29. सफल लेखक कुशल संपादक भगवती प्रसाद दिवेदी, बाल साहित्य समीक्षा,दिसंबर 2001 पृ. 15</p><p>30. डा रत्नलाल शर्मा जो व्यक्ति पहले थे, बाल साहित्य समीक्षा, जनवरी 2002,पृ.24</p><p>31. बाल साहित्य को महकाती एक संपूर्ण पत्रिका, बाल वाटिका, मार्च-अप्रैल 2003, पृ. 25</p><p>32. हिंदी की पहली कहानी : बाल कहानी, बाल वाटिका मार्च-अप्रैल 2003. पृ. 16</p><p>33. बाल साहित्य में स्वस्थ आलोचना की जरूरत, डा. रत्नलाल शर्मा न्यास स्मारिका,2003, पृ.19</p><p>34. बाल साहित्य मे लघु शोध, बाल वाटिका, जून 2004, पृ.66, </p><p>35. बाल साहित्य में चौर्य वृत्ति, बाल साहित्य समीक्षा, नवंबर 2004, पृ. 26</p><p>36. बाबा नागार्जुन की बाल कहानियां, बाल साहित्य समीक्षा, जून 2005, पृ. 26</p><p>37. बाल कविता में शलभ का अंदाजे बयां, बाल साहित्य समीक्षा, जुलाई 2005,पृ.19</p><p>38. बाल अनुभूति और चिंतन के कवि दिविक रमेश, बालसाहित्य समीक्षा, जनवरी 2006,पृ. 20</p><p>39. बाल प्रहरी का दो साल का सफर, बाल प्रहरी, अप्रैल जून 2006. पृ. 43, अल्मोड़ा</p><p>40. डा. प्रतीेक मिश्र की अंतिम यात्रा, बाल साहित्य समीक्षा,अप्रैल 2009, पृ. 4</p><p>41. प्राथमिक शिक्षा के साहित्यिक सरोकार, स्मारिका, पृ.24 , राष्ट्रीय शैक्षिक संगोष्ठी, डाइट, शाहजहाँपुर, 2009</p><p>42. बडे भाई डा. विनय मानवीय विश्व स्नेह समाज, प.ृ 26 नवंबर 2009. इलाहाबाद</p><p>43. बाल काव्य के विविध रूप, कुतुबनुमा, अक्टूबर-दिसंबर 2010, पृ.-20 मुंबई, बाल वाटिका, अक्टूबर ,2010, पृ. 29,</p><p>44. वर्तमान बाल साहित्य और उसका भविष्य, इंगित, 2010, पृ. 111, राष्ट्रीय संगोष्ठी, म. भारतीय हिन्दी साहित्य सभा, ग्वालियर</p><p>45. बालिकाओ के लिए साहित्य, बाल वाटिका, दिसम्बर ,2011, पृ.-6, भीलवाडा</p><p>46. बाल साहित्य मे अनुसन्धान, शोध दिशा-15, जुलाई-सितम्बर,2011, पृ. -314, बिजनौर</p><p>47. कितना उपयोगी है बच्चों के लिए शिक्षा का आधुनिकीकरण, अभिव्यक्ति, 2011</p><p>48. बाल साहित्य की चुनौतियां और निवारण, बाल वाटिका, मार्च,2012, पृ.-11</p><p>49. बाल साहित्य मे व्याप्त विसंगतियाँ, बाल वाटिका, अप्रैल,2012, पृ.-6, भीलवाडा</p><p>50. बाल साहित्य अकादमी क्यों, बाल वाटिका, जुलाई ,2012, पृ.-8, भीलवाडा</p><p>51. कविता में बच्चों के होठो से दोस्ती की ताकत (साक्षात्कार) अभिनव बालमन, जुलाई सितंबर 2012, पृ 11</p><p>52. बाल साहित्य सम्मेलन औचित्य और उपादेयता, बाल वाटिका, अगस्त ,2012, पृ.-8, भीलवाडा</p><p>53. बाल नाटक, उदंत, अक्टूबर 2012, पृ. 20, रिसर्च इंस्टीट्यूट आफ ओडिया चिल्ड्रंस लिट्रेचर, भद्रक, उडीसा</p><p>54. बाल साहित्य मे हमेशा रहेंगे डा. श्रीप्रसाद, बाल वाटिका, नवम्बर ,2012, पृ.-16,भीलवाडा</p><p>55. मैथिलीशरण गुप्त का बाल काव्य, बाल वाटिका, दिसम्बर,2012, पृ.-22, भीलवाड़ा</p><p>56. कैसा हो बाल साहित्य, अभिनव बालमन, जनवरी 2013, पृ. 18</p><p>57. समकालीन हिन्दी बाल कहानी: सम्वेदना और सन्दर्भ, बाल वाटिका, जनवरी, 2013, पृ.-35, भीलवाडा</p><p>58. बाल साहित्य के विकास मे कनौजी लोक साहित्य का प्रदेय, शोध दिशा-23, जुलाई-सितम्बर,2013, पृ.-111, बिजनौर</p><p>59. बाल कहानियोँ मे पर्यावरण संरक्षण चेतना, बाल वाटिका, अक्टूबर, 2013, पृ.-40, भीलवाडा</p><p>60. नई सोच के धनी थे हरिकृष्ण देवसरे, बाल वाटिका, मार्च,2014, पृ.-48, भीलवाडा</p><p>61. बहुआयामी कृतित्व के धनी थे जयप्रकाश भारती, बाल वाटिका, जुलाई, 2014, पृ.-28, भीलवाडा</p><p>62. बाल पहेलियों की विकास यात्रा, साहित्य अमृत, नवम्बर,2014, नई दिल्ली, पृ.50</p><p>63. बाल कविता के कालजयी हस्ताक्षर सीताराम गुप्त, बाल वाटिका, फरवरी 2015 पृ.37</p><p>64. बाल साहित्य के जादूगर राष्ट्रबंधु, बाल वाटिका, अप्रैल 2015, पृ. 22</p><p>65. बाल साहित्य मे चित्रांकन की उपादेयता, हिंदुस्तानी, अप्रैल-जून 2015, पृ. 166, हिंदुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद</p><p>66. यादों की खिड़की से झांकते मनोहर वर्मा, बाल वाटिका, जून 2015, पृ 28</p><p>67. करोगे याद तो ... , बाल वाटिका, अक्टूबर 2015, पृ. 98</p><p>68. बाल साहित्य की अमिट हस्ताक्षर शकुंतला सिरोठिया, बाल वाटिका, दिसंबर 2015, पृ. 30</p><p>69. आधुनिक सोच के महारथी आनंदप्रकाश जैन, बाल वाटिका, जुलाई 2016, पृ.38</p><p>70. शिक्षक, बालक और बाल साहित्य, बाल वाटिका, सितंबर 2016, प.ृ 35</p><p>71. अनूठे अंदाज के बाल कवि रामानुज त्रिपाठी, बाल वाटिका, अक्टूबर 2016, पृ.51</p><p>72. बालसाहित्य का शंखनाद, बाल वाटिका, जनवरी 2017, पृ. 30</p><p>73. सतरंगी बाल कविताओं का अनूठा संसार, बाल वाटिका, मार्च 2017, पृ. 42</p><p>74. मनोहर वर्मा: यादें और बस यादें, बाल वाटिका, मई 2017, पृ. 44</p><p>75. बालसाहित्य के अनन्य साधक श्रीनाथ सिंह, बाल वाटिका, अक्टूबर 2017, पृ. 49</p><p>76. पकड़ सको तो पकड़ो मेरे लगे हवा के पर (कृष्ण शलभ), बालवाटिका, दिसंबर 2017,पृ. 8</p><p>77. कहानियों के फूलों से महकती बाल वाटिका, बाल वाटिका, मार्च 2018, पृ. 48</p><p>78. बाल कथा साहित्य विविध रूप और संरचना के मानदंड, बाल वाटिका, मई 2018, पृ. 9</p><p>79. अनूठे बालसाहित्यकार और कुशल वाचक अमृतलाल नागर, पुस्तक संस्कृति, जुलाई-सितंबर 2018, पृ. 8</p><p>80. बालकथाओं में सांस्कृतिक चेतना, बाल वाटिका, अक्टूबर 2018, पृ. 9</p><p>80. बालसाहित्य के देवदूत विनोदचंद्र पांडेय विनोद, बाल वाटिका, नवंबर 2018, पृ. 46</p><p>81. बालसाहित्य के भगीरथ निरंकारदेव सेवक, बाल वाटिका, जनवरी 2019, पृ. 45</p><p>82. सबकी आंखों के शेरजंग गर्ग, बाल वाटिका, फरवरी 2019, पृ. 38</p><p>83. समकालीन बाल कहानियों में मूल्यपरक शिक्षा, बाल वाटिका, अक्टूबर 2019, पृ. 10</p><p>84. बाल साहित्य रचना धर्मी एवं आलोचक : शकुन्तला कालरा का साक्षात्कार, हरसिंगार, जून 2020,पृ. 135</p><p><b>......जारी....</b></p><p><b>© डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'</b></p>डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-67679114381895259722021-05-17T23:31:00.008-07:002021-06-12T16:28:09.645-07:00विश्व हिंदी सम्मलेन में पहली बार बाल साहित्य का उदघोष <p></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjkjs4SdDeQfUj87Xd8LkYhmrzY8ixR5zpcP01h3RjmhSKY4nwybWCAd-AUdTtjU9TOsCH1ath4S__pVrGr49sC4_izU06slg6yMplBuLR7KI1jDYHqHwCusUraZXhY4LERzX9QfEyOelg9/s989/Screenshot_20210518-105802_WPS+Office.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="783" data-original-width="989" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjkjs4SdDeQfUj87Xd8LkYhmrzY8ixR5zpcP01h3RjmhSKY4nwybWCAd-AUdTtjU9TOsCH1ath4S__pVrGr49sC4_izU06slg6yMplBuLR7KI1jDYHqHwCusUraZXhY4LERzX9QfEyOelg9/s320/Screenshot_20210518-105802_WPS+Office.jpg" width="320" /></a></div><br /> <span style="font-size: medium;"> 16</span><span><b> सितम्बर 1999 को लंदन में आयोजित छठे विश्व हिंदी सम्मलेन में पहली बार बाल साहित्य का उदघोष हुआ था. भारत से बाल साहित्य समीक्षा, मासिक के सम्पादक डॉ. राष्ट्रबंधु ने सम्मेलन में बाल साहित्य पर नियमित सत्र रखने की मांग की थी, जिसे स्वीकार किया गया और बाद में प्रतिवर्ष बाल साहित्य पर गंभीर विमर्श एक परम्परा बन गयी. </b></span><p></p><p><b><span></span></b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhCFhUZI_fu3D4BMaCpyOKl61MsvXrqMYrbLZZxSnrXJIT2z80LsHPfVdAofSXIX91GDH3exejGNylSAgvPjGoFFTVTv1dIChjTTJWgExDLKkJFxWNhGFGA799yx2uQVGNoM0gOFniLThHc/s1080/Screenshot_20210518-113732_Collage+Maker.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><span style="color: black;"><b><img border="0" data-original-height="498" data-original-width="1080" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhCFhUZI_fu3D4BMaCpyOKl61MsvXrqMYrbLZZxSnrXJIT2z80LsHPfVdAofSXIX91GDH3exejGNylSAgvPjGoFFTVTv1dIChjTTJWgExDLKkJFxWNhGFGA799yx2uQVGNoM0gOFniLThHc/s320/Screenshot_20210518-113732_Collage+Maker.jpg" width="320" /></b></span></a></div><b><br />सर्वश्री केसरी नाथ त्रिपाठी, डॉ. नामवर सिंह, अशोक चक्रधर, कन्हैया लाल नंदन, सरोजनी प्रीतम इत्यादि इस सम्मेलन के विशेष </b><b>अभ्यागत थे. </b><div><p></p><p><span><b><span> '</span>हिंदी और भावी पीढ़ी' विषय पर विशेष सत्र में कृष्णा पांडेय, डॉ. कृष्ण कुमार, कुंवर बैचैन, कल्पना शर्मा, अमरनाथ शुक्ल, डॉ. राष्ट्रबंधु, ओ पी सचदेव, चित्रा मुद्गल इत्यादि ने अपने विचार व्यक्त किये थे.</b></span></p><p><b>प्रस्तुति : नागेश पांडेय 'संजय' <span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span> संदर्भ 👉</b></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWGwHf0DxTyh2OQpIvkkHDxYf9qCtZWaZ3Jdn0GDpGHDN2hcEL_3SJUkFl9b8_dSf8VLGdqqiFR4A6tNi-riWNvgA9l9U5jBGCZ1V77vaT-TScoMCj6ibWe3B4JJJ3XaYk2I_O66cycWmZ/s1076/Screenshot_20210518-115528_Collage+Maker.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1076" data-original-width="967" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhWGwHf0DxTyh2OQpIvkkHDxYf9qCtZWaZ3Jdn0GDpGHDN2hcEL_3SJUkFl9b8_dSf8VLGdqqiFR4A6tNi-riWNvgA9l9U5jBGCZ1V77vaT-TScoMCj6ibWe3B4JJJ3XaYk2I_O66cycWmZ/s320/Screenshot_20210518-115528_Collage+Maker.jpg" /></a></b></div><b><br /></b><p></p></div>डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-81047604652515983342021-05-09T22:37:00.005-07:002021-06-12T16:27:29.953-07:00'हिंदी के बाल साहित्यकार' : बाल साहित्य लेखकों के पतों की पहली पुस्तक <p><span data-offset-key="bc0np-0-0" face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="animation-name: none; color: #050505; transition-property: none; white-space: pre-wrap;"><span data-text="true" style="animation-name: none; font-family: inherit; transition-property: none;"><b><span style="background-color: white; font-size: large;"><br /></span></b></span></span></p><p><span style="background-color: white;"><span data-offset-key="bc0np-0-0" face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="animation-name: none; color: #050505; transition-property: none; white-space: pre-wrap;"><span data-text="true" style="animation-name: none; font-family: inherit; transition-property: none;"><b><span style="font-size: large;">हिंदी के बाल साहित्यकार</span></b><span style="font-size: 15px;">
</span></span></span><span style="color: #050505; font-family: inherit; font-size: 15px; white-space: pre-wrap;"></span></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh-US4nkKvciLN4nuPIVSrIHWeToCu3tes4RiS7IlhBqnyd_xfuJyDBx3WfaNIuA7uXyHcM-PJfPye7QCuoqzlmqR_bwp47qa8pJfHHHyvu2tEMPCqlYI5BZiq4G0UQcN0mXTJoIvjdypNJ/s960/1.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><span style="background-color: white;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="663" height="175" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh-US4nkKvciLN4nuPIVSrIHWeToCu3tes4RiS7IlhBqnyd_xfuJyDBx3WfaNIuA7uXyHcM-PJfPye7QCuoqzlmqR_bwp47qa8pJfHHHyvu2tEMPCqlYI5BZiq4G0UQcN0mXTJoIvjdypNJ/w121-h175/1.jpg" width="121" /></span></a></div><p><span style="background-color: white;"><span style="font-family: inherit;">बाल साहित्य लेखकों के पते और विवरण संकलित करने का कार्य सर्वप्रथम <b>डॉ. राष्ट्रबन्धु</b> जी ने किया। उन्होंने अपने शोध प्रबंध 'हिंदी बाल साहित्य का मनोवैज्ञानिक अध्ययन' (1971) के आठवें अध्याय में 75 बाल साहित्य लेखकों का अकारादि विवरण प्रस्तुत किया था। इसके बाद उनकी एक<b> पुस्तक 'हिंदी के बाल साहित्यकार' 1984 में विद्या भूषण प्रकाशन, कानपुर से प्रकाशित हुई।</b> इसमें पौने चार सौ बाल साहित्य लेखकों के पते पहली बार संकलित-प्रकाशित हुए थे। </span><span style="font-family: inherit;">इसके पश्चात <b>चक्रधर नलिन</b> जी ने तत्कालीन हिंदी बाल साहित्य लेखकों के पते संकलित कर <b>बाल दर्शन मासिक के बाल साहित्यकार विशेषांक, जून 1993</b> में प्रस्तुत किए।</span></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><span style="background-color: white; font-family: inherit;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgadtNIALXl5___kLPET4lpBEPCD-eutT2cDBLcbGMV3qgMprdxA8C1ls9l-Xr2oJy2D3dbWHEJ0KA53Y4XMwlpmiKpkujJoR3PBDTRybPs4KfoGV8JpKYzmaPCEIaGhG8MErfR-aGPW_wR/s1027/%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25B2%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25A8.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="540" data-original-width="1027" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgadtNIALXl5___kLPET4lpBEPCD-eutT2cDBLcbGMV3qgMprdxA8C1ls9l-Xr2oJy2D3dbWHEJ0KA53Y4XMwlpmiKpkujJoR3PBDTRybPs4KfoGV8JpKYzmaPCEIaGhG8MErfR-aGPW_wR/s320/%25E0%25A4%25A8%25E0%25A4%25B2%25E0%25A4%25BF%25E0%25A4%25A8.jpg" width="320" /></a><div class="separator" style="clear: both; text-align: left;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijNl6BWF_BF6x3Uo4SrEG3nCQky7c_v3Bb5Uh1WXNPxU9VHoJ57TxeLLXwT5ViYflhqEISevzr-tQKlHjp0UfxXSE8KB0oxBYp6dsCpUu_eKVtiQSKj-gvrF39PPD8E9R3DMUJHRsPSHei/s1080/%25E0%25A4%259C%25E0%25A4%25A8%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25A6%25E0%25A4%2597%25E0%25A5%2580.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="546" data-original-width="1080" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEijNl6BWF_BF6x3Uo4SrEG3nCQky7c_v3Bb5Uh1WXNPxU9VHoJ57TxeLLXwT5ViYflhqEISevzr-tQKlHjp0UfxXSE8KB0oxBYp6dsCpUu_eKVtiQSKj-gvrF39PPD8E9R3DMUJHRsPSHei/s320/%25E0%25A4%259C%25E0%25A4%25A8%25E0%25A5%258D%25E0%25A4%25A6%25E0%25A4%2597%25E0%25A5%2580.jpg" width="320" /></a><b style="font-family: inherit;">चक्रधर नलिन</b><span style="font-family: inherit;"> जी ने ही कालांतर में त्रैमासिक पत्रिका जिंदगी अखबार होकर रह गई के </span><b style="font-family: inherit;">बाल साहित्य सृजन शोध और आलोचना विशेषांक, सितम्बर 1995 </b><span style="font-family: inherit;">(अतिथि संपादक : डॉ. नागेश पांडेय 'संजय' ) </span><span style="font-family: inherit;">में 131 बाल साहित्य लेखकों के पते प्रस्तुत किए थे।</span></div></span></div><p></p><p><span style="background-color: white; font-family: inherit;"><b></b></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><span style="font-family: inherit;"><b><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtNVAeAIhtHSVDEw-f3SgoM0jpM1yvRnDm_d1YUXjFuL7XW6EfUM4N0_1aTblTqfBk5J9VFLrX7TEZtwRM4bbo47Eap-VzjfiLpmLVczF6rrnwFl3yulXKc-4yuH9nUOpbmeyufMZeHVGQ/s768/%25E0%25A4%25AD%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25A4%25E0%25A5%2580+%25E0%25A4%259C%25E0%25A5%2580.jpg" style="background-color: white; clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="554" data-original-width="768" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjtNVAeAIhtHSVDEw-f3SgoM0jpM1yvRnDm_d1YUXjFuL7XW6EfUM4N0_1aTblTqfBk5J9VFLrX7TEZtwRM4bbo47Eap-VzjfiLpmLVczF6rrnwFl3yulXKc-4yuH9nUOpbmeyufMZeHVGQ/s320/%25E0%25A4%25AD%25E0%25A4%25BE%25E0%25A4%25B0%25E0%25A4%25A4%25E0%25A5%2580+%25E0%25A4%259C%25E0%25A5%2580.jpg" width="320" /></a></b></span></div><span style="background-color: white;"><span style="font-family: inherit;"><b><br />जयप्रकाश भारती</b> जी ने 1995 में अपनी पुस्तक 'बाल साहित्य इक्कीसवीं सदी में' कुछ </span><span style="font-family: inherit;">चुने हुए बाल साहित्य लेखकों का परिचय प्रस्तुत किया। </span></span><p></p><p><span style="background-color: white;"><span style="color: #050505; font-family: inherit; white-space: pre-wrap;">बाद में देवपुत्र, मासिक पत्रिका ने बाल साहित्य लेखको के सचित्र परिचय अक्टूबर 1996 अंक में प्रकाशित किए। </span><span style="color: #050505; font-family: inherit; white-space: pre-wrap;">1998 में </span><b style="color: #050505; font-family: inherit; white-space: pre-wrap;">डॉ. सुरेंद्र विक्रम</b><span style="color: #050505; font-family: inherit; white-space: pre-wrap;"> ने बाल साहित्यकारों के पतों को अद्यतन करते हुए एक छोटी सी पुस्तिका</span><b style="color: #050505; font-family: inherit; white-space: pre-wrap;"> 'बाल साहित्यकार निर्देशिका</b><span style="color: #050505; font-family: inherit; white-space: pre-wrap;">' शीर्षक से तैयार की। इसे मासिक देवपुत्र, इंदौर ने ही प्रकाशित किया था । </span></span></p><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg7y0pdDqIzJypZ8kE5cgJj6_1aDwB8aleKMrHVqMAU9aZzy4mToswYyqNoCHtGu70rp9EVwTZtz3zK_JNTs6IRt46zxDStm8-T5AZrnufS4xE_puNOXp_eL2BIp-nB4-zQU1ERFSNm0znj/s960/7.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><span style="background-color: white;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="748" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg7y0pdDqIzJypZ8kE5cgJj6_1aDwB8aleKMrHVqMAU9aZzy4mToswYyqNoCHtGu70rp9EVwTZtz3zK_JNTs6IRt46zxDStm8-T5AZrnufS4xE_puNOXp_eL2BIp-nB4-zQU1ERFSNm0znj/w156-h200/7.jpg" width="156" /></span></a></div><span style="background-color: white;">निस्संदेह इस दिशा में वृहद स्तर पर उल्लेखनीय कार्य भारतीय बाल साहित्य शोध संस्थान, इंदौर ने किया। वहां से प्रकाशित <b>560 बाल साहित्य लेखकों का 'वृहद सचित्र बाल साहित्यकार कोश' (संपादक डॉ. राष्ट्रबन्धु, कृष्ण शलभ), </b>बाल साहित्य के क्षेत्र में अभूतपूर्व उपलब्धि है। इसे बाल साहित्य के प्रारंभिक 'इतिहास' के रूप में भी देखा जाना चाहिए, हिंदी साहित्य के प्रारम्भिक इतिहास/कविवृत्त भी परिचयात्मक ही हैं। </span><div><span style="background-color: white;"> मैंने भी समकालीन <b>बाल साहित्य लेखकों के सचित्र परिचय डिजिटली </b>उपलब्ध कराने के उद्देश्य से एक ब्लॉग बाल साहित्य लेखक बनाया था। इस <b><i><span style="color: red;"><a href="https://baalsahityalekhak.blogspot.com/" target="_blank">लिंक</a></span> </i></b>से उसे देख सकते हैं <span data-offset-key="bc0np-2-0" face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="animation-name: none; color: #050505; transition-property: none; white-space: pre-wrap;"><span data-text="true" style="animation-name: none; font-family: inherit; transition-property: none;">
बहरहाल, आज भी इस दिशा में अद्यतन कार्य करने की आवश्यकता है। उत्साही लेखकों/प्रकाशकों को इस क्षेत्र में आगे आना चाहिए।</span></span></span><p></p></div><div><span data-offset-key="bc0np-2-0" face=""Segoe UI Historic", "Segoe UI", Helvetica, Arial, sans-serif" style="animation-name: none; color: #050505; transition-property: none; white-space: pre-wrap;"><span data-text="true" style="animation-name: none; font-family: inherit; transition-property: none;"><b style="background-color: white;"><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span><span> </span>प्रस्तुति : नागेश पांडेय 'संजय'</b></span></span></div>डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-1928119212478778892020-05-01T00:46:00.001-07:002021-05-09T23:07:22.788-07:00आलेख : बाल साहित्य के देवदूत विनोदचंद्र पांडेय 'विनोद' - डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgp_iK4aoDEJ-33Q-7K1pWqe6C-flK3OeC_7cPo3Fbj87x45RbdsYvwmnd746HKXooijPC1d9nWazkLmpKQRWSGRudLBqt7Q3-NkWD4gFrvkJOLxf3S4QI72_AWbtj9_jW5bqWrpRsClPDe/s1600/SAVE_20200501_152451.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="947" data-original-width="720" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgp_iK4aoDEJ-33Q-7K1pWqe6C-flK3OeC_7cPo3Fbj87x45RbdsYvwmnd746HKXooijPC1d9nWazkLmpKQRWSGRudLBqt7Q3-NkWD4gFrvkJOLxf3S4QI72_AWbtj9_jW5bqWrpRsClPDe/w486-h640/SAVE_20200501_152451.jpg" width="486" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgcGdzCreD_4bn8nN7wDa16lvIT5xrdrqGG4oUceBzFWkY6NOV8c3h6mWybcJVcTuYgb1X1wnlh4kXChXEEn2alwEEz3q0UE8KyT5C3rUucoTKefGxOrqbQzNEDWe9JVBPsAVLkO-W5aSfB/s1600/SAVE_20200501_152627.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="935" data-original-width="720" height="640" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgcGdzCreD_4bn8nN7wDa16lvIT5xrdrqGG4oUceBzFWkY6NOV8c3h6mWybcJVcTuYgb1X1wnlh4kXChXEEn2alwEEz3q0UE8KyT5C3rUucoTKefGxOrqbQzNEDWe9JVBPsAVLkO-W5aSfB/w492-h640/SAVE_20200501_152627.jpg" width="492" /></a></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYJnvGzX9VCYrUuXQ2us5Wnu0U2cNC5B7KAjY181VZsbWQfsfmd5QDguCYhQjt03iPhqzqwXFJKZ1PAPIExW1G00qznxUms1f6X9OXfZVzQMySAtuki9K2fgLtzP45h9umlPqfq7yg_QiG/s1600/SAVE_20200501_130903.jpg" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="540" data-original-width="720" height="240" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgYJnvGzX9VCYrUuXQ2us5Wnu0U2cNC5B7KAjY181VZsbWQfsfmd5QDguCYhQjt03iPhqzqwXFJKZ1PAPIExW1G00qznxUms1f6X9OXfZVzQMySAtuki9K2fgLtzP45h9umlPqfq7yg_QiG/s320/SAVE_20200501_130903.jpg" width="320" /></a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span style="font-size: xx-small;">विनोदचंद्र पांडेय के साथ लेखक</span></div>
<br /></div>
डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-26513109873970262182020-04-29T04:49:00.010-07:002022-09-20T18:10:54.729-07:00आलेख : बाल साहित्य के जादूगर: डा. राष्ट्रबंधु <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhYoxHR2ZfP2CW_JEt_m0c4Ccvt5hi3ejEm8kJhK1VV5EM5sunmSTIisgWGXGPEQSsD7xVLW-WJsO4R7d3A89vMV4pMgIHKlWJbmhdPVIOOmJtS3pyBEV54Xfbo_vz6KCbCJ-3rhi5ZPbHh/s1600/DSC01719.JPG" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1341" data-original-width="1109" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhYoxHR2ZfP2CW_JEt_m0c4Ccvt5hi3ejEm8kJhK1VV5EM5sunmSTIisgWGXGPEQSsD7xVLW-WJsO4R7d3A89vMV4pMgIHKlWJbmhdPVIOOmJtS3pyBEV54Xfbo_vz6KCbCJ-3rhi5ZPbHh/s320/DSC01719.JPG" width="264" /></a></div>
आलेख<br />
<span style="color: blue; font-size: large;">बाल साहित्य के जादूगर: डा. राष्ट्रबंधु</span><br />
- डा. नागेश पांडेय ‘संजय’<br />
<br />
2 मार्च,2015<br />
आसमान में काले-काले मेघ और बिजली की तेज गड़गड़ाहट। बारिस थी कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। <br />
मैं हरिद्वार में था। अमृतसर से चलकर सुबह साढ़े आठ के आसपास वहां पहुंचा था। कुछ देर वेटिंगरूम में बैठा रहा मगर जब बादलों की मंषा स्पष्ट हो गई कि वे रुकने वाले नहीं तो बैग सामानघर में जमा किया, दस रुपये की एक प्लास्टिक-पन्नी खरीदी और उसे ओढ़कर हर की पेड़ी के लिए निकल पड़ा।<br />
हहर हहर। गंगाजी पूरे वेग में थीं। जिसे जहां जगह मिली, दुबका खड़ा था। कम ही साहसी थे जो स्नान कर रहे थे। मैं कुछ निर्णय नहीं कर पा रहा था। पहली बार ऐसा हुआ है कि गंगा स्नान के लिए कोई एक घंटे इधर-उधर भटका हूं। हार मान कर भीगते हुए ही नहाया। पुल के नीचे कपड़े बदले। तर्पण करने आए कुछ लोग भी वहां पर थे। मेरे मन में अजीब-सी बेचैनी हुई। वहां से चल दिया। पुल पर आया तो बारिस कुछ धीमी हो गई। गलियां पानी से लबालब थीं। जैसे-तैसे एक चाय की दूकान पर पहुंचा। अचानक बारिस फिर तेज हो गई।<br />
मुझे डा. राष्ट्रबंधु जी याद आए। राष्ट्रबंधु जी क्या, उनकी कविता याद आई। हां, वही....काले मेघा पानी दे। इस गजब की कविता को उनके सुरीले सुर में जाने कितनी बार सुना है। जब भी सुना है, झूम उठा हूं। मैं क्या, जिसने भी सुना होगा, कविता की लय के साथ-साथ उसकी तालियां बजी होंगी। जब भी बरसात होती है, यह कविता मेरे मन में तैर उठती है मगर मन में तो आज शिकायत जैसी थी ...उफ कितना पानी? मन विनोद के मूड में आ गया। मैंने राष्ट्रबंधु जी को फोन मिला दिया। यही कहने के लिए कि हरिद्वार में आज काले मेघा क्या झमाझम पानी दे रहे हैं। फोन तुरंत रिसीव हुआ लेकिन आवाज शशि शुक्ला की गूंजी, परेशान-सी बोलीं-‘भैया, दादा की तबियत बहुत खराब है।‘<br />
मैंने कहा, दीदी, बात करा दीजिए तो उन्होंने कहा, बात नहीं हो पाएगी। फिर बोलीं कि हम घर पहुंचकर आपसे बात करेंगे। मन अनहोनी आशंकाओं से भर उठा। मैंने पूछा, ‘क्या हो गया उन्हें?’<br />
उन्होंने बताया,‘सांस बहुत फूल रही है। सुबह सीढ़ी चढ़ते हुए गिर गए थे। दो अनजान लड़कों ने उन्हें कोच तक पहुंचाया। हम और विनोद त्रिपाठी उनके साथ हैं। भैया, बहुत डर लग रहा है, क्या होगा?’<br />
1 मार्च को सुबह पटियाला में जब उनके पैर छुए तो छूटते ही बोले थे, ‘मैं चला जााऊँगा, बालसाहित्य तुम लोग सँभालोगे।’ शशि जी भी वहां थीं। मैं तो चुपचाप उन्हें देखता रह गया था लेकिन शशि जी ने तुरंत पूछा था, ‘दादा, कहां चले जाओगे?’<br />
रोबदार आवाज में बोले थे, ‘अरे! ऊपर चला जाऊंगा, और कहां?’<br />
समझ नहीं आता कि ऐसा अकाट्य कथन उनके मुख से क्यों निकल गया? क्या उन्हें आसन्न मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था?<br />
...<br />
पटियाला की बाल साहित्य संगोष्ठी उनके जीवन की अंतिम संगोष्ठी हो जाएगी, किसने सोचा था? सब हंसते-चहकते साथ थे। ठहाके गूंज रहे थे। खा-पी रहे थे। योजनाएं बन रही थीं। 1 मार्च को पटियाला से बस से अमृतसर के लिए निकले तो सामान्य थे। रास्ते में दुर्गा सप्तशती और सुंदरकांड का पाठ किया। फतहगढ़ साहिब गुरुद्वारा में मत्था टेका। लंगर छका। अमृतसर पहुंचते-पहुंचते देर हो गई थी। 4 बज गए थे।<br />
<table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhRiE55yyHRsqv7D_UCZMyZdOrJfDz9-oi_5R1HpKPQKmeCN8PnoCxZ6GwALQqkMJpYEATAPyBk4R1_d41Ns6F0Rgqowx-6lZQJCCBVKEk81YDjhm8FgbVmB5eaYZ_4ZQt8fe6hWqio8LSO/s1600/Last+Photo+with+RASHTRABANDHU+in+SWARN+MANDIR.jpg" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="768" data-original-width="756" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhRiE55yyHRsqv7D_UCZMyZdOrJfDz9-oi_5R1HpKPQKmeCN8PnoCxZ6GwALQqkMJpYEATAPyBk4R1_d41Ns6F0Rgqowx-6lZQJCCBVKEk81YDjhm8FgbVmB5eaYZ_4ZQt8fe6hWqio8LSO/s320/Last+Photo+with+RASHTRABANDHU+in+SWARN+MANDIR.jpg" width="315" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: red; font-size: x-small;">डॉ. राष्ट्रबन्धु जी के साथ अंतिम चित्र</span></td></tr></tbody></table><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
तांगे पर बैठकर हम स्वर्णमंदिर के द्वार तक साथ गए। वहां उनके साथ फोटो खिंचाया। क्या खबर थी कि वह फोटो, फोटो क्या ....वह साथ, वह बात, वह यात्रा - सब कुछ ....आखिरी था।<br />
बस में ही उन्होंने डा. दर्शन सिंह आशट से कह दिया था, ‘मैं अब कहीं नहीं जाता। तुस्सी मैनू किथ्थों बिठा देना। मैं तो अब बाहेगुरु दा जाप करंगा।’<br />आशट जी ने स्वर्णमंदिर परिसर में ही गंगा निवास में ठहरने की व्यवस्था की थी। मगर वे उसे खोज नहीं पा रहे थे। थोड़ी असहजता महसूस हो रही थी।<br />
मैं राष्ट्रबंधु जी का हाथ पकड़े धीमें-धीमें चल रहा था। हल्की-हल्की बूंदें पड़ रही थीं। वे भीग रहे थे। पैदल चलने से थक भी रहे थे। इन्हें कुछ विश्राम मिल जाए, यह सोचकर मैंने उनसे पूछा, ‘दादा आप दूध या चाय कुछ लेंगे?’ मगर उन्होंने मना कर दिया। आशट जी ने परिस्थिति को भांप लिया। एक दूकानदार से आग्रह कर उनके लिए कुर्सी मांगी। कहा, ‘आप बैठिए। हम लोग सामान रखकर आपको ले जाएंगे।’<br />
गंगा निवास में सबको शिफ्ट कर आशट जी उन्हें ले आए। मेरी ट्रेन रात में 10 बजे थी। राजीव सक्सेना और सृजन के साथ भीगते-भागते मंदिर और जलियांवाला बाग देखा। लंगर छका।<br />
गंगा निवास पहुंचा। उनसे औपचारिक बातें हुईं। कुछ परेशान से थे। बोले, ‘मैं कल क्या करुंगा? मुझे पता नहीं कि मेरी सीट कन्फर्म हुई या नहीं। जिनके पास मेरी टिकट है, उनका फोन नहीं उठ रहा।’ फिर कहा, ‘कल सफर में खाने के लिए कुछ नहीं है। मेरे पास पेपर सोप भी नहीं है।’<br />शशि जी उन्हें समझाने लगीं, ‘आप परेशान क्यों हो रहे हैं? हम लोग हैं तो। सब इंतजाम करेंगे।’<br />
राजीव जी बोले, ‘बताओ दादा। आपको क्या मंगाना है?’<br />
बोले, ‘कुछ बिस्किट और ब्रेड ला दो। हां, पापड़ और मिठौरी मशहूर हैं यहां। वे भी ले आना। घर ले जाऊँगा।’<br />
फिर मुझसे 500 का चेंज मांगा। मेरे पास अतिरिक्त पेपर सोप था। मैंने उनकी सदरी में डाल दिया।<br />
राजीव जी बहुत जल्दी सारा सामान ले आए। मैंने पूछा, ‘आप भोजन करने जाएंगे?’ तो मना कर दिया। कोई साढ़े आठ बजे मैंने पैर छूते हुए कहा, ‘आज्ञा दीजिए। मैं चलता हूं। मौसम ठीक नहीं, स्टेशन पर जाकर बैठूंगा।’<br />
सहज भाव से बोले, ‘ठीक है। प्रसन्न रहिए। अपने माता-पिता को मेरा प्रणाम कहना। समीक्षा और सृष्टि को मेरा प्यार कहना।’ फिर मेरी ओर बड़ी स्निग्धता से देखने लगे। कुछ रुककर बोले, ‘चलो मैं भी तुम्हारे साथ नीचे चलता हूं। मुझे स्वर्ण मंदिर मत्था टेकने जाना है और अब मैं खाना भी खाऊंगा।’<br />
शशि जी तैयार हो रही थीं। उनसे बोले, ‘बिटिया, तुम नीचे आ जाना।’ फिर मेरे साथ लिफ्ट से नीचे आ गए। कुछ औपचारिक बातें हुई और मैं पुनः उनके चरण स्पर्श कर स्टेशन चला आया।<br />
इस बात से बेखबर कि अब उनसे कभी मिलना न होगा।<br />
....<br />
हरिद्वार में मन बेचैन था। बस, उनके स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना करता रहा। रहा नहीं गया तो उनके संस्थान के मंत्री शर्मा जी, जो उसी ट्रेन में एसी कोच में यात्रा कर रहे थे, से उनकी तबियत के बारे मे पूछा। फिर भी संतुष्टि नहीं हुई तो मैंने उनके पौत्र ऋषि तिवारी को फोन किया। पता चला कि तबियत ठीक नहीं है। बाबा को पानीपत स्टेशन पर उतारा जा रहा था लेकिन वे नहीं माने। कहा कि वे कानपुर जाना चाहते हैं।<br />
ऋषि ने कहा, ‘चाचा, आते ही हम उन्हें सीधे अस्पताल ले जाएंगे।‘<br />
आम्रपाली एक्सप्रेस को रात 10 बजे कानपुर पहुंचना था मगर वह लेट होती गई। हरिद्वार से शाहजहांपुर मैं रात 11 बजे पहुंचा। मैंने उनके पुत्र भारत से बात की। पता चला ट्रेन 1 बजे आएगी। होते-होते ट्रेन रात 3 बजे पहुंची। व्हील चेयर की व्यवस्था पहले से थी। उसे पकड़ कर ले जाने के लिए कुली की भी। किंतु उस पर जाने वाला दुनियां को अलविदा कह चुका था। देह शीत थी, निश्वास। कुली ने स्थिति को समझ पहले आनाकानी की फिर उन्हें बाहर छोड़ आया। उसने पैसे भी नहीं लिए।<br />
किसी एक किरण की आस लिए पुत्र भारत और पौत्र पुष्कर-ऋषि उन्हें अस्पताल लेकर भागे। मगर ....<br />
यात्रा महायात्रा बन गई। यात्री महायात्री हो गया। सबको जगाने वाला सो गया।<br />
बहू उनका कमरा साफ किए प्रतीक्षारत थी। नयी चादर बिछाई थी। ...पिताजी आ रहे हैं।<br />
उतते कोउ न आवई, जासे पूछूं धाय।<br />
इतते ही सब जात हैं, भार लदाय-लदाय।<br />
...लेकिन वह महायायावर भार नहीं, आभार लेकर गया है। बाल साहित्य का कोना-कोना उसका आभारी है। डा. हरिकृष्ण देवसरे उन्हें बाल साहित्य का कबीर कहते थे। जयप्रकाश भारती के अनुसार वे बाल साहित्य के चौधरी थे। उनकी एक आवाज पर मजमा लग जाता था। वे जादूगर थे, बाल साहित्य के जादूगर। बाल साहित्यकारों के लिए माली थे वे। सबको एक सूत्र में पिरो रखा था। सबकी खोज-सबकी खबर। सबसे मिलना-जुलना उनकी आदत में शुमार में था। सबके सुख-दुख में शामिल होते थे। यायावरी में निर्विकल्प। फलां बालसाहित्यकार के बेटे या बेटी का विवाह है। महाषय का झोला तैयार है। अमुक बालसाहित्यकार नहीं रहा। महाशय का पहुंचना तय है। कहीं भी बाल साहित्य का आयोजन हो, किराया मिले न मिले। रिजर्वेषन हो या न हो। पंडित जी ए टू जेड रेडी। अभी दिसंबर,2014 में नांदेड़,महाराष्ट्र में 24 को कार्यक्रम था और 26 को राजसमंद,राजस्थान में। जिजमान दोनों जगह पहुंचे। वाह! बाल साहित्य के बेजोड़ खिलाड़ी। बेजोड़ तुम्हारी चाईं-माईं।<br />
न जाने किस अंतप्र्रेरणा से मैं पटियाला में <a href="https://youtu.be/o9u2aH1TKU4" target="_blank"><b><span style="background-color: #ffe599; color: blue;">उनके अंतिम काव्य पाठ का </span><span style="background-color: #ffe599; color: red;">वीडियो</span> </b></a>बना बैठा। मैंने उसे <span style="background-color: white;">यू ट्यूब पर </span>पोस्ट किया है।<br />
चिरपरिचित अंदाज में उन्होंने यह कविता सुनाई थी-<br />
बैठे हो तुम क्यों? हो गुमसुम क्यों? कभी पिटाई, कभी मिठाई दीदी से कह दो,पापड़ न बेलो। ....तुमने क्या खाया? क्या-क्या मंगाया? चूरन की गोलियां, कंपट की गोलियां। ताके न कोई, बांट-बांट ले लो। चाईं माईं खेलो। चाईं माईं खेलो। <br />
उनके अंतिम भाषण का वीडियो भी बनाया था। <b><a href="https://youtu.be/-_9k5B8VA9I" target="_blank"><span style="background-color: yellow; color: blue;">अंतिम भाषण का विस्तृत </span><span style="background-color: yellow; color: red;">वीडियो</span> </a></b>भी <span style="background-color: white;">यूट्यूब पर </span>अपलोड है।<br />
...<br />
3 मार्च को मुझे रात चार बजे उनके पुत्र भारत का फोन आया। मैं समझ गया था कि वे क्या कहनेवाले हैं फिर भी मन एक कल्पना संजोए था कि वे कहें, पिताजी अब ठीक हैं।<br />
भारत जी ने कहा, ‘नागेश जी, पिताजी चले गए।’ फिर जैसे कान सुन्न हो गए। एक रोज पहले उनका हाथ पकड़े मैं उन्हें स्वर्ण मंदिर के द्वार तक ले गया था। रात में मेरे प्रस्थान के समय वे लिफ्ट से नीचे तक साथ आए थे। सब कुछ स्वप्न हो गया। आकस्मिक वज्रपात...वह भी अनभ्र !<br />
...<br />
अभी 14 फरवरी को मैं इलाहाबाद गया था। षाहजहांपुर के लिए ट्रेन रात में थी तो कानपुर उनके घर चला गया। ट्रेन लेट हो गई। मुझे बहुत संकोच। बार-बार उनका फोन आ रहा था। बोले, ‘मैं भी आपका इंतजार कर रहा हूं और भोजन भी।’ रात 11 बजे पहुंचा। जागते मिले।<br />
सुबह चलने को हुआ तो मुझे पटियाला आने के लिए राजी कर लिया। वापसी में रिजर्वेशन नहीं था। मुझे मजबूरन अमृतसर से वाया हरिद्वार का टिकट बनवाना पड़ा। अब सोचता हूं, विधि के विधान में कितनी शक्ति है। उनका कहा न मानता तो आजन्म पश्चाताप करता।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
अलख जगाने में उनका जबाव न था। सारे देश में बाल साहित्य के आयोजनों में उनकी मुख्य भूमिका रहती थी। प्रधानमंत्री से लेकर राष्ट्रपति भवन तक और देश-विदेश में बाल साहित्य का परचम फहराने के लिए वे बार-बार याद आएंगे। कोई भी आयोजन बगैर उनके बहुत अधूरा-सा लगेगा। कहीं भी आयोजन होता। एक पुनरुक्ति तो कानों में गूंजती ही रहती थी, जो भी आता-‘राष्ट्रबंधु जी किधर हैं?’<br />
अब वह चेहरा कहां दिखेगा?<br />
...<br />
उनके निधन के बाद कानपुर दो बार हो आया हूं। बड़ा कचोटता-सा लगा कानपुर। उनकी अनुपस्थिति में मैं दो-तीन बार ही कानपुर गया हूं। पता चलता था कि यात्रा में हैं। अब तो वे महायात्रा पर हैं। कभी न लौटेंगे।<br />
1994 में उनसे पहली मुलाकात हुई थी, उ.प्र. हिंदी संस्थान के सर्वभाषा बाल साहित्य समारोह में। वक्तव्य में उन्होंने कहा था,‘कविता आंखों का नहीं, कानों का विषय है।’ फिर उन्होंने यह लोरी सुनाई थी-सच कहता हूं, उनका मुरीद हो गया था। लोरियां बहुतेरी लिखी गईं पर ऐसी...? मुझे लगता है ऐसी रचनाएं लिखी नहीं जातीं, लिख जाती हैं। कोई अदृश्य शक्ति लिखा जाती है। आश्चर्य होता है, जब कुछ स्वनामधन्य यह मशवरा देते हैं कि काश! अमुक ने ऐसी रचनाएं और लिखी होतीं। उत्कृष्ट सृजन सप्रयास नहीं, अनायास होता है। आप यह कर्णप्रिय लोरी देखिए, इसमें जो कुछ भी नव्य-भव्य है-स्वाभाविक है। किसी झरने-सा निनाद करता हुआ प्रवाह। और जिसने भी उनके मुख से यह लोरी सुनी होगी, एक चमत्कारिक आनंद में जा डूबा होगा।<br />
कंतक थैंया धुनूं मनइयां, चंदा भागा लइयां पइयां। यह चंदा हलवाहा है, नीले-नीले खेत में । सचमुच सेंत मेंत में, रत्नों भरे खेत में, किधर भागता लइयां-पइयां। कंतक थैंया धुनूं मनइयां<br />
ऐसे ही उनकी कविता मामा खासी चर्चित हुई। इसे सुनते ही बच्चे सहज ही उनके भांजे बन जाते थे-उल्टा पहन पजामा जी, आए मेरे मामा जी। बने सुदामा घूमते, खूब बचाते नामा जी। होशियार हैं मामा जी<br />
दरअसल इस नये जमाने में टी. वी. से चिपके रहने वाले और मां-बाप के स्वाभाविक स्नेह से दूर-मजबूर बच्चे बाल साहित्य से जुड़ ही कहां पाते हैं? रेडियो, जिस पर हर रविवार बाल कविताएं प्रसारित होती थीं, का चलन नहीं रहा। टी. वी. पर बाल कविताएं भला रखी कहां? ...और अब जो बाल साहित्यकार सम्मेलन होते भी हैं, उनमें बच्चा नदारत होता है। राष्ट्रबंधु जी कहा करते थे बिन पानी के नाव मत चलाओ। बच्चे बाल साहित्य के परीक्षक हैं। बाल साहित्य को उनके बीच प्रस्तुत करिए तब आपको पता चलेगा कि आप कितने पानी में हैं? कानपुर और अनेक स्थानों के कितने विद्यालयों में उन्होंने बाल कवि सम्मेलन कराए। हिंदी के दिग्गज बाल साहित्यकारों नें वहां कविता-पाठ किया। महाराष्ट्र के सानेगुरु की तर्ज पर उन्होंने बालकथा पाठ के भी कार्यक्रम रखे। बाल साहित्य को लोकप्रियता दिलाने का यही सबसे कारगर उपाय हो सकता है। आज यह परंपरा क्षीण होती जा रही है।<br />
राष्ट्रबंधु जी से मेरा परिचय 1989 में हुआ था। मेरी पहली बाल कविता ‘खेल’ उन्होंने ही अपनी पत्रिका बाल साहित्य समीक्षा, जून, 1989 में प्रकाषित की थी।<br />
1995 में उन्होंने मुझसे खुटार में बालकवि सम्मेलन करने को कहा। मैंने एक संस्था बनाई- बाल साहित्य प्रसार संस्थान। आए दिन आयोजन होने लगे। वे भी वहां दो बार आए। उनके कहने पर ठेठ देहात पोहकरपुर में मैंने कार्यक्रम रखा। वे ट्रेक्टर पर बैठकर गए। बहुत खुश हुए। ढेरों कविताएं सुनाईं। जिनमें एक यह भी थी-काले मेघा पानी दे, पानी दे गुड़धानी दे। लड्डू बरसें खेत में,बच्चे हरषें रेत में। मेघों की अगवानी में, उछलें कूदें पानी में। सबको नाना नानी दे, हर दिन एक कहानी दे। सिक्कों की निगरानी दे, रानी को हैरानी दे। कंजूसों को दानी दे, घरघर मच्छरदानी दे। उनकी यह कविता सुनकर बच्चे क्या, बड़े तक उनके जादुई सम्मोहन में आ गए। खूब खातिर हुई। कोई गन्ने का रस ले आया। कोई छाछ। पारिवारिकता का दुर्लभ परिवेश बनते देर न लगी।<br />
एसी में बैठकर सारे देेेश के बच्चों के आनंद और उनके भविष्य की कोरी-कोरी बातें करने वाले तो बहुत हैं लेकिन गांव के बच्चों के बीच जाकर बाल साहित्य को इस तरह प्रचारित करने के दुर्लभ उदाहरण कम ही देखने को मिलते हैं।<br />
बाल साहित्य की अनेक संस्थाएं/पुरस्कार-सम्मान और शोध केंद्र उन्होंने स्थापित कराए। देवपुत्र का अनूठा बाल साहित्य शोध संस्थान उनके ही आग्रह का सुपरिणाम है। <br />
<span style="white-space: pre;"> </span>वे एक कुशल संयोजक थे। काम करना और कराना उन्हें आता था। एक तरह से उनकी नियति थी- बाल काज कीन्हें बिना, मोंहिं कहां विश्राम।<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>बाल साहित्य के लिए आजन्म लगे रहे। गए तो भी बाल साहित्य के ही नाम पर। सब उनसे कहते थे, अब यात्राएं मत करिए। घर वाले तो खासतौर पर। मगर चुपके से कब उनका टिकट बन जाता था, बहू-बेटे को इसकी खबर भी न होती थी। बाल साहित्य के लिए एक जुनून था उनके सिर। ऐसा जुनून जो अब शायद ही कहीं देखने को मिले।<br />
1971 में उन्हें बाल साहित्य का मनोवैज्ञानिक अध्ययन विषय पर पी-एच.डी. उपाधि मिली थी। एक खास बात, उनकी थीसिस रहस्यमय ढंग से चोरी हो गई थी, अन्यथा यह उपाधि उन्हें और पहले मिल जाती। उनकी थीसिस प्रकाषित नहीं हो सकी। वे कहते थे, मेरी थीसिस प्रौढ़कुमारी हो गई है।<br />
1977 में उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी थी। ‘बालसाहित्य समीक्षा’ पत्रिका निकाली। घर फूंक तमाशा देखा। संस्था बनाई- भारतीय बाल कल्याण संस्थान तो अपने शहर और प्रदेश की सीमाएं लांघकर कहां-कहां कार्यक्रम कर डाले। अपने लिए तो हर कोई करता है, उन्होंने तो सारे देश को अपना बना लिया था। बाल साहित्य के लिए वे अपने खर्चे पर विश्व हिंदी सम्मेलन में भाग लेने लंदन गए।</div><div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
उनकी पहली पुस्तक ‘चेतना’ जनवरी,1951 में रामधनी सिंह कानपुर ने प्रकाषित की थी। 16 पृष्ठों की इस कृति में किसानों और मजदूरों पर कविताएं थीं। अब तक उनकी 80 के लगभग किताबें आ चुकी हैं। प्रायः सभी विधाओं में लिखा। प्रभूत मात्रा में लिखा। उस पर विस्तृत चर्चा फिर कभी...! हां, यह अवष्य कहूंगा कि उनका बहुतेरा उत्कृष्ट सृजन आलोचकों की दृष्टिपथ से नहीं गुजरा। अन्यथा वे यह न लिखते कि काश! राष्ट्रबंधु जी ने ऐसी कविताएं और लिखी होतीं। मैं कहना चाहूंगा कि काश! उन आलोचकों ने उनकी ऐसी कविताएं और पढ़ी होतीं...!<br />
दरअसल यह आलोचक की बहुत बड़ी सीमा या कहिए कि विवषता होती है कि वे सहज उपलब्ध रचनाओं के आधार पर ही सारा परीक्षाफल घोषित कर देते हैं, वनस्पति कुछ और खोजने-खंगालने के। खैर...उन्होंने सारा कुछ न्यारा ही लिखा हो, ऐसा नहीं है। उनका पुराना लेखन जितना अनोखा-चोखा है, नये में से बहुतेरे को देखकर धोखा होता है कि अरे यह भी उनका ही लिखा हुआ है। ठीक यही स्थिति बाल साहित्य समीक्षा पत्रिका को लेकर भी है। उसके पुराने अंकों में इतनी दुर्लभ सामग्री प्रकाशित हुई है कि काश! यदि वह संपादित होेकर आ जाए तो बाल साहित्य की छवि में चार नहीं, आठ-दस चांद लग जाए। मगर इधर के उसके अधिकांष अंक ... जिस तरह से छुटभैयों के वकालतनामें जैसे छप गए, उससे बाल साहित्य के स्वरूप को भी धक्का लगा। कई अंक ऐसे आए, जो न आते तो बाल साहित्य पर उपकार होता। मैं बहुधा सोचा करता हूं कि ऐसी कौन सी मजबूरी होती थी कि उनके जैसे सजग, निर्भीक और सचेतक संपादक को इधर समझौता करना पड़ जाता था। क्या अत्यधिक यात्राओं के कारण समयाभाव ? और इस नाते समय पर पत्रिका निकालने के फेर में-जो मिले, उसे छाप दो-की नीति। या फिर उनका अति सरल होता स्वभाव? जिसका लाभ लोगबाग जमकर उठाने में लगे थे। इन मामलों में मेरी उनसे जमकर असहमति रही। मैंने अपने कई आलेखों में खुलकर लिखा भी। फिर भी वे नाराज नहीं हुए, यह उनका देवत्व था। यही बात उनकी इधर की रचनाओं को लेकर भी है, अन्यथा टेसू राजा, डिंग डांग, नए कृष्ण सुदामा, चूहे बेइमान, चलो अखाड़े, गधे का गणतंत्र, कविता-वविता, फोटो से बातें, भतीजावाद, यह मत सोचो, अक्ल की खोज, जयसियाराम, सूरज सोया तानकर, टिली लिली, नयी डायरी, तोंदियल, तितली, बिल्ली मौसी, भुक्खड़ जैसी न जाने कितनी कविताएं हैं जो उनके बेजोड़ लेखन का उदाहरण हैं। टेसू राजा के बहाने भारत के राज्यों पर उनकी बेहतरीन काव्यकृति है- टेसू की भारत यात्रा (2004), इसकी हर कविता के अंत से पहले की पंक्ति बोले-‘मैं तो यहीं अड़ा।’ के क्या कहने। बाल पाठक का मन उस राज्य के प्रति पूरे अपनत्व से भर उठता है और वह भी पूरे जोष के साथ-टेसू जी पहुंचे मद्रास, तमिलनाडु में किया प्रवास। थिरू, वणक्कम सीख गए, लुंगी में आमोद नए। ...बोले-‘मैं तो यहीं अड़ा, लहर गिनूंगा खड़ा-खड़ा।’ (तमिलनाडु) ऐसे ही मणिपुर के बारे में उनका अंदाजेबयां देखिए- मणिपुर में पहुंचे इंफाल, थके-थके थे धीमी चाल। सुनी बांसुरी लगी भली, नृत्य मणिपुरी गली-गली। जंगल देख लुभाया मन, पर्वत, नदियां देख मगन। बोले-‘मैं तो यहीं अड़ा, पर्वत पर ज्यों रत्न जड़ा।’<br />
टेसू पर छोटे मीटर की उनकी एक बहुत प्यारी कविता है, जिसके वाचन का आनंद ही कुछ और है-खिल्ली, गिल्ली, पिल्ला-पिल्ली, काली बिल्ली ला, राजा दिल्ली जा, टेसू राजा आ। रटना,हटना,घटना सटना, झटपट पटना जा, बढ़िया खाना खा। टेसू राजा आ। थक अलबत्ता, चल कलकत्ता, छक रसगुल्ले खा, फिर खुश होकर गा- टेसू राजा आ।<br />
कविता वविता भी इसी षैली की रचना है, जिसकी ध्वन्यात्मकता का जवाब नहीं- पानी वानी नाना नानी, आनाकानी ना। हा हा ही ही हे हे हो हो, हां हां हां हां गा ।<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>1968 में प्रकाशित पुस्तक ‘हंसी के बालगीत’ में नामानुरूप उनकी रोचक कविताएं संकलित हैं, खासकर डिंगडांग, नए कृष्ण सुदामा, अक्ल की खोज, चलो अखाड़े, गधे का गणतंत्र, भतीजावाद और चूहे बेइमान जैसी कविताओं की अलमस्ती ही कुछ और है। यद्यपि ये अमोल रचनाएं उनके बाद के कई संकलनों में बार-बार संकलित हुई हैं। लोटपोट करने की पूरी क्षमता इनमें है- चूहे करते थे खुट खुट, कुट कुट काट रहे बिस्कुट। बिल्ली का हमला छुटपुट, डिंग डांग डिंग डांग, टुट टुट टुट।<br />
नए कृष्ण सुदामा कविता प्रतीकात्मक हैं। आरक्षण व्यवस्था पर व्यंग्य करती ऐसी किशोर कविताएं कम ही लिखी गई हैं-हुई परीक्षा, फस्र्ट डिवीजन करके पास सुदामा अटके, कृष्ण डिवीजन थर्ड पा सके, नहीं नौकरी करने भटके।<br />
अक्ल की खोज में बाल सुलभ जिज्ञासा है तो चलो अखाड़े में सुस्वास्थ की प्रेरणा, मगर स्टाइल से। टवर्ग के वर्णों ने कविता के हास्य के ओजपूर्ण कर दिया है-चलो अखाड़े पेलो दंड। वीर मांग सकता है न्याय, वीर मिटा सकता अन्याय। युग-युग से है यही उपाय, यही शांति का मंत्र अखंड। धनुष बाण रखते हैं राम, चक्र सुदर्षन रखते श्याम। महावीर की गदा अनूप, मां रणचंडी रौरव रूप। सभी देव हैं संडमुसंड। चलो अखाड़े पेलो दंड।<br />
वे बाल-किशोरों के सच्चे सखा थे। उनका लेखन जोश भरता है। उम्मीदें जगाता है। निराशा भगाता है। वे युग के भगवानों के अंधभक्त बनने की बात नहीं करते बल्कि विवेकानंद की भांति उत्तिष्ठ जाग्रत का मंत्र फूंकते हैं-जिनके पूजे चरण आज जाते हैं, जो युग के भगवान कहे जाते हैं। उनके भी तो नाक चुआ करती थी, और कुटम्मस खूब हुआ करती थी। ...यह मत सोचो तुम गरीब हो, पढ़ न सकोगे, बदनसीब हो।<br />
भतीजावाद कविता में चाचा नेहरू जी को याद करने का अंदाज अनोखा है-हम साहस के बेटे हैं, खाना खाकर लेटे हैं। शक्ति हमारी माता है, लड़ना-भिड़ना भाता है। चाचा नेहरू आते याद, जिंदाबाद भतीजाबाद। वैसे नेहरू जी पर उनकी एक कविता और है-‘नेहरू की याद’, अत्यंत मार्मिक। उनके निधन के पश्चात एक बालक के मनोभाव को व्यक्त करते हुए जैसे वे बिल्कुल डूब से गए हों- चाचा नेहरू नहीं मिल सके और नही अब मिल सकते हैं, अपने इस दुख को झुठलाने, कैसे हंस-हंस खिल सकते हैं। इसीलिए हम हाथ जोड़कर, फोटो को ही शीस झुकाते। फिर भारत के मानचित्र पर, हम गुलाब के फूल चढ़ाते।<br />
गधे का गणतंत्र में गधा मंहगाई भत्ता मांगता है तो चूहे बेइमान का रिद्म गजब का है, एकदम लोकशैली में। बाल साहित्य में चूहों की शरारत पर लिखी गई उनकी नटखट कविता चूहे बेइमान अप्रतिम है, जिसमें बेइमानी और नाकारापन पर करारे व्यंग्य के साथ बालोचित आकांक्षा और पश्चात्ताप को इस ढंग से अभिव्यक्त किया गया है कि उनकी कल्पनाषीलता विमुग्ध कर देती है- चूहे बेइमान मेरा टोस ले गए, टोस ले गए, संतोष ले गए। ना उनके खेती, ना उनके पाती, चूल्हा बिना फूंके खाते चपाती। पुस्तक नहीं कुंजी कोश ले गए। ...मेरी दवाई जल्दी से खाते, बाबा की लाठी चाहे छिपाते। नाना की ऐनक छोड़ क्यों गए?<br />
डायरी पर एकदम मौलिक और संभवतः अकेली कविता रचने का श्रेय भी उनको जाता है, जहां बाल स्वभाव एकदम स्वच्छंद रूप में मुखरित हुआ है-नयी डायरी मुझे मिली है। कार्टून हैं मुझे बनाने, हस्ताक्षर करने मनमाने। आप अगर रुपये देंगे तो, बन जाएंगे जाने माने। भेंट दीजिए, कलम हिली है।<br />
टिली लिली कविता की उड़ान के क्या कहने। बच्चे तो मन के राजा होते ही हैं। यहां वह राजसी कल्पना सर चढ़कर बोल और डोल ही नहीं रही, बल्कि एक अधिकार भाव से पूरी मस्ती कविता में घोल रही है- मुझे अचानक परी मिली, आसमान मे जुही खिली। टिली लिली है टिली लिली। मैं जाऊंगा पंख बिना, ताक धिना धिन ताक धिना।<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>कल्पना की अथाह पूंजी के साथ-साथ वे आत्मविश्वास के भी धनी थे। विल पावर से लवरेज। प्रतिकूल परिस्थितियों में भी हारते न थे। न दैन्यं न पलायनम। उनका जीवन असुविधाओं और संघर्षों से पूर्ण था किंतु शायद ही किसी ने उन्हें कभी अरण्यरोदन करते देखा हो। शायद यही वजह थी कि जीवन के अंत तक उनके चेहरे पर कोई शिकन न आई। कम ही लोग जानते होंगे कि वे कभी डाकिया भी रहे। पोस्टमैनी करते हुए उन्होंने बी.ए. की पढ़ाई की। और अपनी लगन के बल पर हिंदी और अंग्रेजी में एम.ए. के बाद बी.एड. और पी-एच. डी. तक की डिग्रियां हासिल कीं।<br />
गोडवाना की लोकधुन इंगोवाय इंगो पर आधारित उनका एक गीत है, उनके ही ओजस्वी व्यक्तित्व को बयान करता है- भाग्य तुम्हारा यौवन है, देश तुम्हारा जीवन है। रखो मौत को दांव पर, परेशानियां झेलो। रेलो रेलो रेलो<br />
ऐसी न जाने कितनी कविताएं हैं जो कहीं न कहीं उनके जीवन की बांकी-बांकी झांकी हैं और जिनकी चर्चा खत्म होने का नाम ही न लेगी। अनंत में जाने वाले उस पथिक की गाथा भी अनंत है। उनके व्यक्तित्व-कृतित्व पर दो ग्रंथ प्रकाषित हुए हैं- राष्ट्रबंधुः व्यक्तित्व एवं कर्तत्व (संपादक-डा. प्रतीक मिश्र) और डा. राष्ट्रबंधु के बाल साहित्य का मूल्यांकन (संपादक-डा. शकुंतला कालरा)। इनसे उनके जीवन को आंका जा सकता है।<br />
उनकी एक कहानी है- फा। मुझे तो वह उनके ही जीवन की फिल्म सी लगती है। उनकी <span style="background-color: #fff2cc; color: red;"><a href="https://youtu.be/A4MxiifS5SU" target="_blank">कहानी <b><span style="color: red;">फटी शर्ट पर देविका फिल्मस्, मुंबई से फिल्म</span></b></a></span><b><span style="color: red;"> </span></b>बन चुकी है। जय सियाराम पुस्तक पर संगीतबद्ध कैसेट तैयार की गई है। आकाशवाणी लखनऊ से धारावाहिक रूप में इसका प्रसारण हो चुका है।<br />
तपती रेत पर नाम से उनकी आत्मकथा छप चुकी है। वे इसका दूसरा भाग लिखना चाहते थे। वह स्वप्न अधूरा रह गया। वे चाहते थे कि जून, 2013 से बंद पड़ी उनकी पत्रिका ‘बाल साहित्य समीक्षा’ फिर षुरू करने वाला कोई कर्णधार मिल जाए। उनका मन था कि बालसाहित्यकारों को राज्यसभा/विधान परिषद में नामित किया जाए। वे प्रयत्नशील थे कि बाल साहित्यकारों को निशुल्क बसयात्रा की सुविधा मिले। उनकी चाहत थी कि बाल साहित्य उच्च कक्षाओं में पढ़ाया जाए। बाल साहित्य समीक्षा के पुराने अंक पलटने पड़ेंगे। उनके संपादकीय देखने होंगे। उनमें ढेरों पथ दिखेंगे, जिन पर चलकर हम उनके अधूरे स्वप्न ही पूरे नहीं करेंगे, वरन् बाल साहित्य की मशाल को और अधिक उष्मा प्रदान कर सकेंगे। आशा की जानी चाहिए कि ऐसा होगा। यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। यही सच्चा तर्पण। <br />
...<br />
बाल साहित्य जगत में वे अद्वितीय थे। न उन जैसा कोई था और न होगा। वे अपनी जगह अकेले थे। सबको अपना बनाकर, उनके लिए जीने वाले इस बालमना साधु को नमन और अशेष श्रद्धांजलि !<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj5srmoRCe5bAIG9FzWSVIzHBRETlNlP5Zp6BWDchS8F8TU-mEg-ivmFTcUYSQ6v3J1hPRfRkK8qZKhrE0kmZq75W85VvR6iz_JnMvHZjB9MVbyW_KzysJYWGFqxafDfPCXkkTF7SsGWkC8/s1600/BAAL+SAHITYA+ka+Shankhnaad.jpg" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1079" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj5srmoRCe5bAIG9FzWSVIzHBRETlNlP5Zp6BWDchS8F8TU-mEg-ivmFTcUYSQ6v3J1hPRfRkK8qZKhrE0kmZq75W85VvR6iz_JnMvHZjB9MVbyW_KzysJYWGFqxafDfPCXkkTF7SsGWkC8/s200/BAAL+SAHITYA+ka+Shankhnaad.jpg" width="134" /></a></div>
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<span style="background-color: yellow; color: blue;">(यह आलेख मेरी पुस्तक 'बाल साहित्य का शंखनाद', प्रकाशक : अनंत प्रकाशन,लखनऊ के पृष्ठ 88 पर प्रकाशित है. सर्वप्रथम यह आलेख बाल वाटिका, मासिक के अप्रैल 2015 अंक में पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ था.)</span></div>
डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-72970885067901873702020-04-21T00:11:00.003-07:002021-06-12T10:22:01.277-07:00बाल साहित्य के लेखक और आलोचक : डॉ. रत्नलाल शर्मा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtdesGJmStn_c4px0qXwWGLl8VANuN8Pp9iEa9lnmbZBCTPvy0JsOQSE9Nr4oqSYXp1C-8Nh69Ul6_JAEerkKzWJjTzZ_1ySj-iXXNFzEK-bTJe4nNWhmwYljEJhUdvqyS3LjpnohWgFWx/s1600/IMG_20200421_115529.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1451" data-original-width="1210" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgtdesGJmStn_c4px0qXwWGLl8VANuN8Pp9iEa9lnmbZBCTPvy0JsOQSE9Nr4oqSYXp1C-8Nh69Ul6_JAEerkKzWJjTzZ_1ySj-iXXNFzEK-bTJe4nNWhmwYljEJhUdvqyS3LjpnohWgFWx/s320/IMG_20200421_115529.jpg" width="266" /></a></div>
डॉ. रत्नलाल शर्मा बाल साहित्य के प्रति गहरी निष्ठा रखते थे। उन्होंने बच्चों के लिए सुंदर कहानियां लिखीं। 'समकालीन बाल साहित्य की दिशा' आलोचना ग्रन्थ लिखा। तत्कालीन समय मे बाल साहित्य पर सबसे बड़ी राशि का निजी पुरस्कार 'रत्न शर्मा स्मृति बाल साहित्य पुरस्कार' उनकी ही देन थी। बच्चों के लिए हिमांक रत्न पत्रिका भी निकाली थी।प्रस्तुत है उनके विषय में 'बाल साहित्य समीक्षा' में जनवरी, 2002 में प्रकाशित आलेख<br />
मैंने 'किशोरों की श्रेष्ठ कहानियाँ' संकलन में उनकी कहानी को सादर सम्मिलित किया था। अपनी पुस्तक बाल साहित्य के प्रतिमान में भी उनकी ससम्मान चर्चा की है।<br />
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAWCNLJx_x_WaxqioWnBrZucPBidkzGruOuAbFm5alLd5KYunmMyclUw3QJlDiVL3rbI-I7MKLI1pMIOLF1m7ELTgSek9suBetX-gzM4iL-BOP01Ul74b5CfmceHfPnh4S5vekqqKIQOP3/s1600/IMG_20200421_121501.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1239" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjAWCNLJx_x_WaxqioWnBrZucPBidkzGruOuAbFm5alLd5KYunmMyclUw3QJlDiVL3rbI-I7MKLI1pMIOLF1m7ELTgSek9suBetX-gzM4iL-BOP01Ul74b5CfmceHfPnh4S5vekqqKIQOP3/s400/IMG_20200421_121501.jpg" width="308" /></a></div>
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डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-60063598240815317012020-04-19T04:30:00.002-07:002020-04-19T04:30:47.641-07:00किशोरों के लिए कहानी संग्रह 'यस सर! नो सर' के कन्नड़ अनुवाद की समीक्षा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimI390OezG6AbANkF2oR7KgIYX4odgKJaQY1h5rfSbJvnQp0kIfxe3gkkbApR9MKWLKvw1imeYud6on6pMxfvIxaRVkC4nZoPxDXg1Isn03C1j2xqhzMmphk7WMH1nl56fGQHagwa3R3Lr/s1600/IMG_20200419_165122.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="704" data-original-width="720" height="312" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEimI390OezG6AbANkF2oR7KgIYX4odgKJaQY1h5rfSbJvnQp0kIfxe3gkkbApR9MKWLKvw1imeYud6on6pMxfvIxaRVkC4nZoPxDXg1Isn03C1j2xqhzMmphk7WMH1nl56fGQHagwa3R3Lr/s320/IMG_20200419_165122.jpg" width="320" /></a></div>
यस सर ! नो सर !(किशोरों के लिए कहानी संग्रह) के कन्नड़ अनुवाद की समीक्षा<br />
समीक्षक : <span style="color: blue;"><b>आनन्द पाटिल</b></span><br />
Yes Sir, No Sir<br />
A story collection in Hindi, by a noted writer Dr. nagesh pandey ‘Sanjay’ is now in kannada. It has been brought into Kannada by D. Sujaladevi, an enthusiastic writer, being head of a school(she herself runs the school)she is with children most of the time, takes lot of interest in children’s literature. This is her first translation, got published.<br />
Dr. nagesh Pandey is a wellknown name in Hindi belt. Along with a creative writer, he is scholar in chidlren’s literature. He has done Ph. D on principles that guide the genor of children’s literature. An essay collection on different aspects of chidlren’s literature has also been at his credit. He has brought seven story collections and two poetry works. He has edited three collections of stories also. Such an active person is being introduced into kannada with a bundle of his stories.<br />
As for as translation is considered, sujaladevi has rendered sincere work and brought in a easy flowing, with all weightyness, with required disposition and involvement. The stories are made to reach the kannada children, retaining the cultural background of Uttarpradesh, which the original writer hails from. As such a new rendering of stories for children, in some aspects definitely has been to view here. So to say an encouraging effort has been here by Sujaladevi.<br />
All these stories show a trend of getting relieved of old stuff of imaginative folk world and more and more getting revolved around the present situations of chidren. In all the stories voices of children are heard prominently and all the plots go around the child psychology, that too evolved at the background of cultural set up. Of cource middle class atmosphere is predominantly seen here. Situations get plotted with rural and semi urban areas. Children with poor economic background, or with less resources are usually visualized. It seems the usual trend in modern children stories in India, as along with English, most of the regional languages carry such a stuff , might it be the begining face in children literature towards with modern concepts. As such the writers with middle class background, as they predominate, naturally bring fourth the stuff of their experience, of cource with all modern days’ progressive thoughts. Nagesh Pandey’s stories are to be placed inveriably among this kind.<br />
Usually a sort of Satvika Bhava, an atmosphere of virtuous conduct prevails in all the stories. It does not go in any situation, so to say to fall in the track of preaching. Children go with all distracts, bad influences, undesired ways, but they themselves come to repentance, or realising of the right conducts. They will be put into ambiguity in a number of situations, and fell prey to false attractions, but one or the other situation brings a turn in their life and set them into progress. This is inverialbly found in all his stories, not a single story ends in dismay. Of cource as these children come from almost middle class background, or little less to it, never experience hard truths of life, that are found in downtrodden, cast based, discriminative social situations. In Kannada such situations were brought to children stories by Dr. R. V. Bhandari , in his two novels. Both the novels chose protagonist characters from scheduled casts and brought out all the traumas they face, to make up their ways of life, but to be arriving at an contended end was sort at. Being a teacher by profession, he use to say it should be in children stories as a positive motivation. It is to be informed here that he use to be in the front line of rebelling leftist movements, and he himself came from such social condition. But this is not the situation with upcoming new writers like Ganesh Nador in Kannada, who are earnestly desiring to bring prevailing truths as they are.<br />
Nagesh’s stories are marked with simple narrative in all naturalistic way, bringing the situation in a very usual manner, as to be one among our daytoday happenings. His narration always goes with some sort of conversation with the readers, connecting them with the plot as if it is one in their surroundings. Almost every time he stands with elderly eyes and sets his plots before the children. We may say it is an extension of story telling tradition with new requirements, with new approaches. We come across a veriety of behaviors put in different situations. A boy with hesitation in all his approaches, lags behind in many ways. Once during holidays hesitantly he goes to village area trying to avoide swimming in the pool. But when he is going riding behind his elder brother he puts to astonish, when his brother , listening to a cry from the midst of waters below a bridge, at once stops the two wheeler and jumps into the water without any second thought and rushes to the rescue of a lady, fallen in the river. The boy experiences this with all awe and wonder, and decides he should also make his mind to do something, to learn swimming, riding and should come over his secured mindedness., and thus returns into a new born boy. In another story a boy, a son of police, feels short when his classmates talk of corrupt practices of police. He even falls suspicious, observing a situation of his father, receiving some amount from an unknowing person. But to his surprise he comes to realize that his father has not at all involved in any untoward act and is a sinscere person, and feels proud of him. He tells before his mother that he will also become a police like father . Another boy named shamkrishna, who is known for his studiousness, sinscerity, good behavior, once gets caught by the examiner while copying. It becomes a big issue whether he should be punished or not. Nobody feels taking risk at it. But at last the headmaster takes bold step and debars him of that year’s exams. A poor boy who is very fond of games, faces every time hinderances from his father and gets reduced mentally, but stops not in his efforts, tries to push himself in whatever possible way, and gets shined as a painter. Father realizes his earnestness and he himself gets changed and sets his mind for providing all facility whatever possible. A group of poor children once plan to steal fire crackers from a rich house during Deepavali, as they were unable to purchase, and enjoy the festival. But at the time of escaping during night time they hit the watchman with a sizable stone in night dark. But very next day when they hear the news that he is admitted to hospital, they fell in duality and start repenting, by the evening they decide to appolizise. Neha a girl, every time finds inferior listening to the deeds of her elder sister. But when, during her marriage, she gets astonished to see her sister, boldly resisting the money demanding goonda group, in the form of dowry, and shots at them without hesitation. Then the little mind realizes what really is her sister and tears into sobs as she is departing from her. In all such stories we find a realization is reached at the end a progressive thinking, guided by morality is channalised.<br />
Anand Patil</div>
डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-45062248708960538592019-10-23T18:32:00.003-07:002019-10-23T18:32:40.978-07:00आलेख : समकालीन बाल कहानियों में मूल्यपरक शिक्षा डा. नागेश पांडेय ‘संजय’<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
समकालीन बाल कहानियों में मूल्यपरक शिक्षा<br />
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डा. नागेश पांडेय ‘संजय’<br />
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अत्याधुनिकता के एक ऐसे समय में, जब ऐन केन प्रकारेण अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की होड़ मची हो, मूल्य शिक्षा की बात थोड़ी अजीब भले ही लगती हो किंतु सच बात यह भी है कि कभी विश्वगुरु कहा जाने वाला हमारा देश जब आवहि संतोष धन, सब धन धूरि समान की परंपरा का देश है। राष्ट्र की रक्षा हेतु यह दधीचि के हंसते-हसते अपनी हड्डियां गला देने का देश है। गुरु की आज्ञा पर यह अपना अंगूठा काट कर अर्पित कर देने वाला देश है। सत्य के नाम पर यह हरिष्चंद्र के अपना राजपाट और सर्वस्व न्योछावर कर देने का देश है।<br />
सच पूछिए तो यह त्याग, दया, उदारता, करुणा, क्षमा, सहनशीलता और समर्पण जैसे अन्यान्य मूल्यों का देष है। इन मूल्यों से रची पगी कितनी कहानियां हमारे चतुर्दिक बिखरी पड़ी हैं। इन्हीं मूल्यपरक कहानियों के बल पर हमारी अक्षुण्ण संस्कृति सदियों से प्रवहमान है। कभी दादी-नानी के द्वारा, जिन्हें अप्रत्यक्ष रूप से मूल्य शिक्षा का जीता जागता विष्वविद्यालय कहा जा सकता है, संस्कारदात्री कहानियां अपनी वरेण्य भूमिका का निर्वाह करती रही हैं। कालांतर में दादी नानी का विकल्प पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें बन गई तथापि मूल्य षिक्षा उसका अभिन्न अंग बनी रही। रामायण, महाभारत, कथा सरितसागर, सिंहासन बत्तीसी, पंचतंत्र, हितोपदेष की पारंपरिक कहानियों के अतिरिक्त बाल साहित्य लेखकों ने भी ऐसी कहानियों का बहुतायत से सृजन किया है। आज हिंदी बाल साहित्य भले ही कितने भी परिवर्तनों से गुजर रहा हो, नैतिकता की प्राथमिकता उसमें कल भी विद्यमान थी, आज भी है और आगे भी रहेगी।<br />
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के बिंदु 8.4 में लिखा है कि जीवन के आवश्यक मूल्यों का हृास हो रहा है और लोगों का विश्वास उठ रहा है, अतः शिक्षण क्रम में ऐसे परिवर्तन की जरूरत है कि सामाजिक और नैतिक मूल्य के विकास में शिक्षा एक सशक्त साधन बन सके।<br />
निसंदेह कह सकते हैं कि मूल्यपरक षिक्षा की आज सर्वाधिक आवष्यकता है। हमें यह नहीं भूलना है कि विश्व में जितने भी महान व्यक्ति हुए हैं, उन्होंने बाल्यावस्था में उच्चकोटि का बाल साहित्य पढ़ा था। बाल साहित्य का मूल्य शिक्षा से अंतरंग संबंध है। कौन नहीं जानता कि विष्णु शर्मा ने पंचतंत्र की रचना उच्छ्रंखल बालकों के परिष्कार हेतु ही की थी। बाल साहित्य बालकों को नई सोच और स्वस्थ दिशा प्रदान करता है। इसके माध्यम से बालकों में नैतिकता, सद्भावना, पारस्परिक प्रेम और एकता के मानवीय अंकुर उपजते हैं। वे राष्ट्र की संस्कृति, उसकी अस्मिता और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए सजग प्रहरी के रूप में तैयार होते हैं।<br />
हिंदी में मूल्यपरक षिक्षा से ओतप्रोत कहानियां निरंतर लिखी जा रही है। पर पीड़ा सम नहीं अधमाई के उच्च संस्कार को उद्घाटित करती बानो सरताज की कहानी कोयल और कोटर उनकी मौलिक कल्पना का चमत्कार है। हमेशा दूसरे के घोसले को अपने प्रयोग में लाने वाली कोयल को अपना घोंसला बनाते देख बरबस ही मन श्रद्धा से भर उठता है। (पुस्तक: 21 बाल कहानियां,पृष्ठ 49) <br />
सफलता का भेद फकीरचंद शुक्ल की प्रेरक कहानी है जो करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान संदेष को ध्वनित करती है। (नई सुबह, पृ.19) <br />
किरण घोडके की पुस्तक सितारों वाली गुल्लक में संकलित कहानी डिब्बी कछुआ सभी प्राणियों से प्रेम के संदेष के बहाने वसुधैव कुटुंबकम का भाव जगाती है। <br />
प्यार की बातें मनोहर चमोली की छोटी सी कहानी है जो प्रेम का वास्तविक अर्थ बताती है। (अंतरिक्ष से आगे बचपन, पृ. 23)<br />
मुरलीधर वैष्णव ने तो चरित्र विकास की बाल कहानियां नामक एक संकलन ही तैयार किया है जिसके पृ. 43 पर प्रकाषित कहानी सच से बड़ा झूठ सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयात मां ब्रूयात सत्यमप्रियम के दार्षनिक पहलू को उजागर करता है। ऐसे सच से वह झूठ ज्यादा बेहतर है जो किसी का दिल न दुखा रहा हो।<br />
ऐसे ही पुस्तक बच्चों को सीख देने वाली 51 कहानियां (2012) प्रकाश मनु की लेखनी का चमत्कार है। इसमें जीवनोपयोगी कहानियां हैं। कहानी चार फुदनों वाली टोपी दूसरों के उपालंभ से व्यथित होकर तात्कालिक निर्णय न लेने की प्रेरणा देती है। ऐसी ही एक चर्चित कहानी गिजूभाई की भी है सात पूछों वाला चूहा, जो इस कहानी के पात्र द्वारा टोपी का एक एक फुंदना कटवाने की तरह एक एक पूछ कटाता जाता है। <br />
आत्मविश्वास हो तो रमाशंकर की प्यारी कहानी है,जहां अपनी लगन और आत्मबल के सहारे दीपक सफलता की सीढ़ियां चढ़ता जाता है। (जस्सी और अन्य कहानियां, 73) <br />
एकता में बल निर्मला सिंह की छोटी सी कहानी है जो पारस्परिक सद्भाव की प्रेरणा देती है।<br />
रजनीकांत शुक्ल बालसाहित्य साहसिक कहानियों के सृजन हेतु लोकप्रिय हैं। उनकी अनेक कहानियां पुस्तक साहसी घटनाएं में संग्रहीत हैं। पृ. 63 पर प्रकाषित कहानी आग से मुकाबला में असल जिंदगी का हीरो शुभम बैन में फंसी लड़की को आग से बचाता है। ऐसी ही एक कहानी है लपटों के बीच, जिसमें लेखक रमेश चंद्र पंत ने बालमन में साहस और आत्मबल के साथ साथ प्रत्युत्पन्नमति की मनोरम छटाएं उंकेरी है। (बालमन की प्रतिनिधि कहानियां, पृ. 88) <br />
पिछले दिनों पढ़ी राकेश चक्र की श्रेष्ठ कहानियां पुस्तक में पृ. 67 पर छपी कहानी पूरा इंसान भी दिल को छू गई। यह कहानी जातीयता और विद्वेष के भाव से मुक्त कर मानवता की ओर सत्प्रेरित करती है। दो अलग जातियों के इंसानों के खून से प्राण बचने पर पात्र की यह मार्मिक अभिव्यक्ति कि मेरे अंदर आज तीन तरह के इंसानों का खून मिल गया है, मन को ही नहीं, आत्मा को भी विगलित कर देती है। <br />
पुस्तक बावन गांव इनाम में कर पृ. 58 पर प्रकाषित कहानी फटी शर्ट राष्ट्रबंधु की बहुचर्चित कहानी है, जो परिवार के प्रति बालकों को दायित्वबोध से जोड़ती है। पिछले दिनों देविका फिल्मस्, मुंबई से इस कहानी पर बनी बालफिल्म देखकर आंखे भीग गईं। ऐसी बाल फिल्में और भी बनती रहें और उनका अधिकाधिक प्रसारण भी हो तो जीवन मूल्यों के स्थापन की दृष्टि से यह एक कारगर कदम हो सकता है। दिनेश पाठक शशि की कहानी प्रधानाचार्य की कुर्सी (बालहंस, अक्टूबर द्वितीय 1999, पृष्ठ 53) भी बड़ों के प्रति सम्मान का भाव जागृत करती है और उनकी परिस्थितियों से अवगत रहने की प्रेरणा देती है।<br />
मां का उपहार पुस्तक में संकलित अपना घर(पृ. 16) डॉक्टर शकुंतला कालरा की मनोवैज्ञानिक कहानी है, जो घर से भागे हुए बच्चे षैल के बहाने पलायनवादी प्रवृत्ति का परिष्कार करती है।<br />
शेर चिड़िया की दोस्ती गोविंद शर्मा की मजेदार कहानी है। घमंड न करने और पड़ोसी धर्म की शिक्षा से रची पगी यह रचना उनकी चर्चित पुस्तक कांचू की टोपी की श्रेष्ठतम कहानियों में से एक है।<br />
दिविक रमेश की कहानी किस्सा चाचा तरकीबूराम का मजेदार है जो हंसाते गुदगुदाते अचौर्य की सहज षिक्षा भी दे जाती है। <br />
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जब आवहि संतोष धन, सब धन धूरि समान के आदर्ष से अनुप्राणित अमिता दुबे की कहानी संतुष्टि का सपना भी अनूठी है। (पुस्तक: राह मिल गई, 21)<br />
वन्य जीवन पर चुटीले लेखन के लिए सुचर्चित विनायक की लंबी कहानी जिंदा अजायबघर, प्राणिमात्र के प्रति बालोत्सुकता को शांत कर उनके प्रति प्रेम भी जागृत करती है।<br />
मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है, इस मूल्य को सुधा भार्गव ने कुषल बुनकर की तरह बुना है अपनी कहानी भग्गू बन गया भगवान में, इसे उनकी पुस्तक अंगूठा चूस के पृ. 23 पर पढ़ा जा सकता है। भूखे को भोजन देना और असहाय की सहायता करने की सहज शिक्षा देने की दृष्टि से भी यह एक अच्छी कहानी है। खिलौने वाली शंकर सुल्तानपुरी की अप्रतिम रचना है जो लोक ऋण से मुक्ति के भाव से जोड़ती है। एक गरीब बच्चे को मुफ्त में मिट्टी का खिलौना सिपाही देकर खिलौनेवाली उसकी दुनियां ही बदल देती है। वह बच्चा उस खिलौने को देखकर सिपाही बनने की प्रेरणा ही नहीं लेता वरन सिपाही बनकर दिखाता है। लेकिन उससे भी बड़ी बात यह कि यह ऋण वह भूलता नहीं। कालांतर में एक धर्मपुत्र की भांति वह उस खिलौनेवाली से मिलने आता है। निश्चित रूप से सहृदय पाठक की आंखें उस दृश्य की कल्पना कर बरबस ही भीग जाएंगी।<br />
बाल वाटिका में छपी साजिद खान की षबीना अंकल नए मिजाज की उम्दा कहानी है जो करुणा को विस्तार देते हुए, मार्मिकता की तह तक जाकर बच्चों को नए संस्कारों की ओर मोड़ती है।<br />
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नंदन सितंबर 19 में छपी अनिल जायसवाल की कहानी बैकबेंचर सकारात्मक प्रेरणा से ओतप्रोत है। हीन भावना से ग्रस्त बच्चों को यदि आत्ममूल्यांकन की सुप्रेरणा देने का कौषल हो तो उन्हें उच्च शिखर पर पहुंचाने में देर न लगेगी।<br />
पराग अक्टूबर 1989 में छपी पदमा चौगांवकर की कहानी छोटी सी भूल घर की तरह देष के प्रति भी समान भाव जाग्रत करने का आवाहन करती है। हरिभूमि, 18 मई 2017 में प्रकाशित घमंडीलाल अग्रवाल की कहानी अनोखा जन्मदिन भारतीय संस्कृति के विविध पक्षों का बोध कराती है।<br />
पवनकुमार वर्मा इधर खूब लिख छप रहे हैं। बच्चों का देश, अगस्त 2019 में आई उनकी कहानी भाई बहन का प्रेम पारिवारिकता के आत्मीय स्वर को बुलंद करती है।<br />
नीलम राकेश की कहानी और वे मित्र बन गए (देवपुत्र सितंबर 19, पृष्ठ 5) आडंबर से दूर रहकर जीवनयापन का संदेष देती है। यहां पर विमला भंडारी की चित्रकथा मां ने कहा था (बाल भास्कर 3 मई 2019) का भी खासतौर पर उल्लेख्य करना चाहूंगा। एकाग्रता, आज्ञाकारिता और बड़ों के अनुभव का महत्व दर्शाती ऐसी कहानियां तो जरूरी हैं ही लेकिन मूल्यों को जगाती ऐसी कहानियां काष ! चित्रकथाओं के रूप में सुलभ हो सकें तो मूल्य षिक्षा की राह को रोचकता के आवरण में आसान किया जा सकता है।<br />
कहानियाँ और भी हैं किन्तु विस्तार भय से उनकी चर्चा यहां सम्भव नहीं है। ऐसी कहानियों की रचना करते समय अतिरिक्त लेखकीय सजगता अत्यापेक्षित है। मूल्य संस्थापन के प्रयास कहानी का मूल तत्व मनोरंजन नष्ट नहीं होना चाहिए। रोचकता तो आद्यंत अपेक्षित है। कहानी विशुद्ध रूप से उपदेशात्मक होकर न रह जाए, यह ध्यान रखना होगा।<br />
बाल कहानियां में मूल्य शिक्षा की विविधरंगी छटा मनोहारी है और उसका महत्व सर्वकालिक है। पत्र पत्रिकाओं में तो ऐसी कहानियों को स्थान मिले ही, उनका वृहद संचयन भी प्रकाशित होना चाहिए।<br />
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डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'</div>
डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-84592458871538775572018-05-06T05:14:00.000-07:002018-05-06T05:26:56.590-07:00सदाबहार फूलों-सी बाल कहानियां/ डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
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<span style="background-color: yellow; color: red;"><b><u>(बाल वाटिका में प्रकाशित <span style="text-align: center;">बाल कहानियों पर आधारित आलेख )</span></u></b></span></div>
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बाल वाटिका के बाइसवें वर्ष के सारे अंक मेरे सामने हैं। इनमें प्रकाशित कुल सतहत्तर कहानियों को एक बार फिर से पढ़ना मेरे लिए सुखकर तो है ही, उतना ही विस्मयकारी भी है। कितने रंग? कितने आस्वाद। कितनी छवियां और मनोरम आभाओं के तो कहने ही क्या! रसलोभी पाठकों के लिए तो यहां अवसर ही अवसर है। उनका मन तो महकेगा ही, आत्मा भी स्निग्ध हो उठेगी। अच्छी बाल कहानियों की यही विषेषता भी है कि वे पाठक को भीतर तक छू लें और सफल संपादक की यही पहचान कि वह पाठकों की भिन्न रुचियों को समझते हुए कहानियों के अनेकवर्णी रूपों को समान महत्त्व दे। कभी बाल साहित्य के क्षेत्र में पारंपरिक और आधुनिक धाराओं की कहानियों को लेकर खूब वाक्युद्ध चलते रहे और इस द्वंद्व के कारण अनेक समर्थकगण वस्तुतः स्वयं को ही छलते रहे। क्योंकि बाल पाठक तो आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से सर्वथा पृथक रहते हुए बस...अपने आनंद के लिए कहानियां पढ़ता रहा। चहकता रहा। ...और उनको महत्त्व देने वाली पत्र-पत्रिकाएं भी पूरी दमक के साथ प्रकाषित होती रहीं। कहना गलत न होगा कि आज का बालपाठक लेखक से कहीं ज्यादा समझदार है। कहानी, बस... कहानी है, यह वह जानता है। कहानी कहां तक जीवन का सच हो सकती है, यह भी उसे पता है। कहानी से कितना उसे ग्रहण करना है? इसका भी उसे बखूबी बोध है। बच्चों का बच्चा समझनेवाले दरअसल खुद बचकानेपन के षिकार है। समय बदलता है तो स्थितियां बदलती हैं। परिस्थितियां बदलती हैं। उसी के साथ कहानी भी बदलती रहती है। समय सापेक्ष रचनाओं का सृजन लेखकीय धर्म है लेकिन फिर भी यह याद रखना चाहिए कि कहानी के असली समीक्षक बच्चे हैं। वे कहानी के निहितार्थों को अपने अनुसार ढाल ही लेते हैं। इसलिए यह मगजमारी कि कहानियों का स्वरूप क्या हो? उनकी विषयवस्तु क्या हो? प्रकृति की दृष्टि से कहानियों के औचित्य को हम अपने बौद्धिक अनुभव के आधार पर तय करने की बजाय बालपाठक पर छोड़ दें तो ज्यादा बेहतर होगा। बालकों को कहानियों के विविध रूप सुलभ होंगे तो वे जीवन और परिवेष की विविध छटाओं का आनंद ले सकेंगे। अच्छी कहानियां वही हैं जो अधिसंख्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करें। बालक की सोच में भी व्यापकता तभी आ सकेगी और उसके अनुभव का फलक भी विस्तार पा सकेगा। यह सही है कि आज विज्ञान का युग है लेकिन क्या तब हम साहित्य को बस...कंप्यूटर और तकनीकी के संदर्भों से ही भर दे? ग्लोबलाइजेशन के इस युग में क्या संवेदनाओं से अनुप्राणित प्रसंगों का कोई महत्त्व नहीं रह जाता? हम उस देष के निवासी है जहां आज भी जाने बच्चे कंप्यूटर की पहुंच से कोसों दूर है। गांवों में घंटों बिजली नहीं आती। बच्चों ने षहर नहीं देखा। अभिभावकों के दैन्य और संघर्ष में वे बराबर के सहभागी है तो क्या साहित्य की आवष्यकता ऐसे बच्चों के लिए नहीं है? ऐसे में साहित्य में बस मार्डन एप्रोच की वकालत करना वस्तुतः विद्ववता नहीं, बड़बोलापन है। हर परिवेष के बच्चों को ध्यान रखते हुए लिखना होगा। पारंपरिक विषयों को भी एक सिरे से खारिज कर देने की प्रवृत्ति कतई उचित नहीं है।<br />
पिछले दिनों स्वयं को अत्यंत आधुनिक समझ का समझने वाले एक लेखक ने साहित्य में नएपन की वकालत करते हुए लिखा कि उसने दसियों वर्षों से कोई गुब्बारेवाला नहीं देखा। उसके इर्द-गिर्द मंडराते बच्चे नहीं देखे। फिर भला आज ऐसी रचनाओं की क्या दरकार? और अगर ऐसी रचनाएं पूर्व में लिखी गईं हैं तो उनको भी अब सर माथे लेने की क्या जरूरत है। यह ठीक है कि चकाचौंध के शिकार उस लेखक की अनेक सीमाएं हो सकती हैं लेकिन प्रतिनिधि साहित्य पर तो हर बच्चे का हक है। साहित्य और पाठ्यक्रम के लिए साहित्य में अंतर भी है, अस्तु, हर जगह शैक्षिक रूपरेखा का उदाहरण देते हुए साहित्य की प्रासंगिकता का आकलन करना भी अव्यावहारिक ही है। मनोरंजनधर्मी साहित्य की अपनी दरकार है और उसे नकारा नहीं जा सकता।<br />
आज भी विकास की दौड़ में भागते देश के अनेक क्षेत्र अभी भी शैशवावस्था में हैं। वहां आज भी गुब्बारेवाले हैं। मिट्टी के खिलौनेवाले हैं। और यही नहीं...टूटी साइकिल पर अपने बच्चे को बिठाकर गांव से षहर मेले में सींको से बने तोता, सांप, पपीहरी, झुनझुना जैसे खिलौने बेचने की ललक लिए नन्हीं बच्ची कजली के ठेठ ग्रामीण बाबूजी भी है।<br />
क्या नये जमाने में साहित्य में ये परिदृश्य अब गए जमाने की बातें हैं? क्या साहित्य में यह गंवईपन नहीं होना चाहिए? क्या देष के अधिसंख्य वर्ग के बच्चों की सहज अनुभूतियों को प्रतिबिंबित करता साहित्य नहीं रचा जाना चाहिए?<br />
डा. भैरूंलाल गर्ग की सराहना करनी होगी कि बाल वाटिका के बहाने बालपाठकों के भिन्न परिवेषों और भिन्न रुचियों का पूरा ध्यान रखते हुए वे प्रतिनिधि कहानियों को प्राथमिकता देते हैं।<br />
जैसा कि मैंने प्रारंभ में ही लिखा था कि बारह अंकों में कुल सतहत्तर कहानियों के फूलों से मह-मह महकती उनकी बाल वाटिका में विचरना किसी के लिए भी सौभाग्य हो सकता है।<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>बाल वाटिका में प्रकाशित कहानियां कल, आज और कल की कहानियां हैं। इन कहानियों में गांव की माटी हैं, शहरों की विकासोन्मुखता है। महानगर की अट्टालिकाएं हैं और आनेवाले कल का आभासीय प्रतिबिंब भी। और यही नहीं, विज्ञान लेखन के ऐसे अनूठे प्रयोग भी उपलब्ध रहते हैं जो स्वयं को बड़ी मानने वाली पत्रिकाओं में भी दुर्लभ रहते हैं।<br />
यह भी बड़ी बात है कि बाल वाटिका को हिंदी के स्वनामधन्य बालकथाकारों का सहज सहयोग प्राप्त है। हिंदी के मूर्धन्य बालकथाकारों की अच्छी कहानियों के प्रति भी संपादक का श्रद्धाभाव पाठको के लिए सुखद है<br />
कई लेखक तो समर्पित भाव से बाल वाटिका के लिए लिख रहे हैं। मसलन कुल सतहत्तर कहानियों में लगभग आधी कहानियां तो बस प्रकाश मनु, सुनीता, राजीव सक्सेना, देवेंद्र कुमार, विनायक, मंजूरानी जैन, साजिद खान और अरशद खान आदि आठ लेखकों की ही हैं।<br />
मोहम्मद साजिद खान के पास गजब की शिल्प सामथ्र्य है। ग्राम्य परिवेष की गहरी समझ उन्हें अन्य कथाकारों से अलग करती है। अक्टूबर 2017 में प्रकाषित उनकी मार्मिक कहानी कजली मुझे बाल वाटिका में प्रकाषित ढेरों कहानियों में अनूठी लगी। गांव के गंवईपन को जिस अनोखे अंदाज में उन्होने अभिव्यक्ति दी है और वह भी बहुत ही कम षब्दों में... अपनी बात कहने का उनका यह हुनर जैसे उनको भाषाई जादूगर सिद्ध करता है।<span style="background-color: yellow; color: blue;"> यह उन अन्य कथाकारों के लिए एक दिशाबोधक संकेत भी है जो बच्चों के लिए लंबी-लंबी कहानी लिखते समय यह भूल जाते हैं कि बच्चे का पास न तो इतना समय है और न ही धैर्य। बच्चे क्या, बड़े भी ऐसी कहानियों को देखकर प्रायः पन्ने ही पलटते देखे गए हैं। </span><br />
इस कहानी में आधुनिकता के नाम पर लोकशैलियों पर कुठाराघात को लेकर करारा व्यंग्य है। गांव में सेठे से निकलनेवाले सीकों से बने पारंपरिक खिलौनों को षहर के मेले बेचने की असफल कवायद के बहाने एक-एक कर बेबसी की खुलती पर्तें इतनी मार्मिक है कि मन भीग जाता है। चाइना माल के आगे भला उसके इन सीेकों के खिलौनों की क्या बिसात लेकिन खाली हाथ हताष लौटने और इसलिए साथ गई कजली को कुछ न दिला पाने से मन पर चढ़े भारी बोझ का वर्णन इतना सजीव है कि लगता ही नहीं कि हम कहानी पढ़ रहे हैं या कोई फिल्म सामने चल रही है।<br />
उनकी अन्य प्रकाशित कहानियों में आग और हरियाली (मार्च 2017), ढाबेवाला महेश (जुलाई 2017), लेटर बाक्स ने पढ़ी चिट्ठियां (दिसंबर 2017), पेड़ों का वसंतोत्सव (फरवरी 2018) भी एक से बढ़कर एक हैं।<br />
राजीव सक्सेना विज्ञान के समर्थ लेखक है। इन अंकों में उनकी सर्वाधिक सात कहानियां प्रकाषित हुई हैं। चाकलेट के चोर (मई 2017) एक अच्छी विज्ञान गल्प तो है ही, पर्यावरण के प्रति सजगता उत्पन्न करने की दृष्टि से भी उल्लेखनीय हैं।<br />
सुपर हीरो (दिसंबर 2017),बिजूका (सितंबर 2017), ड्रीम टेबलेट (जनवरी 2018),स्टोरी मशीन (जून 2017), पापा प्लांट (जुलाई 2017), वर्चुअल गेम (नवंबर 2017) में भी कल्पना की विविध छटाएं हैं जो विज्ञान से जुड़कर बच्चों को समय से बहुत आगे ले जाने का दम खम रखती हैं।<br />
डा. प्रकाश मनु बाल साहित्य के तपस्वी मनस्वी हैं। उनकी कहानियोें को पढ़ना जैसे बाल साहित्य के मानकों से अवगत होने जैसा है। कभी किस्सागोई तो कभी संस्मरण शैली में रची उनकी कहानियों में कथारस छलकता चलता है। और उनके छींटे बहुत देर तक अपनी गंध बनाए रहते हैं। उनकी कहानियों में सब्जीपुर के चार मजेदार किस्से (अप्रैल 2017),मन्ना रे मत तोड़ो फूल (जून 2017), अमर गाथा जसोदा बाबू की (सितंबर 2017), गोपी की फिरोजी टोपी (नवंबर 2017), शहीद हरनाम गली (जनवरी 2018) भले ही आकार में लंबी हैं लेकिन एक बार पढ़ना आरंभ कर आप रुक नहीं सकते। कहन की अनूठी शैली के चलते उनकी कहानियां चित्रकथा जैसा आनंद देती चलती हैं।<br />
सुनीता जी की संस्मरणत्मक कहानी ऐसी खेली होली (मार्च 2017) खासी दिलचस्प है जिसमें होली के बहाने आत्मीयता के अनेक रंग मौजूद हैं। किशोरों के लिए उनकी कहानी लापलांग की पुकार (फरवरी 2018) में लोककथा का आस्वाद है। लापलांग की मृत्यु और शि कारियों के पश्चाताप की इस कहानी का अंत अत्यंत कारुणिक है।<br />
देवेंद्र कुमार बाल साहित्य के पुराने साधक-आराधक हैं। आओ नाष्ता करें (जुलाई 2017) उनकी विशिष्ट कहानी है जो बुजुर्गों के प्रति बच्चों के रागात्मक पक्षों की सुंदर अभिव्यक्ति करती है। बप्पा बाहर गए हैं (अप्रैल 2017), मिठास (नवंबर 2017),कभी नहीं (फरवरी 2018) भी उनकी ऐसी कहानियां हैं जिनमें बच्चा अपनी परिपक्व समझ के साथ मौजूद है।<br />
विनायक की कहानी चुटकी भर फागुन (मार्च 2017) का षीर्षक जितना रोचक है, उसकी भाषा बच्चों की दृष्टि से उतनी ही कठिन। जून 2017 में प्रकाषित उनकी कहानी तुम यों नहीं जा सकती में पारस्परिक मित्रता जैसे सरल विषय को कथानक बनाया गया है किंतु जलप्लावित, अस्फुट, अवतरित, उदरपूर्ति जैसे कठिन शब्दों ने इसे भी दुरूह बना दिया है। पाठ्यक्रम की दृष्टि से ही ऐसी कहानियां उपयोगी हो सकती हैं। पुट्टन की पिटाई और नजारा (सितंबर 2017), मोहनी अम्मा (नवंबर 2017), षैतान सारे जहान के (फरवरी 2018) उनकी रोचक और मार्मिक कहानियां हैं।<br />
मंजूरानी जैन को सृजन के गुर जैसे विरासत में प्राप्त हुए हैं। वे पराग के आदि संपादक आनंदप्रकाश जैन की बेटी हैं। अगस्त 2017 में आई उनकी कहानी गुड्डे का ब्याह उनकी मौलिक कल्पना का चमत्कार है। पारस्परिक सौहार्द की दृष्टि से भी यह कहानी लाख टके की है। बच्चों का गंगा-जमुनी तहजीब सिखाती यह कहानी अच्छी बालिका कथाओं के अभाव की पूर्ति भी करती है। मंजू जी जैसे संस्कृति के विरल पक्षों को कहानी में पिरोने में सिद्धहस्त हैं। बड़े दिन का तोहफा (दिसंबर 2017) भी उनकी बेजोड़ रचना है जिसमें संवादों के माध्यम से कथा का सहज विस्तार देखते ही बनता है और इसमे समाया उत्सवी आमोद भी देखते ही बनता है। माली काका (अप्रैल 2017) भी उनकी एक अच्छी कहानियों में शुमार की जा सकती है।<br />
<span style="white-space: pre;"> </span>मोहम्मद अरशद खान कुशल कथाकार हैं। कहानी में जैसे जान लगा देते हैं। डूब कर लिखते हैं। उनकी कहानियां आदमखोर (अगस्त 2017), बिस्किटवाली बुआ (सितंबर 2017), अब तुम्हारे हवाले (नवंबर 2017) मुकम्मल कहानियां हैं। बिस्किटवाली बुआ में निहित ग्राम्य संवेदना और खासकर उसका तानाबाना यह भी दर्षाता है कि एक अच्छी कहानी कैसी होनी चाहिए। स्थितियों-परिस्थितियों से भरा पूरा पारिवारिक परिवेष इस कहानी के माध्यम से जीवंत हो उठा है। <br />
कहानी को बुनने में माहिर ओमप्रकाष कष्यप कम लेकिन गजब का लिखते हैं। अक्टूबर 2017 में प्रकाशित उनकी कहानी सबसे अच्छा सबसे अलग कुछ अलग अंदाज में षैक्षिक परिवेष को समेटने में सफल हुई है। कहानी के बहाने निबंध की सृजन यात्रा का उनका प्रयोग भी अलग ही है।<br />
पुराने कथाकार श्रीनाथ सिंह की कहानियों का आस्वाद बच्चों का सहज प्रमुदित तो करेगा ही, हतप्रभ भी करेगा कि गए जमाने में भी कितना कुछ उनके नए जमाने जैसा ही था। तुम बड़े होकर क्या बनोगे उनकी शिक्षाप्रद कहानी है जो परिश्रम के महत्त्व को सहज प्रतिपादित करती है। अक्टूबर 2017 में छपी उनकी कहानी चमेली अपने घर कैसे पहुंची दादी-नानी की षैली को याद दिलाती है जिसमें मनगढ़ंत किस्सों के माध्यम से बच्चों को कल्पना के पंखों से उड़ान भरवाने की कोषिष छिपी होती थी।<br />
बाल साहित्य में प्रारंभिक आलोचना को दिशा देने वाले मनोहर वर्मा की किषोर कहानी ठंडे पानी की बिक्री (मई 2017) का संदेष कोई काम छोटा नहीं होता बड़े ही रोचक घटनाक्रम के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है।<br />
पराग के संपादक मंडल के अनुभवी सदस्य महावीर प्रसाद जैन की कहानियों के क्या कहने। अपराधी मैं हूं (मई 2017),वापसी (सितंबर 2017), मुसीबत के साथी (जुलाई 2017) एक से बढ़कर एक हैं। वापसी में जहां कामचोरों के लिए सबक है, वहीं मुसीबत के साथी में पारस्परिक सहयोग का बखान है।<br />
देंवेंद्र मेवाड़ी विज्ञान के अग्रणी लेखक हैं। कहानी कहने की उनकी कला प्रषंस्य है। अप्रैल 2017 में आई उनकी कथा कबूतर कभी कहानी,कभी संस्मरण तो कभी निबंध जैसी लगती है लेकिन अंत तक पहुंचते पहुंचते बड़ी ही साफगोई से प्रकृति के सहचरों के प्रति हमारे संवेदनात्मक पहलुओं का दर्षन एकदम षीसे के मानिंद साफ कर जाती है।<br />
बालमन की चितेरी लेखिका रेनू चैहान की पशु पक्षी कथा घमंडी पेड़ (नवंबर 2017) में वन्य जीवन की बाँकी झांकी देखने को मिली। पेड़ का मानवीकरण देखते ही बनता है। कहानी के छोटे-छोटे वाक्य पाठकों के औत्सुक्यवर्धन में सहायक हैं।<br />
गोविंद शर्मा कल्पना और शैली दोनों ही दृष्टि से समर्थ हैं। कहानी का उनका अंदाजे बयाँ अलग ही होता है। मजे की बात यह कि वे शैली में व्यंग्य के पुट का भी अद्भुत समन्वय स्थापित करते हैं और यही कारण है कि पाठक हंसते-चहकते जाने-अनजाने में उनकी कहानी में छिपे सन्देश को भी ग्रहण कर लेता है। ऐसे ही नवम्बर 2017 में प्रकाशित कहानी नहीं छोड़ेंगे में स्वच्छता का लक्ष्य साधने में उनको सहज सफलता मिली है।<br />
शिवचरण सिरोहा बाल साहित्य में तेजी से स्थापित हुए हैं। उनकी कहानी छोटा सांताक्लाज (दिसंबर 2017) अत्यंत भावप्रवण कहानी है। एक संवेदनशील बच्चा किस तरह परिवार में अपने दायित्वबोध को अनुभव करते हुए कर्तव्य निभा सकटा है, यही इस कथा का प्रतिपाद्य है। नए कोट को लेकर पिता की दमित आकांक्षा और फिर बेटे की ओर से अपने प्रयासों से उनके लिए वही उपहार देने का प्रसंग कितना मार्मिक है कि यह कारुणिक कथा आँखे भिगो देती है। भौतिकवाद की आधुनिक सभ्यता, जिसमे स्वहित अधिक महत्वपूर्ण है, में ऐसे भावुक बच्चों की उपस्थिति कितनी गौरवपूर्ण है। उन्हें सैल्यूट करने को जी चाहता है।<br />
विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी ने लो हो गई मेरी शादी (दिसंबर 2017) कहानी के बहाने साक्षात्कार शैली में बच्चों को वैज्ञानिक तथ्यों से जोड़ने की सफल कोशिश की है।यह प्रयोग यह भी सिद्ध करता है कि विज्ञान को लोकप्रिय बनाने में कहानिया किस कदर अपनी भूमिका निभा सकती हैं।<br />
लोकबोलियों पर अपने गम्भीर शोधकार्य के लिए चर्चित सुधा गुप्ता की कहानी एक थी मीशा (फरवरी 2018) अंक की उपलब्धि है। प्रिय शिक्षिका होने के नाते वे बच्चों के अधिक निकट रही हैं, फलस्वरूप संवाद शैली में दादी-पोती की अंतरंगता जिस नटखट अंदाज में इस कहानी में व्यक्त हुई है, उसे देखकर सुखद विस्मय होता है- वह खिलखिलाकर हंसने लगी और हंसती रही, हंसती ही रही।<br />
मैंने कहा अरे, अब इतना क्यों हंस रही हो ?<br />
मीशा दोनों नन्ही हथेली से ताली बजाकर बोली- क्या बताऊँ? मेरी तो हंसी ही नहीं रुक रही।<br />
अन्य रोचक और उल्लेखनीय कहानियों में ब्रजेष कृष्ण की साहसिक कथा शंभू और कुक्कू (फरवरी 2018), निर्मला सिंह की बालिका कथा मयूरी (दिसंबर 2017), शील कौषिक की श्रेया और आन्या (जनवरी 2018),स्ंजीव जायसवाल की कहानी देश के बेटे (जनवरी 2018),पवित्रा अग्रवाल की मिर्ची के पकौड़े (फरवरी 2018), सुकीर्ति भटनागर की कहानियां पोहे वाली दादी (अप्रैल 2017), मन की बात (अगस्त 2017), सूर्यनाथ सिंह धमकीबाज को धमकी (अगस्त 2017), रष्मि गौड़ की बिग ब्रदर (अप्रैल 2017), राजा चौरसिया वाह मुनमुन बेटी (अप्रैल 2017), डा. फकीर चंद शुक्ल की झूठ के पांव (सितम्बर 2017), लक्ष्मी खन्ना सुमन की जंगल में परियां (सितंबर 2017) भी उल्लेखनीय हैं। विस्तार भय से भले ही उनकी चर्चा यहां पर संभव न हो सकी हो लेकिन उनका सार्वकालिक महत्त्व नकारा नहीं जा सकता।<br />
सदाबहार फूलों सी ये कहानियां निसंदेह बाल साहित्य की अनुपम निधि हैं। इनकी महक देर तक और दूर तक अपनी पहुंच बरकरार रखने में समर्थ है। इन फूलों को बाल वाटिका में पुष्पित-पल्लवित-संरक्षित करने वाले सजग माली डा. भैरूंलाल गर्ग को जितनी भी बधाई दी जाए, कम है।<br />
<b><span style="color: blue;">- डा. नागेश पांडेय 'संजय'</span></b><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEghgwJh5taDoBNLlsC3x4UxgxeUoo0ykicQgETP-rOV2OXstEDDeRVhS-1z6Ynb9ozDHuNcIg6v7p7UZD25qVDhRHI3nZSEpvvFKwKxAnHI-UL3bDCthIb5ZKyHczLJWomwolK73UHA9R2v/s1600/facebook_1525608602750.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="917" data-original-width="720" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEghgwJh5taDoBNLlsC3x4UxgxeUoo0ykicQgETP-rOV2OXstEDDeRVhS-1z6Ynb9ozDHuNcIg6v7p7UZD25qVDhRHI3nZSEpvvFKwKxAnHI-UL3bDCthIb5ZKyHczLJWomwolK73UHA9R2v/s320/facebook_1525608602750.jpg" width="251" /></a></div>
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<span style="color: red;"><br /></span>
<span style="color: red;">(बाल वाटिका, मार्च 2018 में प्रकाशित आलेख)</span></div>
</div>
डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-61914886375020700522018-05-02T17:57:00.007-07:002021-05-22T09:08:07.589-07:00समीक्षा : बाल साहित्य के पहले इतिहास का संशोधित संस्करण : बालगीत साहित्य (निरंकार देव सेवक) <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="MsoNormal" style="background: white; line-height: normal; text-align: right; vertical-align: top;"><br /></div><div dir="auto"><b style="background-color: white;"><span> </span>निरंकार देव सेवक लिखित <span style="color: red;">बाल गीत साहित्य इतिहास और समीक्षा </span>अकेला ऐसा ग्रंथ है जो तीन बार अलग-अलग कलेवर में संशोधित-सम्पादित होकर छपा।</b></div>
<div dir="auto">
<b style="background-color: white;"><span style="color: blue;"><span> </span>1966 में सर्वप्रथम इसका प्रकाशन</span> किताब महल, इलाहबाद से हुआ था। इसके पश्चात ही बाल साहित्य में पी-एच.डी. और समीक्षा स्तर के कार्यों की शुरुआत हुई। सेवक जी के इस ग्रंथ में अन्य भाषाओं में रचित बाल साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया गया था और बड़ी बात यह कि पूरी निष्पक्षता के साथ कवियों और उनकी रचनाओं की चर्चा की गयी। </b></div>
<div dir="auto"><b style="background-color: white;">
<span> </span>कालांतर में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से प्रकाशित संशोधित संस्करण <span style="color: blue;"> (1983) में</span> तो कवियों के दुर्लभ चित्र भी उपलब्ध हैं। ग्रन्थ में इतिहास के लिए अपेक्षित सन्दर्भ ग्रंथों का भी ईमानदारी से उल्लेख्य किया गया है। </b></div>
<div class="MsoNormal" style="background-attachment: initial; background-clip: initial; background-image: initial; background-origin: initial; background-position: initial; background-repeat: initial; background-size: initial; line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<b style="background-color: white;"><span class="im" face=""arial" , sans-serif" style="color: #500050;"></span></b></div>
<div dir="auto" style="font-family: arial, sans-serif;"><b><span><span style="background-color: white; color: #222222;"> </span><span style="background-color: #fcff01; color: red;">तृतीय संस्करण 2013 में </span></span><span style="background-color: #fcff01; color: red;">डॉ. उषा यादव के सम्पादन में <span>उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से ही </span>आया है, जिसकी समीक्षा यहाँ प्रस्तुत है :-</span></b></div>
<br />
<div class="MsoNormal">
<o:p></o:p></div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiMz30tiOxFT9jOOp4Ya9h8yzuDjp8P1rg30G7OmLD_BBeMRggPyKnuxx9iwkg2baZMphHN2ipOor_Bgc5p-vJz7-Q6n-ZOYU3YqpFGLcY7805xJi6fu-lQiDdW4JkY8Q5f61mreQU9OdV0/s1600/New+Doc+2018-05-02+%25284%2529_1.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1061" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiMz30tiOxFT9jOOp4Ya9h8yzuDjp8P1rg30G7OmLD_BBeMRggPyKnuxx9iwkg2baZMphHN2ipOor_Bgc5p-vJz7-Q6n-ZOYU3YqpFGLcY7805xJi6fu-lQiDdW4JkY8Q5f61mreQU9OdV0/s320/New+Doc+2018-05-02+%25284%2529_1.jpg" width="212" /></a><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiMz30tiOxFT9jOOp4Ya9h8yzuDjp8P1rg30G7OmLD_BBeMRggPyKnuxx9iwkg2baZMphHN2ipOor_Bgc5p-vJz7-Q6n-ZOYU3YqpFGLcY7805xJi6fu-lQiDdW4JkY8Q5f61mreQU9OdV0/s1600/New+Doc+2018-05-02+%25284%2529_1.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><b style="color: red; text-align: left;"><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;"><br /></span></b></a><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiMz30tiOxFT9jOOp4Ya9h8yzuDjp8P1rg30G7OmLD_BBeMRggPyKnuxx9iwkg2baZMphHN2ipOor_Bgc5p-vJz7-Q6n-ZOYU3YqpFGLcY7805xJi6fu-lQiDdW4JkY8Q5f61mreQU9OdV0/s1600/New+Doc+2018-05-02+%25284%2529_1.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><br /></a></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;"><span style="color: red;"><b><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">पुस्तक : </span></b></span><b style="background-color: white;"><span style="color: red;">बाल गीत साहित्य इतिहास और समीक्षा</span></b></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<span style="color: red;"><b><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">लेखक:
निरंकार देव सेवक</span><span style="font-family: "times new roman" , serif;">,
</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">संपादक:
प्रो. उषा यादव</span><span style="font-family: "times new roman" , serif;"><o:p></o:p></span></b></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<span style="color: red;"><b><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">प्रकाशक
: उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान</span><span style="font-family: "times new roman" , serif;">, <o:p></o:p></span></b></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<span style="color: red;"><b><span style="font-family: "times new roman" , serif;">6,
</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">महात्मा
गांधी मार्ग</span><span style="font-family: "times new roman" , serif;">,
</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">लखनऊ-</span><span style="font-family: "times new roman" , serif;">226001 (0522-2614470,2614471)<o:p></o:p></span></b></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<span style="color: red;"><b><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">संस्करण
(संशोधित) </span><span style="font-family: "times new roman" , serif;">2013 <o:p></o:p></span></b></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<span style="color: red;"><b><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">मूल्य:
</span><span style="font-family: "times new roman" , serif;">245
</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">रुपये</span><span style="font-family: "times new roman" , serif;">, <o:p></o:p></span></b></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<span style="color: red;"><b><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">समीक्षकः
डा. नागेश पांडेय </span><span style="font-family: "times new roman" , serif;">‘</span><span lang="HI" style="font-family: "mangal" , serif;">संजय</span></b></span><span style="font-family: "times new roman" , serif;"><span style="color: red;"><b>‘</b></span><span style="color: #222222;"><o:p></o:p></span></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">हिंदी
में बाल-साहित्य आलोचना की परंपरा को लगभग सात दशकों का समय व्यतीत हो चुका है। इस
कालावधि में बाल साहित्य और उसके विविध पक्षों पर बहुत महत्त्वपूर्ण कृतियां और
शोध प्रबंध लिखे गए हैं। इधर कुछ वर्षों में तो बालसाहित्य की ढेरों समीक्षा
पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं और इनसे बाल साहित्य का मानवर्द्धन हुआ है किंतु जब
ध्यान जब एकदम शुरुआत की तरफ जाता है तो निःसंदेह निरंकार देव सेवक किसी देवदूत की
तरह नजर आते हैं जिन्होंने उस जमाने में</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">जबकि बाल साहित्य पर आधार सामग्री थी ही नहीं
या थोड़ा बहुत यदि कुछ था भी तो न के बराबर</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">ऐसे में </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">1966 </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">में किताब महल</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">इलाहाबाद से प्रकाशित अनेक राहों को खोजता और
बनाता ग्रंथ </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">‘</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">बालगीत साहित्य</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">’ </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">लिखा जो परवर्ती बाल साहित्य लेखकों तथा
समीक्षकों के लिए प्रकाश स्तंभ सिद्ध हुआ है। विभिन्न परंपराओं का सूत्रपात करने
की दृष्टि से इस बेजोड़ ग्रंथ की कालजयी महत्ता है। बाल साहित्य में तात्विक
समीक्षा का कार्य हो या इतिहास-लेखन</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">शोध-कार्य हो या तुलनात्मक अध्ययन</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">इन सभी के मूल में सेवक जी का ग्रंथ ही
आधार-रूप में विद्यमान रहा है।</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">1966
</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">में
जबकि कृष्ण विनायक फड़के की पुस्तक </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">‘</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">बालदर्शन</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">’ (1946), </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">श्रीमती ज्योत्स्ना द्विवेदी की कृति </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">‘</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">हिंदी किशोर साहित्य</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">’ (1952) </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">और डाॅ. देवेंद्रदत्त
तिवारी द्वारा संपादित </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">‘</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">बाल साहित्य की मान्यताएं
एवं आदर्श</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">’
(1962) </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">के
सिवाय कोई और समीक्षा कृति थी ही नहीं</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">ऐसे में उन्होंने बाल साहित्य की महत्वपूर्ण
विधा कविता के स्वरूप और प्रयोजन की चर्चा करते हुए उसके मूल्यांकन की दिशा में
अपनी तरह का यह पहला काम किया।</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"> <table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiSSumdqPlf4rIV_xcthcS7oCcDs48DtR67r2TNsQdeuL8J5eUhfHvdz2FKZ2RgyWZXQDM8i08Z4_TI8FKY_XnB_FxwLNbfX26IbVX8wDbNGtfciGzvJrqcOQkMfPG3CvydeuA0BNOYaLMx/s1600/New+Doc+2018-05-02_1.jpg" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1050" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiSSumdqPlf4rIV_xcthcS7oCcDs48DtR67r2TNsQdeuL8J5eUhfHvdz2FKZ2RgyWZXQDM8i08Z4_TI8FKY_XnB_FxwLNbfX26IbVX8wDbNGtfciGzvJrqcOQkMfPG3CvydeuA0BNOYaLMx/s320/New+Doc+2018-05-02_1.jpg" width="210" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"><span style="color: red;">प्रथम संस्करण 1966 </span></td></tr>
</tbody></table>
<o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">
</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">सेवक
जी की इस कृति से केवल बाल साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में ही नहीं</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">वरन् विश्वविद्यालयों में भी बाल साहित्य
आलोचना तथा अनुसंधान की दिशा में संभावनाओं का सूत्रपात हुआ। प्रारंभिक बाल
साहित्य शोधार्थियों के लिए यह कृति गहन अंधकार में प्रखर प्रकाश जैसी सिद्ध हुई।
वर्तमान शोधार्थियों तथा समीक्षकों हेतु भी यह कृति एक अपरिहार्य संदर्भ ग्रंथ की
भांति अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए है।</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"> <o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">किसी
भी पी-एच.डी. स्तर के शोध से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण इस ग्रंथ की पांडुलिपि को
देखकर उनके एक मित्र ने कहा भी था- </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">‘</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">यह तुमने बिल्कुल नए विषय पर इतना काम किया
है। इस पर तो तुम्हें किसी विश्वविद्यालय से डाॅक्टरेट मिल सकती है। सेवक जी ने
उक्त प्रसंग को हँसकर टाल दिया था।</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"> <o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">फिलहाल
उनकी कृति ने हिंदी बाल साहित्य में आलोचना और अनुसंधान को दिशा दी और बहुतों को </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">‘</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">डाक्टरेट</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">’ </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">की उपाधि मिली।</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<br /></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">सेवक
जी की कृति बालगीत साहित्य बाल साहित्य के क्षेत्र में एक ऐसी अनोखी और अकेली
किताब है जो अब तक तीन बार अलग-अलग रुप और अंदाज में प्रकाशित हो चुकी है। <table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; margin-right: 1em; text-align: left;"><tbody>
<tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhEF6YYmPgQ2Cn9KE8JFM6q-z1jRDFayZTjUM3clDK-hoRNZ-ucsjb43sVWQxx1Y4E7jxi9N0rZdDqOf0PIRRrdTTIdfcZGvy1amFYBl4OKaA59SNBq3zw3KtNy8FtD6Q4-YlTtR9G6nBAK/s1600/New+Doc+2018-05-02+%25281%2529_5.jpg" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1600" data-original-width="1075" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhEF6YYmPgQ2Cn9KE8JFM6q-z1jRDFayZTjUM3clDK-hoRNZ-ucsjb43sVWQxx1Y4E7jxi9N0rZdDqOf0PIRRrdTTIdfcZGvy1amFYBl4OKaA59SNBq3zw3KtNy8FtD6Q4-YlTtR9G6nBAK/s320/New+Doc+2018-05-02+%25281%2529_5.jpg" width="214" /></a></td></tr>
<tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;">संशोधित संस्करण (1983)</td></tr>
</tbody></table>
दूसरी
बार यह कृति </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">1983
</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">में
बालगीत साहित्य: इतिहास एवं समीक्षा नाम से स्वयं सेवक जी के द्वारा ही संशोधित और
परिवर्द्धित होकर उ.प्र. हिंदी संस्थान से प्रकाशित हुई थी. </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">खास
बात यह कि इस संशोधित और परिवर्द्धित संस्करण में प्रो. उषा यादव ने भरपूर श्रम
किया है और इस ग्रंथ को अद्यतन बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">इसके बाद भी पुस्तक की मूल भावना या संवेदना
कहीं पर से प्रभावित नहीं हुई है। बड़ी बात यह भी कि उषा</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">जी ने बिना किसी
पूर्वाग्रह या पक्षपात के उच्चकोटि की बाल कविताओं को ससम्मान उद्धृत किया है</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">वहीं बाल कविताओं के नाम पर खिलबाड़ जैसी लचर
रचनाओं को आड़े हाथों लेकर अभूतपूर्व साहस का परिचय भी दिया है।</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"> </span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">प्रो.
उषा यादव द्वारा संपादित यह ग्रंथ </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">524 </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">पृष्ठों में कुल </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">14 </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">अध्याय स्वयं में समेटे है जो कि इस प्रकार
हैं-</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">1.
</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">बाल
स्वभव </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">2.
</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">बडों
की कविता और बाल गीत </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">3.
</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">अलिखित
बालगीत </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">4.
</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">शिशु
गीत साहित्य </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">5.
</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">चांद
तारों के बाल गीत </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">6.
</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">लोरियां</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">प्रभाती और पालने के गीत </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">7. </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">हिंदी बालगीतो</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">का वर्गीकरण </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">8. </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">हिंदी बालगीत साहित्य के इतिहास की भूमिका </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">9. </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">हिंदी बालगीत साहित्य का इतिहास </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">10. </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">हिंदी के राष्ट्रीय बालगीत </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">11. </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">बालगीतो की शिक्षा एवं रचना</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">शिक्षा </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">12. </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">लोकगीतों में बालगीत </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">13. </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">हिंदी और अंग्रेजी बालगीत </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">14. </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">भारती भाषाओं में बालगीत साहित्य</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"> <o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">उपर्युक्त
अध्यायों के शीर्षकों से एक बात मोेटे तौर पर स्पष्ट हो जाती है कि बाल कविता के
समूचे परिदृश्य को संजीदगी से समझनें के लिए यह एक बहुत ही जरुरी पुस्तक है। सेवक
जी एक ऐसे समर्थ रचनाकार थे जिनकी कविताएं स्वयं मानक हैं। उनके कथन परिभाषा हैं।
वे मानते थे कि बाल साहित्य बच्चों के मनोभावों</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">जिज्ञासाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो। जो
बच्चों का मनोरंजन कर सके और</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">मनोरंजन भी वह जो स्वस्थ और स्वाभाविक हो। जो
बच्चों को बड़ों जैसा बनाने के लिए नहीं</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">बल्कि उन्हें अपने अनुसार-अपने जैसा बनाने
में सहायक हो।</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"><o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">उनकी
सोच व्यापक थी</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">,
</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">यही
कारण है कि उक्त ग्रंथ की रचना करते समय उन्होंने बाल कविता के विस्तृत फलक को
अपने अध्ययन का विषय बनाया। कविताओं की चर्चा करते समय किसी मित्रवाद या
क्षेत्रवाद के वशीभूत नहीं हुए। न जाने कितने लोंगों से पत्राचार किया। दिग्गज से
दिग्गज</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">,
</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">नए
से नए और गुमनाम: सभी से उनका</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">संपर्क था। इसीलिए चाहे बालक अमिताभ बच्चन के
लिए उनके कवि पिता हरिवंश</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">
</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">राय
द्वारा बाल कविता लिखने की बात हो या स्वर्ण सहोदर की प्रकाशन समस्या की पीड़ा। सब
कुछ उनकी किताब में सहज मुखरित हुआ। यही कारण था कि उनकी यह कृति केवल बाल कविताओं
का ही नहीं</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">,
</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">बाल
कवियों के अनुभवों और रचना प्रक्रिया का भी दस्तावेज बनी।</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"> <o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">बता दें कि सेवक जी द्वारा
पुनर्प्रस्तुत तथा संस्थान से </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">1983 </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">में प्रकाशित संस्करण में </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">17 </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">अध्याय थे लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि नए
संस्करण में उषा जी ने किसी अध्याय को समाप्त किया गया हो। हां</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">आवश्यकतानुसार उन्हें कम-ज्यादा अवश्य</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">किया गया है। जैसे सेवक जी
ने सूरदास पर अलग से सातवां अध्याय लिखा था जिसे उषा जी ने आठवें अध्याय में बहुत
ही संक्षेप में लिया है। ऐसे ही सेवक जी ने बालगीतो की</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">शिक्षा और बालगीत रचना
शिक्षा दो अलग अध्याय शामिल किए थे जिन्हें उषा जी ने एक ही अध्याय में समाहित कर
दिया है। सेवक जी द्वारा अंग्रेजी की तरह बंगाली बालगीत पर भी अलग से अध्याय था
किंतु उषा जी ने इसे अंतिम अध्याय भारती भाषाओं में बालगीत साहित्य में स्थान दिया
है। साथ ही पूर्णता की दृष्टि से राजस्थानी</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">वोडो</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">मणिपुरी</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">कोंकणी के बालगीतों पर भी यथासंभव चर्चा की
है।</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"> <o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">हां</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">एक प्रश्न बार-बार</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">अवश्य</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"> </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">मन में कौंधता है कि
द्वितीय संस्करण की भांति इस बार कवियों के दुर्लभ चित्रों को प्रकाशित क्यों नहीं
किया गया </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">?
</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">क्योंकि
सेवक जी के जमाने में</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">,
</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">जबकि
आफसेट प्रिंटिग की व्यवस्था नहीं थी</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">तब कितनी कठिनाइयों के साथ कवियों के चित्र
एकत्र किए गए होंगे। उनके ब्लाक बनवाए गए होंगे। अब तो यह सब सहज संभव है। गए और
नए जमाने के कवियों के चित्रों को एक स्थान पर देखना पाठकों के लिए प्रभावकारी तो
होता ही</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">,
</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">यह
ग्रंथ पहले की भांति एक सचित्र कोश का भी काम करता। एक बात और ग्रंथ को अद्यतन
बनाने की कोशिस में संपादक ने कदाचित लेखकों से उनके बायोडाटा मंगाकर भी काम चलाया
होगा या किसी परिचय कोश का सहारा लिया होगा</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">, </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">जो कि स्वाभाविक था किंतु इससे कुछ एक कवियों
के बारे में भ्रामक सूचनाएं संकलित हो गई हैं। जैसे एक कवि ने कई बाल कवियों के
संकलन </span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">'</span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">मूछे ताने पहुचे थाने</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;">' </span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">को अपनी ही निजी पुस्तक बता दिया है। निश्चय
ही इस दिशा में अतिरिक्त सतर्कता अपेक्षित थी।</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"> <o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">बहरहाल
अमीर खुसरो से लेकर भारतेंदु और फिर स्वतंत्रता से पूर्व तथा पश्चात की बाल
कविताओं का यह श्रमसाध्य इतिहास अनुपमेय है। प्रो. उषा यादव की आधुनिक समीक्षा
दृष्टि ने पुनः इसे एक लंबे समय के लिए संग्रहणीय और पठनीय बना दिया है। बाल
साहित्य को ऐसी अनमोल कृति देने वाले सेवक जी की पुण्यात्मा को बारंबार नमन करते
हुए सफल संपादक प्रो. उषा यादव के साथ-साथ संशोधित संस्करण के प्रकाशन हेतु उ.प्र. हिंदी
संस्थान को भी हार्दिक बधाई।</span><span style="color: #222222; font-family: "times new roman" , serif;"> <o:p></o:p></span></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;">
<b><span style="font-size: large;"><a href="http://www.nageshpandeysanjay.blogspot.com/"><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">समीक्षकः
डा. नागेश पांडेय </span><span lang="HI" style="color: #222222;"><span style="font-family: "times new roman" , serif;">'</span></span><span lang="HI" style="color: #222222; font-family: "mangal" , serif;">संजय</span></a>'</span></b></div><div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;"><b><span><span><span style="font-size: x-small;"> (यह समीक्षा बाल वाटिका,मासिक, जून 2014 के पृष्ठ :51 पर प्रकाशित हुई थी।)</span><br /><table cellpadding="0" cellspacing="0" class="tr-caption-container" style="float: left; font-family: "times new roman", serif; font-size: x-large;"><tbody><tr><td style="text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiljxqNyyQnNcaxW2z2NTuBrIbPu4b65KhMs34ykzoTz9apJMwSnxVq_xsqRmEAn4bTcs-bhDsqtz7_g-MrUuCxBTn67uflHu6yAxks-8A3LMtxAUmDxPvXAdD520_vDgKHFJbMYJ4fo7m2/s1409/120.jpg" style="clear: left; margin-bottom: 1em; margin-left: auto; margin-right: auto;"><img border="0" data-original-height="1409" data-original-width="1080" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiljxqNyyQnNcaxW2z2NTuBrIbPu4b65KhMs34ykzoTz9apJMwSnxVq_xsqRmEAn4bTcs-bhDsqtz7_g-MrUuCxBTn67uflHu6yAxks-8A3LMtxAUmDxPvXAdD520_vDgKHFJbMYJ4fo7m2/w245-h320/120.jpg" width="245" /></a></td></tr><tr><td class="tr-caption" style="text-align: center;"></td></tr></tbody></table></span></span></b></div>
<div class="MsoNormal" style="line-height: normal; margin-bottom: 0in;"><br /></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjN6GWSj2aDbyWEZEBdxD3XhdOoocx2aGSyAAFibGEq9nMfSCud84m1RCJWwidp9UfdYIAbtmJnl88M2byaRmkiQ3YSUWomG8ZByxYFZcqo4G9SYiLliIYmEAu5tZ0U-wt4qdUMUgjvxRgg/s1313/120120.jpg" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="1313" data-original-width="1080" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjN6GWSj2aDbyWEZEBdxD3XhdOoocx2aGSyAAFibGEq9nMfSCud84m1RCJWwidp9UfdYIAbtmJnl88M2byaRmkiQ3YSUWomG8ZByxYFZcqo4G9SYiLliIYmEAu5tZ0U-wt4qdUMUgjvxRgg/w164-h200/120120.jpg" width="164" /></a></div><br /><span style="color: red; font-size: large;"><br /></span><div dir="auto" style="font-family: arial, sans-serif;"><br /></div>
</div>
डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com8tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-14825681904712246452018-05-01T10:54:00.000-07:002018-05-01T10:54:05.823-07:00नयी पुस्तक : 'बिहार का हिंदी बाल साहित्य' <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px;">
नयी पुस्तक : 'बिहार का हिंदी बाल साहित्य'<br />लेखक : डॉ. दिनेश प्रसाद साह(08409813802)<br />प्रकाशक : शब्द प्रकाशन,ए25, गणेश नगर, नई दिल्ली-92<br />मूल्य : 550/-</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
*************************</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKcMyDROMF2AWL8fV0iBfzhKKxhqp_4PfyJY9UpaKxieegQN-A6LMg4lJNYROOqTdYC2UmkNxwpeUJtp4AX3eGdcLHhnD8zBqpH7FEpHyJXB2nZ0D6Ia6e7U81zRZhmf3I3InG50DoMRt0/s1600/31662186_1680176565395382_9201223126732505088_n.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" data-original-height="960" data-original-width="567" height="400" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjKcMyDROMF2AWL8fV0iBfzhKKxhqp_4PfyJY9UpaKxieegQN-A6LMg4lJNYROOqTdYC2UmkNxwpeUJtp4AX3eGdcLHhnD8zBqpH7FEpHyJXB2nZ0D6Ia6e7U81zRZhmf3I3InG50DoMRt0/s400/31662186_1680176565395382_9201223126732505088_n.jpg" width="236" /></a></div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
<br />असीम सम्भावनाओं का उदघोष<br />- डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'<br />**************************<br />बिहार का नाम आते ही साहित्य के आकाश में जो नाम देदीप्यमान नक्षत्रों की तरह अपनी अदम्य आभा से युक्त उपस्थिति का आभास कराते हैं, वे हैं रामधारी सिंह 'दिनकर', आरसी प्रसाद सिंह, गोपाल सिंह नेपाली, विष्णुकांत पांडेय, रामवचन सिंह आनन्द, राजनारायण चौधरी और भगवतीप्रसाद द्विवेदी। बिहार में बाल साहित्य के इन सप्त ऋषियों से हिंदी साहित्य का भाल उन्नत हुआ है और हर वह व्यक्ति जो बाल साहित्य से अनुराग रखता है, इनकी तपश्चर्या से गर्वोन्नत है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
बिहार में बाल साहित्य की साधना करनेवाले मनीषियों की सूची विस्तृत है। उनका प्रदेय अद्भुत है। उनका अवदान स्तुत्य है। उनकी भूमिका इतिहास का निर्माण करने की सामर्थ्य रखती है लेकिन इसे विडम्बना ही कहेंगे कि बाल साहित्य के क्षेत्र में बिहार के अविस्मरणीय योगदान को रेखांकित करता कोई ग्रन्थ अभी तक तक प्रतीक्षित ही था। यद्यपि इस संदर्भ में 'बाल हंस" पत्रिका के सम्पादक अनन्त कुशवाहा का सहज स्मरण स्वाभाविक है जिन्होंने वर्षों पूर्व अँधेरे में प्रकाश की किरण जैसा एक कार्य निष्पादित किया था। उन्होंने बिहार में रचे जा रहे उत्कृष्ट बाल साहित्य की बाँकी-बाँकी झाँकी प्रस्तुत करने के लिए 'बाल हंस' का एक विशेषांक ही प्रकाशित कर दिया था। जिसकी बड़ी प्रशंसा हुई थी। हिंदी बाल साहित्य के क्षेत्र में बिहार की उल्लेखनीय भूमिका रेखांकित करने की दृष्टि से वह सृष्टि अनुपमेय थी और इस बहाने बिहार में रचे जा रहे बालसाहित्य की अलक-झलक से कितने ही सुधी चातकों को तब स्वाति बूंद-सा अनुपमेय सुख मिला होगा, आज इसकी कल्पना कितनी सुखकर है !</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
डॉ. दिनेश प्रसाद साह की सराहना की जानी चाहिए; ..और एक बार नहीं, हजार बार, बार-बार की जानी चाहिए, जिनके अपूर्व उत्साह, अनथक प्रयत्न और अद्भुत समर्पण के फलस्वरूप बिहार के बालसाहित्यिक अवदान पर एक महत कार्य सम्पन्न हो सका। बिहार का हिंदी बाल साहित्य : सीमाएं एवं संभावनाएं एक गवेषणात्मक शोध है और आद्यांत डॉ. दिनेश जी की तत्वभिनिवेशी दृष्टि ने इसे स्थायी महत्ता प्रदान की है। इतनी दुर्लभ सामग्री उन्होंने संजो ली है कि बाल साहित्य के अधिकारी विद्वानों को भी अचरज होना स्वाभाविक है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
बाल साहित्य पर अनुसन्धान का सबसे बड़ा संकट ही यही है कि आधार सामग्री की अनुपलब्धता और उसके अप्राप्य होने की परिस्थितियों से प्रायः शोधकर्ता सरल-सहज और व्यक्ति विशेष के कृतित्व पर केंद्रित शोधकार्य में ही रूचि लेते हैं। हिंदी बाल साहित्य में ऐसे ही शोधों की भरमार है। दो सौ से अधिक शोध हो चुके होंगे लेकिन अधिकांश में गुणवत्ता का अभाव है। यही कारण है कि बाल साहित्य पर सम्पन्न ऐसे शोध भले ही उपाधि का माध्यम या व्यक्ति विशेष की संतुष्टि का कारण भले ही बनते हों लेकिन उनका कोई स्थायी महत्व नहीं होता।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
व्यापक फलक को समेटे डॉ. दिनेश प्रसाद साह की स्थायी महत्व वाली इस शोध कृति का अध्ययन करते हुए मन बहुत भावुक हुआ है। किस तरह से उन्होंने अतीत की अँधेरी गुफाओं में यत्र-तत्र बिखरी सामग्री को एकत्र कर उसका सम्यक अनुशीलन किया है और इस प्रकार अनेक बाल साहित्य सेवियों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि ही नहीं अर्पित की है वरन उनका तर्पण भी किया है। ...और सच कहूं तो उन्हें जैसे पुनर्जन्म दिया है। भूले-बिसरे लेखकों की भी अनूठी सन्दर्भ रचनाओं का इस तरह एक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत हो जाना हिंदी बाल साहित्य के लिए बड़ी उपलब्धि तो है ही, बिहार के लिए भी गौरव का विषय है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
डॉ. दिनेश प्रसाद ने सामयिक सृजन पर भी पैनी दृष्टि रखते हुए प्रतिष्ठित और उदीयमान सभी रचनाधर्मियों के कृतित्व का समादर किया है।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
बिहार से पूर्व छत्तीसगढ़, कानपुर, हरियाणा, रुहेलखण्ड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड आदि क्षेत्रों के बालसाहित्य पर भी शोधकार्य हो चुके हैं। अन्य राज्यों में भी ऐसे कार्यों के लिए असीम संभावनाओं के द्वार अभी खुले हैं। आशा की जानी चाहिए कि डॉ. दिनेश प्रसाद साह के इस प्रदेय से प्रेरणा का एक नया परिवेश निर्मित हो सकेगा। बाल साहित्य के उज्ज्वल भविष्य के प्रति आश्वस्त करते उनके इस उदघोष की मैं सराहना करता हूँ।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-bottom: 6px; margin-top: 6px;">
कामना करता हूँ कि बिहार के बाल साहित्य का ऐतिहासिक विवेचन प्रस्तुत करती यह कृति खूब लोकप्रिय हो। हिंदी बाल साहित्य के जिज्ञासुओं हेतु एक अमोल उपहार भेंट करने के लिए डॉ. दिनेश प्रसाद साह को <span class="_ezo" id="u_0_x" style="color: #f1765e; cursor: pointer; font-family: inherit; font-weight: bold;">बधाई</span>, बार-बार <span class="_ezo" id="u_0_y" style="color: #f1765e; cursor: pointer; font-family: inherit; font-weight: bold;">बधाई</span>।</div>
<div style="background-color: white; color: #1d2129; display: inline; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; margin-top: 6px;">
<a class="profileLink" data-hovercard-prefer-more-content-show="1" data-hovercard="/ajax/hovercard/user.php?id=100002091638048&extragetparams=%7B%22fref%22%3A%22mentions%22%7D" href="https://www.facebook.com/nageshpandey.sanjay?fref=mentions" style="color: #365899; cursor: pointer; font-family: inherit; text-decoration-line: none;">डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'</a></div>
</div>
डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-71944976444158123022017-05-06T10:32:00.000-07:002017-05-06T11:20:49.396-07:00संस्मरण- मनोहर वर्मा: यादे और बस यादें... - डॉ. नागेश पांडेय ‘संजय’<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRZBlnSRAgaSkGEH3ZRqrqyFB9WgjWjk-MlokQFowx65ydibOCgG2L2Zg2H_SpMjHAORFWhjxTLzdnbqmn2XVyIUHQHXJPdVYrZLFn2e8jPIhehxD5tHzih4v05s4DH7AybqRnDnYWGv47/s1600/Np+manohr.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="300" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiRZBlnSRAgaSkGEH3ZRqrqyFB9WgjWjk-MlokQFowx65ydibOCgG2L2Zg2H_SpMjHAORFWhjxTLzdnbqmn2XVyIUHQHXJPdVYrZLFn2e8jPIhehxD5tHzih4v05s4DH7AybqRnDnYWGv47/s400/Np+manohr.jpg" width="400" /></a></div>
बात 1990 की है। बालहंस में एक साथ मेरी दो कहानियां बहन मिल गई और पिंकी बदल गई स्वीकृत हुईं थीं। स्वीकृति पत्र पर सहयोगी संपादक मनोहर वर्मा के हस्ताक्षर थे। बालहंस की उन दिनों अलग ही धज थी। माह में दो अंक आते थे और आए दिन अलग-अलग विधाओं की रचनाओं पर विषेषांक केवल यहीं सुलभ थे। यही नहीं, उन दिनों सृजन विषेषांक के रूप में तो विभिन्न राज्यों के बालसाहित्य पर क्या खूब संग्रहणीय ऐतिहासिक अंक प्रकाषित हुए। किसी व्यावसायिक पत्रिका द्वारा बालसाहित्य पर ऐसा दृष्टिपरक काम कहीं और आज तक देखने को नहीं मिला।<br />
बालहंस में उन दिनों उत्कृष्ट बालसाहित्य लेखन हेतु बालसाहित्यकारों के लिए आए दिन प्रतियोगिताएं भी होती थीं। षिखर स्तंभ में बालसाहित्यकार पर कई पृष्ठों का आलेख छपता था। जीवन भर बालसाहित्य के नाम पर काम करने वाले जाने कितने सर्जक कितना चुपचाप इस दुनियां को अलविदा कह देते हैं और पत्रिकाओं में उन पर दो पंक्तियां भी नहीं छपतीं। कोई बाल साहित्यकार नहीं रहा तो उस पर एक पन्ने का आलेख भी बालहंस के अंतिम पृष्ठ पर प्रकाषित होता था। बालहंस बालसाहित्य की प्रयोगधर्मी पत्रिका थी। ...और इसे प्रयोगधर्मी पत्रिका बनाने का श्रेय कुषल संपादको की युगल जोड़ी को था। अनंत कुषवाहा संपादक थे और मनोहर वर्मा सहयोगी संपादक। वर्मा जी 1986 से 1992 तक बाल हंस के सहयोगी संपादक रहे। वे प्रायः अजमेर से जयपुर की प्रतिदिन की यात्रा तय कर बाल साहित्य के पथ को प्रषस्त कर रहे थे। मैं कई बार सोचता हूं कि कोई भी बाल पत्रिका निष्चय ही तब प्रयोगों का कारखाना बन जाती है जब उसके संपादन मंडल में कोई समर्थ बाल साहित्यकार भी हो।<br />
वर्मा जी से मैं पहली बार लखनऊ में 1995 में मिला था। उत्तर प्रदेष हिंदी संस्थान, लखनऊ से उनको अमृतलाल नागर बाल कथा सम्मान दिया जाना था। उन दिनों बालसाहित्य के सम्मानों में लेखक के लिए प्रादेषिक बंधन नहीं था। मैं चैधरी लाज में उनसे मिला। सारे बाल साहित्यकार वहीं ठहराए गए थे। मैं कमरे-कमरे जाकर बाल साहित्यकारों को अपनी पुस्तक नेहा ने माफी मांगी भेंट करने का सुख प्राप्त कर रहा था। मनोहर जी के कमरे में गया तो वे आराम की मुद्रा में बैठे थे। काया दुबली पतली किंतु आकर्षक। चेहरे पर जितना ओज, उतनी ही विनम्रता। आंखों में जैसे कुछ खोजने की ललक। बात करते-करते सिर का ऊपर उठ जाना या कहें कि चिंतन की मुद्रा में चले जाना उनकी फितरत थी और ऐसा तब महसूसा जब आगे भी उनसे मुलाकातें होती रहीं। तो पहली ही भेंट में मैं साहब का दीवाना हो गया। वह इसलिए भी कि अरे! यही वह षख्स हैं जिनकी (उन दिनों) सौ के लगभग पुस्तकें प्रकाषित हो चुकी हैं। (अब तो यह संख्या दो सौ के पार होगी।)<br />
यही वह षख्स हैं जिन्हांेने बाल साहित्य के आकलन के लिए साठ के दषक में प्रष्नावलियां तैयार कीं। उनके आधार पर सिद्धांत बनाए।<br />
यही वह षख्स हैं जिन्होंने पहली बार बाल बुक बैंक योजना के अंतर्गत पुस्तकों का संपादन किया।<br />
यही वह षख्स हैं जिन्होने बाल साहित्य में पहली बार जुलाई-अगस्त,1967 में मधुमती के भारतीय बाल साहित्य विवेचन विषेषांक का अतिथि संपादन किया था और 418 पृष्ठों में फैले उस विषेषांक जैसी समग्रता वाला कोई दूसरा विषेषांक फिर नहीं आया। .<br />
वाकई, मैं हतप्रभ था। श्रद्धावनत था। मेरा रोम-रोम पुलकित था कि बालसाहित्य के किसी देवता के पास बैठा हूं। दरअसल ऐसे महानुभाव किसी देव से कम नहीं होते और उनकी कर्मस्थली किसी तीर्थ से बढ़कर होती है।<br />
वर्मा जी भेंट की हुई मेरी पुस्तक नेहा ने माफी मांगी में तल्लीन थे। उसके पन्ने पलट रहे थे। अचानक बोले-‘ये कहानी तो हमने बालहंस में छापी थी। पर इसका...?’<br />
‘हां, इसका षीर्षक मैंने बदल दिया है, आपने कहानी छापी थी-पिंकी बदल गई और मैंने अब इसका नाम रख दिया है देखा तो चैंकी।’ फिर जब मैंने यह बताया कि इस संकलन की सारी कहानियों के षीर्षक जब आप एक साथ पढ़ेंगे तो पूरा एक वाक्य बन जाएगा। उन्होंने पढ़कर देखा तो खुष हुए। बोले-‘बाल साहित्य में प्रयोगों की अपार संभावनाएं हैं।’<br />
तब तक राष्ट्रबंधु जी की धमाकेदार आवाज ने हमें चैंका दिया। कमरे में घुसते ही वे मनोहर जी से बोले-‘भाई साहब मैं आपसे बहुत नाराज हूं।’<br />
‘भला क्यों ?’ बेचारे वर्मा जी तो एकदम गंभीर हो गए।<br />
राष्ट्रबंधु जी बोले- ‘भाई, आपने हमें बालसाहित्य का हनुमान क्यों लिख दिया? यह तो हो ही नहीं सकता। मैं तो उनकी पूजा करता हूं।’ फिर वे मेरी तरफ मुखातिब होते हुए कहने लगे- ‘और देखिए, एक ये हैं नागेष, इन्हांेने भी तो आपके समर्थन में मुझ पर लिखे एक आलेख का षीर्षक ही रख दिया है -बाल साहित्य के हनुमान: राष्ट्रबंधु।’<br />
कोलकाता से एक ग्रंथ छपा था ‘षंभूप्रसाद श्रीवास्तव व्यक्तित्व कृतित्व।’ उसमें मनोहर जी ने अपने एक आलेख में राष्ट्रबंधु जी को बाल साहित्य का हनुमान लिखा था। उन दिनों राष्ट्रबंधु जी पर भी एक ग्रंथ प्रकाष्य था। उसके लिए जब मैंने आलेख लिखा तो मनोहर जी के कथित आलेख से प्रभावित होकर उनका संदर्भ देते हुए यही षीर्षक रख दिया था। खैर...बाद में कई अन्य साहित्यकार भी कमरे में आ गए। सभी कहते रहे, आप तो हनुमान की तरह ही बालकाज कीन्हें बिना, मोंहि कहां विश्राम के भाव से लगे हैं। लेकिन राष्ट्रबंधु जी न माने। साफ षब्दों में बोले - ‘यह नहीं हो सकता।’<br />
बाद में उन्होंने 1996 में प्रकाषित उस ग्रंथ में मेरे उक्त आलेख का षीर्षक बदल ही दिया।<br />
तो मनोहर जी से यह पहली भेट थी और इस प्रथम भेंट से ही यह बात बात-बात में ही स्पष्ट हो गई थी कि मुझ पर उनका सहज प्रभाव है। उनसे खूब पत्राचार रहा। उस पत्राचार में बालसाहित्य को लेकर उनकी अनेक चिंताएं-अपेक्षाएं और पीड़ाएं भी अंकित हैं।<br />
5 अक्टूबर 2013 को भीलवाड़ा जाते समय मैं उनसे मिलने के लिए अजमेर उतर लिया था। दो-ढाई घंटे उनकी कर्मस्थली पर या कहें कि बाल साहित्य के तीर्थ पर उनसे कितनी बातें हुईं। गोविंद भारद्वाज जी वहां आ गए। उन्होंने हमारे कई चित्र लिए। उनकी धर्मपत्नी और उनकी बेटी निधि भी मिली थीं। हम खूब बतियाए। बालसाहित्यकारों की उपेक्षा से वे खिन्न थे। पुरस्कारों में भाई-भतीजावाद को लेकर उनके मन में पीड़ा थी। हमारी चर्चा में बाल वाटिका और प्रकाष मनु जी की बार-बार सराहना होती रही। उन्होंने बताया कि दो रोज पहले ही प्रकाष मनु जी ने उनसे देर तक बात की। मनु जी ने जिस तरह से बाल साहित्य की प्रतिष्ठा को लेकर एक अभियान की तरह काम किया है। उसकी धमक से वे प्रभावित थे।<br />
बाल वाटिका के प्रकाषन को लेकर डा. भैरूंलाल गर्ग ने कैसे-कितना संघर्ष किया। कितने पापड़ बेले, यह चर्चाएं उनसे हुईं। उन्हें खुषी थी कि बाल वाटिका के बहाने गर्ग जी सारे देष के साहित्यकारों को एकसूत्र में बांधे हैं। मैंने उन्हें याद दिलाया कि सन् 2000 में जब सारे देष में हिंदी साहित्य को लेकर षताब्दी समारोह हो रहे थे तो अकेली बाल वाटिका ही थी जिसने बाल साहित्य षताब्दी समारोह किया था। नंदन के संपादक जयप्रकाष भारती और जाने कितने बालसाहित्यकार एकत्र हुए थे।<br />
वर्मा जी अस्वस्थता के कारण उस समारोह में नहीं आ सके थे लेकिन जयप्रकाष भारती और राष्ट्रबंधु आदि उनसे मिलने अजमेर गए थे। भारती जी ने हंसकर कहा था कि भाई मनोहर वर्मा से मिले बगैर तो यात्रा ही पूरी नहीं होगी।<br />
मैंने उनसे कहा कि उस समय मेरी ट्रेन थी। मैं भी अपनी अधूरी यात्रा पूरी करने आया हूं।<br />
प्रभा बाल साहित्य सम्मान समारोह मैं उन्हें षाहजहांपुर बुलाना चाहता था। मैंने गोविंद भारद्वाज को राजी किया था कि वे ही उनको साथ लाएंगे लेकिन अस्वस्थता के चलते उनका आना हो न सका। फिर मेरा भी जाना न हो सका। लेकिन वह भेंट अंतिम भेंट हो जाएगी, यह न सोचा था।<br />
यादें रह गईं हैं, सिर्फ यादें। उनसे विदा ली थी तो पीछे मुड़-मुड़ कर मैं उनको निहारता रहा था। खिड़की से बड़ी ही स्निगधता से वे भी देख रहे थे। वह खिड़की अक्सर मेरी यादों में आ धमकती है। मेरी आंखे भीग जाती हैं। चला-चली के इस मेले में कैसे हम अकेले होते जाते हैं।<br />
हाल ही में मेरी नयी आलोचना कृति आई है- बाल साहित्य का शंखनाद। इसका अंतिम आलेख मनोहर वर्मा जी की स्मृति को ही समर्पित है।<br />
उनकी स्मृति को नमन।<br />
बार-बार हजार बार नमन।<br />
<b><span style="color: magenta;">- डॉ. नागेश पांडेय ‘संजय</span></b><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_zv6dIcshnpNpE88T6126OBPLFE7imTnMubqfsLCPQVrXdGlhh2uOTcFf0IV_ot_ghMkMYCzQGTFh2grksOzDS5i3NI1xu7OZ48m-oAQhkmrWfwm8DwmvsxjSdLRjEBRW-ZR4w8NGEgk1/s1600/18058034_806850042795453_3151981498686462778_n.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj_zv6dIcshnpNpE88T6126OBPLFE7imTnMubqfsLCPQVrXdGlhh2uOTcFf0IV_ot_ghMkMYCzQGTFh2grksOzDS5i3NI1xu7OZ48m-oAQhkmrWfwm8DwmvsxjSdLRjEBRW-ZR4w8NGEgk1/s320/18058034_806850042795453_3151981498686462778_n.jpg" width="251" /><b style="text-align: left;"><span style="color: magenta;"><span style="color: blue; font-size: x-small;"><u><i>( आलेख बाल वाटिका मई २०१७ अंक से साभार)</i></u></span></span></b></a></div>
</div>
डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com4tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-7106418967750992492012-11-06T05:43:00.005-08:002021-06-12T10:24:53.174-07:00बाल साहित्य में हमेशा रहेंगे डा. श्रीप्रसाद/ आलेख / डा. नागेश पांडेय ‘संजय' <div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<span class="Apple-style-span" style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif; line-height: 28px;"></span><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjxj7GdbJoxC6Ozp4MB60oJFCth0YSOLyrsvTwID7XCVtLaSChA2_99I3XFrJ8gAanQscJFPF5ZcZz4rYiwKxNzBYZU0ywmIapnaIgQ6wQPfDKgdGn3KHQ_YBxf3kJdSotHSq2IeT0H5p-g/s1600/sriprasad.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="320" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjxj7GdbJoxC6Ozp4MB60oJFCth0YSOLyrsvTwID7XCVtLaSChA2_99I3XFrJ8gAanQscJFPF5ZcZz4rYiwKxNzBYZU0ywmIapnaIgQ6wQPfDKgdGn3KHQ_YBxf3kJdSotHSq2IeT0H5p-g/s320/sriprasad.jpg" width="261" /></a></div>
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<span class="Apple-style-span" style="color: blue;"><b><br /></b></span></div>
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<span class="Apple-style-span" style="color: #38761d; font-size: large;">बाल साहित्य में हमेशा रहेंगे डा. श्रीप्रसाद</span> </div>
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पचास साल से भी ज्यादा समय तक बाल साहित्य के क्षेत्र में सर्वात्मना समर्पित डा. श्रीप्रसाद जी नहीं रहे। 12 अक्टूबर, 2012 को दिल्ली में मेक्स हॉस्पिटल साकेत में ह्रदय चिकित्सा के दौरान उनका निधन हो गया। श्रीप्रसाद जी ने खुद को बालसाहित्य के लिए समर्पित कर दिया था । बाल साहित्य की समस्त विधाओं में सृजन के साथ-साथ शोध और समीक्षा के स्तर पर भी उन्होंने बालसाहित्य को उँचाइयाँ प्रदान कीं । उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से प्रकाशित उनकी कृति बालसाहित्य की अवधारणा तत्वाभिनिवेशी आलोचना का साकार दस्तावेज है । उन्होंने काशी विद्यापीठ से 1973 में हिंदी बाल साहित्य विषय पर पी-एच. डी. की उपाधि की प्राप्त की। कालांतर में उनका शोध ग्रन्थ बाल साहित्य की रुपरेखा शीर्षक से 1985 में प्रकाशित हुआ। श्रीप्रसाद जी समय-समय पर बाल साहित्य के विविध पक्षों पर बड़े ही गवेषणात्मक आलेख लिखते रहे, यदि उनको संकलित किया जाए तो बाल साहित्य की सार्थक समालोचना पर एक महत्त्वपूर्ण कृति तैयार हो सकती है।</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>श्रीप्रसाद जी को पढ़कर- उनसे प्रेरित होकर न जाने कितने बाल साहित्यकार तैयार हुए हैं। फ़िलहाल मैं तो स्वयं को उनमें से एक मानता हूँ। 1984-85 से बतौर बाल पाठक बाल साहित्य से जुड़ गया, चूँकि लिखने की भी रूचि जग गयी थी, सो पत्रिकाओं और अख़बारों में लेखक के नाम पर भी सहज ध्यान चला ही जाता था। श्रीप्रसाद जी तो यत्र तत्र सर्वत्र वाली स्थिति में थे। मैं तब बालक था। पी-एच. डी. वाले डाक्टर का तो बोध भी न था। सोचता था कि कोई क्लीनिक होगी और फिर ये भी सोचता था कि कैसे इतना समय निकलते होंगे ? और राम झंूठ न बुलवाए तो मन में ये भी आता था की क्लीनिक कम चलती होगी। शायद तभी इतना समय मिल जाता होगा। </div>
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बाद में बाल भारती में प्रकाशित उनके पते से जाना कि वे तो संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं। और कहीं न कहीं मैंने भी आगे चलकर पी-एच. डी. करने का मन बना लिया था। </div>
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नंदन में तब पुस्तकों का परिचय भी छपता था और प्रकाशकों के पते भी मिल जाते थे। मैं सूची पत्र मंगा कर बाल साहित्य की पुस्तकें मँगा कर पढता था। उनकी एक किताब ’गाड़ी देर से आई’ भी मैंने मँगा कर पढ़ी थी।</div>
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उनकी शैली का मैं कायल हूँ कई बार लगता है की कहानी पढ़ नहीं सुन रहे हैं और जब वह आत्मकथनात्मक अंदाज में कथानक को परोसते हैं तो खासकर लगता है कि कहीं हम भी कथानक के एक पात्र के रूप में कहानी के साथ-साथ चल रहे हैं। </div>
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इस पुस्तक की कहानी ’भय’ का एक वाक्य आंधेर आपनेर पिठेर भयेत मेरे मन में जैसे बस सा गया था। आज भी जब कभी रात में अपनी लंबी-सी परछाई देखता हूँ तो बचपन की तरह डर तो नहीं लगता किन्तु वह कहानी याद आती है।</div>
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खैर... इस बहाने मैंने जाना कि प्रसाद जी बंगला के भी जानकार हैं। उनके आलोचना लेखों में बंगला बाल साहित्य के उदाहरण बखूबी मिलते हैं।</div>
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मेरी पहली पुस्तक नेहा ने माफ़ी मांगी की भूमिका उन्होंने ही लिखी थी। उन्होंने सारी कहानियां पढने के बाद मुझे सुझाव भी दिया था कि गिरा राजा कहानी पुराने चाल की कहानी है। आप केवल आधुनिक कहानियां ही लिखिए। ...और उनके आदेशानुसार मैंने उस संकलन में केवल आधुनिक कहानियां ही रखी थीं। </div>
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मेरे पास उनके ढेर सारे पत्र हैं और उनमें बाल साहित्य के स्वरुप को लेकर खुलकर चर्चाएँ हुयी हैं। वे बाल साहित्य के साथ-साथ बाल सहित्यकारों में भी सहजता के पक्षधर थे। गर्वोक्ति नहीं होनी चाहिए। उनका मानना था की बाल साहित्य की छवि को बच्चे की तरह पारदर्शी बनाना है। </div>
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बाल साहित्य में भ्रामक सूचनायें नहीं जाना चाहिए। एक संपादक ने अपने 100 बाल कविताओं के संपादित बाल कविता संकलन को भारतीय भाषाओँ में सबसे बड़ा घोषित कर दिया था। डा. श्रीप्रसाद जी ने स्पष्ट किया कि (उन दिनों) सबसे बड़ा संकलन तो तमिल के एन मुदलियार का पिल्ललू पाटलू है। उसमें 500 बाल गीत थे। वे बाल साहित्य के सजग अध्येता थे। </div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>मैं पहली बार उनसे उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा 1994 में आयोजित सर्वभाषा बाल साहित्य समारोह में मिला था। देश के कोने-कोने से बाल साहित्यकार आए थे और यह महत्वपूर्ण आयोजन तत्कालीन निदेशक विनोद चन्द्र पांडेय जी ने कराया था। तीनों पीढ़ियों के बालसाहित्यकारों का समागम था। सच कहूँ तो उस आयोजन से बहुत कुछ सीखने को मिला था।<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpwOU7yQJu7DeHJ6BaIzzVm8bWVQqWmZSQX1gpVtwM-asRQyeSAb5qvtlZ_D9E0nm2U_5RruSo8VOaJSPFxPUkiQIyy9pb2s1P5oObkixlNF04xxAvScplEOgPXUQgqA4t21JmR2E9worC/s1600/sriprasad.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="208" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpwOU7yQJu7DeHJ6BaIzzVm8bWVQqWmZSQX1gpVtwM-asRQyeSAb5qvtlZ_D9E0nm2U_5RruSo8VOaJSPFxPUkiQIyy9pb2s1P5oObkixlNF04xxAvScplEOgPXUQgqA4t21JmR2E9worC/s320/sriprasad.jpg" width="320" /></a></div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<span style="background-color: yellow; color: blue; font-size: xx-small;">चित्र में नागेश पांडेय 'संजय', डॉ. शोभनाथ लाल, विनोदचंद्र पांडेय, चंद्रपाल सिंह यादव 'मयंक और डॉ. श्रीप्रसाद </span></div>
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वास्तव में आयोजनों की यही गरिमा है। विमर्श को बल मिलता है और मौलिकता को संभावनाएं। भावनाएं भी पुष्ट होती है। आत्मीयता स्थापित होती है। डा. श्रीप्रसाद के न रहने पर केवल एक बाल साहित्यकार को खोने जैसा नहीं, बल्कि एक संरक्षक का चले जाना जैसा महसूस हो रहा है। कभी कानपुर तो कभी शिमला तो कभी बरेली जाने कितनी यात्राओं में वे मिले और अपना स्नेह बरसाते रहे।</div>
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बरेली में निरंकारदेव सेवक की याद में समारोह था। हम लोग सेवक जी के ही घर में ठहरे थे। रात भर जागते-खिलखिलाते रहे। सेवक जी की पुत्रवधु पूनम सेवक ने रोते हुए कहा था, आज वर्षों बाद इस घर में ठहाके गूंजे हैं। </div>
<div>
वाराणसी उनके घर भी गया हूँ। बजरडीहा में रहते थे। बजरडिहा की कहानी भी सुनाई थी। वज्र ढूह। ऊँचा स्थल। उनका आतिथ्य नहीं भूल सकता। तब माता जी भी थीं। एक सच्ची गृहणी और लेखन में उनकी परोक्ष साथी भी। सृजन का परिवेश बनाये रखती थीं। उनके निधन पर फोन किया था तो श्रीप्रसाद जी बहुत आहत थे। </div>
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मुझको हुआ जुकाम उनका प्रसिद्द शिशुगीत है इसे स्वीडन से प्रकाशित विश्व बालकाव्य संग्रह में लिया गया है। भारत से दो लोग हैं एक हिंदी और एक तमिल से।</div>
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बिल्ली बोली, बड़े जोर का </div>
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मुझको हुआ जुकाम</div>
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चूहे चाचा चूरन दे दो </div>
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जल्दी हो आराम</div>
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चूहा बोला, बतलाता हूं</div>
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एक दवा बेजोड़</div>
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अब आगे से चूहे खाना</div>
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बिलकुल ही दो छोड़.</div>
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हाथी चल्लम चल्लम डा. श्रीप्रसाद जी का चर्चित बाल गीत है। अनेक स्थानों पर यह रचना अपूर्ण रूप में प्रकाशित की गयी है। मैंने इसे इंटरनेट पर अपने संपादन में बाल मंदिर में प्रकाशित किया तो उन्हीं से जानकारी हुई कि ये रचना तो एक तिहाई है। फिर इसे अपने सुपुत्र प्रो. आनद वर्धन जी के द्वारा मेल से भिजवाया। यह बाल गीत शुद्ध एवं पूर्ण रूप में पाठकों की सेवा में प्रस्तुत है- </div>
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<br /></div>
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हल्लम हल्लम हौदा, हाथी चल्लम चल्लम</div>
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<br /></div>
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हम बैठे हाथी पर, हाथी हल्लम हल्लम</div>
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<br /></div>
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लंबी लंबी सूँड़ फटाफट फट्टर फट्टर</div>
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<br /></div>
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लंबे लंबे दाँत खटाखट खट्टर खट्टर</div>
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<br /></div>
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भारी भारी मूँड़ मटकता झम्मम झम्मम</div>
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हल्लम हल्लम हौदा, हाथी चल्लम चल्लम</div>
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पर्वत जैसी देह थुलथुली थल्लल थल्लल</div>
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हालर हालर देह हिले जब हाथी चल्लल</div>
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खंभे जैसे पाँव धपाधप पड़ते धम्मम</div>
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हल्लम हल्लम हौदा, हाथी चल्लम चल्लम</div>
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हाथी जैसी नहीं सवारी अग्गड़ बग्गड़</div>
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पीलवान पुच्छन बैठा है बाँधे पग्गड़</div>
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बैठे बच्चे बीस सभी हम डग्गम डग्गम</div>
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हल्लम हल्लम हौदा, हाथी चल्लम चल्लम</div>
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दिनभर घूमेंगे हाथी पर हल्लर हल्लर</div>
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हाथी दादा जरा नाच दो थल्लर थल्लर</div>
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अरे नहीं हम गिर जाएँगे घम्मम घम्मम</div>
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हल्लम हल्लम हौदा, हाथी चल्लम चल्लम</div>
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इस रचना पर आज के प्रसिद्द बाल साहित्य समालोचक डा. प्रकाश मनु जी ने लिखा था- </div>
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<i><b>प्रिय नागेश, डा. श्रीप्रसाद जी की यह बाल कविता मेरी सर्वाधिक पसंदीदा बाल कविताओं में से है जिनके बारे में मैंने बाल कविता के इतिहास में बहुत विस्तार से लिखा है और इसका जिक्र और प्रशंसा करते हुए मैं कभी थकता नहीं। श्रीप्रसाद जी हमारे बीच के सबसे वरिष्ठ लेखकों में से हैं जो अब भी इतने उत्साह से लिख रहे हैं। बाल कविता के तो वे शिखर व्यक्तित्व हैं ही, साथ ही बाल कहानी, बाल उपन्यास, संसमरण हर विधा में उन्होंने लिखा है और बहुत ऊँचे पाए का लिखा है। हम सब सौभाग्यशाली हैं कि वे हमारे बीच मौजूद हैं और हम उन्हें इतनी लगन और तन्मयता से काम में लगे देखते हैं। सस्नेह, प्रकाश मनु</b></i></div>
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आदरणीय मनु जी, वह सौभाग्य जाता रहा किंतु उनका नाम-काम अविस्मरणीय है। यशकाया के रूप में वे हमारे बीच हैं। बाल साहित्य में हमेशा रहेंगे। उन्हें बारंबार नमन और श्रद्धांजलि। </div>
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सुभाष नगर, निकट-रेलवे कालोनी, </div>
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शाहजहाँपुर - 242 001 (उ.प्र.)</div>
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<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span></div>
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डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3057562953974178572.post-85840528545504488152012-10-05T22:09:00.003-07:002020-04-15T10:05:09.733-07:00बाल साहित्य में चौर्य वृत्ति (आलेख) -नागेश पांडेय 'संजय'<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
‘बाल भारती’ (मा.) के जून 1988 अंक में एक कहानी छपी थी- ‘सारस परी।’ इसे पढ़कर मेरा चौंकना स्वाभाविक था क्योंकि इससे पूर्व मैं इसी कहानी को ‘चुप-चुप चोरी’ शीर्षक से जापानी लेखिका मिजुओचि के नाम से पढ़ चुका था। मैंने तत्काल ‘बाल भारती’ के संपादक श्री शिवकुमार को एक छोटा सा पत्र लिखा। मेरे उस पत्र के उत्तर के रूप में उन्होंने ‘बाल भारती’ के अक्तूबर 1988 अंक में एक पृष्ठीय संपादकीय लिखा था। चौर्यवृत्ति की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के विरोध में निःसंदेह वह एक महत्त्वपूर्ण पहल थी। श्री कुमार जी का वह संपादकीय दो-टूक वादिता, निर्भीकता और साहस की दृष्टि से आज भी प्रशंस्य है।<br />
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>‘‘हमें पाठकों से हाल ही में कुछ शिकायत भरे पत्र प्राप्त हुए हैं। शिकायत है- चोरी के साहित्य की। लेखक वर्ग अन्य लेखकों की रचनाएँ अपने नाम से भेजते हैं। साहित्यिक चोरी के रूप हैं, रचना के पात्र बदलकर, रचना को अपनी कहकर भेजना। दूसरा रूप हैं विदेशी कहानियों का अनुवाद करके अपनी रचना बताना। तीसरा रूप है, अपनी रचना को विभिन्न नामों से विभिन्न पत्रिकाओं में छपवाना तथा चौथा रूप है लब्धप्रतिष्ठ लेखकों की विश्व प्रसिद्ध रचनाओं को अपनी रचना बताकर प्रकाशित करवाना। इस श्रेणी के तथाकथित लेखक केवल अपना नाम-भर लेखक के रूप में देखना चाहते हैं। वे शायद यह समझते हैं कि ऐसा करने से वे लेखक के रूप में प्रसिद्ध हो जाएँगे।</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>यह प्रसंग यहीं समाप्त नहीं होता। कुछ लेखक प्रेरणात्मक प्रसंगों को, जो कि वास्तविक रूप से ‘क’ से जुड़ा है, वे उस प्रसंग को ‘ख’ ‘ग’ या ‘च’ के नाम साथ जोड़कर भेजते हैं।</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>जो लेखक चोरी की हुई रचनाएँ भेजते हैं, हम उन्हें ब्लैक लिस्ट कर रहे हैं। हमारा जागरूक पाठक सदा की तरह हमें चोरी की हुई रचनाओं के संबंध में सूचित करता रहेगा।’’</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>- शिव कुमार</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>इसके अनंतर चोर लेखकों ने ‘बालभारती’ में तो कम ही धृष्टता दिखाई किंतु विविध पत्र/पत्रिकाओं के माध्यम से उनके प्रयोग चलते रहे और यह क्रम आज भी जारी है।</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>वस्तुतः रचना चोरी के अन्य भी कई रूप हैं। पिष्ट-पेषण या पुनरावृत्ति भी एक प्रकार से रचनात्मक-चोरी का ही एक चेहरा है। हिंदी में ऐसे बाल साहित्यकारों की बड़ी संख्या है जो प्रतिवर्ष होली या दीवाली पर स्वयं को ही दोहराते किसी भी पत्र/पत्रिका में मिल जाएँगे।</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>समीक्षा की स्वस्थ परंपरा के अभाववश बाल साहित्य में चौर्य वृत्ति एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष के रूप में विद्यमान है। कुछ भी ‘टीप’ दो, कहीं भी छपा दो; कोई कहने-सुनने वाला नहीं। इधर ‘प्राइवेट’ पाठ्यक्रम के रूप में बच्चों की जो पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं, उनमें प्रतिष्ठित लेखकों की रचनाएँ अपने नाम से छपवाने का फैशन सा चल पड़ा है।</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>हाल ही में दिल्ली से प्रकाशित कक्षा-एक की पुस्तक ‘हिंदी दर्पण’ में द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी की चर्चित कविता ‘जिसने सूरज चाँद बनाया’ को लेखिका आभा गोस्वामी ने अपने नाम से प्रकाशित कराया है। इसी प्रकाशन की कक्षा-दो की ‘हिंदी दर्पण’ में चंद्रपाल सिंह यादव ‘मयंक’ की लोकप्रिय रचना ‘नानी का घर’ को लेखिका आभा गोस्वामी ने आंशिक फेरबदल के साथ ‘दादी का घर’ शीर्षक से प्रकाशित कराने का घृणास्पद कृत्य किया है। ऐसे कार्यों की जितनी भी निंदा की जाए, कम है।</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>ऐसा नहीं है कि रचना-चोरी का कार्य केवल नवसिखुए यशाकांक्षी ही करते हैं, मैं व्यक्तिगत रूप से हिंदी के अनेक ऐसे बाल साहित्यकारों को जानता हूँ, जिन्होंने आंशिक फेरबदल के साथ दूसरे लेखकों की रचनाएँ अपने नाम से प्रकाशित कर वाहवाही लूटी है।</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>पं. सोहन लाल द्विवेदी की एक कविता है- ‘फूलों से तुम हँसना सीखो, भौरों से तुम गाना।’ हिंदी के अनेक बाल साहित्य सेवी इसका उद्धार कर चुके हैं। द्विवेदी जी की ही एक कविता- ‘अम्मा कहती, बनूँ कलक्टर/दादा कहते, जज बन जाऊँ। दीदी कहतीं बनूँ गवर्नर/सबके ऊपर हुक्म चलाऊँ। बहन कह रही बनूँ डाक्टर/या कि बनूँ कोई विज्ञानी।’, जो कि ‘महिला’ (मासिक) के अक्तूबर 1937 अंक में छपी थी, कुछ फेर बदल के बाद आज एक युवा लेखक की मौलिक रचना बन गई है। निरंकार देव सेवक की चर्चित रचना ‘अगर-मगर दो भाई थे/करते खूब लड़ाई थे। अगर मगर से छोटा था/मगर मगर से खोटा था।’ को उनके ही एक समकालीन बाल कवि ने आंशिक उलट-पुलट के बाद अपने संकलन में अपनी कविता के रूप में छपा लिया था।</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> ऐसे </span>लेखकों के प्रति कठोरता का बर्ताव बहुत आवश्यक है। चौर्य-वृत्ति तभी रूक सकेगी। डॉ. सुरेंद्र विक्रम की एक कविता है- ‘बस्ते का बोझ।’ इसे राजस्थान के एक रचनाकार ने ‘अमर उजाला’ में छपवा लिया था। उसे न केवल संपादक ने ब्लैक-लिस्ट किया, बल्कि डॉ. विक्रम ने मानहानि के दावे के रूप में उससे समुचित राशि भी वसूल की।</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बस्ते के ही प्रसंग पर केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा की ‘बाल-काव्य गोष्ठी’ याद आ रही है। डॉ. उषा यादव की एक मार्मिक कविता है-‘उफ’! बस्ता कितना भारी है।’ इसे एक शोध-छात्र अपने नाम से पढ़ गया। बाद में जानकारी हुई कि वह उषा जी का ही छात्र था और प्रभाववश उनकी ही रचना को दोहरा गया। खैर..., न केवल उसने क्षमा मांगी बल्कि भविष्य में ऐसी त्रुटि न करने का वचन दिया।</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बहुत पहले (1994) में चंद्रपाल सिंह यादव ‘मयंक’ की कविता ‘दशहरा’ को किन्हीं नरेश आचार्य ने अपने नाम से ‘अमर उजाला’ में छपवाया था। मैंने ‘मयंक’ जी और संपादक को पत्र लिखा। ‘मयंक’ जी का उत्तर आया तो जाना, उसी कविता को एक लेखिका भी अपने नाम से छपाए बैठी है। द्रष्टव्य उनका 27.10.1994 का यह पत्र-</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
प्रिय संजय जी,</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>हिंदी बाल साहित्य में आजकल दूसरे की कविता चुरा कर अपने नाम से छपवाने की प्रवृत्ति जोरों से बढ़ रही है। मेरी कविता ‘दशहरा’ को चोरी से किसी ने अमर उजाला (बरेली) में छपवाई थी, जिसकी सूचना आपने दी थी।... यही कविता निशि बाजपेई ने अमर उजाला (कानपुर) में 22.10.94 को अपने नाम से छपवाई है।</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>ऐसी बातों से हिंदी बाल साहित्य का भला क्या लाभ हो सकता है? इस खतरनाक प्रवृत्ति को रोकना ही उचित है। </div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>शेष कुशल है।</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>शुभकामनाओं सहित,</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> भवदीय</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> <span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span> चंद्रपाल सिंह यादव ‘मयंक’</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>बाल साहित्य में चौर्य-वृत्ति को रोकने के लिए समीक्षकों की सतर्कता आवश्यक है। दरअसल बाल साहित्य छापने वाले अधिकांश संपादक बाल साहित्य के जानकार नहीं होते। ऐतिहासिक परिदृश्य से अनभिज्ञता ही इस विडंबना को संरक्षित करती है। बाल स्तंभ अथवा बाल पत्रिकाओं के संपादक की नियुक्ति हेतु बाल साहित्य का ज्ञान अनिवार्य होना चाहिए तभी बाल-साहित्य के मौलिक-सृजन का मार्ग भी प्रशस्त होगा।</div>
<div style="margin-bottom: 0px; margin-left: 0px; margin-right: 0px; margin-top: 0px;">
<span class="Apple-tab-span" style="white-space: pre;"> </span>तथापि, लेखकों और समीक्षकों को चाहिए कि वे बाल साहित्य में चौर्य-वृत्ति की खुलकर निंदा करें। ऐसे लेखकों का तिरस्कार और बहिष्कार बहुत जरूरी है।</div>
</div>
डॉ. नागेश पांडेय संजयhttp://www.blogger.com/profile/02226625976659639261noreply@blogger.com1