30 मई 2002 को भारतीय पत्रकारिता संस्थान द्वारा बरेली में मुझे निरंकारदेव सेवक बाल साहित्य सम्मान मिला था। मैंने प्रशस्तिपत्र देखा तो चौंक कर रह गया। मेरे नाम के साथ बरेली मुद्रित था। मैंने आयोजकों से कहा कि मैं तो शाहजहाँपुर का हूँ। मेरा पता तो गलत छप गया? आयोजक सुरेंद्र सिन्हा जी ने हँसकर कहा था- "आप निश्चिंत होकर प्रशस्तिपत्र स्वीकारिए। संभव है कि समय इस त्रुटि को ठीक कर दे और आप बरेली के हो जाएँ।"
बात मजाक की थी किंतु सत्य सिद्ध हुई। वर्ष 2007 से बरेली मेरी कर्मभूमि हो गई। शाहजहाँपुर से आते जाते बरेली में जब कचहरी से होकर गुजरता हूँ तो अनायास माथा झुक जाता है। यह कचहरी कभी निरंकार देव सेवक की कर्मभूमि रही है। वहीं से उनके घर की ओर जानेवाले रास्ते के भी दर्शन हो जाते हैं। इस रास्ते का नाम निरंकार देव सेवक मार्ग रखा गया है। मैं उस पथ से गुजरते हुए यह सोचकर बहुत रोमांचित होता हूँ कि बालसाहित्य के लिए राजमार्ग तैयार करने वाले सेवकजी कभी इसी मार्ग से गुजरा करते होंगे। इसी मार्ग से गुजरते हुए कितने विचार बिंदु उनके मन में उपजे होंगे। कितनी योजनाओं की परिकल्पनाएँ इसी मार्ग पर गतिमय हुई होंगी। मैं उन सबके भाग्य को सराहता हूँ, जिन्हें सेवकजी का साथ मिला होगा। एक देवदूत का साथ। बालसाहित्य के सच्चे सेवक का साथ। सही मायनों में बालसाहित्य के भगीरथ का साथ।
यह सच है कि यदि बालसाहित्य आलोचना के क्षेत्र में सेवकजी का पदार्पण न हुआ होता तो बालसाहित्य के कितने मौन साधक काल के प्रवाह में गुम गए होते। बच्चों को तो लेखक के नाम से कोई मतलब नहीं होता। ... और यदि समीक्षक निष्पक्ष भाव से उन लेखकों के विषय में न लिखे तो भला एक समय के बाद कौन उनको जानेगा ?
सेवकजी ने सर्वप्रथम बालगीत साहित्य का इतिहास लिखा। बालसाहित्य के भूले बिसरे हस्ताक्षरों को जैसे पुनर्जीवन दिया।
बरेली महानगर में 19 जनवरी 1919 को जन्में सेवकजी ने एम.ए. हिंदी, एल-एल.बी., और बी.टी. की शिक्षा प्राप्त की। वे प्रारंभ में शिक्षक रहे और फिर अधिवक्ता हो गए। बाल कविताओं के उनके दर्जनों संकलन प्रकाशित हुए। उनकी बाल कविताएँ स्वयं ही 'बाल कविताओं के लिए मानदंड' जैसी हैं।
उनका पहला लेख 'बाल साहित्य रचना' वीणा मासिक के नवंबर 1954 अंक में प्रकाशित हुआ था। उस आलेख में उन्होंने लिखा था-'बड़ों को लिखना है तो उन्हें स्वयं बच्चा बनकर बच्चों के संसार में रह बस कर लिखना होगा।' यह एक तरह से बाल साहित्य पर आलोचनात्मक निबंध लिखने का शुभारंभ था। डॉ. हरिकृष्ण देवसरे के अनुसार सेवकजी ने अपने इस लेख में बाल साहित्य रचना के कई आवश्यक तथ्यों को उद्घाटित करते हुए हिंदी में बाल साहित्य आलोचना को जन्म दिया। (हिंदी बाल साहित्य एक अध्ययन, पृ. 32) बाल साहित्य समीक्षा की प्रथम व्यवस्थित कृति उन्होंने ही लिखी बालगीत साहित्य। इसकी पांडुलिपि को देखकर उनके मित्र डॉ. राकेश गुप्त ने कहा भी था- "यह तुमने बिल्कुल नए विषय पर इतना काम किया है। इस पर तो तुम्हें किसी विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट मिल सकती है।" सेवकजी ने उक्त प्रसंग को हँसकर टाल दिया था कि ऐसा होने से भला कौन मुझ वकील को ज्यादा फीस दे देगा। 1966 में इस कृति का प्रकाशन किताब महल, इलाहाबाद से हुआ था। इस कृति से केवल बाल साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में ही नहीं, वरन् विश्वविद्यालयों में भी बाल साहित्य आलोचना तथा अनुसंधान की दिशा में संभावनाओं का सूत्रपात हुआ। बाल साहित्य के प्रारंभिक शोधार्थियों के लिए यह कृति गहन अंधकार में प्रखर प्रकाश जैसी सिद्ध हुई। डॉ. हरिकृष्ण देवसरे ने इसे हिंदी बालसाहित्य में पहली आलोचनात्मक पुस्तक माना है। बाल साहित्य में तात्विक समीक्षा का कार्य हो या इतिहास-लेखन, शोध-कार्य हो या तुलनात्मक सदैव आधार-रूप में विद्यमान रहा है। प्रथम संस्करण की भूमिका में संवक जी ने लिखा था-'जिस भाषा में बालसाहित्य का सृजन नहीं होता उसकी स्थिति उस स्त्री के समान है जिसके संतान नहीं होती।' सेवकजी बालसाहित्य के पहले इतिहासकार थे। जैसे अंधेरी गुफाओं में भटकते हुए, महार्णव में गोते लगाते हुए उन्होने कैसे यह दुरूह कार्य संपन्न किया होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। उन्होंने लिखा भी है- 'हिंदी बालगीत साहित्य का इतिहास लिखने में बहुत कठिनाई हुई है। भाषा या साहित्य के किसी इतिहास में बालसाहित्य पर कुछ भी लिखा हुआ मुझे नहीं मिला।' (बालगीत साहित्य,पृष्ठ 5)
सेवक जी के इस ग्रंथ में अन्य भाषाओं में रचित बाल साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया गया और बड़ी बात यह कि पूरी निष्पक्षता के साथ कवियों और उनकी रचनाओं की चर्चा की गई। सेवकजी की कृति बालगीत साहित्य बालसाहित्य के क्षेत्र में एक ऐसी अनोखी और अकेली किताब है जो अब तक तीन बार अलग-अलग रूप और अंदाज में प्रकाशित हो चुकी है। दूसरी बार यह कृति 1983 में बालगीत साहित्यः इतिहास एवं समीक्षा नाम से स्वयं सेवकजी के द्वारा ही संशोधित और परिवर्द्धित होकर उ.प्र. हिंदी संस्थान से प्रकाशित हुई थी। उक्त संस्करण में तो कवियों के दुर्लभ चित्र भी उपलब्ध हैं। ग्रंथ में इतिहास के लिए अपेक्षित संदर्भ ग्रंथों का भी ईमानदारी से उल्लेख किया गया है। तीसरी बार इसका प्रकाशन उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से ही द्वितीय संस्करण के रुप में प्रो. उषा यादव के कुशल संपादन में हुआ।
बहरहाल, बाल कविता के समूचे परिदृश्य को संजीदगी से समझने के लिए बालगीत साहित्य बहुत ही जरूरी पुस्तक है। सेवकजी एक ऐसे समर्थ रचनाकार थे, जिनकी कविताएँ स्वयं मानक हैं। उनके कथन परिभाषा हैं। उनका मत था कि बाल साहित्य बच्चों के मनोभावों, जिज्ञासाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो। उनकी सोच व्यापक थी, यही कारण है कि बालगीत साहित्य ग्रंथ की रचना करते समय उन्होंने बाल कविता के विस्तृत फलक को अपने अध्ययन का विषय बनाया। कविताओं की चचर्चा करते समय किसी मित्रवाद या क्षेत्रवाद के वशीभूत नहीं हुए। न जाने कितने लोगों से पत्राचार किया। दिग्गज से दिग्गज, नए से नए और गुमनाम सभी से उनका संपर्क था। इसीलिए चाहे बालक अमिताभ बच्चन के लिए उनके कवि पिता हरिवंशराय बच्चन द्वारा बाल कविता लिखने की बात हो या स्वर्ण सहोदर की प्रकाशन समस्या की पीड़ा। सब कुछ उनकी किताब में सहज मुखरित हुआ। यही कारण था कि उनकी यह कृति केवल बाल कविताओं का ही नहीं, बाल कवियों के अनुभवों और रचना प्रक्रिया का भी दस्तावेज बनी।
सेवकजी ने काव्य रचना सात-आठ साल की अवस्था में ही प्रारंभ कर दी थी। अपने अनुज परोपकार देव के साथ खेल-खेल में रचित उनकी तुकबंदी देखिए-मिर्चा, तेल, खटाई, इसको छोड़ो सब भाई। वैसे सेवकजी मूलतः प्रगतिवादी कवि थे। दुर्भाग्य कि उनके इस रूप की जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, नहीं हुई। 1943 में प्रकाशित उनकी पुस्तक चिनगारी तत्कालीन समय में बहुत चर्चित रही थी। सेवकजी मंचों पर भी खूब जाते थे। उनकी कविता विहगकुमार इतनी लोकप्रिय थी कि सेवकजी ही विहग कुमार कहे जाने लगे थे। उनके प्रौढ़ कवि के रूप को जानने समझने के लिए वर्ष 2002 में बरेली से प्रकाशित 'संदर्श' के निरंकार देव सेवक विशेषांक को अवश्य देखना चहिए। सेवकजी का विवाह 1940 में हुआ लेकिन दंपति ने एक अनोखी प्रतिज्ञा की थी कि गुलाम देश में गुलाम संतान पैदा नहीं करेंगे। फलतः सेवकजी सहज ही दूसरों के बच्चों के प्रति आकर्षित हुए फिर उनके साथ खेल-खेल में कविताएँ लिखीं। इस बात की स्वीकारोक्ति सेवकजी ने स्वयं आत्मकथ्य में की है। उस दौर की उनकी एक कविता दृष्टव्य है-तेरे पापा हैं शरमाते, तुझको गोद नहीं ले पाते। पर मैं चाचा, क्यों शरमाऊँ, तुझको चाहे जहाँ घुमाऊँ। चल मैं तुझको पहनाऊँगा दो सौ गुब्बारों का हार। (बाल काव्य की अविरल यात्रा, सं. विनोद चंद्र पांडेय, पृ.35)
सेवकजी की पुस्तक मुन्ना के गीत में उन दिनों की अनेक कविताएँ संकलित हैं। उनकी कविता 'मुन्ना और दवाई' में प्रयुक्त शब्द आले तो शायद आज के बच्चे जानते भी न हों। बाल कौतूहल और कौतुक का अत्यंत मनोरम वर्णन इस कविता में है-मुन्ना ने आले पर रक्खी, शीसी तोड़ गिराई। हाथ पड़ा शीसी पर आधा, खींचा उसे पकड़कर। वहीं गिरी वह आले पर से, इधर उधर खड़बड़ कर। (महके सारी गली गली, 1996, पृ. 18)
उन्होंने लोरियाँ भी खूब लिखीं। यद्यपि वे मानते थे कि श्रेष्ठ लोरियाँ लिखने की सर्वाधिक क्षमता तो माताओं में ही होती है। उनकी एक लोरी का अंश प्रस्तुत है-मेरा मुना बड़ा सवाना, शाम हुए सो जाता है, ऊधम नहीं मचाता है। बिल्ली रानी, यहाँ न आना अब तुम शोर मचाने को, चूहे, वह बैठी है बिल्ली, तुझे पकड़ ले जाने को। मेरा मुना तुम दोनों के झगड़े से घबराता है, साँझ हुए सो जाता है।
ऐसे अभिभावक और शिक्षक जो बालकों के भावात्मक विकास के पक्षधर हैं, उनके लिए सेवकजी की कविताएँ सर्वोत्तम उपहार सरीखी है। सेवकजी बाल मन के मर्मज्ञ थे। बालसाहित्य के क्षेत्र में कुछ नया करने की चाह रखने बालों को तो उनकी कविताएँ अवश्य पढ़नी चाहिए। कविताएँ ही नहीं, सेवकजी के कथन भी बालसाहित्य के रचनाधर्मियों के लिए प्रकाश स्तंभ जैसे हैं।
शंभूप्रसाद श्रीवास्तव, व्यक्तित्व कृतित्व पुस्तक के पृ. 2 पर प्रकाशित अपने आलेख में वह कहते हैं-'बच्चों के लिए साहित्य की कसौटी यही है कि वह बच्चों द्वारा अपनाया जाए। केवल लेखक की आत्माभिव्यक्ति या आत्मतुष्टि के लिए वह नहीं होता।'
अपनी पुस्तक बालगीत साहित्य में उन्होंने बाल स्वभाव की सविस्तार चर्चा की है। डा. देवसरे द्वारा संपादित बाल साहित्य रचना और समीक्षा (1979) में प्रकाशित आलेख में भी वे कहते हैं-'बच्चे जिस दृष्टि से सूरज, चाँद तारों, आकाश, बादल.... को देखते हैं, बड़े उन्हें हजार बार देख चुकने के बाद भी उस दृष्टि से नहीं देख पाते। .... बाल स्वभाव के इस प्रकाश में यदि हम बालसाहित्य को देखें तो सोचना पड़ेगा कि जो बाल साहित्य हम बच्चों को देते हैं, उससे उन्हें कितना संतुष्ट कर पाते हैं।' (पृ. 54)
बाल साहित्य को लेकर निरंकार देव सेवक की इस लोकप्रिय परिभाषा के आलोक में सिद्धांतों की एक स्पष्ट तस्वीर उभरती है- "बाल साहित्य बच्चों के मनोभावों, जिज्ञासाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो, जो बच्चो का मनोरंजन कर सके और मनोरंजन भी वह जो स्वस्थ और स्वाभाविक हो, जो बच्चों को बड़ों जैसा बनाने के लिए नहीं, अपने अनुसार बनने में सहायक होने के लिए रचा गया हो।" (बाल साहित्य के प्रतिमान, पृ.12)
बच्चों के लिए वास्तविक लेखन तभी संभव है, जब रचनाकार के समक्ष सुस्पष्ट प्रतिमान हों। मासिक उत्तर प्रदेश के नवंबर 1987 अंक में प्राथमिक स्तर पर बालगीतों की उपयोगिता आलेख में सेवकजी ने कविता और गीत के अंतर को स्पष्ट करते हुए, गीत रचना के लिए आंतरिक अनुभूति को अनिवार्य तत्व माना था। उन्होंने लिखा था- 'गीत और कविता में आकाश पाताल का अंतर होता है। जिन बातों का अनुभव उन्हें (बच्चों को) वास्तव में नहीं होता, उनका भी अनुभव वह कल्पना में कर लेते हैं। किसी ऊँची गद्दीदार जगह पर बैठकर वह अनुभव करने लगते हैं कि हाथी की पीठ पर बैठकर कहीं जा रहे हों। बादलों में हाथी, घोड़े, भालू, खरगोश और महल बनते देख लेना उन्हीं का काम है।' (पृ. 5)
निःसंदेह सेवकजी का लेखन अनुभवसिद्ध लेखन था। बच्चों और बाल साहित्य को लेकर उनके मन में गहरी चिंता थी। अनेकानेक प्रयोगों से उन्होंने बाल साहित्य को समृद्ध किया। बाल साहित्य में नयी शैलियों का भी प्रवर्तन किया। बाल साहित्य जगत में बाल गजल लेखन का शुभारंभ भी उन्होंने ही किया। बाल गजल को परिभाषित करते हुए सेवकजी ने लिखा है- "गजल कोई नज्म नहीं होती, जो किसी एक विषय पर आदि से अंत तक लिखी जाए। गजल का प्रत्येक शेर एक दूसरे से सर्वथा अलग एक भाव लिए होता है और इस दृष्टि से सर्वथा पूर्ण होता है।' मानक बाल गजल के रूप में सेवकजी की यह रचना उदाहरणीय है- हमको लड्डू कचौड़ी गरम चाहिए और सोने को बिस्तर नरमे चाहिए/ पढ़ने लिखने को कहती तो है माँ, मगर/पहले कापी, किताबें, कलम चाहिए / एक चींटी के बच्चे ने मुझसे कहा-नन्हें मुनों पे करना रहम चाहिए / पापा बोले कि बेटा! बड़े अब हुए करना शैतानियां तुमको कम चाहिए। (अभ्यंतर,
अप्रैल 1991, पृ.14)
निरंकार देव सेवक बाल काव्य के युग पुरुष थे। एक से एक नगीने जड़े उन्होंने बाल साहित्य के मुकुट में। किशोर मानसिकता के बच्चे के मन की बात कहती उनकी यह बेजोड़ कविता देखिए-तुम बनो किताबों के कीड़े/हम खेल रहे मैदानों में/तुम घुसे रहो घर के अंदर / तुमको है
पंडित जी का डर हम सखा तितलियों के बन कर उड़ते फिरते उद्यानों में/ तुम रटो रात- दिन अँगरेजी/कह ए बी सी डी ई एफ जी/ हम तान मिलाते हैं कू कू/करती कोयल की तानों में (प्रतिनिधि बालगीत, 1994, सं. श्रीप्रसाद, पृ. 12)। इस कविता की रचना की कहानी भी अद्भुत है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के टीचर्स टेनिंग कालेज में बी. टी. परीक्षा के दौरान वे इसे उत्तर पुस्तिका पर लिख रहे थे। परीक्षा भवन में काव्यरचना करते देख प्रिंसिपल मलकानी सर ने कहा था, "मैं तुम्हारी सारी कविता भुला दूँगा।" निःसंदेह सेवकजी में बाल काव्य सृजन का जैसे जुनून सा था और इसी के चलते वे बाल साहित्य के भीष्म पितामह बने।
टमाटर पर संवाद शैली में लिखा उनका एक बाल गीत अनुपमेय है। हिंदी में टमाटर पर तो वैसी प्रस्तुति दूसरी है ही नहीं। यह बच्चों की अंतरंग कविता है। बच्चा इसे चाहे गाये, गाकर झूमे और चाहे अभिनय के माध्यम से इसको जीवंत करे, उसके पास अवसर ही अवसर हैं-लाल टमाटर, लाल टमाटर/मैं तो तुमको खाऊँगा /अभी न खाओ, मैं कुछ दिन में/ और अधिक पक जाऊँगा/लाल टमाटर - लाल टमाटर/मुझको भूख लगी भारी/भूख लगी है तो तुम खा लो/ये गाजर मूली सारी/लाल टमाटर - लाल टमाटर / मुझको तो तुम भाते हो/जो तुमको भाता है भैया/ उसको तुम क्यों खाते हो? (बाल साहित्य सृजन और समीक्षा, पृ. 30)
यहां पर यह भी बताते चलें कि मैंने 2012 में प्रकाशित अपनी आलोचना पुस्तक 'बाल साहित्य सृजन और समीक्षा' श्रद्धेय सेवकजी को ही समर्पित की थी।
उनकी कविता 'अगर मगर' भी लाख टके की है। एकदम सहज विन्यास लेकिन आनुप्रासिक शब्दों के बहाने उसका चामत्कारिक वैभव देखते ही बनता है-अगर मगर दो भाई थे, लड़ते खूब लड़ाई थे। अगर मगर से छोटा था, मगर अगर से खोटा था। अगर मगर कुछ कहता था, मगर नहीं चुप रहता था। बोल बीच में पड़ता था, और अगर से लड़ता था। दोनों के झगड़े के बाद का दृश्य भी गजब का है-माँ यह सुनकर घबराई, बेलन ले बाहर आई! दोनों के दो-दो जड़कर, अलग दिए कर अगर-मगर।
खबरदार जो कभी लड़े, बंद करो यह सब झगड़े। एक ओर था अगर पड़ा, मगर दूसरी ओर खड़ा। (बालसखा, मई, 1946, पृ. 169) सेवकजी की बहुचर्चित रचनाओं में शिशुगीत 'हाथी राजा' तो विश्व के श्रेष्ठतम शिशुगीत की अग्रिम पंक्ति में रखा जा सकता है। बच्चो की जबान पर चढ़ने वाले ऐसे अमर गीत कभी-कभार ही जन्म लेते हैं- हाथी राजा, कहाँ चले? सूंड हिलाते कहाँ चले? पूँछ हिलाते कहाँ चले? मेरे घर आ जाओ ना, हलुआ-पूरी खाओ ना! आओ, बैठो कुर्सी पर,कुर्सी बोली चर चर चर
उनके शिशुगीत खासे मजेदार हैं।
कानावाती कुर्र या और नन्हीं चिड़िया की फुर्र जैसे। तितली पर उनकी कविता तो बहुचर्चित है ही, यह शिशुगीत भी लाजबाव है- मैं अपने घर से निकली, तभी एक पीली तितली। पीछे से आई उड़कर, बैठ गई मेरे सिर पर। तितली रानी बहुत भली, में क्या कोई फूल-कली ?
"ऐसे ही 'मच्छर का ब्याह' अत्यंत मनोरंजक शिशुगीत है। मक्खी का दो टूक उत्तर बरबस ही प्रफुल्लित करता है-मच्छर बोला ब्याह करूंगा, मैं तो मक्खी रानी से। मक्खी बोली-'जा-जा पहले, मुँह तो धो आ पानी से! व्याह करूँगी मैं बेटे से, धूमामल हलवाई के, जो दिन-रात मुझे खाने को, भर-भर थाल मिठाई दें।' रानी बिटिया भी निरंकार देव सेवक की विशिष्ट कविताओं में से है। बच्चों के लिए ही नहीं, बड़ों के लिए भी यह कविता जैसे चिंतन का नया आकाश खोलती प्रतीत होती है। रानी बिटिया दिल्ली, चंडीगढ़, जयपुर, रामेश्वर घूमते हुए जब घर लौटती है तो माँ को दिया गया उसका अप्रत्याशित उत्तर मन की पतों को छू-छू जाता है- माँ ने पूछा- 'रानी बिटिया ! कहाँ गई थी बाहर?' बिटिया बोली-'कहीं नहीं माँ, में भी घर के अंदर।' 'घर के अंदर ? रानी बिटिया, ऐसा झूठ सरासर ?' 'झूठ नहीं माँ! सच कहती हूँ, भारत है मेरा घर।' (प्रतिनिधि बालगीत, 1994, सं. श्रीप्रसाद, पू, 14)
विभिन्न पाठ्यक्रमों में उनकी सरस कविताएँ वर्षों से पढ़ाई जा रही हैं। चंदा मामा दूर के! कविता को तो हमने भी छुटपन में उछल-उछल गाया है, तारों की उपमा कपूर के दीपकों से, अंगूर के गुच्छों से और मोतीचूर के बिखरे लड्डुओं से करना तो जैसे सेवकजी के ही बस की बात थी -साथ लिए आए तारे, चमक रहे कितने सारे, राजमहल में जैसे जगमग, जलते दीप कपूर के ! चंदा मामा दूर के! दूर-दूर बिखरे तारे, लगते हैं कैसे प्यारे, गिरकर फैल गए हों जैसे, , लड्डू मोतीचूर के! चंदा मामा दूर के! 'दूर देश से आई तितली' कविता भी उत्तर प्रदेश के पाठ्यक्रम के बहाने न जाने कितने बच्चों का कंठहार रही दूर देश से आई तितली, चंचल पंख हिलाती, फूल-फूल पर, कली-कली पर इतराती-इठलाती ।
उनकी 'पैसा पास होता' कविता में गजब की कल्पनाशीलता है। तोते और घोड़े के बाद चूहे को चना खिलाने से संभावित परिणाम में कितना चुलबुलापन पैसा पास होता तो चार चने लाते, चार में से एक चना को खिलाते, चूहे को खिलाते तो दाँत टूट जाता, दाँत जाता तो बड़ा मजा आता!
बच्चों में निर्भयता के संस्कार जगाती उनकी एक अनूठी कविता नंदन के जून, 1988 अंक में पढ़ी थी- चींटी डरती नहीं कि हाथी, कुचल पाँव से देगा। जुगनू डरता नहीं कि कोई पकड़ हाथ में लेगा। चिड़ियाँ डरती नहीं कि पेड़ों से टकरा जाएगी। मछली डरती नहीं कि मोटी मछली खा जाएगी। तब फिर हम क्यों डरें किसी से, कुत्ता बंदर हो। चूहा, बिल्ली, बकरा बकरी, चाहें शेर बबर हो। (पृ.47) वास्तव में बच्चों को ऐसी ही प्रेरक कविताएँ दी जानी चाहिए।
सेवकजी ने किशोर मानसिकता की कविताएँ भी खूब रचीं। डॉ. रोहिताश्व अस्थाना द्वारा संपादित चुने हुए बालगीत में उनकी कविता में किशोरों के मन की सफल अभिव्यक्ति देखते ही बनती है- पंडित मोहनलाल तिवारी, हिंदी हमें पढ़ाते हैं। लेकिन वह सीधे शब्दों के, उलटे अर्थ बताते हैं।... मैं जब कहता इन शब्दों का, यह तो अर्थ नहीं होता। तब वह कहते तेरी क्या है, तू तो है रट्टू तोता।
(पृ.147)
सेवकजी की बहुतेरी कविताएँ कथात्मक शैली में हैं। उनकी एक कविता पर तो एक युवा रचनाकार ने अपने नाम से पूरी कहानी ही लिख दी थी। उसके प्रकाशित होने पर मैंने आपत्ति की थी कि इस कहानी के साथ मूल लेखक निरंकारदेव सेवकजी का भी उल्लेख होना चाहिए था। बहरहाल आप उस कविता की अलमस्ती देखिए, जहाँ दो चिड़ियों के रोचक बार्तालाप को चंचल छटाएँ हैं- बच्चा एक बहुत ही सुंदर, रहता है इस घर के अंदर ! मुझे बड़ा प्यारा लगता है, नाम न जाने उसका क्या है। मैं तो उससे ब्याह करूँगी, उसको टॉफी-बिस्कुट दूँगी! कहा दूसरी ने मुसका कर, 'यह घर अच्छा तो लगता है, पर। चिड़ियाँ कहीं ब्याह करती हैं, वह तो बच्चों से डरती हैं। तू यदि उससे ब्याह करेगी, पिंजड़े में बेमौत मरेगी।'
सेवकजी ने पद्य कथाएँ खूब लिखीं। उनकी गीत कथाएँ तो खासी चर्चित हुई। हाँ, उन्होंने जीकहानियाँ भी लिखीं। नंदन, अप्रैल, 1988 पू. 61 पर प्रकाशित उनकी कहानी उपवास किशोरोपयोगी है। अभिमानी श्वेतकेतु की रोचक कथा के बहाने किशोरों में अप्रत्यक्ष रूप से संस्कार जगाने की भी कोशिश है।
सेवकजी का संपर्क देश के विभिन्न प्रांतों के बाल साहित्यकारों से था। उन्होंने अनुवाद कार्य भी किया है। सुनिर्मल बसु की बंगला कविता का यह अनुवाद देखिए- बना रहे हैं दाल पकौड़ी तलकर चंदा मामा। पास गए खाने को हम सब, शंकर मोहन, श्यामा। बहुत कड़ा उनका मिजाज है मोढ़े पर बैठे हैं। देखो कैसा बना रहे मुँह मन ही मन ऐंठे हैं। (बाल साहित्य समीक्षा, जनवरी 1979) अलिखित बालगीतों पर लिखे अपने एक आलेख में उन्होने अलिखित बाल साहित्य के खजाने को खोजने का आवाहन किया है- 'आवश्यकता है कि हम उस अलिखित बाल साहित्य का उसी प्रकार संकलन कर अध्ययन करें जैसे हमने लोकगीत साहित्य का किया है। इसके बिना हमारा बालगीत साहित्य अधूरा ही रहेगा।' (त्रिविधा, 1994, बाल भवन, पृ. 57) इस दिशा में काम होना चाहिए।
सेवकजी के बालसाहित्य पर पी-एच.डी . उपाधि हेतु कुछ शोधकार्य भी हुए। यद्यपि यह संख्या अत्यल्प है। रुहेलखंड वि.वि. से डॉ. अवधेश कुमार शुक्ल ने 1987 में निरंकारदेव सेवक के काव्य का समीक्षात्मक अध्ययन, डॉ. नृपेंद्र कुमार ने 1994 में निरंकारदेव सेवक की बाल कविताओं का मनोवैज्ञानिक अध्ययन और आगरा वि. वि. से 2002 में डॉ. चिरौंजी लाल ने निरंकार देव सेवक के बाल साहित्य का समालोचनात्मक अध्ययन विषय पर शोधकार्य किया हैं। उन जैसे बालसाहित्य के सच्चे रचनाकार पर जमकर काम होना चाहिए। शोध निर्देशकों और शोधार्थियों का ध्यान इस ओर जाना चाहिए। ... और उन बालसाहित्यकारों का भी जो अपने निजी संबंधों के आधार पर बस अपने ही ऊपर शोध कार्य की फिराक में रहते हैं। सेवकजी समर्पित बालसाहित्य सेवक थे। बालसाहित्य के लिए जिये। पत्नी और पुत्र के निधन की त्रासदी झेलते हुए भी उन्होंने बाल साहित्य के समर्पण को कम नहीं होने दिया।
उनकी पुत्रवधू पूनम सेवक के पास उनसे जुड़े ढेरों किस्से हैं। समय रहते उन्हें सहेज लेना चाहिए। सेवकजी से मेरा पत्राचार रहा। उनके लिखे अनेक पोस्टकार्ड मेरी धरोहर हैं। 21 दिसंबर 1990 के उनके एक पत्र को प्रस्तुत करने का लोभ में संवरण नहीं कर पा रहा, जिसे मैं प्रायः अपने माथे पर रख लेता हूँ। तब ऐसा लगता है कि सेवकजी आशीर्वाद दे रहे हैं-
प्रिय छोटे भाई,
आपका उत्तर दो महीने बाद दे पा रहा हूँ। लिखने पढ़ने का काम बहुत है और अकेला मैं करने वाला हूँ।
आपने नया लिखना प्रारंभ किया है, खूब लिखें और खूब पढ़ें। पढ़ें वह जो वैचारिकता का विकास करने वाला हो। आप साहित्य के क्षेत्र में आगे बढ़ें, यही कामना करता हूँ।
सस्नेह, निरंकार देव सेवक
सेवकजी का एक और पत्र जो कानपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका सामाजिक कल्याण संदेश के अक्टूबर 1990 अंक के पृ. 26 पर रामसिंहासन सहाय मधुर के देहांत पर लिखा गया था, भी इसलिए प्रस्तुत कर रहा हूँ, क्योंकि उसमें कहीं न कहीं सेवकजी की अंतर्व्यथा उजागर होती है। दृष्टव्य-यह जानकर बहुत दुख हुआ कि बलिया एक ऐसी गौरवमयी विभूति से वंचित हो गया जिस पर हिंदी बालसाहित्य जगत को गर्व था। यह हम हिंदी वालों की दरिद्रता ही है कि उनके जीवन काल में उनका समुचित सम्मान नहीं कर सके। राजनीति सामाजिक जीवन पर ऐसी छाई है कि साहित्यकार और बुद्धिजीवी सब पिछड़कर रह गए हैं। मधुरजी के पीछे अब अपने नंबर की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। -निरंकार देव सेवक
सेवकजी के जन्म शताब्दी वर्ष पर उनकी चुनिंदा कविताएँ प्रकाश मनु के संपादन में आई हैं। बालवाटिका का विशेषांक आया है। अन्य पत्रिकाओं को भी यह
पुनीत कार्य करना चाहिए।
एक समय था जब बरेली में प्रतिवर्ष सेवक जी की स्मृति में राष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठी होती थीं। मैं भी उनमें सम्मिलित हुआ हूँ। हम सब सेवकजी के घर पर ठहरते थे। डॉ. श्रीप्रसाद, डॉ. प्रतीक मिश्र, कृष्ण शलभ, सूर्यकुमार पांडेय, पूनम सेवक, निर्मला सिंह, फहीम करार इत्यादि और मैं (नागेश पांडेय संजय) कितनी बार सारी सारी रात जागकर कितना बतियाते थे। सेवक जी की बातो को याद कर भावुक होते हुए रो पड़ते थे। उन दिनों रुहेलखंड विश्वविद्यालय में निरंकारदेव सेवक शोधपीठ की स्थापना की माँग ने जोर पकड़ा था। तत्कालीन कुलपति और जिलाधिकारी महोदय ने आश्वस्त भी किया था लेकिन बात आगे नहीं बढ़ सकी।
विनोद चंद्र पांडेय द्वारा संपादित ग्रंथ 'बाल काव्य की अविरल यात्रा' में पृ. 41 पर प्रकाशित निरंकारदेव सेवकजी के आत्मकथ्य में प्रस्तुत उनकी अधूरी इच्छाएँ विगलित करती हैं। खासकर केंद्र सरकार द्वारा बाल साहित्य अकादमी की स्थापना की उनकी चाह पर विशेष रूप से काम होना चाहिए। यह उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी
डॉ. नागेश पांडेय संजय
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