आधुनिक सोच के लेखक : 'पराग' मासिक के संपादक : आनंदप्रकाश जैन
आलेख : डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'
बात नवें दशक की है, जब मैं बालसाहित्य में नया-नया आया था। कहाँ-कौन छपा, कौन ज्यादा छपा, इसकी बड़ी जिज्ञासा रहती थी। बालसाहित्य में उन दिनों दो आनंद थे। एक बिहार के रामवचनसिंह 'आनंद' और दूसरे बंबई के आनंदप्रकाश जैन दोनों खूब छपते थे। उनकी रचनाएँ बेजोड़ होती थीं। मैं उनका उत्सुक पाठक और प्रशंसक था। जहाँ रामवचन सिंह 'आनंद' की कविताएँ 'सीके से बर्फी चुराई किसने/बोलो जी बोलो?' या 'दादा जी का खर्राटा' मेरे मन पर अपना जादुई असर कर गई थीं, वहीं आनंदप्रकाश जैन को 1989 में पहली बार ही पढ़ कर मैं उनका मुरीद हो गया। था। यद्यपि जैन साहब की ख्याति एक कथाकार के रूप में है लेकिन मैं जब भी उन्हें याद करता हूँ तो सबसे पहले उनका एक मजेदार शिशुगीत 'इलाज' मेरे में चहक उठता है। बड़े ही नटखट और अटपटे चटपटे अंदाज में लिखे इस शिशुगीत के क्या कहने शायद ऐसी बेजोड़ रचनाएँ लिखी नहीं जातीं, लिख जाती हैं और इसीलिए मन को भा जाती हैं। उस पर छा जाती हैं पराग के अप्रैल 1989 अंक में पृष्ठ 38 पर प्रकाशित आनंदजी के इस मजेदार शिशुगीत का, आप भी आनंद लीजिए रामू को जुकाम ने जकड़ा / फौरन खटिया पकड़ी। नाक निरख कर डाक्टर बोला फीस लगेगी तगड़ी बैग खोलकर डॉक्टर ने फिर चाकू एक निकाला। नाक काटनी होगी बेटा/ यह क्या झंझट पाला ? खटिया से छलांग लगाई खाक उड़ी ना धूल पंख लगाकर रामू पहुँचा पल भर में स्कूल।
बच्चों की आम बहानेबाजी वाले इस गीत को पढ़कर सहज ही शरारती मुस्कान तैर उठती है यह शिशुगीत मुझे इतना पसंद है कि बाद में मैंने इसका प्रासंगिक उपयोग अपने उपन्यास 'टेढ़ा पुल' में भी किया।
पराग के उसी अंक में जैन साहब की एक कहानी भी छपी थी लीडर जी छात्र और छात्रावास जीवन में किशोरों की परिपक्व होती मानसिकता और उसके बल पर परिस्थितिजन्य समस्याओं के स्वतः समाधान की सूझबूझ पर यह अनोखी-चोखी हास्य कहानी है जिसे एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद पाठक मंत्रमुग्ध होकर पढ़ता चला जाता। है कहानी में महानगरीय परिवेश है और आधुनिक जीवन शैली का सहज चित्रण है। पुरातन से अधुनातन सोच लेने की उनकी कला भी देखते ही बनती है।
पारंपरिक कहानियों के समय में इस तरह की आधुनिक कहानियों के सृजन में जैन साहब की तत्परता सजगता को देखकर मन उनके प्रति आदर से भर उठता है।
....तो पराग के एक ही अंक में उनकी दो-दो बेजोड़-मनभावन रचनाएँ देख मैं उनका भक्त हो गया। पराग में लेखकों के पते भी छपते थे। आगे चलकर मैंने उनको पत्र लिखा और अपनी लेखकीय रुचि और पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही अपनी रचनाओं के बारे में भी उन्हें बताया। एक तरह से अपनी लेखकीय प्रगति की सूचना देते हुए उनके आशीर्वाद की कामना की। मेरा अहोभाग्य कि लौटती डाक से उनका एक अत्यात्मीय पत्र मुझे मिला। पत्र क्या धरोहर कहूँ प्रशस्तिपत्र भी कहा जा सकता है। मुझे स्मरण है कि उन दिनों उनका वह स्नेहिल पत्र, मैं मित्रों को दिखाते न थकता था। एक-एक शब्द में कितना रस भरा था उन्होंने कि मेरे जैसा कोई भी नया लेखक भला उसके जादुई प्रभाव से कैसे बच सकता था? लगा था कि उनसे पुराना परिचय है और वे मेरे सहज संरक्षक हैं।
उन्होंने लिखा कि तुम शायद नहीं जानते कि बड़ों को जब पता चलता है कि उनके स्नेहभाजन घुटनुओं चलना छोड़कर दौड़ने लगे हैं तो उन्हें कितनी प्रसन्नता होती है।
पत्र इलेक्ट्रानिक टाइपराइटर से लिखा गया था, इसलिए मेरे पास उपलब्ध साहित्यकारों के ढेर सारे पत्रों में वह एकदम अलग था। बाद में उनकी पत्नी चंद्रकांता जैन के एक आलेख से जानकारी हुई कि वे रचनाएँ भी टाइपराइटर से ही लिखते थे दृष्टव्य सन् 1950 से तो टाइपराइटर ही इनकी कलम बन गया। बजाय एक हाथ के दोनों हाथों से लिखा जाने लगा। अपने समय के ये सबसे तेज लेखकों में गिने जाते थे। एक दीपावली पर मुझे अच्छी तरह याद है तेरह पत्र-पत्रिकाओं के विशेषांको में इनकी कहानियाँ छपी थीं (बाल साहित्य समीक्षा, अगस्त 1990, आनंदप्रकाश जैन विशेषांक, पृष्ठ 13)
आज सोचिए तो लगता है कि वे वास्तव में उस जमाने में आधुनिक ढंग से सृजन में आधुनिक रंग भरनेवाले लेखक थे।
परिवार के साथ |
आनंदजी से मैं जुड़ा तो जुड़ता ही चला गया। उन दिनों बालहंस में एक स्तंभ था- बालसाहित्य के गौरव। इसके नवें क्रम में आनंदजी के बारे में विस्तृत परिचयात्मक आलेख छपा। यद्यपि इसे चंद्रपालसिंह यादव 'मयंक' से भेंटवार्ता के रूप में प्रकाशित किया गया था लेकिन था यह विवरणात्मक आलेख खैर... इस आलेख को पढ़कर उनके बारे में विस्तार से जानने को मिला। यह जाना कि वे कथा साहित्य के महारथी हैं और उनके ढेरों बालउपन्यास छप चुके हैं और वह भी केवल उनके नाम से ही नहीं बल्कि छद्मनाम चंदर से भी। यह जाना कि वे मूलतः कवि थे। यह जाना कि वे पराग के संपादक रह चुके हैं और अपने संपादन काल में उन्होंने लेखकों का पारिश्रमिक लगभग दस गुना बढ़वा दिया था। वे वास्तविक संपादक थे। रचना को वापस करते समय प्रायः उनकी टिप्पणियाँ, रचनाओं से भी लंबी हो जाती थीं।
दो माह बाद ही डॉ. राष्ट्रबंधु जी ने बालसाहित्य समीक्षा पत्रिका के अगस्त और सितंबर 1990 अर्थात दो अंक आनंदप्रकाश जैन विशेषांक के रूप में प्रकाशित किए। इनसे उनके बारे में और अधिक जानने का अवसर मिला।
नि:संदेह लेखक के रूप में तो वे प्रणम्य हैं ही, संपादक के रूप में भी उनकी स्तुत्य भूमिका है। पराग के बहाने उन्होंने किशोर साहित्य को खूब बढ़ावा दिया और वे शिशुगीतों की तो एक अविरल परंपरा के ही संवाहक हैं। उन्होंने शिशुगीत रचनाकारों के समक्ष सृजन के मानदंड प्रस्तुत किए। सच बात तो यह है कि उनके एक आलेख 'अटपटे शिशुगीतों का चटपटा संसार, से मैंने भी बहुत कुछ सीखा। खासकर जो उदाहरण इस आलेख में उन्होंने प्रस्तुत किए थे, उनमें से कई आज भी मेरी जबान पर चढ़े हैं और बहुधा उनकी चर्चा कर ही बैठता हूँ। छोटा सा यह आलेख जैसे शिशुगीतों का घोषणापत्र है जिसे पढ़ते हुए शिशुगीतों की लंबी राह की अंतरंग यात्रा का सुख मिलता है।
इस आलेख के प्रारंभ में ही वे बताते हैं कि सबसे पहले शिशुगीत का अंकन फ्रांसीसी भाषा में 13वीं शताब्दी में हुआ। गीत था थर्टी डेज हैथ सेप्टेंबर... फिर इस यात्रा की चर्चा करते हुए वे सैद्धांतिक विवेचन और अपने अनुभवों को भी प्रस्तुत करते हैं। शिशुगीतों की अंतर्प्रकृति का जितना सहज और स्पष्ट चित्रण कम शब्दों में उन्होंने किया है, कदाचित् ही अन्यत्र दृष्टिगत हो। जैन साहब के शब्दों में शिशुगीतों की भाषा कोई भी हो, उनकी पहली शर्त यही है कि उनमें कुछ ऐसा अटपटापन हो, जो बरबस ही गुदगुदाए, खासतौर पर बच्चों के सरलबोध को और उन बड़ों को भी जिनकी प्रवृत्ति बच्चों के समान हो। फिर दूसरी शर्त ठहरती है शिशुगीत के चटपटे होने की यह कोई तुकबंदी का मसला नहीं है। न ही सिद्धहस्त और धुरंधर कवियों के काव्य बोध से इसका कोई सरोकार है। यह है हम आप जैसे सामान्य लिखने बोलने वालों की आंतरिक विनोदप्रियता की सहज अभिव्यक्ति, जो अचानक बच्चों को मुदित करने के लिए फूट पड़ती है। इस प्रकार के कवियों को हम अल्हड़ कवि कह सकते हैं।' (शंभूप्रसाद श्रीवास्तव: व्यक्तित्व कृतित्व, पृष्ठ 49 )
आनंद प्रकाश जैन जी 1960 से 1972 तक पराग के संपादक रहे। इस अवधि में उन्होंने पूरे दो पृष्ठों में शिशुगीत प्रकाशित करने की परंपरा विकसित की। उन्होंने आत्मकथ्य में स्वीकार किया है कि केवल बड़े लेखकों के प्रभाव में आए बगैर उन्होंने सहज भाव से नई प्रतिभाओं का सम्यक् उपयोग किया। फलस्वरूप श्रेष्ठ शिशुगीत स्वाभाविक रूप से प्राप्त होते गए।
उन्होंने किशोर साहित्य को लेकर खुलेपन की हद तक प्रयोग किए और शायद इसी कारण पराग को त्यागपत्र भी देना पड़ा। यह अति मुखरता का परिणाम था ।
आनंदजी के पास कारयित्री और भावयित्री दोनों ही प्रतिभाएँ थीं। जहाँ अपने आलेखों के माध्यम से वे मानकों की वकालत करते रहे, वहीं अपने रचनाकर्म के द्वारा उन्होंने मानकों को प्रस्तुत भी किया । बालसाहित्य के माध्यम से वे भावनात्मक पोषण के हिमायती थे। वे आडंबर के प्रबल विरोधी थे। वे आरोपित बालसाहित्य की बजाय, स्वाभाविक बालसाहित्य की बात करते थे। एक आलेख में उन्होंने खिचड़ी बालसाहित्य को लेकर चिंता व्यक्त की और केवल लिखने के • लिए लिखे गए बालसाहित्य के प्रकाशन पर प्रकाशकों को आड़े हाथों लेते हुए कहा था प्रकाशक को लेखक नहीं, लिक्खाड़ चाहिए।' उनका कहना था कि बच्चों को आगे बढ़ो जैसे अमूर्त बोध न दें। बल्कि ..' किस तरह वह आगे बढ़े, क्या करे, कौन सी तरकीबें आजमाए कि वह आज की जानलेवा होड़ में, सफलताओं की प्राप्ति के लिए अगली पंक्तियों में खड़ा हो सके, इसका व्यावहारिक ज्ञान उसे चाहिए। कोरी और अव्यावहारिक बातों के संदर्भ में उन्होंने साफ किया है कि देश प्रेम जैसी भावनाएँ भरना बहुत बड़ा अनुष्ठान है। उससे पहले व्यक्ति प्रेम, पड़ोसी प्रेम और साहित्य प्रेम जैसी भावनाएँ तो हम बच्चों में भरने की सोचें । जब हम अपने पड़ोसी के ऊपर जान नहीं दे सकते तो देश के लिए क्या जान देंगे।' (भारतीय बालसाहित्य के विविध आयाम, पृष्ठ 31)
बालसाहित्य के मानदंड शीर्षक आलेख में जैन साहब ने लाख टके की बात, और वह भी आज से पचास साल पहले कही है। खासकर बड़ों के साहित्य की पठनीयता के समक्ष आसन्न संकट और साहित्यिक पलायन को लेकर चिंता व्यक्त करते हुए सहज समाधान भी परोसा है- 'सबसे बड़ी बात वर्तमान भारतीय बालसाहित्य को आधुनिक रूप देना इसलिए भी आवश्यक है कि बड़े होकर इस बालसाहित्य के पाठकों को उस बौद्धिक साहित्य का अनुशीलन करने का अवसर अधिक सुविधा के साथ मिल सके, जिसे आज के बड़े कहलानेवाले बच्चे समझने में कठिनाई अनुभव करते हैं और सस्ते तथा अवांछनीय साहित्य की ओर दौड़ते हैं।' (मधुमती, जुलाई-अगस्त, 1967, भारतीय बाल साहित्य विवेचन विशेषांक, पृष्ठ 375)
आनंदप्रकाश जैन जी बालसाहित्य के सजग लेखक और संपादक थे। उनके विचार समसामयिक हैं। सार्वकालिक हैं। कविता और कहानी ही नहीं, उन्होंने बाल नाटक भी लिखे। आधुनिकता का पुट वहाँ भी बरकरार है। उनका एक नाटक है 'परियों के देश में, जिसके नाम पर न जाइए। कल्पनाशीलता के बल पर यथार्थ का चित्रण ही तो उनकी खूबी है जिसे वे बखूबी निभाते हैं, चाचा रंगीराम और भतीजे विपिन के बहाने बच्चों को जीवन के सच से जोड़ने का उपक्रम जिस मजेदार ढंग से इस नाटक में किया गया है। उसकी सराहना करना कठिन है। नाटक में काव्य पंक्तियों के प्रयोग से वैशिष्ट्य आ गया है। फूड परी और अमरूद को रसगुल्ला समझने की कल्पना अपूर्व है। ( साहित्य अमृत, नवंबर 2012, पृष्ठ 125)
रोचकता ही बालसाहित्य का प्राण तत्व है और इस दृष्टि से जैन साहब बाल साहित्य में प्राण फूँकते हैं। एक मजेदार बात, शायद मुझे ही लगता हो कि वे अपनी अधिकांश कहानियों में गाहे-बगाहे कोई न कोई खाने की मजेदार चीज जरूर ले आते हैं। जैसे कहने को इतिहास कथा 'आगे बढ़ो' में राजस्थान के एक राजा के बेटों हिम्मत सिंह और बप्पालाल की कहानी किस्सागोई शैली में है और काल्पनिक पात्रों बीरवल और चाणक्य को भी उसमें शामिल कर लिया गया है लेकिन आधुनिक परिवेश के जिज्ञासु बच्चों की हुंकारियों के साथ कहानी जिस नवेले अंदाज में बढ़ती जाती है और वह भी अंतर्कथाओं की उपमाओं के साथ-साथ कि कहानी में उपन्यास जैसा आनंद आने लगता है। इस
कहानी के प्रारंभिक चुटीले संवाद देखिए : चाणक्य ने एक गरम पुआ मुँह में डालते हुए हमसे कहा- 'आगे
'किधर आगे बढ़ें?' हमने सवाल किया। 'मालपुआ हम भी खाना चाहते थे।'
'हाँ, ' चाणक्य ने भी अपनी चुटिया हिलाई 'हमने पाँच गरमागरम मालपुए आपके लिए रख छोड़े हैं। अगर आपने उस कहानी से हमें आगे बढ़ो का अर्थ समझा दिया तो पाँचो आपके।'
'मगर यह याद रखिए कि... कहानी से यह स्पष्ट संकेत मिलना चाहिए कि हम किधर को आगे बढ़ें, जिससे..'
'हमारी पढ़ाई लिखाई की समस्या हल हो' चाणक्य ने कहा। 'औल हमें लोज-लोज मालपुए खाने को मिलें। तोतूराम ने कहा। (बालहंस, जून द्वितीय, 1990, पृष्ठ 10)
तो वहाँ अमरूद की बात थी, यहाँ मालपुए की और ऊपर जिस लीडर कहानी की बात मैंने की थी, उसमें अमरूद के रस का जिक्र हुआ है।
जो भी..., आनंद जी का बालसाहित्य आनंद रस से भरपूर है। कहानी में कहानी गढ़ने में माहिर आनंदजी की रससिद्ध रचनाएँ आने वाले समय में भी अपनी श्रेष्ठता के कारण महत्वपूर्ण रहेंगी। उनकी सम्पूर्ण बाल कहानियाँ प्रकाश मनु जी के संपादन में दिल्ली पुस्तक सदन से प्रकाशित हुईं हैं।
डॉ. भैरूंलाल गर्ग के संपादन में उन पर केन्द्रित 'बाल वाटिका' का विशेषांक बहुचर्चित हुआ है ।
Nice
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