मंगलवार, 22 जून 2021

संस्मरणात्मक आलेख : 'बाल कविताओं के समंदर' के कुशल गोताखोर कृष्ण शलभ -डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'

कृष्ण शलभ जी के साथ डॉ. नागेश
पकड़ सको तो पकड़ो, मेरे लगे हवा के पर...
'बाल कविताओं के समंदर' के कुशल गोताखोर कृष्ण शलभ
आलेख- डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'
    दिखा अँगूठा, बोला मुन्ना टिली लिली झर। पकड़ सको तो पकड़ो, मेरे लगे हवा के पर।
कृष्ण शलभ जी की यह बेजोड़ कविता  मुझे चिढाती सी लग रही है। हवा के पंख लगाकर वे उड़ गए। हमारी पकड़ से बाहर बहुत दूर चले गए। बहुत ही दूर..., जहाँ से वे क्या, कोई भी नहीं लौटता। 
ज्यादा दिन तो नहीं हुए। जैसे कल ही की बात लगती है। हम लोग साहित्य अकादमी, नई दिल्ली की ओर से बाल साहित्य कार्यशाला (21-22 जून, 2017) में भाग लेने राजसमन्द गए थे। दिल्ली से  सभी के टिकिट एक साथ थे। सहारनपुर से मेरे लिए खाना लेकर आए थे। वापसी का टिकिट भी साथ था लेकिन गुर्जर आंदोलन के चलते हमारी ट्रेन कैंसिल हो गयी। एक ही कार से से हम लोग स्टेशन की ओर जा रहे थे। आदतन मैंने ट्रेन चेक की तो पता चला कि कैंसिल। उनसे सटकर ही तो बैठा था। साथ में उनकी पत्नी हेम जी भी थी। बाल साहित्य के ऐसे बहुत कम आयोजन मुझे याद आते हैं, जिनमें वे अकेले गए हों। यह जोड़ी अटूट थी जो टूट गई। हम लोग उनके बिछोह को दिल से महसूस रहे हैं तो पत्नी के कलेजे पर क्या बीत रही होगी, इसकी तो कल्पना ही की जा सकती है।
जब उनसे बीच राह में विदा ली थी तो सपने में भी न सोचा था कि यह हमारी अंतिम भेंट है। यों राजसमन्द में उनके साथ घूमते फिरते जाने कब उनके मुख से निकल गया था कि जिंदगी का क्या भरोसा।
राजस्थान में अंतिम भेंट 
मैंने बेहिचक कहा था नहीं, अभी तो आप को 1000 शिशुगीतों का काम पूरा करना है और उनके चेहरे पर चमक आ गयी थी। बड़ी तन्मयता से वे इस काम में लगे थे। ठीक वैसे ही, जैसे बचपन एक समंदर ग्रन्थ का भागीरथी प्रयत्न उन्होंने किया था। भगीरथ जी पूर्वजों के उद्धार हेतु गंगा उतारकर लाए थे और शलभ जी तो जैसे बाल साहित्य के उद्धार हेतु सागर ही उतार लाए। सच, उनके इस बड़े काम के बाद छाती चौड़ी हो गयी थी। हम गर्व से इस ग्रन्थ का उल्लेख्य करते थे। 
जो कहते थे कि बाल साहित्य में गम्भीर काम देखने को नहीं मिलता, उन्हें निस्सकोंच परामर्श देते थे कि बचपन एक समंदर देखिए, सब पता चल जाएगा। लोग हास्यास्पद डिग्रियों के बल पर खुद को डॉक्टर लिखने में बड़ा गर्व महसूस करते हैं। इस ग्रन्थ में शलभ जी की भूमिका देखकर लगता है कि डॉक्टरेट की उपाधि के असली हकदार तो ये लोग है।  ...तो ऐसी ही तन्मयता से वे लगे थे। हजार शिशुगीतों का संकलन करने के लिए वे कितना दौड़े। कितना भागे। शायद ही इसका सहज अनुमान किया जा सके। कितनी दुर्लभ पांडुलिपियां उन्होंने एकत्र कीं। वर्ष 2016 में 12 जून को मैं डॉ. आर. पी. सारस्वत की पुस्तक विमोचन के लिए सहारनपुर गया था। गया क्या था, उन्होंने ही बुला लिया था। बिलकुल आदेश के स्वर में वे मेरे घर पर पत्नी से भी कह गए थे कि समीक्षा तुम्हें भी आना है। फिर हम सब साथ साथ शाकुम्भरी देवी के दर्शन को चलेंगे। और फिर ऐसा ही हुआ। पत्नी और बेटी सृष्टि के साथ मैं गया। एक दिन पूरा उनके घर बिताया। बच्चे तो उनके परिवार के साथ मस्त हो गए और मैं बेड पर बैठा उनके साथ इसी पाण्डुलिपि पर चर्चा करता रहा। मैं उनका श्रम देख चकित था। कहीं न कहीं शर्म भी महसूस कर रहा था। हजार शिशुगीतों की तैयार हो रही पांडुलिपि का अधिकांश उन्होंने स्वयं तैयार किया था। छोटे-छोटे मोती जैसे अक्षर  चिढा रहे थे। इसे कहते हैं काम।
 मैं तो प्रतिदिन की अपनी यात्राओं की थकन में कुछ नहीं कर पाता। कितनी बार उन्होंने मुझे कहा कि शिशुगीत भेजो। अपने भी और  जिन्हें तुम श्रेष्ठ समझते हो वे भी। कितने आग्रहों के बाद मैं उन्हें कुछ भेज पाया था और वे कि सैकड़ों रचनाओं को खोजकर खुद हाथ से लिखने का मशक्कत भरा काम कितनी सहजता से निबटाने में लगे थे।
 मैंने कहा -दादा, ये काम आप ही कर सकते थे। कुछ साहित्यकार हैं जिनके पास सामर्थ्य है लेकिन समय नहीं। कुछ हैं जिनके पास समय है लेकिन सामर्थ्य नहीं। आप ऐसे बिरले हैं कि समय और सामर्थ्य दोनों के ही स्वामी हो। 
वे हँस भर दिए थे। 
तो यह बड़ा काम उन्होंने कर दिखाया। फोन पर बताया था कि इसकी पांडुलिपि प्रकाश मनु जी की परामर्श के लिए भेज रहा हूँ। वे देख लें और समय दें तो फरीदाबाद जाऊँ। दुर्भाग्य कि ऐसा हो न सका। उनके निधन की सूचना मनु जी को दी तो वे कुछ पल के लिए निशब्द रह गए थे।
 नियति को यही स्वीकार था। पर जाने क्यों आज भी मन उनका जाना स्वीकार नहीं कर रहा। बार बार लगता है कि अभी उनका रहना बहुत जरूरी था। ऐसे लोग हैं ही कितने? जिनके दिलों में बाल साहित्य धड़कन बन धड़कता है। 
वे अकेले नहीं गए, बहुतेरे सपने साथ चले गए। 
मेरा उनसे पुराना नाता था। 1995 में पहली बार मिले थे।  उनके मुख से टिली लिली झर गीत क्या सुना, उनका दीवाना हो गया था। इस कदर कि एक आलेख में ही मैंने लिखा था कि यदि हिंदी के दस अलमस्ती में गाए जानेवाले बालगीतों का चयन मुझे करना हो तो उनमें से एक शलभ जी का गीत टिली लिली झर होगा। 
यह गीत नन्दन में छपा था। 
इसकी भी गजब कहानी है। तत्कालीन सम्पादक जयप्रकाश भारती ने इसे औपबंधिक स्वीकृति दी थी। लिखा था कि मुखड़ा बहुत सुंदर है लेकिन आगे के बंद और तराशिए। फिर तीन बार की कोशिश में यह मुकम्मल गीत बना। बार बार सोचता हूँ कि ऐसे सम्पादक और कवि भला कितने है जो एक सम्पूर्ण रचना को तैयार करने के लिए इतना यत्न करें।
तो जिस तरह आँख बंद कर वे इसे गाते थे और अनूठे अंदाज में कहते कि वो देखो वो चिड़ी चिड़े के ले गयी कान कतर। तो कभी न गानेवाले मुझ जैसे बेसुरे के कंठ से भी सुर फूट पड़ते थे। 
कभी ऐसा हुआ नहीं कि वे मिले हों और कविता पाठ के वक्त मैंने उनसे इस गजब गीत की फरमाइश न की हो। 
 प्रभा बाल साहित्य सम्मान समारोह की अध्यक्षता के लिए वे 8 मई 2016 को शाहजहांपुर आए थे। संयोजक अजय गुप्त ने उन्हें बुलाया था। सबने खूब उन्हें सुना था। कन्नड़ मूल के जिलाधिकारी विजय किरन आनंद भी देर तक बैठे रहे थे। जब उन्होंने कहा कि अंतिम रचना पढ़ रहा हूँ तो मैं तपाक से खड़ा हो गया, न दादा। टिली लिली के बिना तो काव्य पाठ पूरा न होगा। (यह वीडियो देखने के लिए यहाँ क्लिक करें)
फिर ...राजसमन्द में आखिरी बार उनके मुख से यह गीत सूना। अंतिम बार यह गीत सुन रहा हूँ, मैंने न सोचा था। 
खुटार में 1996 में मैंने बाल साहित्य प्रसार संस्थान की ओर से बाल साहित्यकार सम्मेलन किया था। वे आए तो अतिथि के रूप में थे लेकिन भूमिका संयोजक की निभाई। डायस से लेकर माइक तक सब कुछ व्यवस्थित कराया। वे एक कुशल आयोजक थे। जिन्होंने समन्वय, सहारनपुर के आयोजन देखे हों, वे मेरी बात से सहज सहमत होंगे।
1.इंदौर 2.भीलवाडा 3.कोलकाता और 4.मसूरी के स्मृति चित्र 
    इलाहाबाद, इंदौर, दिल्ली, कोलकाता, मसूरी, भीलवाड़ा : न जाने कितनी यात्राएं मैंने उनके साथ कीं। बाल साहित्य के विमर्श में मेरी उनसे खूब छनती थी। भीमताल में हिंदी बाल कहानी पर मेरा व्याख्यान था। बाद में बोले, एक बात कहूँ नागेश? तुम बख्शते किसी को भी नहीं। और इससे पहले कि मैं कुछ कहता, खिलखिलाकर हँस पड़े थे। 
फोन पर  जब भी उनसे बात होती थी तो लम्बी बात होती थी। कई बार जब उनका फोन न लगता तो साधिकार भाव से मैं उनकी पत्नी को फोन मिला देता। वे कबहुँक अंब अवसर पाइ, मेरी सुधि ध्याइबो, कछु करुण कथा चलाइ की तर्ज पर मेरी बात करा ही देतीं थीं। 
शलभ जी से अक्सर मैं एक चुटकी लेता था और वे मुस्कुरा उठते थे। मैं पूछता कि बताओ दादा, आपके ऊपर जुलम किसने किया?
शुरू में तो दो चार बार उन्होंने सहसा चौंक कर पूछा कि कैसा जुलम ? मगर बाद में यह प्रसंग हम लोगों के आनन्द लेने का हेतु बन गया। 
बात कोलकाता की है। 2003 की। पुष्करलाल केडिया जी द्वारा आयोजित मनीषिका के बाल साहित्यकार सम्मेलन के बाद, हम लोग गंगासागर से लौटे थे। वापसी की ट्रेन एक ही थी। हावड़ा पहुंचे तो कोच देखने के लिए अपने-अपने टिकट निकाले। मगर उनका टिकट तो गुम।
 प्लेटफार्म पर बैग खोला फिर अटैंची। सारा सामान बिखेर दिया। मगर टिकट की समस्या विकट। बेचारे बार-बार माथा पकड़ते। 
पत्नी पर झुंझलाते-हेम, आज तुमने बड़ा जुलम किया। 
मैंने कहा, दादा । अब ट्रेन का टाइम हो रहा है। सारा सामान समेटिए। 
क्या होगा नागेश ?
मैंने कहा-दादा अब जो होगा। ट्रेन में होगा। फ़िलहाल टेंशन छोड़िए। 
अचानक मैंने उनकी डायरी खंगाली और वाह ! टिकट महाशय तो वहीं छुपे बैठे थे। 
दोनों को जो सुख मिला, उसकी व्याख्या कठिन है।
    शलभ जी बड़े कद के बालकवि थे। बाल कवि क्या, बालगीतकार थे। बाल कविता और बालगीत में अंतर है। वे इसे बखूबी समझते और समझाते थे। उनके बालगीत बाल साहित्य की अनमोल थाती है। पिछले दिनों उनका एक बहुत ही प्यारा बाल गीत बाल वाटिका में छपा था -खिड़की खुली मकान की। खिड़की खुलने के बाद के अलबेले दृश्यों को एक बच्चे के नटखट अंदाज से देखते हुए उनकी यह रचना स्वयं में अद्भुत और अपूर्व है जो घिसे-पिटे विषयों पर लिखने वाले छपास के रोगियों के लिए एक आमंत्रण जैसी है। लिखो, लिखो ऐसे बहुतेरे विषय आपके इर्द गिर्द बिखरे पड़े हैं। लिखो, उन पर लिखो।
शलभ जी का सृजन ही उनका सबसे बड़ा पुरस्कार सम्मान था। यों शलभ जी को बहुतेरे पुरस्कार सम्मान मिले। 
स्तुत्य समर्पण के लिए बाल वाटिका ने भी शलभ जी का सारस्वत सम्मान किया था। वे इस सम्मान से अभिभूत थे। उनका प्रशस्ति पत्र मैंने ही तैयार किया था। जब उन्होंने प्रशस्तिपत्र की प्रशंसा की तो डॉ. भैरूंलाल गर्ग ने विनम्रतापूर्वक उनको बता दिया कि इसे तो डॉ. नागेश ने लिखा है। 
वे गदगद थे । मुझे धन्यवाद कहने से न चूके, यह उनका बड़प्पन था। 
आज उस प्रशस्ति पत्र का सहज स्मरण स्वाभाविक है-
बाल साहित्य सृजन और संपादन के क्षेत्र में प्रण-प्राण से समर्पित कृष्ण शलभ हिंदी के सर्वाधिक सक्रिय बाल साहित्यकारों में से हैं. उन्होंने बाल साहित्य की अलख जगाई है और एक तरह से हिंदी बाल साहित्य का परचम राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्सरित किया है. बाल साहित्य के प्रति उनके मन में चिंतन भी है और चिंता भी . यही कारण है कि अनवरत सृजनरत रहते हुए उन्होंने जहाँ स्वयं बाल कविता के क्षेत्र में उच्च कोटि का प्रचुर लेखन किया , वहीँ इसकी सर्जना की दिशा में भी निरंतर परिवेश का निर्माण करने की दिशा में तन्मयतापूर्वक सजग रहे हैं .ओ मेरी मछली , टिली लिली झर सूरज को चिट्ठी, 51 बाल कविताएँ आदि कृतियाँ बाल साहित्य के क्षेत्र में उनके अनवरत सृजन को रेखांकित करती हैं . 
बाल साहित्य में शोध कार्य के प्रति उनके मन में सहज अनुराग है वे स्वभाव से ही खोजी और शोधी प्रवृत्ति के हैं . यही कारण है कि उनके द्वारा बचपन एक समंदर जैसे मानक और भारतीय भाषाओं में इस प्रकार के एक मात्र ग्रन्थ का संपादन प्रकाशन संभव हो सका। इस वृहदाकार ग्रन्थ से बाल साहित्य के प्रति समाज में विमर्श और सम्मान को प्रोत्साहन मिला है और इसने बाल साहित्य में शोध और समालोचना को भी आधारभूमि प्रदान की है।
बचपन एक समंदर जैसा चमत्कारी कार्य करने वाले शलभ जी की रचनाओं में भी समंदर जैसी गहराई है। और फिर उनकी रचना यदि समंदर पर हो तो कहने ही क्या, बाल सुलभ जिज्ञासाएँ देखते ही बनती हैं- मोती की खेती की मौलिक कल्पना और किसी चिड़ियाघर या सर्कस के तम्बू का आभास तो वास्तव मे कृष्ण शलभ की ही तूलिका से सम्भव था- बोल समंदर सच्ची-सच्ची, तेरे अंदर क्या, जैसा पानी बाहर, वैसा ही है अंदर क्या? रहती जो मछलियाँ बता तो कैसा उनका घर है? उन्हें रात में आते-जाते, लगे नहीं क्या डर है?
तुम सूरज को बुलवाते हो, भेज कलंदर क्या?
बाबा जो कहते क्या सच है, तुझमें होते मोती, मोती वाली खेती तुझमें, बोलो कैसे होती! मुझको भी कुछ मोती देगा, बोल समंदर क्या?
जो मोती देगा, गुड़िया का, हार बनाऊँगी मैं, डाल गले में उसके, झटपट ब्याह रचाऊँगी मैं!
दे जवाब ऐसे चुप क्यों है, ऐसा भी डर क्या?
इस पानी के नीचे बोलो, लगा हुआ क्या मेला, चिड़ियाघर या सर्कस वाला, कोई तंबू फैला- जिसमें रह-रह नाच दिखाते, भालू-बंदर क्या?
शलभ जी के अनूठे सृजन में कथाओं जैसा आनन्द भी है- मेढक बोला- ‘टर्रम-टूँ, जरा इधर तो आना तू, खाज़ लगी मेरे सिर में, जरा देखना कितनी जूँ!’ कहा मेढकी ने इतरा- ‘चश्मा जाने कहाँ धरा, बिन चश्मे के क्या देखूँ , कहाँ कहाँ है कितनी जूँ!
 बहुत सी उनकी रचनाएँ बतकही शैली में है। भोला संवाद और चुटीली जिज्ञासाएँ। 
सूरज पर उनके बालगीत की श्रेष्ठता का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है कि इसे एक छद्म कविराज ने चुराकर अपने नाम से एक प्रतिष्ठित पत्रिका में छपवा लिया था। शलभ जी ने उन कविराज को ऐसा नोटिस दिया कि फिर किसी अन्य कवि को उन्होंने वैसा सौभाग्य न दिया। बहरहाल आप उस बालगीत से रूबरू होइए -सूरज जी, तुम इतनी जल्दी क्यों आ जाते हो! लगता तुमको नींद न आती और न कोई काम तुम्हें, ज़रा नहीं भाता क्या मेरा, बिस्तर पर आराम तुम्हें। खुद तो जल्दी उठते ही हो, मुझे उठाते हो!
कब सोते हो, कब उठते हो, कहाँ नहाते-धोते हो, तुम तैयार बताओ हमको, कैसे झटपट होते हो। लाते नहीं टिफिन, क्या खाना खाकर आते हो?
 कृष्ण शलभ जी ने बहुत पहले चिड़िया पर एक संकलन सम्पादित किया था। यह एक छोटी सी पुस्तक थी। पर थी गागर में सागर सी। चिड़िया पर बहुत ही सुंदर कविताएँ उसमे थीं। 
शलभ जी का भी एक बाल गीत चिड़िया पर है, जो मुझे विशेष प्रिय है। इसलिए भी कि चिड़िया से बातें करते करते वे उसे सलाह भी देते हैं और कविता के मर्म तक जा पहुँचते हैं -
जहाँ कहूँ मैं बोल बता दे, क्या जाएगी, ओ री चिड़िया। उड़ करके क्या चन्दा के घर
हो आएगी, ओ री चिड़िया।
चन्दा मामा के घर जाना, वहाँ पूछ कर इतना आना। आ करके सच-सच बतलाना, कब होगा धरती पर आना।
कब जाएगी, बोल लौट कर, कब आएगी, ओ री चिड़िया।
उड़ करके क्या चन्दा के घर, हो आएगी, ओ री चिड़िया।
शलभ जी सूरज से भी किरणों का बटुआ लाने की फरमाइश करने से नहीं चूकते-
पास देख सूरज के जाना, जा कर कुछ थोड़ा सुस्ताना, दुबकी रहती धूप रात-भर, कहाँ? पूछना, मत घबराना। सूरज से किरणों का बटुआ, कब लाएगी, ओ री चिड़िया।
उड़ करके क्या चन्दा के घर हो आएगी, ओ री चिड़िया।
और कविता का अंत तो जैसे बड़ों से भी सवाल करता प्रतीत होता है। टेक्नलॉजी के इस युग में भले ही हम अंतरिक्ष के कोनों को खंगालने में जुटे हैं। हर हाथ में मोबाइल और टेब हो और हर आँख में आकाश को छूने की ललक लेकिन अपनी धरती से भी जुड़े रहने की दमक और उसकी सोंधी गन्ध की महक तो उनकी रचनाओं में गाहे बगाहे आ ही जाती है, जिसमे सन्देश और सवाल दोनों ही अपनी चिरपरिचित शैली में अभिव्यक्त होते हैं- चुन-चुन-चुन-चुन गाते गाना। पास बादलों के हो आना, हाँ, इतना पानी ले आना। उग जाए खेतों में दाना। उगा न दाना, बोल बता फिर क्या खाएगी, ओ री चिड़िया?
उड़ करके क्या चन्दा के घर हो आएगी, ओ री चिड़िया
    ऐसी न जाने कितनी रचनाएँ हैं जो याद आती है। जो याद आएँगी और याद आते रहेंगे शलभ जी। 
शलभ जी अक्सर घर बदलते थे। उनका पता बदल जाता था। ...इस बार तो उन्होंने दुनिया ही बदल दी। उनका नया पता किसी को नहीं पता। 
काश ! ऐसी कोई चिड़िया होती जो उनका पता खोज लाती। 
काश ! ऐसा कोई वाहक होता जो उन तक सन्देश पहुंचाता। 
शब्दों के जादूगर शलभ जी, आपके अचानक चले जाने से बहुत दुःखी हैं सब। आपसे नाराज भी हैं। 
31 अक्टूबर 2017 को आप तो घर को लौट रहे थे। आ ही गए थे घर तक। घर के मोड़ तक।  कोई अबुद्धि आपको बाइक से टक्कर मार गया। 
उसे नहीं पता कि क्या छिन गया। 
जिन्हें पता है, वे बहुत बेबस और बेकल हैं। 
भीगे नयनों में बस...आपका मुस्कुराता हुआ चेहरा तैर रहा है, जो कुछ बोलता नहीं। ....

फिर कानों में ये आवाज कहाँ से गूँज रही है ....पकड़ सको तो पकड़ो मेरे लगे हवा के पर।
(यह आलेख 'बाल वाटिका' मासिक के दिसम्बर,2017 अंक के पृष्ठ 8 पर प्रकाशित हुआ था।)


2 टिप्‍पणियां:

  1. इस शानदार आलेख ने दादा की याद में आंखों को नम कर दिया। बहुत अच्छा लिखा है आपने। शब्द शब्द सही।

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