रविवार, 5 मई 2024

भारतीय बाल साहित्य का एक और इतिहास

ग्रंथ : भारतीय बाल साहित्य का इतिहास

लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) त्रिभुवननाथ शुक्ल

प्रकाशक : कश्यप पब्लिकेशन बी-15/जी-1, दिलशाद एक्सटेंशन-2, डीएलएफ, गाजियाबाद-05 (उ.प्र.)

 फोन: 09868778438 

संस्करण: 2021

मूल्य: 350/- रुपए

समीक्षक : डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'

प्रोफेसर (डॉ.) त्रिभुवननाथ शुक्ल, डी. लिट्. ,रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर (मध्यप्रदेश) के हिंदी एवं भाषाविज्ञान विभाग में आचार्य एवं अध्यक्ष पद पर कार्यरत रहे हैं। उनकी समर्थ लेखनी और अनथक श्रम से 'भारतीय बाल साहित्य का इतिहास' जन सामान्य के लिए सुलभ हुआ है। 

एक समय था,जब विभिन्न मंचों पर बार-बार बाल साहित्य के इतिहास लेखन की आवश्यकता उदघाटित की जाती थी। प्रसन्नता और गर्व का विषय है कि अब इस दिशा में निरंतर सक्रियता देखते ही बनती है। यद्यपि बाल साहित्य के पूर्ण और प्रामाणिक इतिहास लिखे जाने की जरूरत हमेशा रहेगी। बाल साहित्य का पहला इतिहास रुहेलखंड की धरती से 1966 में निरंकार देव सेवक जी ने लिखा था बाल गीत साहित्य इतिहास एवं समीक्षा। इसके बाद काफी लम्बे समय तक इस दिशा में सन्नाटा रहा। बहुतों ने गाल बजाए लेकिन किसी ने पहल नहीं की। भला हो जयप्रकाश भारती का जिन्होंने भारतीय बाल साहित्य का इतिहास 2002 में संपादित किया। प्रकाश मनु ने बहुत मेहनत करते हुए, अपने दम पर हिंदी बाल साहित्य का इतिहास (2015) लिखा। शकुंतला कालरा ने हिंदी बाल साहित्य विधा विवेचन ग्रंथ का संपादन किया, उसमे भी इतिहास की झलक है।

वर्ष 2021 में प्रकाशित भारतीय बाल साहित्य का इतिहास के लेखक प्रो. शुक्ल हिंदी साहित्य के उद्भट विद्वान हैं। उनका व्यक्तित्व जलनिधि-सा है। भीतर कितने रत्न मणियां समेटे हैं लेकिन कोई प्रदर्शन नहीं। मौन साधक हैं। गंभीर कार्य करते हैं। शोर शराबे में तो उनका कभी भी विश्वास नहीं रहा ।

उन्होंने पहले भी सन 2009 में डॉ. राष्ट्रबंधु जी के साथ मिलकर भारतीय बाल साहित्य की भूमिका पुस्तक का सहलेखन किया था। यह ग्रंथ उन्होंने राष्ट्रबंधु जी और प्रतीक मिश्र जी को समर्पित किया है। 39 अध्यायों में विभक्त इस इतिहास में बाल पत्रकारिता और बाल साहित्य समीक्षा पर भी बात की गई है। ग्रंथ में 1. असमिया 2. उड़िया 3. उर्दू 4. अँगरेज़ी 5. कन्नड़ 6. कश्मीरी 7. कोंकणी 8. गुजराती 9. डोगरी10. तमिल 11. तेलुगु 12. नेपाली 13. पंजाबी 14. बंगला 15. मणिपुरी 16. मैथिली 17. मराठी 18. मलयालम 19. राजस्थानी 20. सिंधी 21. संस्कृत और 22. हिंदी भाषाओं के बाल साहित्य की विवेचना की गई है। 

 इस इतिहास में हिंदी बालकाव्य और बाल कथा साहित्य में राष्ट्रीय एकता की अनुगूँज, कहानियों की कहानी, बालनाटक, बालोपन्यास, बाल जीवनियाँ, बाल साहित्य समीक्षा और बालसाहित्य में लघु रचना को लेकर सारगर्भित चर्चा है।

भूमिका में प्रो. शुक्ल जी लिखते हैं : 

"बालविकास में शारीरिक और मानसिक स्वस्थता को अन्योन्याश्रित मानना चाहिए। केवल पौष्टिक आहार के आधार पर बालकल्याण की योजना एकांगी और आधी अधूरी है। बाल कल्याण में बालशिक्षा और बाल साहित्य अपरोक्ष रूप से बालविकास को संचालित करते हैं। बालसाहित्य, बालकल्याण का मेरुदंड है।आधुनिक समस्त संदर्भों में बालक उपेक्षित और असहाय है। गरीबों के बच्चे अपने माता-पिता के स्नेह-पोषण से वचित हैं, क्योंकि माता-पिता आजीविका के लिए जो विवश हैं। शहरों में जब माता-पिता काम के लिए घर छोड़ते हैं तो बच्चा सोता रहता है और जब पिता देर रात में घर लौटता है तो भी बच्चा सोता मिलता है। देहातों में निम्न आर्थिक स्तर के माता-पिता, खेती किसानी या मजदूरी के काम से निकल जाते हैं तो बड़े बच्चे के ऊपर जिम्मेदारी आती है, अपने छोटे-भाई-बहिन को संभालने की।मध्यम श्रेणी के अभिभावक चाहे शहरों में रहते हों या देहातों में, अपने ही कामों में, घर से बाहर निकल जाते हैं और बच्चे उपेक्षित अनुभव करते हैं।उच्च श्रेणी के अर्थ संपन्न लोग खर्च कर सकते हैं लेकिन देखभाल नहीं करते। व्यवसाय, कार्यालय, क्लब, सभा अथवा संपन्न समाज में जाने में लोग अपना सम्मान मानते हैं। बच्चों की देखभाल, परिवरिश और शिक्षा की जिम्मेदारी के लिए दूसरों को ही नियोजित करते हैं। बच्चे उनके हैं, जिम्मेदारी दूसरों पर थोपते हैं।आधुनिक संदर्भ में आर्थिक, सामाजिक और अन्य कालों से पारिवारिक विघटन बहुत हो रहे हैं। बाबा-दादी, नाना-नानी, विशेष परिस्थितियों में ही, बच्चों के साथ अपने दिन बिताते हैं। 'माँ' कह एक कहानी जैसी परिस्थितियाँ आती हैं लेकिन आधुनिक माताएँ कैसेट या कामिक्स के विकल्प तैयार कर लेती हैं जिनमें लोरियाँ और प्रभावी गीत बच्चों के लिए सतही पूर्ति करते हैं। बड़ों के साथ का अभाव उन्हें सालता है।"

प्रो. शुक्ल ने बालक को लेकर विभिन्न परिस्थितियों के संदर्भ में चिंतन करते हुए भारतीय भाषाओं के बाल साहित्य के महत्त्व और उसके इतिहास को विश्लेषित किया है। वे बाल साहित्य की उपेक्षा से चिंतित भी हैं ; "आधुनिकता बनाम आर्थिकता ने जब बच्चों को अपने मौलिक अधिकारों से वंचित और उपेक्षित कर दिया है तो बालसाहित्य भी उपेक्षित और वंचित है। अतः समाज में बाल साहित्यकार अनादृत हैं। साहित्यकारों में बालसाहित्यकार दूसरी श्रेणी में परिगणित किए जाते हैं। साहित्य के इतिहास में बालसाहित्य के संदर्भ नहीं मिलते। भारत में शताधिक शोधग्रंथ बालसाहित्य पर उपलब्ध हैं, लेकिन उनका महत्व नहीं। इसका मुख्य कारण है कि बच्चा बेचारा है, बेसहारा है। बच्चे की जिम्मेदारी गरीब निभा नहीं पाता है जबकि अमीर उस जिम्मेदारी को दूसरों पर डालना चाहता है। मध्यम श्रेणी के लोग जिम्मेदारी जानते हैं लेकिन निभाने में मजबूर हैं।

यह विचारणीय विडंबना है कि हमारे धर्मग्रंथों में बालक की संज्ञा 'ईश्वर' दी गई है। बालक को ईश्वर का अवतार कहा जाता है। सूरदास हों या तुलसीदास, कंबन हों या सुब्रहमण्यम भारती, रवीन्द्रनाथ ठाकुर हों या गोपबंधु सभी बालवर्णन का गुणगान करते रहे हैं, लेकिन तालाब के किनारे नवजात शिशु को त्यागने के लिए बाध्य हैं। ऐसे अनेक अभिभावक हैं, जो जिम्मेदारी भगवान भरोसे छोड़ देते हैं। और 'दादर पुल के बच्चे' उपन्यास के राजीव पात्र बनकर असामाजिक तत्त्वों की आमदनी के माध्यम के लिए लूले लंगड़े बना दिए जाते हैं। अथवा अनैतिक धंधों में नियोजित कर दिए जाते हैं।

बच्चे के प्रति दायित्व निभाने वाले, न तो माता पिता समर्थ और योग्य हैं और न समाज के अन्य लोग। प्रवेश निषेध की चेतावनियाँ विद्यालयों में बच्चों के मौलिक अधिकारों का उपहास करती हैं। न अभिभावक कुछ कर पाते हैं, न समाज के लोग, न धर्माचार्य, न शासन के प्रतिष्ठित अधिकारी। इन सबकी दृष्टि में बच्चा समाज या देश का नहीं व्यक्ति का होता है।

जैसे जैसे किंडर गार्टन या मांटेसरी विद्यालय में अँगरेज़ी माध्यम से पढ़नेवाले बच्चे, प्राथमिक कक्षाएँ देखकर बाहर निकल जाते हैं माध्यमिक विद्यालयों में पढ़ने वालों की संख्या घट जाती है। उच्चतर कक्षाओं में और घट जाती है। महाविद्यालयों में सामर्थ्यवान लोगों को भाग्यशाली बच्चे ही पढ़ते हैं और कैरियर कक्षाओं की जानकारी न पाकर क्लर्कों की नौकरी तलाश करते हैं। कितने संगठन हैं, जो देहातों से शहरों तक फैल कर बच्चों को निर्देश देते हैं। कला, साहित्य, खेल, विज्ञान, अनुसंध गान आदि के आयोजनों की जानकारी देते हैं। कितने पुस्तकालय बच्चों के लिए हैं। साक्षरता की मंथर गति के रहते बालसाहित्य का विकास हो ही नहीं सकता। बच्चों के कार्यक्रमों को प्रोत्साहन मीडिया भी नहीं देता। प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, बच्चों में वर्ग भेद उत्पन्न करते हैं। अमीरों के बच्चे उनकी प्रचार-प्रसार की परिधि में आते हैं, जो इंडियट बाक्स छोड़ना ही नहीं चाहते। गरीबों के बच्चों के कार्यक्रम बतौर फैशन प्रस्तुत होते हैं। ऐसे कार्यक्रम शायद ही जीवंत होते हैं। बालहित की चेतना से शून्य आज के बहुत से लेखक बालसाहित्य को कमाई का धंधा मानकर कार्य संपन्न करते हैं तथा घिसीपिटी शैली, बाबाआदम से चले चलाए घिसे पिटे विषय, व्याकरण और संस्कृति से पृथक सभ्य लोगों की भाषा में वे बालसाहित्य तैयार कर रहे हैं। इन लोगों की पांडुलिपियाँ सस्ते दामों में खरीद कर प्रकाशक अपना व्यापार चलाते हैं। रायल्टी की जगह कॉपीराइट में सौदा करते हैं और संस्करण में सन् लिखकर आवृत्तियाँ करते जाते हैं।"

प्रो. शुक्ल ने बड़े ही खुले शब्दों में बाल साहित्य के घुसपैठियों को बेनकाब करते हुए लिखा है,"बालसाहित्य के वे प्रतिष्ठित लेखक माने जाते हैं, जो सरकारी खरीद को प्रभावित करते हैं और थोक में बिक्री कराने की पात्रता रखते हैं। प्रकाशक भी बालसाहित्य छापकर रखना नहीं चाहता वह कामिक्स लेखक खोजता है। ऐसी पांडुलिपि अनुबंधित करना चाहता है जिसके लिए बाजार न खोजना पड़े जो इडली, कचौरी या समोसे की तरह हाथों-हाथ बिक जाए।

प्रकाशक जानता है कि बालसाहित्य केवल बच्चे नहीं पढ़ते। बच्चों की पुस्तकें, बड़े लोगों की पसंद पर ही खरीदी जाती हैं। इसलिए प्रकाशक आधुनिक संदर्भों में सेक्स, हत्या, मारधाड़ आदि से पूर्ण पुस्तकें तैयार करता है। प्रकाशक जानता है कि बड़े लोग तो इन्हें पढ़ेगे ही, बच्चे भी छुप छुप कर पढ़ेंगे और फिल्म शो जैसा लुत्फ हासिल करेंगे। किराए पर दूकानों से पुस्तकों की माँग खड़ी होगी, इसलिए वह अपने आर्थिक लाभ को ही देखता है सिद्धांतों से उसका कोई सरोकार नहीं होता। वर्तनी भाषा या संपादन से शून्य, बालसाहित्य का प्रकाशक बच्चों से कोई मतलब नहीं रखता। जो लोग बच्चों की पुस्तकें शौक में खरीदते हैं, उनके आगे पीछे घूमता है।

बड़ों द्वारा खरीदकर देने की आदत को प्रकाशक भुनाना चाहता है। अतः वह बालसाहित्य के नाम पर अविश्वसनीय वर्णन को कल्पना के नाम पर प्रस्तुत करता है। परी कथाओं, पौराणिक कथाओं और प्रेम गाथाओं की पुस्तकों को वह बालसाहित्य के खाते में रखकर धंधा करता है। ऐसा प्रकाशक एक ही पुस्तक को बालसाहित्य और प्रौढ़ साहित्य की पुस्तक बना देता है।

प्रकाशक बिकने के लिए छापता है अतः उसे कमाई चाहिए भले ही बच्चों के लिए तैयार की गई किताबें बच्चों तक न पहुँचे। बच्चों की किताबें कमीशन देकर भी बिकें तो बिकनी चाहिए। इन किताबों की बिक्री के लिए कमीशन में कार देनी पड़े तो दी जाएगी। प्रकाशक को इससे कोई मतलब नहीं कि दाम बच्चों की क्रयक्षमता का है या नहीं अथवा बालसाहित्य अलमारी या बक्से में बंद रहता है। उसे प्रौढ़ साक्षर पढ़ते है या कोई और प्रकाशकीय दृष्टि से आधुनिक बालसाहित्य का संदर्भ शुद्ध व्यावसायिक आर्थिक और स्वार्थपूर्ण रहता है। बच्चे की पसंद उसकी क्रयक्षमता और उसके हित की उपेक्षा करके प्रभूत बालसाहित्य प्रतिवर्ष छापा जाता है लेकिन भविष्य की बजाय वह भूतकाल का इतिहास तक नहीं बनाता और न अपनी देहरी से बाहर निकल पाता है।"

प्रो. शुक्ल ने हिंदी बाल साहित्य की दीर्घ कालीन यात्रा पर अपनी दृष्टि डालते हुए कहा है, "बालपत्रकारिता सन 1882 से बालदर्पण के रूप में हिंदी में उद्भूत हुई। 1917 में बालसखा और शिशु के माध्यम से पल्लवित और लक्ष्यगामी बनी। जनसंख्या वृद्धि के हिसाब से हिंदी में जितने पत्र प्रकाशित होने चाहिए, उतने हैं नहीं। बालभारती, बालवाणी, बालवाटिका, चकमक आदि बालपत्र विविध लक्ष्य लेकर प्रकाशित हो रहे हैं लेकिन बच्चों की आवश्यकताओं के अनुरूप हैं नहीं। अतः उपलब्धियाँ सीमित हैं। विद्यालयीन पत्रिकाओं की संख्या निराशाजनक हैं। प्रोत्साहन के क्षेत्र में सभी प्रकार के बालकों का कार्य ऊँट के मुंह में जीरा के समान है-एक अनार सौ बीमार।दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक आदि पत्र-पत्रिकाओं में बच्चों के स्तंभ बहुत लोकप्रिय हुए हैं। कला, चित्रकारी, प्रहेलिकाओं, नन्हीं कलम आदि स्तंभों से बाल स्तंभों तक में इनका समावेश किया गया है लेकिन जब कभी विज्ञापन मिल जाते हैं तो बच्चों के लिए निर्धारित स्थान पर ही अतिक्रमण किया जाता है। अखबारों के मालिक यह नहीं सोचते कि बच्चों के भविष्य के साथ उनका गाज गिरा देना, कालांतर में उनके अपने लिए ही नुकसान पहुँचाने वाला सिद्ध होगा। बच्चे जब सड़क पर बैटिंग करने को मजबूर होंगे तो कोई न कोई गैर खिलाड़ी आहत होगा ही।

प्रकाशन की इन विषम परिस्थितियों में बालसाहित्य का लेखन चल तो रहा है, यही क्या कम है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया ने बालक के मौखिक और लिखित बाल साहित्य को बहुत प्रभावित किया है। व्यावसायिकता ने सिद्धांतों का गला घोटना शुरू कर दिया है। फिल्मों और दूरदर्शन ने सभ्यता को भले ही अभिव्यक्ति दी हो लेकिन हमारे संस्कारों पर लगातार प्रहार किए हैं।"

शुक्ल जी वर्तमान बाल साहित्य में हो रहे जबरदस्ती के लेखन पर भी निर्भीक होकर अपनी बात रखना नहीं भूलते। "आज की कविता बालसाहित्य में विषयों की दृष्टि से चूहे, बिल्ली, हाथी, कुत्ते की अनाकर्षक ऐसी प्रस्तुति है जिसमें छंद और लय के दोष उसे निष्प्रभावी बना रहे हैं। अंग्रेजियत की फैशनपरस्ती में शुद्ध भाषा तिरोहित होती जा रही है। भारतीय भाषाएँ, भँवरजाल से अपना मार्ग नहीं बना पा रही है। मात्र 50-60 नर्सरी गीतों की अंग्रेजियत ने सहस्त्राधिक अच्छे शिशुगीतों के चलन में गत्यावरोध खड़े कर दिए है।

फैंटेसी के नाम पर बालकहानियों में बालसाहित्य बहुत उन्नत और समृद्ध है। फकीरमोहन सेनापति, साने गुरू जी, गिजूभाई, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, सुकुमारन आदि से बालकहानियों का निर्झर सतत प्रवाहशील है। बालसाहित्य की खदान में बहुत सा संचित धन है जिसका उपयोग ही नहीं किया गया है।

बालनाटक, बालोपन्यास के क्षेत्र में आधुनिक बालसाहित्य इसलिए अधिक प्रभावशाली सिद्ध नहीं हुआ है क्योंकि इलेक्ट्रानिक मीडिया ने उसके प्रचार प्रसार पर अपना खूनी पंजा फैला दिया है। विदेशी फिल्में अपनी चकाचौंध से इन्हें बाहर फेकने लगी हैं।

फिल्मगीतों की कालकोठरी से अन्त्याक्षरी बाहर निकल नहीं पा रही है। इसने सूक्तियों और अच्छा सुभाषित पंक्तियों को बिसार दिया है। प्रतियोगिता और पुरस्कारों ने अश्लीलता को घर में जगह दे दी है फिर भी बालसाहित्य की हस्ती किन्हीं विशेषताओं के कारण नहीं मिटी।

प्रजातंत्र की दुहाई देने वाले प्रशासकों को बताना होगा कि प्रौढ़ शिक्षा चलाने की बजाय बच्चों की शिक्षा और बालसाहित्य पर पूरा ध्यान दें ताकि प्रौढ़ आंशकितों की संख्या अपने मूल में ही पनप न सके।

कुल मिलाकर इस ग्रंथ में बालसाहित्य के इतिहास के साथ साथ उसकी आवश्यकता को लेकर प्रबल तर्कों के साथ सविस्तार चर्चा की गई है। 

प्रोफेसर (डॉ.) त्रिभुवनाथ शुक्ल द्वारा प्रस्तुत यह भारतीय बाल साहित्य का इतिहास अपनी कुछ सीमाओं के बावजूद अत्यंत उपयोगी और महत्वपूर्ण है।

इस अच्छे काम के लिए प्रो. शुक्ल जी को बहुत बहुत बधाई !

आशा की जानी चाहिए कि बाल साहित्य इतिहास लेखन के गंभीर कार्य की दिशा में अन्य विद्वान भी प्रवृत्त होंगे और सतत चलने वाली यह धारा प्रवहमान रहेगी।

समीक्षक : डॉ. नागेश पांडेय संजय 

गुरुवार, 2 मई 2024

हिंदी बाल कहानियों में गाँव/ डॉ. नागेश पांडेय ‘संजय’

आलेख

हिंदी बाल कहानियों में गाँव

डॉ. नागेश पांडेय ‘संजय’

भारत गाँवों का देश है। कहते हैं कि राष्ट्र की आत्मा गाँव में बसती है। ऐसा शायद इसलिए भी कहते हैं क्योंकि राष्ट्र की प्रगति का हर रास्ता गाँवों से होकर जाता है। यदि किसान फसलें न उगाए तो? अन्न, दूध, दही, घी सारी चीजें हमें गाँव के भोले-भाले लोगों की मेहनत के बदौलत ही मिलती है। बावजूद इसके गाँव के लोगों के समक्ष बड़ी समस्याएँ हैं। जब बड़ों के साथ समस्याएँ हैं तो उनके बच्चे भी उनसे रूबरू होते ही हैं। इसके बाद भी गाँव के बच्चे अपनी लगन, अपने उत्साह, और अपने परिश्रम के बल पर बढ़ रहे हैं। नाम कमा रहे हैं l

 अनेक महापुरुष मूल रूप से गाँव के ही थे किन्तु उन्होंने अपने-अपने क्षेत्रों में अद्भुत सफलता प्राप्त की। सच बात तो यह है कि गाँव का विस्तृत और विकसित रूप ही शहर है। यहां पर एक बात और, एक शब्द है 'गँवार', हम उसे इस अर्थ में लेते हैं कि कोई अशिक्षित, असभ्य या असंस्कारी व्यक्ति। ऐसा नहीं है, गँवार शब्द 'ग्राम्यार' शब्द का परिवर्तित रूप है, जिसका अर्थ है गाँव में रहने वाला। खैर... बात तो गाँव की हो रही थी तो हमें गाँव और उसके लोगों के प्रति आभारी होना चाहिए जिनकी अनुकंपा से हम फलीभूत होते हैं। 

हिंदी में आज ऐसी ढेरों बाल कहानियाँ हैं जिनमें गाँव की उल्लेखनीय उपस्थिति है l यह अलग बात है कि अधिसंख्य अर्थात गाँव के बच्चों के लिए अलग से साहित्य, लिखने की कोई व्यवस्थित परम्परा कभी नहीं रही l  पत्र-पत्रिकाओं ने भी इस दिशा में अलग से चिंतन का परिवेश निर्मित करने की दिशा में कोई पहल नहीं की l पत्र पत्रिकाओ में भी गाँव के बच्चों की जो कहानियाँ प्रकाशित हुईं, प्राय : उनके लेखक ग्रामीण परिवेश से अनभिज्ञ थे l उनके लिए कहानी में गाँव की उपस्थिति का अर्थ बस इतना भर था कि गाँव का कोई बालक शहर जाकर, किताबों की दुनिया से जुड़कर या वहा की भौतिक प्रगति से परिचित होकर सफल और सभ्य हो गया l जबकि ऐसा नहीं है, गाँव संस्कारों की धरा है l प्रो. वासुदेव शरण अग्रवाल राष्ट्र के स्वरुप की कल्पना करते हुए जिस जन, भूमि और संस्कृति की बात करते हैं, वह संस्कृति गाँव की अधिवासिनी है l शहर के बच्चों को भी गाँव से बहुत कुछ सीखना हैl 

बहरहाल अभी भी, जब शहर गाँव की ओर अपने पैर तेजी से बढ़ा रहा है, बहुतेरे गाँव हैं जिन्हें शहरीकरण की जरा भी हवा नहीं लगी हैl उन बच्चो के लिए लिखते समय बाल कथाकार ग्राम्य संवेदना से जुड़ना होगा l जिस प्रकार पानी का चित्र देखकर प्यास नहीं बुझ  सकती, वैसे गाँव के गलियारों और खेतो की पगडंडियों पर विचरण किए बिना, वहां के बच्चो से मिले और बतियाए बिना एक रोचक और सफल ग्रामीण बाल कहानी की सर्जना असंभव है l अनुभूति और सहानुभूति में अंतर होता है l लमही गाँव के कथा सम्राट प्रेमचंद की कहानी ईदगाह में हामिद के चिमटे के बहाने ग्राम्य परिवेश की पूरी अनुभूति विद्यमान है l छायावाद के चर्चित शिकार कथा लेखक श्रीराम शर्मा की स्मृति कहानी को याद कीजिए जिसमें मक्खनपुर गाँव के डाकघर में बड़े भाई की चिट्ठी डालने गए लेखक की सांप से मुठभेड़ की रोमांचक आपबीती को पढ़ते हुए रोंगटे खड़े हो जाते हैं l  

हिंदी में ग्रामीण परिवेश की बाल कहानियों के अभाव और उसकी आवश्यकता को देखते हुए मैंने एक संकलन सम्पादित किया था : ग्रामीण परिवेश की बाल कहानियां (2016) l उस संकलन में डॉ० उषा यादव (दादी अम्मा का खजाना, अगिया बैताल की कथा), गोविंद शर्मा (अपना काम करेंगे, मेहनत का मंत्र), डॉ० जाकिर अली रजनीश (सेमरा का शेर, सपनों का गाँव), डॉ० दिविक रमेश (किस्स्सा चाचा तरकीबू राम का), डॉ० नागेश पांडेय 'संजय' (गौतर, मन का डर), प्रकाश मनु (तुम भी पढ़ोगे जस्सू, जमुना दादी), मुरलीधर वैष्णव (हबपब टोली), डॉ० मोहम्मद अरशद खान (हजार आँखों की प्रतीक्षा, बुद्ध काका और मनफेर ताऊ), डॉ० मोहम्मद साजिद खान (बैल खुल गए, बरगदी गाँव), रमाशंकर (शर्तों के सहारे-आई बहारें, कायाकल्प), रावेंद्र कुमार 'रवि' (मिल गई माँ), डॉ० श्रीप्रसाद (काला हाथ, यह सच है), संजीव जायसवाल 'संजय' (लोहार का बेटा), डॉ० सुनीता (सींक वाली ताई, करमू चाचा का ताँगा), डॉ० हेमन्त कुमार (आलस्य का फल) जैसे समकालीन लेखकों की गाँव के इर्द गिर्द घूमती बाल कहानियाँ थीं l गाँव के बच्चों की सोच, उनके जीवन और चिंतन को उद्घाटित करने का प्रयास इन कहानियों में था । शहर के नजरिए से भी गाँव को देखने-समझने की कोशिश थी। मेरी भावना थी कि गाँव और शहर के बच्चे परस्पर जुड़ें l गाँव के बच्चे तो शहर और उसके बच्चों के बारे में जानते हैं लेकिन शहर के बच्चे भी गाँव को समझें l इस तरह से दोनों में एक संवाद स्थापित करने की चेष्टा इसमें थी। 

समकालीन बाल साहित्य लेखकों की कहानियों में गाँव की बहुरंगी छवियां मिल ही जाती हैं l कुछ रचनाकारों ने तो शहर में बसकर भी अपने भीतर का गंवईपन बचाकर रखा है l उनकी कहानियों में ग्राम्य संवेदनाएं उफान मारती चलती हैं l ऐसा उफान कि पाठक का मन भीग जाएl मोहम्मद अरशद खान की एक लाजवाब और बेमिसाल कहानी है ‘गुल्लक’, इसे जरुर पढ़ा जाना चाहिए l मैने न जाने कितनी बार उसे पढ़ा है और जब भी पढ़ा, आँसू रोक नहीं पाया हूँ। आत्मा को छू लेने वाली अद्भुत कहानी। अरशद का नाम आते ही यह कहानी मेरे मस्तिष्क में तैर उठती है। मेरा मन भीग जाता है। गाँव में निलमिया जैसी कितनी ही कर्मठ और माँ-बाप के लिए त्याग से लबरेज बेटियाँ हैं जिनका सच्चा प्रतिनिधित्व इस कहानी में देखा जा सकता है। (बालिकाओं की श्रेष्ठ कहानियां, पृ. 114)

पद्मश्री प्रो. उषा यादव की ‘दादी अम्मा का खजाना’ कहानी में गाँव के हर व्यक्ति को कुतूहल है कि उस खजाने में क्या है ? एक ठग उनके खजाने की फ़िराक में नकली परपोता बनकर उनसे मिलने आता हैl भोली दादी उसकी खूब खातिर करती हैं l ठग जब मीठी-मीठी बातों से उनके खजाने की जानकारी कर लेता है तो उसका हृदय परिवर्तन हो जाता है l इस कहानी में पुरानी चीजों को सहेज कर रखने की बुजुर्गों की आदत का बड़ा ही संवेदनशील वर्णन है l (ग्रामीण परिवेश की बाल कहानियाँ, पृ.9 )

मुझे याद है अपनी माता जी के निधन के बहुत दिनों के बाद, जब उनका बक्सा खोलकर देखा गया था तो उसमे मेरे जन्मकाल से दो-तीन वर्ष तक की अवस्था के वर्षों पुराने कपड़े रखे मिले थे l मेरी करधनी, कड़ा, गले की माला सब कुछ उस खजाने में सुरक्षित था जिसे देख, मैं फूट-फूटकर रोया था और तब अवचेतन में उषा जी की इस कहानी की दादी भी मुझे उद्वेलित कर रही थींl 

डॉ. दिविक रमेश की कहानी ‘किस्सा चाचा तरकीबूराम का’ बच्चों में लोकप्रिय चाचा की कहानी है जिनके किस्से बड़े ही मजेदार हैं और उससे भी मजेदार है लेखक की कहन शैली l कहानी का अंत देखिए, ‘मुझे एक और किस्सा याद हो आया तुम भी क्या कहोगे कि चाचा तरकीबूराम के ही किस्से सुनाने पर लग गएl अब तुम अपने कोर्स की किताब पढ़ लो l शायद तुम्हें यह नहीं मालूम कि चाचा तरकीबूराम यह कभी नहीं चाहते कि उनके किस्से सुनने पढ़ने वाले बच्चे अपने स्कूल की पढ़ाई में फिसड्डी रहें l उन्होंने खास तौर पर कहा था कि उनके किस्से उन्हीं बच्चों को बताए जाएँ जो खूब मन लगाकर पढ़ते हो l (ग्रामीण परिवेश की बाल कहानियाँ, पृ. 46)

डॉ. श्रीप्रसाद की कहानी ‘यह सच है’ के पंडित रामदीन पूरे गांव में लोकप्रिय हैं l वे अचानक गायब हो जाते हैं l उनके वापस न आने पर गांव में उन्हें मृत मानकर, उनकी आत्मा की शांति के लिए तेरहवी की दावत रखी जाती है लेकिन अनायास रामदीन पंडित प्रकट हो जाते हैं l लोग उन्हें भूत समझकर भयभीत होते हैं l सच, अगर वह अकेले में किसी को मिलते तो शायद उसकी हृदय गति भी बंद हो जाती l मजेदार बात यह कि हारे थके रामदीन जब यह कहते हैं, ‘मेरे मरने की बात कैसे सोच ली ? .... मुझे भी भूख लगी है l मैं भी बैठता हूँ l’ तो खुद की तेरहवी की दावत खाने की यह सच्ची घटना पाठक को हंसाती ही नहीं, चमत्कृत भी कर देती है l  ((ग्रामीण परिवेश की बाल कहानियाँ, पृ. 123)

मौन साधक विनायक जी वैसे तो वन्य जीवन के विशेषज्ञ लेखक हैं लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से उनकी कहानियों में गाँव की जीती-जागती तस्वीर देख सकते हैं l हाल ही में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘माँ की महक तथा अन्य कहानियाँ’ में मानवेतर पात्र सियारू का गाँव-कसबे और उसके वाशिंदों को लेकर किया गया चिंतन तो बाल साहित्य में एकदम नया है l विनायक जी की चित्रोपम शैली भी ताजगी भरी होती है l पाठक जैसे पढ़ नहीं, कोई फिल्म सी देख रहा होता है l उनकी कलम से सियारू का वर्णन देखिए : और अब समय आगे बढ़ गया है। माँ के चुंबन तथा उसके पीछे लगे रहने वाला सान्निध्य, सब वक्त के प्रवाह में बह गए हैं। सियारू अब जंगल में हैं। एकदम अकेले। लेकिन कस्बे के साए में बिताए हुए दिनों में उन्हें जो खट्टे-मीठे व जीभ जला देने वाले, तिक्त, अनुभव हुए हैं, उन्हें वे भूले नहीं हैं। वे आज भी उनकी दुम पकड़े लटके हुए हैं। एक तो सियारू का कोमल मन आज तक इस गुत्थी को सुलझा नहीं पाया कि मनुष्य क्यों कुछ जानवरों को इतना लाड़ देता है और क्यों कुछ के पीछे ही पड़ा रहता है। कभी-कभी तो जान ले लेने तक। और कुछ नहीं तो पीछे कुत्ते ही छोड़ देता है। जानवर के पीछे जानवर। खूँखार। पक्के दुश्मन बनाए हुए। आखिर ऐसा क्यों? और इसी भारी-भरकम 'क्यों' का उत्तर सियारू आज तक नहीं खोज पाए। अब इसी दो मुँहे इंसानी व्यवहार से ही तो आजिज आ कर सियारू इतने परेशान हुए कि वयस्कता की दहलीज चूमते ही वानप्रस्थी हो गए। कस्बे के आस-पास पल रहे मोटे चूहों तथा इधर-उधर पड़े, मनलुभावने खाद्य-पदार्थों का मोह त्याग उन्होंने जंगल का रुख कर लिया। और अब उन्होंने कस्बे के मुर्गे-मुर्गी चुराने और हर समय जान जोखिम में डालने वाले जीवन से मुक्ति पा ली थी।

भगवती प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक ‘मेरी प्रिय बाल कहानियां’ की कहानियाँ किसी-न-किसी रूप से गांव से जुड़ी हुई हैं। इनके कथानक और परिवेश तो ग्रामीण जीवन के हैं ही,लोक की खुशबू भी इनमें महसूस की जा सकती है।  'नकली महात्मा',जिसका नायक सीतू गांव की मित्र-मंडली के साथ कबड्डी खेल रहा होता है, तभी मैदान में एक मजमा लगाए महात्मा को देख सभी वहां जा पहुंचते हैं। महात्मा जब पानी पर तैरते चमत्कारी पत्थर को दिखाकर ग्रामीणों को मूर्ख बना रुपये ऐंठना चाहते हैं तो सीतू आगे बढ़कर वैज्ञानिक तरीके से सच का पर्दाफाश करता है और नकली महात्मा की पोल खोलता हैl

गाँव में अशिक्षा के चलते अनेकानेक अन्धविश्वास प्रभावी रहते हैं l भोले भाले गाँव के लोग इस कारण धूर्तों की चालबाजी के भी शिकार हो जाते हैं l अखिलेश श्रीवास्तव चमन की  ‘जंतर मंतर’ कहानी में लुटेरे ज्योतिषी बनकर आते हैं और गृह नक्षत्रों का भय दिखाकर तंत्र मंत्र की बात करते हैंl (बाल किलकारी,  जून 2019)

इन पंक्तियों के लेखक (डॉ. नागेश पांडेय ‘संजय’) की कहानी ‘गौंतर’ में गाँव का परिवेश ही नहीं, भाषा भी रची-पगी है l मेहुल एक विशेष कारण से मामा के गाँव नहीं जाता l मामा पूछ पूछ कर थक जाते है तब जाकर अंत में रहस्य खुलता है कि उनके यहाँ शौचालय नहीं है l सब  खुले में जाते हैं l मामा का जवाब देखिए : 'बचुआ, अब बहु जमाना गओ। गाँव मां हर बखरी... मतलब मकान के सामने सरकार ने शउचालय बनवाय दय हयिं।... हमने तउ खुदइ बनवाइ लओ रहयि। अब तुम्हई कोई दिक्कत नाहि हुयहयि। तुमने पहिले काहि नाहिं कही ?' (बाल वाणी, जुलाई 2016, पृ. 18 )

मनोहर चमोली मनु की सच्ची हास्य कहानी  ‘कहीं संतला न आ जाए’ की नायिका संतला पहाड़ी गाँव में रहती है जिसका मुर्गा चोरी हो जाता है l वह एक हाथ में लानटेन और चिमटा लिए हर घर के चूल्हों पर चढ़े बर्तन चेक करती है l वह जिस घर से निकलती, कोई न कोई बच्चा उसके साथ हो लेता l इससे एक रेल सी बन गई और इस रेल का स्टेशन था हर घर की रसोई l उसे विश्वास है कि वह खुशबू से ही अपने मुर्गे को पहचान लेगी l मजा तो तब आता है जब मुर्गा उसके ही घर में छिपा मिलता है (साइकिल दिसंबर-जनवरी 2020, पृ. 51)

बाल साहित्य आलोचना को आगे बढाने वाले डॉ. प्रकाश मनु की कहानी ‘जमुना दादी’ के भी क्या कहने l वे बच्चों को कहानियां सुनाती हैं l जामुन खिलाती हैं लेकिन उनके जाने के बाद वह जामुन का पेड़ बहुत उदास नजर आता थाl जैसे जमुना दादी को याद कर वह पेड़ भी रो रहा हो l जामुन तोड़कर खाने का ख्याल मन में नहीं आता था l  (ग्रामीण परिवेश की बाल कहानियाँ, पृ.67)

इन दिनों बालगीत के क्षेत्र में महारत प्राप्त प्रभुदयाल श्रीवास्तव ने अच्छी बाल कहानियां भी लिखी हैं l गाँव से जुडी उनकी कहानी बिजली या विज्ञान के अन्य चमत्कारों से सतर्क और सावधान रहने की प्रेरणा देती हैl (दादाजी का पद्दू,पृ. 46)

नए रचनाकार निश्चल की ‘कंचों की चमक’ विक्कू और उसके आनंद सर की मनोवैज्ञानिक कहानी है l सरल-सहज और स्वाभाविक भाषा में लेखक ने एक बालक के जीवन में परामर्श और निर्देशन की ज़रूरत को उकेरा हैं l गाँव में तो इसकी विशेष रूप से आवश्यकता है l (कंचों की चमक, पृष्ठ 27)

डॉ. राकेश चक्र की कहानी ‘कुटवारिन दादी’ में गाँव में विद्यमान अस्पृश्यता के निवारण में दादी की प्रणम्य भूमिका का वर्णन है l सामाजिक समरसता की दृष्टि से ऐसी रचनाओं की सदैव आवश्यकता है l (लजीज पुलाव, पृष्ठ 8) 

राजा चौरसिया ग्रामीण अंचल में जीवन यापन करने वाले समर्थ कवि हैं l उनकी कहानी ‘श्यामू की सोच’ नवीनता के साथ साथ पुरातनता के संरक्षण का भी पक्ष उद्घाटित करती है l यह प्रतीकात्मक कहानी हैl नया भी कभी पुराना होगा इसलिए हमें अपने बुजुर्गों के प्रति भी निष्ठावान रहना चाहिएl (गाँव की पूजा, पृष्ठ 18)

रजनीकांत शुक्ल ने वीर बच्चों की सच्ची कहानियां लिखी हैं l उनकी पुस्तक बहादुरी की प्रेरक घटनाएँ (2015) में ज्यादातर गाँव के ही बच्चे हैं l गाँव के बच्चों का अदम्य साहस देखने के लिए शुक्ल जी की ये कहानियाँ सदैव अपना महत्त्व परिलक्षित करती रहेंगी l 

दयाराम मौर्य रतन की कहानी ‘भूत’ गाँव में प्राय: विद्यमान अंधविश्वास पर केन्द्रित हैl इसमें शिक्षा का महत्त्व भी सरलता से वर्णित है l (परीलोक का भ्रमण, पृ. 29)

डॉ. बानो सरताज की गीतों भरी कहानी की पुस्तक ‘कुछ तुम बोलो कुछ हम’ में संकलित शिक्षाप्रद कहानी ‘अब काहे के सौ’, में गांव के गोविंदा के संवाद रीझ लेते हैं : दस  में खरीदी आल्टी-बाल्टी, दस में खरीदी रस्सीl  अब काहे के अस्सी ? (पृ. 64)

डॉ. शशि गोयल की कहानी ‘सलोनी’ में दादी के प्रति बच्चों के संवेदित प्रेम की झलक है और गांव की अलमस्ती का आनंद भी l  (सींग वाले शैतान, पृ. 24)

शुभदा पांडे की कहानी ‘जोडागाछ के सहचर’ में तूफान के बाद गांव में मची तबाही का क्या मार्मिक वर्णन है ! ऐसी कहानियाँ रोमांचक तो होती ही हैं, विषम परिस्थितियों से जूझने का जज्बा भी परोसती हैंl पुस्तक (इंदुपरी का पत्र, पृ. 27)

डॉ. अमिता दुबे की कहानी ‘अनोखी छुट्टियां’ में दादी के बीमार होने की सूचना पर पापा के साथ गांव पहुंचे क्षितिज का वापस आने का मन ही नहीं करता l बच्चों को अपनी जड़ों से जोड़ने और उन्हें अपनी थाती से परिचित कराने का भी जिम्मा हमारा ही है l शहर में बस चुके महानुभावों को इस दिशा में सोचना होगा (नंदन, मई 2016 , पृष्ठ 48)

बाल साहित्य आलोचना के क्षेत्र में विशेष सक्रिय डॉ. शकुंतला कालरा की कहानी ‘नंदू की सूझबूझ’ में नंदू गांव से अपने मां के साथ दिल्ली का विश्व पुस्तक मेला देखने आता हैl कहानी का विषय एकदम नया है l बच्चों को अधुनातन जानकारी दिलाना भी लेखकों का दायित्व है और इस दृष्टि से यह कहानी अत्यंत उपयोगी हैl ( (माँ का उपहार, पृ. 29)

प्रभात गुप्त की एक कहानी ‘बंदरों की निर्मम हत्या’ मे गाँव बेला के लोग बंदरों के आतंक से पीड़ित होने के कारण उन्हें पीट-पीट कर मारना शुरू कर देते हैं l यह कहानी वन्यजीवों के प्रति दया भाव  के सन्देश के साथ साथ ऐसे अमानुषिक लोगों पर वैधानिक प्रक्रिया की भी शिक्षा देती है (पृ. 46)

डॉ. सत्य नारायण सत्य की कहानी काले काले तेज उजाले  कस्बानुमा गांव की कहानी है जिसमें अंधेरे में रहने वाले बच्चों की परिस्थितियों का वर्णन हैl कहानी में सहज हास्य भी विद्यमान है : अँधेरा कायम रहे l (शिविरा, सितंबर 2023, पृ. 69) 

डॉ. मोहम्मद साजिद खान ने ग्राम्य परिवेश के अनुभवी और परिपक्व लेखक हैं l उनकी ‘होली कुछ ऐसी भी’ कहानी साम्प्रदायिक सद्भाव की प्रेरक कहानी है l गाँवों के डेलखेड़ा भवानीपुर, कल्यानपुर, चमकनी, पैदापुर और गिरगिचा जैसे नाम कहानी को यथार्थ से जोड़ देते हैं l कहानी का अभीष्ट हमारे धर्म निरपेक्ष देश की असली ताकत को बयां करता है l दृष्टव्य : मियाँ को सारी वस्तु- स्थिति समझने में देर न लगी। उन्होंने बात संभालते हुए धीरे से मिट्ठू के कान में कहा -"गुलाल है रे l मिट्टू यह बात सुन अचरज से बोल उठा- "मियाँ तुम और गुलाल...??" 

मियाँ ने जमीला चाची की ओर देखा। जमीला चची ने उनकी आँखें पढ़ लीं- "हाँ-हाँ, क्यों नहीं! रंगों की कोई जाति या धर्म नहीं होता...!" उनके इतना कहते ही मुट्ठी-मुट्ठी गुलाल से पूरा आसमान रंग गया। सभी सराबोर हो गए। वातावरण फिर से चुहल, हुल्लड़ और उल्लास में बदल गया।  (बाल वाटिका, मार्च 2022, पृष्ठ 22)

गाँव से जुडी कहानियाँ तो इतनी हैं कि अनेक शोध प्रबंध लिखे जा सकते हैं l शोधकर्ताओं के लिए यह एक नया विषय होगा तथापि गाँव में शहर (डॉ. राष्ट्रबंधु), घमंडी बढई (डॉ. रोहिताश्व अस्थाना), हीरा मुझे माफ़ करना (डॉ. भैरूंलाल गर्ग ), बल्दू का छोटा भाई किशन (इंदरमन साहू), जंगल का भूत (हूंदराज बलवाणी), एक था गोलू (रूप सिंह चंदेल), मदन का भाई नंदू (कमल चोपड़ा), सुक्खो का भूत (कमलेश भट्ट कमल), गांव की सैर (दिनेश पाठक शशि), जल उठे दिए (नीलम राकेश), बैक वार्ड या स्मार्ट (शिखरचन्द्र जैन), तीन शिकारी (चित्रेश), लाट साहबों का पानी (गोविन्द शर्मा), बात की कीमत (रतन सिंह किरमोलिया), मिट्ठू चाचा (पवन कुमार वर्मा), कला का सम्मान (रमेश चन्द्र पन्त) जैसी ढेर सारी कहानियाँ हैं, जहाँ गाँव का पसारा है l जहाँ गाँव के विविध स्वरूप हैं l जी हाँ, उस प्रणम्य गाँव के, जहाँ सहजता है, सरलता है, मौलिकता है l नैसर्गिकता है l प्रकृति का वैभव है l जिजीविषा है l आस है l आत्मविश्वास है l ...और सबसे बड़ी बात कि हमारी थाती है जो याद दिलाती है कि हम कितने भी अधुनातन क्यों न हो जाएँ, हमारी जड़ें गाँव में हैं क्योंकि हमारे पुरखों ने यहीँ अपना जीवन बिताया है l यहां के खेतो की मिटटी में उनका पसीना बरसा है और अंत में उनके शरीर की राख भी इसी मिटटी में मिल खप गई है l इस मिटटी का ऋण कभी चुकता न होगा l अपने गाँव की इस मिटटी को नमन करने के लिए हम इससे जुड़े रहें और अपने बच्चों को जोड़े रहें l

बाल कहानियों में जब गाँव ध्वनित होता है तो वह बच्चों में संवेदनाएं भी जगाता है l इस बहाने अपनों लगाव बना रहेगा l रिश्ते बचे रहेंगे l प्रेम बचा रहेगा l प्रेम है तो वास्तविक जीवन है अन्यथा हम मशीन तो बनते ही जा रहे हैं l  

आइए, जीवन की तलाश में गाँव की सोंधी महक वाली बाल कहानियों का स्वागत करें l 

■ डॉ. नागेश पांडेय ‘संजय’, 237, सुभाष नगर, शाहजहांपुर-242 001 (उत्तर प्रदेश) 

(बाल वाटिका, मई 2024 अंक में प्रकाशित)

शनिवार, 20 जनवरी 2024

आलेख 'बाल साहित्य के भगीरथ' : निरंकारदेव सेवक

बाल साहित्य के भगीरथ : निरंकारदेव सेवक
- डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'
30 मई 2002 को भारतीय पत्रकारिता संस्थान द्वारा बरेली में मुझे निरंकारदेव सेवक बाल साहित्य सम्मान मिला था। मैंने प्रशस्तिपत्र देखा तो चौंक कर रह गया। मेरे नाम के साथ बरेली मुद्रित था। मैंने आयोजकों से कहा कि मैं तो शाहजहाँपुर का हूँ। मेरा पता तो गलत छप गया? आयोजक सुरेंद्र सिन्हा जी ने हँसकर कहा था- "आप निश्चिंत होकर प्रशस्तिपत्र स्वीकारिए। संभव है कि समय इस त्रुटि को ठीक कर दे और आप बरेली के हो जाएँ।"
बात मजाक की थी किंतु सत्य सिद्ध हुई। वर्ष 2007 से बरेली मेरी कर्मभूमि हो गई। शाहजहाँपुर से आते जाते बरेली में जब कचहरी से होकर गुजरता हूँ तो अनायास माथा झुक जाता है। यह कचहरी कभी निरंकार देव सेवक की कर्मभूमि रही है। वहीं से उनके घर की ओर जानेवाले रास्ते के भी दर्शन हो जाते हैं। इस रास्ते का नाम निरंकार देव सेवक मार्ग रखा गया है। मैं उस पथ से गुजरते हुए यह सोचकर बहुत रोमांचित होता हूँ कि बालसाहित्य के लिए राजमार्ग तैयार करने वाले सेवकजी कभी इसी मार्ग से गुजरा करते होंगे। इसी मार्ग से गुजरते हुए कितने विचार बिंदु उनके मन में उपजे होंगे। कितनी योजनाओं की परिकल्पनाएँ इसी मार्ग पर गतिमय हुई होंगी। मैं उन सबके भाग्य को सराहता हूँ, जिन्हें सेवकजी का साथ मिला होगा। एक देवदूत का साथ। बालसाहित्य के सच्चे सेवक का साथ। सही मायनों में बालसाहित्य के भगीरथ का साथ।


यह सच है कि यदि बालसाहित्य आलोचना के क्षेत्र में सेवकजी का पदार्पण न हुआ होता तो बालसाहित्य के कितने मौन साधक काल के प्रवाह में गुम गए होते। बच्चों को तो लेखक के नाम से कोई मतलब नहीं होता। ... और यदि समीक्षक निष्पक्ष भाव से उन लेखकों के विषय में न लिखे तो भला एक समय के बाद कौन उनको जानेगा ?
सेवकजी ने सर्वप्रथम बालगीत साहित्य का इतिहास लिखा। बालसाहित्य के भूले बिसरे हस्ताक्षरों को जैसे पुनर्जीवन दिया।
बरेली महानगर में 19 जनवरी 1919 को जन्में सेवकजी ने एम.ए. हिंदी, एल-एल.बी., और बी.टी. की शिक्षा प्राप्त की। वे प्रारंभ में शिक्षक रहे और फिर अधिवक्ता हो गए। बाल कविताओं के उनके दर्जनों संकलन प्रकाशित हुए। उनकी बाल कविताएँ स्वयं ही 'बाल कविताओं के लिए मानदंड' जैसी हैं।
उनका पहला लेख 'बाल साहित्य रचना' वीणा मासिक के नवंबर 1954 अंक में प्रकाशित हुआ था। उस आलेख में उन्होंने लिखा था-'बड़ों को लिखना है तो उन्हें स्वयं बच्चा बनकर बच्चों के संसार में रह बस कर लिखना होगा।' यह एक तरह से बाल साहित्य पर आलोचनात्मक निबंध लिखने का शुभारंभ था। डॉ. हरिकृष्ण देवसरे के अनुसार सेवकजी ने अपने इस लेख में बाल साहित्य रचना के कई आवश्यक तथ्यों को उद्घाटित करते हुए हिंदी में बाल साहित्य आलोचना को जन्म दिया। (हिंदी बाल साहित्य एक अध्ययन, पृ. 32) बाल साहित्य समीक्षा की प्रथम व्यवस्थित कृति उन्होंने ही लिखी बालगीत साहित्य। इसकी पांडुलिपि को देखकर उनके मित्र डॉ. राकेश गुप्त ने कहा भी था- "यह तुमने बिल्कुल नए विषय पर इतना काम किया है। इस पर तो तुम्हें किसी विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट मिल सकती है।" सेवकजी ने उक्त प्रसंग को हँसकर टाल दिया था कि ऐसा होने से भला कौन मुझ वकील को ज्यादा फीस दे देगा। 1966 में इस कृति का प्रकाशन किताब महल, इलाहाबाद से हुआ था। इस कृति से केवल बाल साहित्य समीक्षा के क्षेत्र में ही नहीं, वरन् विश्वविद्यालयों में भी बाल साहित्य आलोचना तथा अनुसंधान की दिशा में संभावनाओं का सूत्रपात हुआ। बाल साहित्य के प्रारंभिक शोधार्थियों के लिए यह कृति गहन अंधकार में प्रखर प्रकाश जैसी सिद्ध हुई। डॉ. हरिकृष्ण देवसरे ने इसे हिंदी बालसाहित्य में पहली आलोचनात्मक पुस्तक माना है। बाल साहित्य में तात्विक समीक्षा का कार्य हो या इतिहास-लेखन, शोध-कार्य हो या तुलनात्मक सदैव आधार-रूप में विद्यमान रहा है। प्रथम संस्करण की भूमिका में संवक जी ने लिखा था-'जिस भाषा में बालसाहित्य का सृजन नहीं होता उसकी स्थिति उस स्त्री के समान है जिसके संतान नहीं होती।' सेवकजी बालसाहित्य के पहले इतिहासकार थे। जैसे अंधेरी गुफाओं में भटकते हुए, महार्णव में गोते लगाते हुए उन्होने कैसे यह दुरूह कार्य संपन्न किया होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। उन्होंने लिखा भी है- 'हिंदी बालगीत साहित्य का इतिहास लिखने में बहुत कठिनाई हुई है। भाषा या साहित्य के किसी इतिहास में बालसाहित्य पर कुछ भी लिखा हुआ मुझे नहीं मिला।' (बालगीत साहित्य,पृष्ठ 5)
सेवक जी के इस ग्रंथ में अन्य भाषाओं में रचित बाल साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया गया और बड़ी बात यह कि पूरी निष्पक्षता के साथ कवियों और उनकी रचनाओं की चर्चा की गई। सेवकजी की कृति बालगीत साहित्य बालसाहित्य के क्षेत्र में एक ऐसी अनोखी और अकेली किताब है जो अब तक तीन बार अलग-अलग रूप और अंदाज में प्रकाशित हो चुकी है। दूसरी बार यह कृति 1983 में बालगीत साहित्यः इतिहास एवं समीक्षा नाम से स्वयं सेवकजी के द्वारा ही संशोधित और परिवर्द्धित होकर उ.प्र. हिंदी संस्थान से प्रकाशित हुई थी। उक्त संस्करण में तो कवियों के दुर्लभ चित्र भी उपलब्ध हैं। ग्रंथ में इतिहास के लिए अपेक्षित संदर्भ ग्रंथों का भी ईमानदारी से उल्लेख किया गया है। तीसरी बार इसका प्रकाशन उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से ही द्वितीय संस्करण के रुप में प्रो. उषा यादव के कुशल संपादन में हुआ।
बहरहाल, बाल कविता के समूचे परिदृश्य को संजीदगी से समझने के लिए बालगीत साहित्य बहुत ही जरूरी पुस्तक है। सेवकजी एक ऐसे समर्थ रचनाकार थे, जिनकी कविताएँ स्वयं मानक हैं। उनके कथन परिभाषा हैं। उनका मत था कि बाल साहित्य बच्चों के मनोभावों, जिज्ञासाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो। उनकी सोच व्यापक थी, यही कारण है कि बालगीत साहित्य ग्रंथ की रचना करते समय उन्होंने बाल कविता के विस्तृत फलक को अपने अध्ययन का विषय बनाया। कविताओं की चचर्चा करते समय किसी मित्रवाद या क्षेत्रवाद के वशीभूत नहीं हुए। न जाने कितने लोगों से पत्राचार किया। दिग्गज से दिग्गज, नए से नए और गुमनाम सभी से उनका संपर्क था। इसीलिए चाहे बालक अमिताभ बच्चन के लिए उनके कवि पिता हरिवंशराय बच्चन द्वारा बाल कविता लिखने की बात हो या स्वर्ण सहोदर की प्रकाशन समस्या की पीड़ा। सब कुछ उनकी किताब में सहज मुखरित हुआ। यही कारण था कि उनकी यह कृति केवल बाल कविताओं का ही नहीं, बाल कवियों के अनुभवों और रचना प्रक्रिया का भी दस्तावेज बनी।
सेवकजी ने काव्य रचना सात-आठ साल की अवस्था में ही प्रारंभ कर दी थी। अपने अनुज परोपकार देव के साथ खेल-खेल में रचित उनकी तुकबंदी देखिए-मिर्चा, तेल, खटाई, इसको छोड़ो सब भाई। वैसे सेवकजी मूलतः प्रगतिवादी कवि थे। दुर्भाग्य कि उनके इस रूप की जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, नहीं हुई। 1943 में प्रकाशित उनकी पुस्तक चिनगारी तत्कालीन समय में बहुत चर्चित रही थी। सेवकजी मंचों पर भी खूब जाते थे। उनकी कविता विहगकुमार इतनी लोकप्रिय थी कि सेवकजी ही विहग कुमार कहे जाने लगे थे। उनके प्रौढ़ कवि के रूप को जानने समझने के लिए वर्ष 2002 में बरेली से प्रकाशित 'संदर्श' के निरंकार देव सेवक विशेषांक को अवश्य देखना चहिए। सेवकजी का विवाह 1940 में हुआ लेकिन दंपति ने एक अनोखी प्रतिज्ञा की थी कि गुलाम देश में गुलाम संतान पैदा नहीं करेंगे। फलतः सेवकजी सहज ही दूसरों के बच्चों के प्रति आकर्षित हुए फिर उनके साथ खेल-खेल में कविताएँ लिखीं। इस बात की स्वीकारोक्ति सेवकजी ने स्वयं आत्मकथ्य में की है। उस दौर की उनकी एक कविता दृष्टव्य है-तेरे पापा हैं शरमाते, तुझको गोद नहीं ले पाते। पर मैं चाचा, क्यों शरमाऊँ, तुझको चाहे जहाँ घुमाऊँ। चल मैं तुझको पहनाऊँगा दो सौ गुब्बारों का हार। (बाल काव्य की अविरल यात्रा, सं. विनोद चंद्र पांडेय, पृ.35)
सेवकजी की पुस्तक मुन्ना के गीत में उन दिनों की अनेक कविताएँ संकलित हैं। उनकी कविता 'मुन्ना और दवाई' में प्रयुक्त शब्द आले तो शायद आज के बच्चे जानते भी न हों। बाल कौतूहल और कौतुक का अत्यंत मनोरम वर्णन इस कविता में है-मुन्ना ने आले पर रक्खी, शीसी तोड़ गिराई। हाथ पड़ा शीसी पर आधा, खींचा उसे पकड़कर। वहीं गिरी वह आले पर से, इधर उधर खड़‌बड़ कर। (महके सारी गली गली, 1996, पृ. 18)
उन्होंने लोरियाँ भी खूब लिखीं। यद्यपि वे मानते थे कि श्रेष्ठ लोरियाँ लिखने की सर्वाधिक क्षमता तो माताओं में ही होती है। उनकी एक लोरी का अंश प्रस्तुत है-मेरा मुना बड़ा सवाना, शाम हुए सो जाता है, ऊधम नहीं मचाता है। बिल्ली रानी, यहाँ न आना अब तुम शोर मचाने को, चूहे, वह बैठी है बिल्ली, तुझे पकड़ ले जाने को। मेरा मुना तुम दोनों के झगड़े से घबराता है, साँझ हुए सो जाता है।
ऐसे अभिभावक और शिक्षक जो बालकों के भावात्मक विकास के पक्षधर हैं, उनके लिए सेवकजी की कविताएँ सर्वोत्तम उपहार सरीखी है। सेवकजी बाल मन के मर्मज्ञ थे। बालसाहित्य के क्षेत्र में कुछ नया करने की चाह रखने बालों को तो उनकी कविताएँ अवश्य पढ़नी चाहिए। कविताएँ ही नहीं, सेवकजी के कथन भी बालसाहित्य के रचनाधर्मियों के लिए प्रकाश स्तंभ जैसे हैं।
शंभूप्रसाद श्रीवास्तव, व्यक्तित्व कृतित्व पुस्तक के पृ. 2 पर प्रकाशित अपने आलेख में वह कहते हैं-'बच्चों के लिए साहित्य की कसौटी यही है कि वह बच्चों द्वारा अपनाया जाए। केवल लेखक की आत्माभिव्यक्ति या आत्मतुष्टि के लिए वह नहीं होता।'
अपनी पुस्तक बालगीत साहित्य में उन्होंने बाल स्वभाव की सविस्तार चर्चा की है। डा. देवसरे द्वारा संपादित बाल साहित्य रचना और समीक्षा (1979) में प्रकाशित आलेख में भी वे कहते हैं-'बच्चे जिस दृष्टि से सूरज, चाँद तारों, आकाश, बादल.... को देखते हैं, बड़े उन्हें हजार बार देख चुकने के बाद भी उस दृष्टि से नहीं देख पाते। .... बाल स्वभाव के इस प्रकाश में यदि हम बालसाहित्य को देखें तो सोचना पड़ेगा कि जो बाल साहित्य हम बच्चों को देते हैं, उससे उन्हें कितना संतुष्ट कर पाते हैं।' (पृ. 54)
बाल साहित्य को लेकर निरंकार देव सेवक की इस लोकप्रिय परिभाषा के आलोक में सिद्धांतों की एक स्पष्ट तस्वीर उभरती है- "बाल साहित्य बच्चों के मनोभावों, जिज्ञासाओं और कल्पनाओं के अनुरूप हो, जो बच्चो का मनोरंजन कर सके और मनोरंजन भी वह जो स्वस्थ और स्वाभाविक हो, जो बच्चों को बड़ों जैसा बनाने के लिए नहीं, अपने अनुसार बनने में सहायक होने के लिए रचा गया हो।" (बाल साहित्य के प्रतिमान, पृ.12)
बच्चों के लिए वास्तविक लेखन तभी संभव है, जब रचनाकार के समक्ष सुस्पष्ट प्रतिमान हों। मासिक उत्तर प्रदेश के नवंबर 1987 अंक में प्राथमिक स्तर पर बालगीतों की उपयोगिता आलेख में सेवकजी ने कविता और गीत के अंतर को स्पष्ट करते हुए, गीत रचना के लिए आंतरिक अनुभूति को अनिवार्य तत्व माना था। उन्होंने लिखा था- 'गीत और कविता में आकाश पाताल का अंतर होता है। जिन बातों का अनुभव उन्हें (बच्चों को) वास्तव में नहीं होता, उनका भी अनुभव वह कल्पना में कर लेते हैं। किसी ऊँची गद्दीदार जगह पर बैठकर वह अनुभव करने लगते हैं कि हाथी की पीठ पर बैठकर कहीं जा रहे हों। बादलों में हाथी, घोड़े, भालू, खरगोश और महल बनते देख लेना उन्हीं का काम है।' (पृ. 5)
निःसंदेह सेवकजी का लेखन अनुभवसिद्ध लेखन था। बच्चों और बाल साहित्य को लेकर उनके मन में गहरी चिंता थी। अनेकानेक प्रयोगों से उन्होंने बाल साहित्य को समृद्ध किया। बाल साहित्य में नयी शैलियों का भी प्रवर्तन किया। बाल साहित्य जगत में बाल गजल लेखन का शुभारंभ भी उन्होंने ही किया। बाल गजल को परिभाषित करते हुए सेवकजी ने लिखा है- "गजल कोई नज्म नहीं होती, जो किसी एक विषय पर आदि से अंत तक लिखी जाए। गजल का प्रत्येक शेर एक दूसरे से सर्वथा अलग एक भाव लिए होता है और इस दृष्टि से सर्वथा पूर्ण होता है।' मानक बाल गजल के रूप में सेवकजी की यह रचना उदाहरणीय है- हमको लड्डू कचौड़ी गरम चाहिए और सोने को बिस्तर नरमे चाहिए/ पढ़ने लिखने को कहती तो है माँ, मगर/पहले कापी, किताबें, कलम चाहिए / एक चींटी के बच्चे ने मुझसे कहा-नन्हें मुनों पे करना रहम चाहिए / पापा बोले कि बेटा! बड़े अब हुए करना शैतानियां तुमको कम चाहिए। (अभ्यंतर,
अप्रैल 1991, पृ.14)
निरंकार देव सेवक बाल काव्य के युग पुरुष थे। एक से एक नगीने जड़े उन्होंने बाल साहित्य के मुकुट में। किशोर मानसिकता के बच्चे के मन की बात कहती उनकी यह बेजोड़ कविता देखिए-तुम बनो किताबों के कीड़े/हम खेल रहे मैदानों में/तुम घुसे रहो घर के अंदर / तुमको है
पंडित जी का डर हम सखा तितलियों के बन कर उड़ते फिरते उद्यानों में/ तुम रटो रात- दिन अँगरेजी/कह ए बी सी डी ई एफ जी/ हम तान मिलाते हैं कू कू/करती कोयल की तानों में (प्रतिनिधि बालगीत, 1994, सं. श्रीप्रसाद, पृ. 12)। इस कविता की रचना की कहानी भी अद्भुत है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के टीचर्स टेनिंग कालेज में बी. टी. परीक्षा के दौरान वे इसे उत्तर पुस्तिका पर लिख रहे थे। परीक्षा भवन में काव्यरचना करते देख प्रिंसिपल मलकानी सर ने कहा था, "मैं तुम्हारी सारी कविता भुला दूँगा।" निःसंदेह सेवकजी में बाल काव्य सृजन का जैसे जुनून सा था और इसी के चलते वे बाल साहित्य के भीष्म पितामह बने।
टमाटर पर संवाद शैली में लिखा उनका एक बाल गीत अनुपमेय है। हिंदी में टमाटर पर तो वैसी प्रस्तुति दूसरी है ही नहीं। यह बच्चों की अंतरंग कविता है। बच्चा इसे चाहे गाये, गाकर झूमे और चाहे अभिनय के माध्यम से इसको जीवंत करे, उसके पास अवसर ही अवसर हैं-लाल टमाटर, लाल टमाटर/मैं तो तुमको खाऊँगा /अभी न खाओ, मैं कुछ दिन में/ और अधिक पक जाऊँगा/लाल टमाटर - लाल टमाटर/मुझको भूख लगी भारी/भूख लगी है तो तुम खा लो/ये गाजर मूली सारी/लाल टमाटर - लाल टमाटर / मुझको तो तुम भाते हो/जो तुमको भाता है भैया/ उसको तुम क्यों खाते हो? (बाल साहित्य सृजन और समीक्षा, पृ. 30)
यहां पर यह भी बताते चलें कि मैंने 2012 में प्रकाशित अपनी आलोचना पुस्तक 'बाल साहित्य सृजन और समीक्षा' श्रद्धेय सेवकजी को ही समर्पित की थी।
उनकी कविता 'अगर मगर' भी लाख टके की है। एकदम सहज विन्यास लेकिन आनुप्रासिक शब्दों के बहाने उसका चामत्कारिक वैभव देखते ही बनता है-अगर मगर दो भाई थे, लड़ते खूब लड़ाई थे। अगर मगर से छोटा था, मगर अगर से खोटा था। अगर मगर कुछ कहता था, मगर नहीं चुप रहता था। बोल बीच में पड़ता था, और अगर से लड़ता था। दोनों के झगड़े के बाद का दृश्य भी गजब का है-माँ यह सुनकर घबराई, बेलन ले बाहर आई! दोनों के दो-दो जड़कर, अलग दिए कर अगर-मगर।
खबरदार जो कभी लड़े, बंद करो यह सब झगड़े। एक ओर था अगर पड़ा, मगर दूसरी ओर खड़ा। (बालसखा, मई, 1946, पृ. 169) सेवकजी की बहुचर्चित रचनाओं में शिशुगीत 'हाथी राजा' तो विश्व के श्रेष्ठतम शिशुगीत की अग्रिम पंक्ति में रखा जा सकता है। बच्चो की जबान पर चढ़ने वाले ऐसे अमर गीत कभी-कभार ही जन्म लेते हैं- हाथी राजा, कहाँ चले? सूंड हिलाते कहाँ चले? पूँछ हिलाते कहाँ चले? मेरे घर आ जाओ ना, हलुआ-पूरी खाओ ना! आओ, बैठो कुर्सी पर,कुर्सी बोली चर चर चर
उनके शिशुगीत खासे मजेदार हैं।
कानावाती कुर्र या और नन्हीं चिड़िया की फुर्र जैसे। तितली पर उनकी कविता तो बहुचर्चित है ही, यह शिशुगीत भी लाजबाव है- मैं अपने घर से निकली, तभी एक पीली तितली। पीछे से आई उड़कर, बैठ गई मेरे सिर पर। तितली रानी बहुत भली, में क्या कोई फूल-कली ?
"ऐसे ही 'मच्छर का ब्याह' अत्यंत मनोरंजक शिशुगीत है। मक्खी का दो टूक उत्तर बरबस ही प्रफुल्लित करता है-मच्छर बोला ब्याह करूंगा, मैं तो मक्खी रानी से। मक्खी बोली-'जा-जा पहले, मुँह तो धो आ पानी से! व्याह करूँगी मैं बेटे से, धूमामल हलवाई के, जो दिन-रात मुझे खाने को, भर-भर थाल मिठाई दें।' रानी बिटिया भी निरंकार देव सेवक की विशिष्ट कविताओं में से है। बच्चों के लिए ही नहीं, बड़ों के लिए भी यह कविता जैसे चिंतन का नया आकाश खोलती प्रतीत होती है। रानी बिटिया दिल्ली, चंडीगढ़, जयपुर, रामेश्वर घूमते हुए जब घर लौटती है तो माँ को दिया गया उसका अप्रत्याशित उत्तर मन की पतों को छू-छू जाता है- माँ ने पूछा- 'रानी बिटिया ! कहाँ गई थी बाहर?' बिटिया बोली-'कहीं नहीं माँ, में भी घर के अंदर।' 'घर के अंदर ? रानी बिटिया, ऐसा झूठ सरासर ?' 'झूठ नहीं माँ! सच कहती हूँ, भारत है मेरा घर।' (प्रतिनिधि बालगीत, 1994, सं. श्रीप्रसाद, पू, 14)
विभिन्न पाठ्यक्रमों में उनकी सरस कविताएँ वर्षों से पढ़ाई जा रही हैं। चंदा मामा दूर के! कविता को तो हमने भी छुटपन में उछल-उछल गाया है, तारों की उपमा कपूर के दीपकों से, अंगूर के गुच्छों से और मोतीचूर के बिखरे लड्डुओं से करना तो जैसे सेवकजी के ही बस की बात थी -साथ लिए आए तारे, चमक रहे कितने सारे, राजमहल में जैसे जगमग, जलते दीप कपूर के ! चंदा मामा दूर के! दूर-दूर बिखरे तारे, लगते हैं कैसे प्यारे, गिरकर फैल गए हों जैसे, , लड्डू मोतीचूर के! चंदा मामा दूर के! 'दूर देश से आई तितली' कविता भी उत्तर प्रदेश के पाठ्यक्रम के बहाने न जाने कितने बच्चों का कंठहार रही दूर देश से आई तितली, चंचल पंख हिलाती, फूल-फूल पर, कली-कली पर इतराती-इठलाती ।
उनकी 'पैसा पास होता' कविता में गजब की कल्पनाशीलता है। तोते और घोड़े के बाद चूहे को चना खिलाने से संभावित परिणाम में कितना चुलबुलापन पैसा पास होता तो चार चने लाते, चार में से एक चना को खिलाते, चूहे को खिलाते तो दाँत टूट जाता, दाँत जाता तो बड़ा मजा आता!
बच्चों में निर्भयता के संस्कार जगाती उनकी एक अनूठी कविता नंदन के जून, 1988 अंक में पढ़ी थी- चींटी डरती नहीं कि हाथी, कुचल पाँव से देगा। जुगनू डरता नहीं कि कोई पकड़ हाथ में लेगा। चिड़ियाँ डरती नहीं कि पेड़ों से टकरा जाएगी। मछली डरती नहीं कि मोटी मछली खा जाएगी। तब फिर हम क्यों डरें किसी से, कुत्ता बंदर हो। चूहा, बिल्ली, बकरा बकरी, चाहें शेर बबर हो। (पृ.47) वास्तव में बच्चों को ऐसी ही प्रेरक कविताएँ दी जानी चाहिए।
सेवकजी ने किशोर मानसिकता की कविताएँ भी खूब रचीं। डॉ. रोहिताश्व अस्थाना द्वारा संपादित चुने हुए बालगीत में उनकी कविता में किशोरों के मन की सफल अभिव्यक्ति देखते ही बनती है- पंडित मोहनलाल तिवारी, हिंदी हमें पढ़ाते हैं। लेकिन वह सीधे शब्दों के, उलटे अर्थ बताते हैं।... मैं जब कहता इन शब्दों का, यह तो अर्थ नहीं होता। तब वह कहते तेरी क्या है, तू तो है रट्टू तोता।
(पृ.147)
सेवकजी की बहुतेरी कविताएँ कथात्मक शैली में हैं। उनकी एक कविता पर तो एक युवा रचनाकार ने अपने नाम से पूरी कहानी ही लिख दी थी। उसके प्रकाशित होने पर मैंने आपत्ति की थी कि इस कहानी के साथ मूल लेखक निरंकारदेव सेवकजी का भी उल्लेख होना चाहिए था। बहरहाल आप उस कविता की अलमस्ती देखिए, जहाँ दो चिड़ियों के रोचक बार्तालाप को चंचल छटाएँ हैं- बच्चा एक बहुत ही सुंदर, रहता है इस घर के अंदर ! मुझे बड़ा प्यारा लगता है, नाम न जाने उसका क्या है। मैं तो उससे ब्याह करूँगी, उसको टॉफी-बिस्कुट दूँगी! कहा दूसरी ने मुसका कर, 'यह घर अच्छा तो लगता है, पर। चिड़ियाँ कहीं ब्याह करती हैं, वह तो बच्चों से डरती हैं। तू यदि उससे ब्याह करेगी, पिंजड़े में बेमौत मरेगी।'
सेवकजी ने पद्य कथाएँ खूब लिखीं। उनकी गीत कथाएँ तो खासी चर्चित हुई। हाँ, उन्होंने जीकहानियाँ भी लिखीं। नंदन, अप्रैल, 1988 पू. 61 पर प्रकाशित उनकी कहानी उपवास किशोरोपयोगी है। अभिमानी श्वेतकेतु की रोचक कथा के बहाने किशोरों में अप्रत्यक्ष रूप से संस्कार जगाने की भी कोशिश है।
सेवकजी का संपर्क देश के विभिन्न प्रांतों के बाल साहित्यकारों से था। उन्होंने अनुवाद कार्य भी किया है। सुनिर्मल बसु की बंगला कविता का यह अनुवाद देखिए- बना रहे हैं दाल पकौड़ी तलकर चंदा मामा। पास गए खाने को हम सब, शंकर मोहन, श्यामा। बहुत कड़ा उनका मिजाज है मोढ़े पर बैठे हैं। देखो कैसा बना रहे मुँह मन ही मन ऐंठे हैं। (बाल साहित्य समीक्षा, जनवरी 1979) अलिखित बालगीतों पर लिखे अपने एक आलेख में उन्होने अलिखित बाल साहित्य के खजाने को खोजने का आवाहन किया है- 'आवश्यकता है कि हम उस अलिखित बाल साहित्य का उसी प्रकार संकलन कर अध्ययन करें जैसे हमने लोकगीत साहित्य का किया है। इसके बिना हमारा बालगीत साहित्य अधूरा ही रहेगा।' (त्रिविधा, 1994, बाल भवन, पृ. 57) इस दिशा में काम होना चाहिए।
सेवकजी के बालसाहित्य पर पी-एच.डी . उपाधि हेतु कुछ शोधकार्य भी हुए। यद्यपि यह संख्या अत्यल्प है। रुहेलखंड वि.वि. से डॉ. अवधेश कुमार शुक्ल ने 1987 में निरंकारदेव सेवक के काव्य का समीक्षात्मक अध्ययन, डॉ. नृपेंद्र कुमार ने 1994 में निरंकारदेव सेवक की बाल कविताओं का मनोवैज्ञानिक अध्ययन और आगरा वि. वि. से 2002 में डॉ. चिरौंजी लाल ने निरंकार देव सेवक के बाल साहित्य का समालोचनात्मक अध्ययन विषय पर शोधकार्य किया हैं। उन जैसे बालसाहित्य के सच्चे रचनाकार पर जमकर काम होना चाहिए। शोध निर्देशकों और शोधार्थियों का ध्यान इस ओर जाना चाहिए। ... और उन बालसाहित्यकारों का भी जो अपने निजी संबंधों के आधार पर बस अपने ही ऊपर शोध कार्य की फिराक में रहते हैं। सेवकजी समर्पित बालसाहित्य सेवक थे। बालसाहित्य के लिए जिये। पत्नी और पुत्र के निधन की त्रासदी झेलते हुए भी उन्होंने बाल साहित्य के समर्पण को कम नहीं होने दिया।

उनकी पुत्रवधू पूनम सेवक के पास उनसे जुड़े ढेरों किस्से हैं। समय रहते उन्हें सहेज लेना चाहिए। सेवकजी से मेरा पत्राचार रहा। उनके लिखे अनेक पोस्टकार्ड मेरी धरोहर हैं। 21 दिसंबर 1990 के उनके एक पत्र को प्रस्तुत करने का लोभ में संवरण नहीं कर पा रहा, जिसे मैं प्रायः अपने माथे पर रख लेता हूँ। तब ऐसा लगता है कि सेवकजी आशीर्वाद दे रहे हैं-
प्रिय छोटे भाई,
आपका उत्तर दो महीने बाद दे पा रहा हूँ। लिखने पढ़ने का काम बहुत है और अकेला मैं करने वाला हूँ।
आपने नया लिखना प्रारंभ किया है, खूब लिखें और खूब पढ़ें। पढ़ें वह जो वैचारिकता का विकास करने वाला हो। आप साहित्य के क्षेत्र में आगे बढ़ें, यही कामना करता हूँ।
सस्नेह, निरंकार देव सेवक
सेवकजी का एक और पत्र जो कानपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका सामाजिक कल्याण संदेश के अक्टूबर 1990 अंक के पृ. 26 पर रामसिंहासन सहाय मधुर के देहांत पर लिखा गया था, भी इसलिए प्रस्तुत कर रहा हूँ, क्योंकि उसमें कहीं न कहीं सेवकजी की अंतर्व्यथा उजागर होती है। दृष्टव्य-यह जानकर बहुत दुख हुआ कि बलिया एक ऐसी गौरवमयी विभूति से वंचित हो गया जिस पर हिंदी बालसाहित्य जगत को गर्व था। यह हम हिंदी वालों की दरिद्रता ही है कि उनके जीवन काल में उनका समुचित सम्मान नहीं कर सके। राजनीति सामाजिक जीवन पर ऐसी छाई है कि साहित्यकार और बुद्धिजीवी सब पिछड़कर रह गए हैं। मधुरजी के पीछे अब अपने नंबर की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता। -निरंकार देव सेवक
सेवकजी के जन्म शताब्दी वर्ष पर उनकी चुनिंदा कविताएँ प्रकाश मनु के संपादन में आई हैं। बालवाटिका का विशेषांक आया है। अन्य पत्रिकाओं को भी यह
पुनीत कार्य करना चाहिए।
एक समय था जब बरेली में प्रतिवर्ष सेवक जी की स्मृति में राष्ट्रीय स्तर की संगोष्ठी होती थीं। मैं भी उनमें सम्मिलित हुआ हूँ। हम सब सेवकजी के घर पर ठहरते थे। डॉ. श्रीप्रसाद, डॉ. प्रतीक मिश्र, कृष्ण शलभ, सूर्यकुमार पांडेय, पूनम सेवक, निर्मला सिंह, फहीम करार इत्यादि और मैं (नागेश पांडेय संजय) कितनी बार सारी सारी रात जागकर कितना बतियाते थे। सेवक जी की बातो को याद कर भावुक होते हुए रो पड़ते थे। उन दिनों रुहेलखंड विश्वविद्यालय में निरंकारदेव सेवक शोधपीठ की स्थापना की माँग ने जोर पकड़ा था। तत्कालीन कुलपति और जिलाधिकारी महोदय ने आश्वस्त भी किया था लेकिन बात आगे नहीं बढ़ सकी।
विनोद चंद्र पांडेय द्वारा संपादित ग्रंथ 'बाल काव्य की अविरल यात्रा' में पृ. 41 पर प्रकाशित निरंकारदेव सेवकजी के आत्मकथ्य में प्रस्तुत उनकी अधूरी इच्छाएँ विगलित करती हैं। खासकर केंद्र सरकार द्वारा बाल साहित्य अकादमी की स्थापना की उनकी चाह पर विशेष रूप से काम होना चाहिए। यह उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी
डॉ. नागेश पांडेय संजय

शुक्रवार, 24 नवंबर 2023

प्रतिनिधि बाल कविता संचयन


'प्रतिनिधि बाल कविता-संचयन': एक शानदार कोशिश
•डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'

पिछले दिनों हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक डा. दिविक रमेश के संपादन में एक महत्वपूर्ण संकलन 'प्रतिनिधि बाल कविता-संचयन' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। यह एक शानदार कोशिश है जिसके लिए साहित्य अकादमी की भरपूर सराहना की जानी चाहिए और अपेक्षा भी कि अन्य विधाओं में भी ऐसे अनुष्ठान भविष्य में निष्पादित होते रहेंगे। संकलन में नए-पुराने 195 रचनाकारों की अलग-अलग शेड्स की बाल कविताएँ हैं। संकलन में उन्हीं बाल कविताओं को चयनित किया गया है, जो आज के बालक की कविताए कही जा सकतीं हैं। इस दृष्टि से संपादक के श्रम और कौशल की प्रशंसा करनी होगी। बकौल संपादकः मेरी निगाह में कविताएँ वैज्ञानिक सोच, प्रतिकूल मूल्यों और अंधविश्वासों से मुक्त, कल्पना और जिज्ञासा को प्रेरित करने वाली लेकिन शैली में विश्वसनीयता की बुनियाद पर टिकी, नये प्रयोगों और नये ट्रीटमेंट से समृद्ध हों। कविताएँ पहले की तरह सीधे-सीधे उपदेशात्मक शैली की न हों। समझ पिरोयी हुई हो सकती है। (पृ. 7)

दिविक जी धुन के धनी और अत्यंत अनुभवी रचनाकार हैं। उन्होंने न केवल श्रेष्ठ बाल कहानियाँ और कविताएँ लिखी हैं बल्कि बाल साहित्य की आलोचना की दिशा में भी गंभीर कार्य किया है। अनुवाद की दृष्टि से भी उनका अवदान उल्लेखनीय है। आज के बच्चे की बदली हुई सोच और परिपक्व मानसिकता की ओर संकेत करते हुए वे संपादकीय में लिखते हैं: आज उसके (बालक के) सामने संसार भर की सूचनाओं का अच्छा खासा भण्डार है और उसका मानसिक विकास पहले के बालक से कहीं ज़्यादा है। वह बड़ों के बीच उन बातों तक में हिस्सा लेने का आत्मविश्वास रखता है जो कभी प्रतिबंधित मानी जाती रही हैं। आज का बच्चा प्रश्न भी करता है और उसका विश्वसनीय समाधान भी चाहता है। आज के सजग बच्चे की मानसिकता पुरानी मानसिकता नहीं है जो प्रश्न के उत्तर में 'डाँट' या 'टाल मटोल' स्वीकार कर ले। वह जानता है कि बच्चा माँ के पेट से आता है चिड़िया के घोंसले से नहीं। दूसरे, हमें बच्चे को पलायनवादी नहीं बल्कि स्थितियों से दो-दो हाथ करने की क्षमता से भरपूर होने की समझ देनी होगी। अहंकारी, उपदेश या अंध आज्ञापालन का जमाना अब लद चुका है। बात का ग्राह्य होना आवश्यक है। और बात को ग्राह्य बनाना, यह साहित्यकार की तैयारी और क्षमता पर निर्भर करता है। (पृ. 13)

संकलन की भूमिका अत्यंत विचारोत्तेजक और शोधपूर्ण है। दिविकजी ने न केवल बाल कविता के बदलते मिजाज को लेकर गंभीर विमर्श परोसा है अपितु बाल कविता जो कि बाल साहित्य का मूल भी है, के परिप्रेक्ष्य में बाल साहित्य के विविध आयामों की भी तात्विक चर्चा की है। बाल साहित्य में व्याप्त विसंगतियों को लेकर भी वे चिंतित दिखे हैं और बाल साहित्य लेखकों के यथोचित सम्मान हेतु भी उन्होंने तार्किक ढंग से अपनी बात रखी है। संकलन को उन्होंने चयन के रूप में प्रस्तुत किया है और कहा जा सकता है कि यह चयन अभूतपूर्व है। बाल साहित्य की अपनी शास्त्रीयता है। बाल कविता के सौंदर्यशास्त्र की आवष्यकता की ओर भी दिविकजी ने संकेत किया है।

हिंदी में जबरदस्त बाल कविताओं का अभाव तो नहीं है किंतु जबरदस्ती लिखी बाल कविताओं की खासी भरमार है। छपास के मोह में बहुत से लिक्खाड़ उत्तम साहित्य की सर्जना से बेफिक्र... बस पुस्तकों की संख्या बढ़ाने में लगे रहते हैं। येन केन प्रकारेण पुस्तक आनी चाहिए और उसके लिए कहीं न कहीं से पुरस्कार भी प्राप्त हो जाए, बस यही लक्ष्य रहता है। पिष्टपेषण और पुनरावृत्ति के शिकार रचनाकारों की यात्रा बहुत लंबी नहीं होती।

दिविक जी ने जहाँ इस संकलन में पुराने रचनाकारों की भी कालजयी रचनाओं को आज के संदर्भ में उपयुक्तता के आधार पर ससम्मान प्रस्तुत किया है, वहीं नए (और कुछ नवसिखुए) रचनाकारों की भी प्रतिनिधि बाल कविताएँ प्रोत्साहन और बाल कविता की वर्तमान स्थिति को जताने के उद्देश्य से संकलित की हैं।

बकौल संपादकः कहीं न कहीं मन में अधिक से अधिक नये रचनाकारों और उनकी सुयोग्य रचनाओं को स्थान देने की प्रबल इच्छा मन में थी ताकि बाल साहित्य के वर्तमान परिदृश्य के बारे में आकलन हो सके कि वह कितना समृद्ध है अथवा कितना कमजोर है। (पृ. 5)

बहरहाल बाल काव्य के क्षेत्र में आए नए कवियों में शादाब आलम की तरह कम ही लोग हैं, जिनकी बाल कविताएँ, नवीनता और छंद: दोनों ही दृष्टि से मुकम्मल बाल कविताएँ हों। सृजन अभ्यास चाहता है। कविता केवल तुकबंदी नहीं है। विषय की दृष्टि से अत्युत्कृष्ट कविताओं पर यदि शिल्प की दृष्टि से थोड़ा-सा श्रम कर लिया जाय तो इनका स्वरूप ही कुछ और हो जाता। बाल कविताओं में छद का बड़ा महत्व है, ऐसी कविताएँ बच्चे उछल उछल कर गाते और गुनगुनाते हैं। ऐसी कविताएँ उनके मन में बैठ जाती हैं। जबकि पद्म के रूप में गद्य जैसी कविताएँ बच्चे पढ़ तो लेते हैं किंतु वे उनके स्मृति पटल पर अंकित नहीं हो पातीं। लयहीन कविताओं की स्थिति स्वादिष्ट खीर में कंकड़ की भांति होती है। बच्चा कविताएँ क्यों नहीं पढ़ता ? अन्यथा लेने की बात नहीं है, मछली जल की रानी है जैसी कविताएँ पीढ़ियों से बच्चे की जुबान पर क्यों चढ़ी हैं? नवसृजन करते हुए इसका चिंतन अवष्य करना चाहिए। बच्चों की अदालत में हमारी कविता का हश्र क्या होगा, इस दिशा में लेखकीय जिज्ञासा-तत्परता जरूरी है।

706 पृष्ठों के इस ग्रंथाकार संकलन को देखकर किसी समुद्र-सा आभास होता है। हालाकि समुद्र में रत्न, मोती, शंख, मणियों के साथ-साथ घोंघे भी होते हैं। यह संकलन भी उस परिस्थिति से पृथक नहीं है।

यह चयन यह सिद्ध करता है कि बाल कविताओं का फलक अत्यंत व्यापक है। बच्चे की सोच आज पूरी तरह बाल कविताओं में मौजूद होनी चाहिए। यही नहीं, पुराने रचनाकारों की जो बाल कविताएँ बच्चे के मन को समझ कर लिखी गई थी, वे आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए हैं। समय के अनुसार यदि अन्य पुरानी बाल कविताओं में किंचित संशोधन और संपादन कर लिया जाए तो वे भी अपनी प्रासंगिकता सहज ही सिद्ध कर सकती हैं। यह चयन बाल कविता के क्षेत्र में मील के पत्थर की भांति है। बाल साहित्य में सदैव इसकी अनुगूँज बनी रहेगी और भविष्य के उच्चतम संकलनों के लिए यह चयन दिशा बोधक के रूप में कार्य करेगा, इसमें संदेह नहीं।

संकलन की शुरुआत श्रीनाथ सिंह (जन्म 1901) की कविता 'मुन्नी की हैरानी' से हुई है और संकलन की अंतिम कविता 'बड़ा' चन्द्रदत्त इंदु (जन्म 1935) की है। यानी की रचनाकारों का कोई प्रचलित क्रम (जन्म या अकारादि) नहीं है। संपादक के अनुसार रचनाएँ मिलने का क्रम अनुक्रम का आधार बना है।

काश! इस महत्त्वपूर्ण संकलन में जन्मतिथि का क्रम अपनाया जाता तो बाल कविता के विकास क्रम को समझने में सहायता मिलती। संकलन में न तो रचनाकारों का परिचय है और न ही पते । कविताओं के साथ कवियों के चित्रों का भी सामंजस्य किया जा सकता था। आगामी संस्करण में यह कार्य हो सके तो यह संकलन दुर्लभ और ऐतिहासिक महत्त्व प्राप्त करेगा। साथ ही इसे बालोपयोगी बनाने के लिए कविताओं के साथ खाली स्थान पर संबंधित चित्र भी दिए जाने पर विचार करना चाहिए।

...और अब संकलन की कुछ कविताओं पर चर्चा करने से पूर्व बाल कविता के प्रतिमानों पर दिविक जी की यह टिप्पणी अवश्य पढ़ ली जाए जो कि खासी विचारणीय है। रचनाकार के जेहन में उनका यह अभिकथन रहेगा तो बाल कविता के कदम निश्चय ही वैभवोन्मुखी रहेंगे। वे कहते हैं-जब मैं बालक की बात कर रहा हूँ तो मेरे ध्यान में शहरी, कस्बाई, ग्रामीण, आदिवासी, गरीब, अमीर, लड़की, लड़का आदि सब बालक हैं। भारतीय बच्चों का परिवेश केवल कम्प्यूटर, सड़कें, मॉल्ज, आधुनिक तकनीक से सम्पन्न शहरी स्कूल, अंतर-राष्ट्रीय परिवेश ही नहीं है (वह तो आज के साहित्यकार की निगाह में होना ही चाहिए), गांव-देहात तक फैली पाठशालाएँ भी है, कच्चे पक्के मकान-झोंपड़ियाँ भी हैं, उन के माता-पिता भी हैं, उनकी गाय-भैंस-बकरियाँ भी हैं। प्रकृति का संसर्ग भी है। वे भी आज के ही बच्चे हैं। उनकी भी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।

इस संकलन में ऐसे ही बच्चों की उत्तमोत्तम बाल कविताएँ हैं। शिशु, बालक और किशोर: सभी आयु वर्ग के बालकों के लिए रचनाएँ चयनित की गई हैं।

हरिवंशराय बच्चन की आनंदित बच्चे के स्वाभाविक मनोभावों से पगी इस कविता का अंदाज देखिए। कोई सीख भी नहीं, फिर भी अंतः प्रेरणा और उत्सुकता जगाने का कैसा कौशल इसमें विद्यमान है-आज उठा में सबसे पहले, सबसे कहता आज फिरूँगा, कैसे पहला पत्ता डोला, कैसे पहला पंछी बोला, कैसे कलियों ने मुंह खोला, कैसे पूरब ने फैलाए बादल पीले, लाल, सुनहले। (पृ. 74)

भारतभूषण अगवाल की कविता तो जैसे किसी कुलगीत का आनंद देती है-हम पहाड़ पर रहते हैं। देवदार की बांह यहां, करती शीतल छांह यहां। भेड़ें चरती हैं घाटी में, झर झर झरने बहते हैं। हम पहाड़ पर रहते हैं। (पृ. 79) बाल काव्य में प्रकृति लेखकों का प्रिय विषय रहा है। देवेंद्र कुमार ने इस क्षेत्र में दस कदम आगे बढ़कर क्या खूब रचा है-कूड़े पर एक फूल खिला। सुंदर पीला फूल खिला। पृ.196

मधु पंत पेड़ का मानवीकरण करते हुए पेड़ के चलने की कल्पना करती हैं-यदि पेड़ों के होते पैर, सारा दिन वे करते सैर। (पृ.143) तो गोपाल राज गोपाल ने अगर कहीं जो चलते पेड़, बच्चों जैसे पलते पेड़। बेसुध माता लगती कहने, कहीं नीम को देखा तुमने? चार घड़ी से वह गायब है, वस्त्र हरे थे पहने उसने। (पृ.562) लिखकर बालकविता को किस ऊँचाई पर पहुँचा दिया है!

निरंकारदेव सेवक की चर्चित कविता: रोटी अगर पेड़ पर लगती, तोड़ तोड़ कर खाते। तो पापा क्यों गेहूँ लाते, और उन्हें पिसवाते। रोज़ सवेरे उठकर हम, रोटी का पेड़ हिलाते। रोटी गिरती टप टप टप टप, उठा-उठा कर खाते। (पृ. 42) यह जताती है कि बालकाव्य का सृजन कितना आह्लादकारी है। महादेवी वर्मा की घर में पेड़ कहाँ से लाएँ, कैसे यह घोंसला बनाएँ। किससे यह सब बात कहेगी। अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी। (पृ. 700) कविता बाल संवेदनाओं से उपजी मार्मिक रचना है। बाल कविता में करुणा का समावेष भावी पीढ़ी में रागात्मक संबंधों की संभावनाएँ निरूपित करता है।
जल संकट और संचय को लेकर इस संचयन में प्रकाश मनु की बेजोड़ कविता है, जिसमें खिलंदड़ापन कूट-कूट कर भरा है- देखो पानी की शैतानी, ओहो चला गया है पानी। अभी बहुत हैं काम अधूरे, घर-भर को अभी नहाना था। छुटकू कूद रहा है कब से, उसको पिकनिक पर जाना था। पृ. 218 प्रभुदयाल श्रीवास्तव की अगर हमारे वश में होता, नदी उठाकर घर ले आते (पृ. 133) कविता की कल्पना भी गजब की है। ... और सुशील शुक्ल की इस नन्हीं कविता के तो कहने ही क्या एक पत्ते पर धूप रखी थी, एक पत्ते पर पानी। धूप ने सारा पानी सूखा, हो गई खतम कहानी। (पृ. 684)

वर्षा आई-वर्षा आई जैसी सामयिक कविताओं का ढेर लगानेवाले लिक्खाड़ों को सुभद्राकुमारी चौहान की यह कविता अवश्य पढ़नी चाहिए-अभी अभी थी धूप, बरसने लगा कहाँ से यह पानी? किसने फोड़ घड़े बादल के, की है इतनी शैतानी। (पृ. 698) इस तरह की अलग अंदाज की सामयिक कविताएँ कम ही
देखने को मिलती हैं। कृष्ण शलभ का सूरज से संवाद भी बहुत सरस और खिलंदड़ा है-रविवार ऑफिस बंद रहता, मंगल को बाजार भी। कभी-कभी छुट्टी कर लेता, पापा का अख़बार भी। ये क्या बात तुम्हीं बस छुट्टी नहीं मनाते हो? सूरज जी तुम इतनी जल्दी क्यों आ जाते हो? पृ. 243
नई रचनाकार दिशा ग्रोवर की कविता प्राकृतिक उपादानों की अभिलाषा जैसा एकदम नवीन विषय सृजित करती है-हम बच्चों के झूले खातिर, टहनी सदा झुकाएँ। कुछ पीड़ा सहकर भी वे तो, किलकारी फैलाएँ। लिख दे कविता 'पेड़ों पर हम, पेड़ चाहते होंगे। पृ. 434 सृष्टि पांडेय की कविता चिरों देवी सुनो सुनो, पंख नहीं है मेरे पास, बोलो कैसे करूँ प्रयास? क्या जहाज का टिकट कटाऊँ, तुम से भी ऊँचे हो आऊँ। (पृ. 507) चपल बच्चो में उपजती मौलिक युक्तियों की अभिव्यक्ति है।
प्रयाग शुक्ल की बढ़ती जाती नाव, कहाँ नाव के पांव! वह पानी पर चलती. चलती और मचलती। (पृ. 126) प्रयोगधर्मी रचना है।

संकलन में ऐसी भी कविताएँ हैं जिनमें शिक्षण के अनेकानेक आयाम समाहित हैं। जैसे रमेश कौशिक की पहेलीनुमाँ कविता बताती है कि पेड़ कहां-कहाँ नहीं है- तुम्हारी मेज कुर्सी, जिस पर तुम पढ़ते हो, मैं हूँ। मेले में, काठ का घोड़ा, जिस पर तुम चढ़ते हो, मैं हूँ। पतला सा कागज, जिस पर तुम लिखते हो, मैं हूँ। पृ.101

बाल कविताएँ बाल चिंतन से अनुप्राणित होनी चाहिए। बाल संदर्भित वयस्क चिंतन से युक्त कविताओं को बाल कविता नहीं कह सकते। ऐसी कविताओं से बड़े तो साहित्यिक आनंद पाते हैं, बच्चे नहीं। वात्सल्य रस के अंतर्गत आनेवाली रचनाएँ भी बाल साहित्य नहीं होतीं। वहाँ बाल क्रीडाओं से वयस्क प्रमुदित होते हैं। इस संकलन के प्रश्न 366 पर प्रकाशित इस वयस्क कविता का अंश देखिए-मुंह अंधेरे, साइकिल पर बस्ते की जगह होता था डीजल का जरीकेन। कभी होती ओस भरी पतली मेंड़ पर, डगमगाती साइकिल के कैरियर में, पुराने रबर ट्यूब से कसी गेहूँ की बोरी। रविवार को ही लगता था साप्ताहिक बाजार, लाना होता था पूरे हफ्ते की सब्जी, डालडा, भैंस के लिए खली, लालटेन का षीषा। यह कविता अच्छी होते हुए भी बाल कविता तो कतई नहीं है।
शिशुगीतों के उस्ताद शेरजंग गर्ग चुटीले अंदाज में लेखन के लिए समाद्भुत हैं। गुड़िया पर हिंदी में ऐसी रचना शायद ही दूसरी हो-गुड़िया है आफत की पुड़िया, बोले हिंदी, कन्नड़, उड़िया। नानी के संग भी खेली थी, किंतु अभी तक हुई न बुढ़िया। पृ. 99
संकलन में मनोरंजन जो बालसाहित्य का अनिवार्य तत्व है, से युक्त अनगिनत कविताएँ हैं। बानगी के तौर पर कुछ कवितांश देखिए आधी सच्ची आधी झूठी, सुनो कहानी। चींटे ने हाथी को काटा, हाथी ने गुस्से में आकर चींटे को जो मारा चांटा। चिल्लाया वो नानी नानी दामोदर अग्रवाल, पृ. 92

आठ फीट की टांगे होती, चार फीट के हाथ बड़े। तो मैं आम तोड़कर खाता, धरती से ही खड़े-खड़े। कान बड़े होते दोनों ही, दो केले के पत्री से। ती मैं सुन लेता मामा की, बातें सब कलकत्ते से-श्रीप्रसाद, पृ. 62

घ्एक था राजा एक थी रानी, दोनों करते थे मनमानी। राजा का तो पेट बड़ा था, रानी का भी पेट घड़ा था। काम यही था बक बक-बक बक। नौकर से बस झक झक झक झक-जयप्रकाश भारती पृ. 56

योगेंद्रदत्त शर्मा रचित सुनो पप्पू! मियाँ गप्पू । उड़ाते हो बिना पर की, सदा बातें अललटप्पू। (पृ. 327) और शादाब आलम की अगर हंसी का चूरन बिकता, खिला-खिला हर मुखड़ा दिखता। घर में कोई मुझे डाँटता, तो लाकर मैं इसे चाटता। (पृ. 390) कविताएँ भी प्रचुर मनोरंजन करती हैं।

संकलन का आकर्षण एक नए ढंग की लोरी भी है जो रमेश तैलंग ने लिखी है। सच, किताब को थपथपाते हुए बच्चे के सुमधुर स्वर की कल्पना कितनी रोमांचक है-रात हो गई तू भी सो जा, मेरे साथ किताब मेरी। सपनों की दुनिया में खोजा, मेरे हिसाब किताब मेरी। पृ.208

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता-अगर कहीं मिलती बंदूक, उसको मैं करता दो टूक। नली निकाल बना पिचकारी, रंग देता यह दुनिया सारी। (पृ. 50) यह सिद्ध करती है कि बालसाहित्य केवल बालको के लिए ही नहीं होता। बड़ों के लिए भी इसके बड़े निहितार्थ हो सकते हैं।

कुसुम अग्रवाल और परशुराम शुक्ल की कविताएँ बच्चों को बड़ों के बचपन से जोड़ती हैं। साथ ही संवाद की दिषा में भी बच्चों के स्वर में स्वर मिलाती हैं-दादी जब तुम बच्ची थी, क्या हम सबसे अच्छी थी। शैतानी ना करती थीं, सभी बड़ों से डरती थी? कैसी थी तुम पढ़ने में? लड़ने और झगड़ने में? (पृ. 579) कुसुमजी की ही तरह षुक्लजी भी बाल संवाद को स्वर देते हैं-पापा सच-सच मुझे बताना, कुछ भी मुझसे नहीं छिपाना। मेरे जैसे जब बच्चे थे, तब के अपने हाल सुनाना। (पृ. 274)

पुष्पलता शर्मा की रचना कामकाजी माताओं की संतानों की अपेक्षा का सच्चा प्रतिनिधित्व करती है-आज न दफ्तर जाओ मम्मी। कुछ पल साथ बिताओ मम्मी। (पृ. 611)

दरअसल बाल अपेक्षा और बाल समस्या पर कलम चलाने की अपार संभावनाएँ हैं। पुताई की स्थिति में घर के हाल और बालक की प्रतिक्रिया इस कविता में देखी जा सकती है-मेरे घर में हुई पुताई, भैया समझो शामत आई। पूरे घर में मचा झमेला, बच्चे बड़े सभी ने झेला। कैसे बाहर हो अलमारी, कहाँ रखें ये चीजे सारी। बाहर सब सामान निकाला, घर लगता था गड़बड़झाला। नागेश पांडेय 'संजय', पृ. 346

लक्ष्मीशंकर बाजपेई का शहरी बालक गांव देखने की अपेक्षा रखता है-अबकी बार किसी छुट्टी में गांव अगर जाना पापा, कैसा होता गांव, मुझे भी गांव दिखा लाना पापा। पृ. 312

बालिका प्रधान साहित्य की बड़ी जरूरत है। हिंदी में इसकी मात्रा अत्यल्प है। उषा यादव की कविता में एक बच्ची अपने पुस्तक प्रेम की अभिव्यक्ति कुछ यों करती है-मम्मी मैं भी संग आपके, पुस्तक मेला जाऊँगी। ढेर किताबें छांट छांट कर, रंग बिरंगी लाऊँगी। पृ.185

अपेक्षाओं के क्रम में योगेंद्र कुमार लल्ला का यह शरारती अंदाज भी बच्चों को खास लुभाएगा-कर दो जी, कर दो हड़ताल। पढ़ने लिखने की हो टाल। बच्चे घर पर मौज उड़ाए, पापा मम्मी पढ़ने जाएँ। पृ.168

घर का सही पारिभाषीकरण अजय जनमेजय की कविता करती है। बच्चे आधुनिकता में फेर में बड़े होकर माँ-बाप को भूल जाते हैं। काष! उनके मन में बचपन से ही यह भाव घर कर जाए तो वृद्धाश्रम की कल्पना ही समाप्त हो जाएगी-लकड़ी, पत्थर, ईंटों से, नहीं कभी घर बनता है। मम्मी से ही घर है घर, पापा से ही दर है दर। पृ.249

फोन पर कविताएँ भी मजेदार है। कभी पापा के मोबाइल में बिजी रहने से त्रस्त बच्चे आज कितने चालाक हो गए हैं, मौका पाते ही वे पापा का फोन लपक लेते हैं। दो अलग अलग जमाने के बच्चों की कविताओं में यह परिदृश्य देखा जा सकता है-बूझो मेरा दुश्मन कौन, पापा का मोबाइल फोन-फहीम अहमद (पृ.429) मेरे पापा का मोबाइल, कितना सुंदर कवर है भाई। धीरे से सरकाया मैंने, पापा को जब नींद है आई-संगीता सेठी, पृ. 443

दिविक रमेश की चर्चित कविता मैं भी माँ दीदी को अब तो, बांधूगा प्यारी-सी राखी। कितना प्यार करेंगी दीदी, जब बांधुंगा उनको राखी। (पृ. 204) बताती है कि जमाना अब बदल गया है। बच्चा अब रुटीन से हटकर कुछ नया और तार्किक सोचता है। यही सोच आज की बाल कविता में ध्वनित होनी चाहिए।

चिट्ठी और ईमेल पर दो अपनी तरह की अनूठी कविताएँ यहाँ पढ़ सकते हैं। यद्यपि बालकृष्ण गर्ग की इस कविता में बालजीवन भी रचा बसा है, यह जरूरी बात विवरणात्मक बाल कविताएँ लिखने वाले नए लेखकों को समझनी होगी-पापाजी की आई चिट्ठी, समझी मीठी, निकली खट्टी। लंबे लंबे बाल कटेंगे, जेब खर्च भी सभी घटेंगे। (पृ. 140) मन को भाती है ईमेल। कुरियर या स्पीड पोस्ट हो, इसके आगे हैं सब फेल-निशांत जैन, पृ. 457

हठ कर बैठा चाँद जैसी अमोल कविता के सर्जक रामधारी सिंह दिनकर की केवल एक ही कविता इस संकलन में है-टेसू राजा अड़े खड़े, माँग रहे हैं दही बड़े। बड़े कहाँ से लाऊँ मैं, पहले खेत खुदाऊँ मैं। (पृ. 701) यही कविता पृष्ठ 46 पर निरंकार देव सेवक जी के नाम से भी प्रकाशित है। दोनों एक-सी कविताएँ एक ही संचयन में कैसे चयनित हो गईं? और मूल रचनाकार कौन है, यह आश्चर्य का विषय है।

समोसे पर बहुत से रचनाकारों ने लिखा किंतु शिवचरण चौहान की तिरकोतीन समोसे भाई, तुमने सारी चीजें खाई। आलू और खटाई खाई, खाया सारा मिर्च मसाला। मुंह तो छोटा-सा है लेकिन, तेल कढ़ाई भर पी डाला। गरम-गरम खाया है सब कुछ, चाय माँगते लाज न आई। (पृ. 630) कविता तो अन्यतम है। ऐसी कविताएँ शायद लिखी नहीं जातीं... लिख जाती हैं।

संदेश त्यागी की कविता डिस्कवरी पर हमने देखा, एक तमाशा ऐसा। जंगल के राजा के पीछे, लगा जंगली भैंसा। नवीन और पुरातन संदर्भों को जोड़ते हुए चलती है। हां, कविता का आरंभ जिस रिद्म में चला था, वह अंत में बदल गया है-शेरों को भी कभी-कभी तो, सवा शेर मिल जाते हैं। अगर हौसला हो जाए तो तख्त ताज हिल जाते हैं। पृ. 600

शिवचरण सरोहा की दाल कमाल की है। छोटे मीटर की ऐसी कविताएँ कम ही देखने में आती हैं-खाई, दाल। मिर्च, लाल। पीटे, गाल। नोचे, बाल। बुरा, हाल। पृ. 481

चाँद पर बाल संवेदना से युक्त यह कविता भी संपादक के श्रेष्ठ चयन और कवि के सृजन कौशल को इंगित करती है-चंदा भैया संभल के सोना, तुम बादल के बिस्तर पर। कहीं नींद में लुढ़क न जाना, तुम धड़ाम से धरती पर-गोपाल महेश्वरी 467
विविध विषयक ऐसी ही एक से बढ़कर एक कविताएँ इस संकलन में भोजूद हैं। विस्तार भय से उनकी चर्चा यहाँ संभव नहीं।

ग्रंथ का मुद्रण और मुखपृष्ठ आकर्षक है। कागज और बाइंडिंग मजबूत। प्रूफ (त्यौहार-त्योहार, बस-वष, शाबाद-शादाब) की दो चार ही त्रुटियाँ हैं। 706 पृष्ठों के इस अमूल्य संकलन का मूल्य मात्र 550 रुपये है। हर पुस्तकालय में तो इसे स्थान मिलना ही चाहिए। अभिभावकों, अध्यापकों, आलोचकों, संपादकों और शोधार्थियों के निजी संग्रह में भी इसका होना ज़रूरी है। जन्मदिन पर बच्चों को यह अद्वितीय उपहार मिले तो यह भावी पीढ़ी में साहित्यिक संस्कारों के पल्लवन और हस्तांतरण की दिशा  में सार्थक कदम होगा।

अन्य प्रांतों के शासकीय संस्थानों को भी बाल कविताओं तथा अन्य विधाओं के ऐसे ही श्रेष्ठ संकलनों के प्रकाशन को लेकर विचार करना चाहिए। साथ ही,... क्या अच्छा हो कि हिंदी की चयनित इन बाल कविताओं का अनुवाद और प्रकाशन संविधान द्वारा स्वीकृत अन्य भारतीय भाषाओं में भी प्रादेशिक अकादमियों के द्वारा कराया जाए। भावात्मक ऐक्य की दृष्टि से यह बड़ी पहल होगी।

बाल कविता के क्षेत्र में साहित्य अकादमी का यह प्रयास अविस्मरणीय और अनुकरणीय है।
डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'


 

रविवार, 29 अगस्त 2021

बच्चों के अमर कवि : द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी


 बच्चों के अमर कवि : द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

डॉ. नागेश पाण्डेय 'संजय'


वीर तुम बढ़े चलो, जिसने सूरज चांद बनाया, हम सब सुमन एक उपवन के और इतने ऊँचे उठो कि जितना उठा गगन है जैसी न जाने कितनी अमर कविताओं के रचयिता द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी पाँच दशकों से भी अधिक समय तक  बाल साहित्य की सेवा में निरंतर संलग्न रहे। उन्होने वह लिखा, जैसा कोई नहीं लिख सका। उनकी कोई भी रचना हो, बच्चे उसे पढ़कर भाव-विभोर हो जाते हैं। चहक उठते हैं। थिरक उठते हैं। सच, वे सही मायनों में बच्चों के अपने कवि थे।

उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के रोहता गाँव में श्री प्रेमसुख के घर में १ दिसम्बर १९१६ को उनका जन्म हुआ। भारत और लंदन में शिक्षा ग्रहण करने के उपरान्त उन्होंने जीविका के लिए शिक्षा का क्षेत्र चुना और शिक्षक, शिक्षा प्रसार अधिकारी, पाठ्य पुस्तक अधिकारी, उप शिक्षा निदेशक जैसे महत्वपूर्ण पदों के माध्यम से अपनी सेवाएँ अर्पित की। सेवा निवृति के पश्चात वे साक्षरता निकेतन के निदेशक के रूप में अपना अवदान देते रहे। 

माहेश्वरी जी ने बड़ों के लिए लिखना प्रारम्भ किया था।  उनका पहला काव्य संग्रह 'दीपक' १९४६ में छपा था। इसके बाद उन्हे आभास हुआ कि बच्चों के लिए स्तरीय साहित्य का अभाव है तो उन्होंने बाल साहित्य सृजन को प्रमुखता से अपना लिया | यह जानते हुए भी कि इस क्षेत्र में न तो प्रतिष्ठा मे है और न पुरस्कार। उन दिनों बाल साहित्य में समीक्षा का कार्य न के बराबर था। बच्चों के लिए उनका पहला कविता संग्रह १९४७ में आया।

 'कातो और गाओ'नामक इस कृति के पश्चात उनकी ढेरो पुस्तक प्रकाश में आईं। ये पुस्तकें हैं :  लहरें (१९५२), बढ़े चलो, अपने काम से काम, बुद्धि बड़ी या बल, माखन-मिसरी (सभी १९५९), हाथी घोड़ा पालकी, सोने की कुल्हाड़ी (दोनों १९६३), 'अंजन (१९६४), सोच समझ कर दोस्ती करो (१९६५), सूरज सा चमकूं मैं, हम सब सुमन एक उपवन के (दोनों १९७०), सतरंगा पुल ( १९७३), गुब्बारे प्यारे (१९७४), हाथी आया झूम के, बाल गीतायन ( १९७५), सीढ़ी-सीढ़ी चढ़ते है (१९७६), हम है सूरज चाँद सितारे, जल्दी सोना, जल्दी जगना, मेरा वंदन है (१९८१), कुशल मछुआरा, नीम और गि लहरी (१९८४), चांदी की डोरी, ना मौसी ना, चरखे और चूहे ( १९९०) ।


द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी रचनावली" के खण्ड दो और तीन में उपरोक्त पुस्तकों की कविताएं संग्रहीत हैं। यह ग्रन्थ ४ फरवरी १९९७ को तत्कालीन राष्ट्रपति डा० शंकरदयाल शर्मा को भेंट किया गया था। माहेश्वरी जी ने बच्चों के लिए कहानियाँ भी लिखीं और नवसाक्षरों के लिए कविताएं भी। उनकी तीन कथा पुस्तकें छपीं-श्रम के सुमन ( १९७१), बाल रामायण ( १९८१), शेर भी डर गया (१९९२) नवसाक्षरों के लिए उनकी पुस्तके हैं :  एक रहें, नेक रहें ( १९८९), घर की उजियारी, नई कलम, नए कदम ( १९९१) लोकतन्त्र है यही (१९९२), भारत प्यारा देश हमारा (१९९३)

  "बालगीतायन" कृति के लिए उन्हें वर्ष १९७७ में बाल साहित्य का सर्वोच्च पुरस्कार मिला था। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने उन्हें सम्मान राशि और ताम्रपत्र प्रदान किया था। शायद ही कोई ऐसी संस्था हो, जो बाल साहित्य के विकास में संलग्न हो और उसने माहेश्वरी जी को सम्मानित करने का गौरव न प्राप्त किया हो।


८६ वर्ष की अवस्था में भी उनकी साहित्यिक सक्रियता देखते ही बनती थी। अन्तिम समय तक उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। यहीं नहीं साहित्यिक समारोहों में भी उनकी सक्रियता जीवन के अंत तक बनी रही। मृत्यु से एक घण्टा पूर्व उन्होंने एक साहित्यिक संगोष्ठी में कविता पाठ किया था। बाथरूम में फिसलकर गिरने से उन्हें ब्रेन हेमरेज हो गया था।


वे स्वभाव के बड़े सरल थे। बड़ा स्नेह देते थे। अपने लेखन के प्रारम्भिक काल से ही मेरा उनसे जुड़ाव हो गया था। वे हर पत्र का बड़ा आत्मीय उत्तर देते थे। २३-४-९१ को उन्होंने लिखा था "बस लिखते रहिए | रचनाएँ न भी छपें तो दुखी न होइये। मैंने यही मार्ग अपनाया था। सरकारी सेवा के अनेक बंधन भी थे।"


मेरी पहली बाल कथा पुस्तक 'नेहा ने माफी मांगी' प्रेस में जाने को थी। उन्होंने ११-९-९३ के पत्र द्वारा पुस्तक के लिए आशीर्वाद पंक्तियाँ लिख भेजीं। खूब प्रोत्साहित भी किया "तुम्हारी उम्र के एक बीस वर्षीय युवक के लिए लेखन की प्रेरणा की दृष्टि से यह बहुत ही सराहनीय उपलब्धि है। बहुत कम ही को यह सौभाग्य मिल पाता है।"


नेहा ने माफी मांगी" पुस्तक पर उन्होंने समीक्षा भी लिखी थी । इसे यू० यस० यम० पत्रिका (गाजियाबाद) और अभिषेक श्री' ( इलाहाबाद) ने अपने बाल साहित्य विशेषांकों में प्रकाशित किया।


माहेश्वरी जी से मेरी पहली और आखिरी भेंट कानपुर में हुई। सहसा विश्वास नहीं हुआ था कि बाल साहित्य के आधार स्तंभ माहेश्वरी जी यही है। स्नेही और सादगी से परिपूर्ण। कानपुर के  बी० एन० एस० डी० शिक्षा निकेतन के अखिल भारतीय बाल साहित्य रचनाकार सम्मेलन में उन्होंने मेरी पुस्तक 'आधुनिक बाल कहानियाँ' का विमोचन किया। मेरे लिए यह जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। 

दूसरी बार कानपुर के आयोजन में मैं दूसरे दिन विलम्ब से पहुँचा। इसीलिए उनसे मिलना न हो सका।  वे श्री शम्भूनाथ टण्डन के यहाँ थे। ९ बजे उनकी ट्रेन थी। राष्ट्रबन्धु जी, सम्पादक' बालसाहित्य समीक्षा' के घर से उनसे फोन से ही बात कर पाया। मिलने के लिए समय शेष न था। आज वह दुर्भाग्य मन को कचोटता है।


हमने बाल साहित्य प्रसार संस्थान की स्थापना की तो उन्होंने परामर्शदाता के रूप में अपनी सहर्ष स्वीकृति भेजी। उन्होंने ११-२-९७ के पत्र में किया "अच्छे बाल साहित्य के सृजन, संवर्धन और प्रसार की आज जितनी महती आवश्यकता है, उतनी पहले नहीं थी। मेरा संपूर्ण सहयोग आपके साथ रहेगा।" वे बराबर प्रोत्साहन देते रहे। उन्होंने कभी किसी आयोजन में शाहजहाँपुर जाने का भी आश्वासन दिया था।


दिनांक ५-२-९८ को उन्होंने लिखा था मेरा स्वास्थ्य ऐसे ही चल रहा है। ८२ में तो आ ही गया। देखो....... ..उनसे पत्राचार निरन्तर रहा किन्तु ऐसा पत्र उन्होंने पहली बार लिखा था। इस 'देखो' ने मेरे मन को भीतर तक हिला दिया। मैंने उनके दीर्घायु जीवन की कामना की। 

जीवन के 'सत्य' को स्वीकारना पड़ता है लेकिन बालसाहित्य अभी इसके लिए तैयार नहीं था। उनसे बड़ी अपेक्षाएँ थीं। वे विशाल वट वृक्ष थे। न जाने कितने पौध-पात उनकी छाया में पल्लवित हो रहे थे ।

२९ अगस्त १९९८ को वे चले गए। मृत्यु से दो घण्टे पूर्व उन्होंने अपनी आत्मकथा सीधी राह चलता रहा पूर्ण की थी। 

उनके अनायास इस तरह चले जाने की किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। उनके अभाव की क्षति बहुत गहरी है। इसकी पूर्ति कभी नहीं हो सकती। उनकी प्रेरणा और उनकी रचनाएँ बालसाहित्य के लिए सदैव सम्बल बनी रहेंगी। 

उनकी स्मृति को शत-शत नमन!