गुरुवार, 10 नवंबर 2011

बाल साहित्य का भविष्य

आलेख : नागेश पांडेय 'संजय'

- भीड़ में तेज स्पीड में बाइक ड्राइव करता बच्चा आपको धूल खिलाता निकल जाएगा। उसके एक हाथ में मोबाइल होगा-अत्याधुनिक मोबाइल। जिसकी कीमत दस-पंद्रह हजार तक हो सकती है। पीठ पर जो बैग है, उसमें लैपटाप हो सकता है। जी, हाँ! ये नयी  दुनिया के बच्चे हैं जो भीड़ में आगे निकलने के लिए आपको धकियाने से भी नहीं चूकेंगे और ‘सारी...!’ सारी का तो सवाल ही नहीं उठता।
 - ट्रेन में, पार्क  में, किसी चौराहे पर, स्टेशन पर या फिर स्कूल के कैंटीन में खड़े भारत के भविष्यों की बातें आप न ही सुनें तो  अच्छा है। कान में रुई  लगाने को जी करेगा।
 - हाँ, और कभी इन्हें समझाने की भूल तो आप करिएगा मत। ये आपसे प्रतिवाद करने से चूकेंगे नहीं। आपका सम्मान आपके हाथ में (सच कहूँ तो आपके मौन में) है।
 जहाँ देश के भविष्य की यह दशा हो वहाँ उनके लिए बाल साहित्य के भविष्य की बात करना थोड़ा अटपटा और अव्यावहारिक तो है किंतु अंधकार में क्या रोशनी के लिए आशा और प्रयास छोड़ देना चाहिए? कुछ यही सोचकर... दो-चार बातें...

बाल साहित्य के मूल उपभोक्ता बच्चे हैं और वही बाल साहित्य से कट गए हैं या सीधी बात कहें कि ‘काट’ दिया गया है। समाचार पत्र बच्चों तक उनका साहित्य पहुँचाने के सशक्त माध्यम थे। इस बहाने बच्चा देर-सवेर किंतु बाल साहित्य को पढ़ता था। यह पठन उसे कई बार सृजनात्मक अभिरुचि से भी जोड़ता था। आज बाल साहित्य में गत कई वर्षों  से नए बाल साहित्यकारों की पदचाप के मामले में सन्नाटा है। इसका एक कारण समाचार पत्रों से बाल साहित्य का हट जाना भी है। 
 बाल साहित्य को लेकर बड़ों की, विशेषकर समझदार बड़ों की और उनमें भी  (बड़े नहीं) ‘बड़ों’ के कुछ लेखकों की मानसिकता दुर्भाग्यपूर्ण है । समूचे बाल साहित्य जगत की प्रगति से आँखें मूँदकर वे एक रटा-रटाया जुमला दोहराने से नहीं चूकते - हिंदी में श्रेष्ठ बाल साहित्य का अभाव है। अभाव है तो आप क्यों नहीं लिखते? नहीं लिखते तो टिप्पणी का आपको क्या अधिकार ? टालस्टाय, प्रेमचंद, टैगोर, निराला, बच्चन, महादेवी, सोहन लाल दिवेदी , रामनरेश त्रिपाठी , सवेश्वर दयाल सक्सेना और विष्णु प्रभाकर सरीखे जाने कितने लेखकों ने बाल साहित्य लिखा और इसलिए लिखा कि बच्चों के लिए साहित्य अपेक्षित है। उन्होंने भी बचपन में बाल साहित्य पढ़ा होगा। इसलिए दायित्व बोध से प्रेरित होकर इसकी जरूरत को महसूसा।
 एक महाशय ने मुझसे कहा-‘मुझे अब बाल साहित्य का कोई  भविष्य नहीं दिखता।’
 मैंने विनम्रतापूर्वक उनसे पूछा-‘क्यों? क्या अब बच्चा शैशवावस्था से ही गोदान और कामायनी सुनेगा, पढ़ेगा? कक्षा दो के पाठ्यक्रम में राम की शक्ति पूजा लगेगी?’
 नेशनल बुक ट्रस्ट की एक संगोष्ठी में मैंने कहा था-दुनिया में सब कुछ बदल सकता है। बच्चा - बच्चा रहेगा, भले ही कुछ समय तक। और उसके बाद भले ही आपकी लापरवाही उसका बचपन छीन ले, यह  बात दीगर है। 
 आज के बच्चे के जिन रूपों की बात मैंने की है, उसके लिए मैं बच्चों को कभी दोषी नहीं मानता। कटघरे में तो अभिभावक और शिक्षक हैं जिन्होंने बालक की मानसिक भूख को समझा ही नहीं।
 समाचार पत्रों ने बाल साहित्य छापना बंद किया-कितने अभिभावकों ने विरोध किया ? आज बच्चा रविवारी परिशिष्ट में प्रकाशित अधनंगे चित्रों को देखकर यदि असमय जवान (या कहें बूढ़ा) हो रहा है तो इसमें भला उसका क्या दोष? आधुनिकता के नाम पर यदि आप इतने उन्मुक्त हो गए हैं कि अश्लीलता की सीमा लाँघे हुए विज्ञापन आपको आक्रांत नहीं करते और बच्चा उनके अर्थ  को खोजने में अपने भविष्य को दीमक की तरह चट करने में लगा है तो क्या इसके लिए वह दोषी है?
 दस हजार का मोबाइल बच्चे के पास है-दिलाया किसने?
 महँगे लैपटाप, जींस, टी-शर्ट , बाइक - ये सारी भौतिक सुविधाएँ आपकी देन हैं किंतु इन्हें जरूरत मानने वाले अभिभावकों ने क्या कभी पंद्रह रुपये मूल्य की कोई  बाल पत्रिका  भी उसे लाकर दी ?
 आप कह सकते हैं - पंद्रह रुपये की पत्रिका। ये तो मँहगी है।
 इसी दृष्टि ने आज आपको सस्ता कर दिया है।
 बच्चे की निगाह में आज आपकी कीमत कुछ भी नहीं। आप उसके लिए जिदों को पूरा करने वाले पायदान भर हैं।
 चिमटे के बिना दादी की जलती उँगलियों का दर्द  अपने दिल से महसूस करने वाले हामिद आज नहीं हैं लेकिन केवल-केवल इसलिए कि हम उन्हें प्रेमचंद का 'ईदगाह' नहीं, पंद्रह हजार का टी.वी. और पाँच सौ रुपये प्रतिमाह का केबिल उपलब्ध कराने में स्वयं को दूसरों से बेहतर पिता अनुभव करते हैं। 
 मैंने एक मित्र से पूछा-आप अब बाल साहित्य क्यों नहीं लिखते?
 उन्होंने कहा-बाल साहित्य तो तब लिखूँ जब बच्चा हो। आज बच्चा है कहाँ।
 कुछ समझदार लेखक बदले हुए बच्चे को देखकर बाल साहित्य को भी बदलने में जुट गए हैं। बच्चे जो कुछ सोच-कर रहे हैं उसे बाल साहित्य में लाने के लिए वे बाल साहित्य को अश्लीलता से जोड़ने में भी नहीं  हिचकते- इस साफगोइ के साथ बाल साहित्य तो बाल मन की अभिव्यक्ति है। बाल साहित्य तो बाल समाज का दर्पण है।
 बाल साहित्य बाल-मन की अभिव्यक्ति है, बाल-दुष्मन की अभिव्यक्ति नहीं।
 दर्पण वह इस नाते हैं कि बाल समाज को उसकी वास्तविक छवि दिखाते हुए उसे सँवारने को भी प्रेरित करे।
 दरअसल बच्चे बाल साहित्य से कट गए हैं - कहते हुए हमारे जेहन में केवल महानगरों में रहने वाले ऊँची चमक-दमक के बच्चे होते हैं। भारत गाँव का बल्कि गाँव का भी देश है, हम यह भूल जाते हैं। गाँव के निश्छल, सहज बच्चों को भूल जाते हैं। गाँव के बच्चे आज भी साहित्य सुनना-पढ़ना चाहते हैं। वे दादी-नानी से जुड़े हैं, उनकी कहानियों से जुड़े हैं। गाँव में बच्चों के कवि सम्मेलन खूब सफल हुए हैं। बल्कि बड़े शहरों में भी बाल कवि सम्मेलनों की सफलता असंदिग्ध है। कानपुर के एक बाल कवि सम्मेलन में द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी मुख्य अतिथि थे। बच्चे उन्हें देखकर हतप्रभ थे - इनकी कविताएँ तो हमारे कोर्स  में हैं।
 बाल साहित्य और बच्चे को जोड़ने के लिए नेटवर्क  की जरूरत है। अभिभावक तो भौतिकता की चकाचौंध में और यह भी कह सकते हैं कि बाल साहित्य के महत्व से परिचित न होने के कारण विशेष योगदान नहीं दे रहे। बाल साहित्यकार और शिक्षक भी इस दायित्व से बचते ही नजर आते हैं।
 एक बाल साहित्यकार बोले-हमारा काम है लिखना। हम लिख रहे हैं। बाल साहित्य बेचना या उसका प्रसार करना हमारा काम नहीं है।
 माफ करें, बाल साहित्य यदि बच्चों तक नहीं पहुँच रहा तो परिवेश बनने तक बाल साहित्यकारों को भी आगे आना ही होगा। आप कुछ नहीं तो विद्यालयों में बाल कवि सम्मेलन तो करा ही सकते हैं। बच्चों को पुरस्कार में बाल साहित्य की पुस्तकें देने के लिए वातावरण निर्मित  कर सकते हैं। जन्मदिन पर बाल साहित्य भेंट करने की परंपरा विकसित कर सकते हैं और कुछ भी नहीं तो कम से कम इतना कि विद्यालयों में जाकर केवल अपनी-कविता या कहानी का पाठ ही बच्चों के समक्ष कर सकते हैं। विद्यालयों में प्रार्थनाकाल या खाली पीरियड में यह काम हो सकता है।
 बाल साहित्य के प्रसार में शिक्षक महत्वपूर्ण  सिद्ध हो सकते हैं किंतु उन्हें बाल साहित्य के बारे में ज्ञान नहीं। इसमें भी उनका दोष नहीं। स्नातक, स्नातकोत्तर स्तर के पाठ्यक्रम में बाल साहित्य होना चाहिए। उसके महत्व पर अध्याय होने चाहिए। कुछ नहीं तो एम. ए. स्तर पर वैकल्पिक प्रश्न पत्र के रूप में जैसे - लोक साहित्य, पत्रकारिता विशेष विधा आदि के प्रश्न पत्र होते हैं, उनमें बाल साहित्य भी रहे। इससे भावी माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी तथा शिक्षक बाल साहित्य की दशा और महत्ता से परिचित होकर उसके विकास में अच्छी भूमिका निभा सकेंगे।
 मुझे यह कहने में कोई  संकोच नहीं कि आज बाल साहित्य बहुत लिखा जा रहा है, बहुत छप रहा है किंतु पढ़ा कम जा रहा है। पढ़ा इसलिए कम जा रहा है क्योंकि बहुत से पूर्वाग्रह हावी हैं। बाल साहित्य केवल बच्चों के लिए ही नहीं - शिक्षकों, अभिभावकों, शोधार्थियों, पाठ्य समितियों, फिल्म निर्माताओं-सबके लिए है। बाल साहित्य साझा साहित्य है। बाल साहित्य को जब हम केवल बच्चों का मान बैठते हैं, बस वहीं से उसकी उपेक्षा शुरू हो जाती है। एक जमाना था जब  नंदन बड़ों की भी पत्रिका  थी। प्राचीन कथा विशेषांक की प्रतीक्षा दादा-दादी, माता-पिता, शिक्षक और यहाँ तक कि साधु-संत भी करते थे। बाल साहित्य को ऐसे ही बहुआयामी बनाने की जरूरत है।
 बाल साहित्य गंभीर लेखन है, इसके लिखने वाले को भी गंभीर होना चाहिए। बाल साहित्य की प्रगति की ओर उन्मुख होना चाहिए। जबरदस्ती नहीं, जबरदस्त लेखन की जरूरत है। 
 बाल साहित्य का क्षेत्र अपार संभावनाओं से युक्त है। खुला आमंत्रण दे रहा है-जरूरत है निष्ठा से काम करने वालों की। 
 जरूरत है काम करने वालों को उत्साहित-प्रोत्साहित करने वालों की।
 इधर बाल साहित्य का इतिहास लिखकर प्रकाश मनु ने बहुत बड़ा काम किया है। कृष्ण शलभ के संपादन में वृहद् ग्रंथ बचपन एक समंदर प्रकाशित हुआ है। इंटरनेट पर बाल पत्रिकाएँ आ रही हैं। विश्व पुस्तक मेले यह सिद्ध करते हैं कि आज बच्चों की सर्वाधिक पुस्तकें छपती हैं। बाल साहित्य पर लाखों के पुरस्कार हैं।
 बाल साहित्य का भविष्य उज्ज्वल है। अक्षुण्ण संभावनाओं से ओतप्रोत है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। बाल साहित्य भी उससे अछूता नहीं रह सकता। लेकिन यह कहना कि बाल साहित्य का अस्तित्व खतरे में है, बड़ी भूल है। बाल साहित्य नहीं रहा तो उसके रूप में आज तक हस्तांतरित होती आ रही संस्कृति भी नहीं रहेगी और तब... मानवता... समाज... राष्ट्र और... यह विश्व भी...! आप खुद समझ सकते हैं। मैं क्या कहूँ ?
(पुस्तक बाल साहित्य के प्रतिमान के अंतिम अध्याय से ...साभार)