गुरुवार, 20 मई 2021

पुस्तक समीक्षा : राष्ट्रीय फलक पर स्वातंत्र्योतर बाल कविता का अनुशीलन मध्यप्रदेश के विशेष संदर्भ में

पुस्तक : राष्ट्रीय फलक पर स्वातंत्र्योतर बाल कविता का अनुशीलन 
(मध्यप्रदेश के विशेष संदर्भ में)
लेखक : डॉ सुधा गुप्ता अमृता 
प्रकाशक : नमन प्रकाशन नई दिल्ली
 मूल्य : 650 ₹
समीक्षक : डॉ नागेश पांडेय संजय

    हिंदी बालसाहित्य के विकास में मध्यप्रदेश का महत्वपूर्ण योगदान है। बालसाहित्य के क्षेत्र में एक अभिनव क्रांति का सूत्रपात करने वाले कीर्तिशेष हस्ताक्षर डॉ. हरिकृष्ण देवसरे मध्यप्रदेश के ही थे जिन्होंने न केवल बालसाहित्य के क्षेत्र में युगांतरकारी परिवर्तन किए, अपितु हिंदी में बालसाहित्य पर सर्वप्रथम शोध प्रबंध लिखकर पी एच. डी. उपाधि भी प्राप्त की । डॉ. सुधा गुप्ता 'अमृता' भी मध्यप्रदेश की हैं, जो मूलत: अध्यापन से जुड़ी हैं और बालसाहित्य के प्रति उनके मन में असीम अनुराग है। उन्होंने उत्कृष्ट बाल साहित्य का प्रणयन तो किया ही है; बालसाहित्य को मान्यता दिलाने के प्रति भी सजग और सचेत रही हैं।
समीक्ष्य कृति इस तथ्य का सहज प्रमाण है, जिसके माध्यम से मध्यप्रदेश में स्वातंत्र्योत्तर बालकविता की दशा और दिशा को अत्यंत श्रम एवं विद्वता के साथ उकेरने की कोशिश की गई है। हिंदी बालसाहित्य के क्षेत्र में संपन्न अधिकांश शोध प्रबंध प्राय: आधे और अधूरे होते हैं । इसका मूल कारण यह भी है किबाल साहित्य की सही स्थिति का ज्ञान न तो निर्देशक को होता है और न ही उस बेचारे शोधकर्ता को जिसका उद्देश्य येन–केन प्रकारेण महज उपाधि प्राप्त करना होता है । इस दृष्टि से डॉ. सुधा की प्रशंसा करनी होगी क्योंकि स्वयं बालसाहित्य की लेखिका होने के नाते जहाँ उन्होंने बाल साहित्य के महत्वपूर्ण ग्रंथों का अनुशीलन किया है, वहीँ अपने वृहद संपर्क के बल पर जो मानक शोध सन्दर्भ सामग्री जुटाई है, वह अभूतपूर्व है।
    बालकवि बैरागी जी ने उनके विषय में ठीक ही लिखा है कि उन्होंने अगले शोधार्थियों के लिए इस आँगन को बुहार दिया है। निःसंदेह शोध एक अनंत परंपरा है, यह पुस्तक इस तथ्य को भी बखूबी प्रमाणित करती है कि बाल साहित्य पर उत्कृष्ट सामग्री का अब अभाव नहीं है। अभाव है तो मनोयोग से समर्पित उन जिज्ञासुओं का जो अपने अध्ययन, अनुशीलन से काल के कपाल पर अपने स्वर्णिम हस्ताक्षर कर सकें।
    डॉ. सुधा गुप्ता का यह शोध प्रबंध नौ विशिष्ट अध्यायों में विभक्त है। यद्यपि अपने प्राक्कथन से ही उन्होंने बालसाहित्य के अभिनव सरोकारों की बाँकी- बाँकी झांकी प्रस्तुत कर दी है जिसकी रम्यता पाठक को सहज, उत्सुक और उत्साहित कर देती है। उनकी यह परिभाषा मैं विशेष रूप से उद्धृत करना चाहूंगा कि, 'बालसाहित्य ही वह जीवन घूंटी है जो बालमन को पुष्ट कर उसे जीवन जीने की कला सिखाता हुआ समस्याओं से जूझकर निकल आने की कला सिखाता है।' डॉ. सुधा गुप्ता 'अमृता' की यह पंक्ति जैसे बालसाहित्य के समग्र स्वरूप को सहज रेखांकित कर देती है और बालसाहित्य के चिरस्थायी महत्त्व और उसकी गरिमा का बोध जनमानस को बड़ी ही संजीदगी के साथ कराने में जैसे किसी वकालतनामे सी प्रतीत होती है। प्रथम अध्याय में बालसाहित्य की अवधारणा को स्पष्ट करने में उन्हें पूर्ण सफलता मिली है। बालसाहित्य की चर्चित सुचर्चित परिभाषाओं को उद्धृत कर उन्होंने इस अध्याय को विशेष प्रामाणिक बना दिया है । दूसरे अध्याय का शीर्षक थोड़ा अटपटा है। क्योंकि तीन बिंदुओं और भी लम्बे-लम्बे वाक्यों में विभक्त है किन्तु, यह अध्याय 'गागर में सागर' से कम भी नहीं है।
    लेखिका ने चर्चित हस्ताक्षरों के माध्यम से बालसाहित्य की सामयिक स्थिति का आकलन उसकी महत्ता को निरूपित करते हुए किया है। अगले अध्यायों में बालसाहित्य की लोकप्रिय विधा कविता के विविध सोपानों की चर्चा है। खासकर पांचवें और छठे अध्यायों के बहाने बालसाहित्य के भाषायी अभिलक्षणों का गहन और विशद विवेचन करने के लिए सुधा जी की भूरि भूरि प्रशंसा करनी होगी स बुंदेली, बघेली, निमाड़ी और मालवी जैसी विभाषाओं में लुप्तप्राय: साहित्य को याद करते हुए उन्होंने जिस शास्त्रीयता के साथ सृजित साहित्य पर दृष्टिपात किया है, वह तत्वाभिनिवेशी दृष्टि उन्हें एक गंभीर समीक्षक भी सिद्ध करने में समर्थ है। अच्छी बात यह भी है कि इन अध्यायों के बहाने बालसाहित्य पूर्व निर्धारित प्रतिमानों की भी सविस्तार चर्चा हुई है जिसका अध्ययन हर उस बालसाहित्यकार हेतु आवश्यक है जो बालसाहित्य के क्षेत्र में समर्थ लेखनी का हिमायती है।
    सातवें और आठवें अध्याय का सम्बन्ध बालसाहित्य के व्यावहारिक पक्ष से है। बाल साहित्य और बालक की रुचि की उपेक्षा के दुष्परिणामों की ओर संकेत करते हुए बालसाहित्य की अनिवार्यता उदघाटित की गई है। आठवें अध्याय में मीडिया के दोनों अर्थात इलेक्ट्रानिक और प्रिंट पक्षों में बालसाहित्य की जरूरत को विशिष्ट तर्कों के साथ उद्घाटित किया गया है।
    नवें अर्थात अंतिम अध्याय में मध्यप्रदेश के बाल साहित्यकारों पर चर्चा की गई है। नि:संदेह मध्यप्रदेश की पावन माटी में बाल साहित्य के समर्थ रचनाधर्मियों का वर्चस्व है। यह अध्याय शोध की नवीन संभावनाओं की ओर भी ध्यान आकर्षित करता है । स्वतंत्र रूप से भी मध्यप्रदेश के अन्यान्य बाल साहित्यकारों के कृतित्व पर कार्य की संभावनाएं अभी शेष हैं।
    परिशिष्ट के रूप में बालसाहित्य के यायावर साधक डॉ. राष्ट्रबन्धु और बालकवि बैरागी के साक्षात्कार भी संकलित हैं जिनसे पुस्तक को गरिमा मिली है। डॉ. राष्ट्रबंधु ने विश्वविद्यालयों में बाल साहित्य के पठन-पाठन की जिस जरूरत की ओर संकेत किया, वह विचारणीय है। भावी माता पिता को यदि बाल साहित्य का ज्ञान नहीं होगा तो निश्चय ही बालकों में बाल साहित्य के प्रति रुचि कैसे जाग्रत हो सकेगी ?
    बाल साहित्यकारों को बहुभाषाविद होने का भी उनका सुझाव गौरतलब है क्योंकि अभी भी बहुतेरा उत्कृष्ट बालसाहित्य अनुवाद की बाट जोह रहा है। और इसकी कमी के चलते भारत के नौनिहालों को बालसाहित्य अप्राप्य है। भारत विविध संस्कृतियों का देश है अस्तु बालकों को भी विविध क्षेत्रों के बालसाहित्य से परिचित कराना सामाजिक दायित्व है।
    कुल मिलकर यह शोध प्रबंध पुस्तक रूप में अपनी महत्ता सदैव सिद्ध करता रहेगा स डॉ. सुधा गुप्ता को उनके अनथक श्रम और सार्थक प्रयत्न के लिए बधाई दी। जानी चाहिये और उनके लिए सर्वोत्तम बधाई यही होगी कि इस पुस्तक का व्यापक प्रचार प्रसार हो। यह पुस्तक बालसाहित्य से जुड़े हर अनुरागी तक पहुंचे, यही इसकी सार्थकता है ।
    आकर्षक आवरण और सुरुचिपूर्ण मुद्रण से सुसज्जित इस पुस्तक का मूल्य किंचित अधिक है, किन्तु श्रेष्ठ सामग्री और मंहगाई के युग में प्रयुक्त अच्छे कागज को देखते हुए यह ज्यादा गौरतलब नहीं है । डॉ. सुधा गुप्ता का अत्यंत समर्पण एवं मनोयोग से किया गया बालकविता का यह अनुशीलन बाल साहित्य की श्रीवृद्धि में अपनी उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह करेगा, इसमें संदेह नहीं । लेखिका के साथ-साथ उनके निर्देशक और प्रकाशक को भी हार्दिक बधाई

 • डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'
(शाश्वत सृजन,मासिक, उज्जैन, पृष्ठ :7, ISSN : 2455-1201)



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