रविवार, 6 मई 2018

सदाबहार फूलों-सी बाल कहानियां/ डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'

(बाल वाटिका में प्रकाशित बाल कहानियों  पर आधारित आलेख )

बाल वाटिका के बाइसवें वर्ष के सारे अंक मेरे सामने हैं। इनमें प्रकाशित कुल सतहत्तर कहानियों को एक बार फिर से पढ़ना मेरे लिए सुखकर तो है ही, उतना ही विस्मयकारी भी है। कितने रंग? कितने आस्वाद। कितनी छवियां और मनोरम आभाओं के तो कहने ही क्या! रसलोभी पाठकों के लिए तो यहां अवसर ही अवसर है। उनका मन तो महकेगा ही, आत्मा भी स्निग्ध हो उठेगी। अच्छी बाल कहानियों की यही विषेषता भी है कि वे पाठक को भीतर तक छू लें और सफल संपादक की यही पहचान कि वह पाठकों की भिन्न रुचियों को समझते हुए कहानियों के अनेकवर्णी रूपों को समान महत्त्व दे। कभी बाल साहित्य के क्षेत्र में पारंपरिक और आधुनिक धाराओं  की कहानियों को लेकर खूब वाक्युद्ध चलते रहे और इस द्वंद्व के कारण अनेक समर्थकगण वस्तुतः स्वयं को ही छलते रहे। क्योंकि बाल पाठक तो आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति से सर्वथा पृथक रहते हुए बस...अपने आनंद के लिए कहानियां पढ़ता रहा। चहकता रहा। ...और उनको महत्त्व देने वाली पत्र-पत्रिकाएं भी पूरी दमक के साथ प्रकाषित होती रहीं। कहना गलत न होगा कि आज का बालपाठक लेखक से कहीं ज्यादा समझदार है। कहानी, बस... कहानी है, यह वह जानता है। कहानी कहां तक जीवन का सच हो सकती है, यह भी उसे पता है। कहानी से कितना उसे ग्रहण करना है? इसका भी उसे बखूबी बोध है। बच्चों का बच्चा समझनेवाले दरअसल खुद बचकानेपन के षिकार है। समय बदलता है तो स्थितियां बदलती हैं। परिस्थितियां बदलती हैं। उसी के साथ कहानी भी बदलती रहती है। समय सापेक्ष रचनाओं का सृजन लेखकीय धर्म है लेकिन फिर भी यह याद रखना चाहिए कि कहानी के असली समीक्षक बच्चे हैं। वे कहानी के निहितार्थों को अपने अनुसार ढाल ही लेते हैं। इसलिए यह मगजमारी कि कहानियों का स्वरूप क्या हो? उनकी विषयवस्तु क्या हो? प्रकृति की दृष्टि से कहानियों के औचित्य को हम अपने बौद्धिक अनुभव के आधार पर तय करने की बजाय बालपाठक पर छोड़ दें तो ज्यादा बेहतर होगा। बालकों को कहानियों के विविध रूप सुलभ होंगे तो वे जीवन और परिवेष की विविध छटाओं का आनंद ले सकेंगे। अच्छी कहानियां वही हैं जो अधिसंख्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करें। बालक की सोच में भी व्यापकता तभी आ सकेगी और उसके अनुभव का फलक भी विस्तार पा सकेगा। यह सही है कि आज विज्ञान का युग है लेकिन क्या तब हम साहित्य को बस...कंप्यूटर और तकनीकी के संदर्भों से ही भर दे? ग्लोबलाइजेशन के इस युग में क्या संवेदनाओं से अनुप्राणित प्रसंगों का कोई महत्त्व नहीं रह जाता? हम उस देष के निवासी है जहां आज भी जाने बच्चे कंप्यूटर की पहुंच से कोसों दूर है। गांवों में घंटों बिजली नहीं आती। बच्चों ने षहर नहीं देखा। अभिभावकों के दैन्य और संघर्ष में वे बराबर के सहभागी है तो क्या साहित्य की आवष्यकता ऐसे बच्चों के लिए नहीं है? ऐसे में साहित्य में बस मार्डन एप्रोच की वकालत करना वस्तुतः विद्ववता नहीं, बड़बोलापन है। हर परिवेष के बच्चों को ध्यान रखते हुए लिखना होगा। पारंपरिक विषयों को भी एक सिरे से खारिज कर देने की प्रवृत्ति कतई उचित नहीं है।
पिछले दिनों स्वयं को अत्यंत आधुनिक समझ का समझने वाले एक लेखक ने साहित्य में नएपन की वकालत करते हुए लिखा कि उसने दसियों वर्षों से कोई गुब्बारेवाला नहीं देखा। उसके इर्द-गिर्द मंडराते बच्चे नहीं देखे। फिर भला आज ऐसी रचनाओं की क्या दरकार? और अगर ऐसी रचनाएं पूर्व में लिखी गईं हैं तो उनको भी अब सर माथे लेने की क्या जरूरत है। यह ठीक है कि चकाचौंध  के शिकार उस लेखक की अनेक सीमाएं हो सकती हैं लेकिन प्रतिनिधि साहित्य पर तो हर  बच्चे का हक है। साहित्य और पाठ्यक्रम के लिए साहित्य में अंतर भी है, अस्तु, हर जगह शैक्षिक रूपरेखा का उदाहरण देते हुए साहित्य की प्रासंगिकता का आकलन करना भी अव्यावहारिक ही है। मनोरंजनधर्मी साहित्य की अपनी दरकार है और उसे नकारा नहीं जा सकता।
आज भी विकास की दौड़ में भागते देश  के अनेक क्षेत्र अभी भी शैशवावस्था में हैं। वहां आज भी गुब्बारेवाले हैं। मिट्टी के खिलौनेवाले हैं। और यही नहीं...टूटी साइकिल पर अपने बच्चे को बिठाकर गांव से षहर मेले में सींको से बने तोता, सांप, पपीहरी, झुनझुना जैसे खिलौने बेचने की ललक लिए नन्हीं बच्ची कजली के ठेठ ग्रामीण बाबूजी भी है।
क्या नये जमाने में साहित्य में ये परिदृश्य  अब गए जमाने की बातें हैं? क्या साहित्य में यह गंवईपन नहीं होना चाहिए? क्या देष के अधिसंख्य वर्ग के बच्चों की सहज अनुभूतियों को प्रतिबिंबित करता साहित्य नहीं रचा जाना चाहिए?
डा. भैरूंलाल गर्ग की सराहना करनी होगी कि बाल वाटिका के बहाने बालपाठकों के भिन्न परिवेषों और भिन्न रुचियों का  पूरा ध्यान रखते हुए वे प्रतिनिधि कहानियों को प्राथमिकता देते हैं।
जैसा कि मैंने प्रारंभ में ही लिखा था कि बारह अंकों में कुल सतहत्तर कहानियों के फूलों से मह-मह महकती उनकी बाल वाटिका में विचरना किसी के लिए भी सौभाग्य हो सकता है।
  बाल वाटिका में प्रकाशित कहानियां कल, आज और कल की कहानियां हैं। इन कहानियों में गांव की माटी हैं, शहरों की विकासोन्मुखता है। महानगर की अट्टालिकाएं हैं और आनेवाले कल का आभासीय प्रतिबिंब भी। और यही नहीं, विज्ञान लेखन के ऐसे अनूठे प्रयोग भी उपलब्ध रहते हैं जो स्वयं को बड़ी मानने वाली पत्रिकाओं में भी दुर्लभ रहते हैं।
यह भी बड़ी बात है कि बाल वाटिका को हिंदी के स्वनामधन्य बालकथाकारों का सहज सहयोग प्राप्त है। हिंदी के मूर्धन्य बालकथाकारों की अच्छी कहानियों के प्रति भी संपादक का श्रद्धाभाव पाठको के लिए सुखद है
कई लेखक तो समर्पित भाव से बाल वाटिका के लिए लिख रहे हैं। मसलन कुल सतहत्तर कहानियों में लगभग आधी कहानियां तो बस प्रकाश मनु, सुनीता, राजीव सक्सेना, देवेंद्र कुमार, विनायक, मंजूरानी जैन, साजिद खान और अरशद खान आदि आठ लेखकों की ही हैं।
मोहम्मद साजिद खान के पास गजब की शिल्प सामथ्र्य है। ग्राम्य परिवेष की गहरी समझ उन्हें अन्य कथाकारों से अलग करती है। अक्टूबर 2017 में प्रकाषित उनकी मार्मिक कहानी कजली मुझे बाल वाटिका में प्रकाषित ढेरों कहानियों में अनूठी लगी। गांव के गंवईपन को जिस अनोखे अंदाज में उन्होने अभिव्यक्ति दी है और वह भी बहुत ही कम षब्दों में... अपनी बात कहने का उनका यह हुनर जैसे उनको भाषाई जादूगर सिद्ध करता है। यह उन अन्य कथाकारों के लिए एक दिशाबोधक संकेत भी है जो बच्चों के लिए लंबी-लंबी कहानी लिखते समय यह भूल जाते हैं कि बच्चे का पास न तो इतना समय है और न ही धैर्य। बच्चे क्या, बड़े भी ऐसी कहानियों को देखकर प्रायः पन्ने ही पलटते देखे गए हैं। 
इस कहानी में आधुनिकता के नाम पर लोकशैलियों पर कुठाराघात को लेकर करारा व्यंग्य है। गांव में सेठे से निकलनेवाले सीकों से बने पारंपरिक खिलौनों को षहर के मेले बेचने की असफल कवायद के बहाने एक-एक कर बेबसी की खुलती पर्तें इतनी मार्मिक है कि मन भीग जाता है। चाइना माल के आगे भला उसके इन सीेकों के खिलौनों की क्या बिसात लेकिन खाली हाथ हताष लौटने और इसलिए साथ गई कजली को कुछ न दिला पाने से मन पर चढ़े भारी बोझ का वर्णन इतना सजीव है कि लगता ही नहीं कि हम  कहानी पढ़ रहे हैं या कोई फिल्म सामने चल रही है।
उनकी अन्य प्रकाशित कहानियों में आग और हरियाली (मार्च 2017), ढाबेवाला महेश  (जुलाई 2017), लेटर बाक्स ने पढ़ी चिट्ठियां (दिसंबर 2017), पेड़ों का वसंतोत्सव (फरवरी 2018) भी एक से बढ़कर एक हैं।
राजीव सक्सेना विज्ञान के समर्थ लेखक है। इन अंकों में उनकी सर्वाधिक सात कहानियां प्रकाषित हुई हैं। चाकलेट के चोर (मई 2017) एक अच्छी विज्ञान गल्प तो है ही, पर्यावरण के प्रति सजगता उत्पन्न करने की दृष्टि से भी उल्लेखनीय हैं।
सुपर हीरो (दिसंबर 2017),बिजूका (सितंबर 2017), ड्रीम टेबलेट (जनवरी 2018),स्टोरी मशीन (जून 2017), पापा प्लांट (जुलाई 2017), वर्चुअल गेम (नवंबर 2017)  में भी कल्पना की विविध छटाएं हैं जो विज्ञान से जुड़कर बच्चों को समय से बहुत आगे ले जाने का दम खम रखती हैं।
डा. प्रकाश  मनु बाल साहित्य के तपस्वी मनस्वी हैं। उनकी कहानियोें को पढ़ना जैसे बाल साहित्य के मानकों से अवगत होने जैसा है। कभी किस्सागोई तो कभी संस्मरण शैली में रची उनकी कहानियों में कथारस छलकता चलता है। और उनके छींटे बहुत देर तक अपनी गंध बनाए रहते हैं। उनकी कहानियों में सब्जीपुर के चार मजेदार किस्से (अप्रैल 2017),मन्ना रे मत तोड़ो फूल (जून 2017), अमर गाथा जसोदा बाबू की (सितंबर 2017), गोपी की फिरोजी टोपी (नवंबर 2017), शहीद हरनाम गली (जनवरी 2018) भले ही आकार में लंबी हैं लेकिन एक बार पढ़ना आरंभ कर आप रुक नहीं सकते। कहन की अनूठी शैली के चलते उनकी कहानियां चित्रकथा जैसा आनंद देती चलती हैं।
सुनीता जी की संस्मरणत्मक कहानी ऐसी खेली होली (मार्च 2017) खासी दिलचस्प है जिसमें होली के बहाने आत्मीयता के अनेक रंग मौजूद हैं। किशोरों के लिए उनकी कहानी लापलांग की पुकार (फरवरी 2018) में लोककथा का आस्वाद है। लापलांग की मृत्यु और शि कारियों के पश्चाताप  की इस कहानी का अंत अत्यंत कारुणिक है।
देवेंद्र कुमार बाल साहित्य के पुराने साधक-आराधक हैं। आओ नाष्ता करें (जुलाई 2017) उनकी विशिष्ट कहानी है जो बुजुर्गों के प्रति बच्चों के रागात्मक पक्षों की सुंदर अभिव्यक्ति करती है।  बप्पा बाहर गए हैं (अप्रैल 2017), मिठास (नवंबर 2017),कभी नहीं (फरवरी 2018) भी उनकी ऐसी कहानियां हैं जिनमें बच्चा अपनी परिपक्व समझ के साथ मौजूद है।
विनायक की कहानी चुटकी भर फागुन (मार्च 2017) का षीर्षक जितना रोचक है, उसकी भाषा बच्चों की दृष्टि से उतनी ही कठिन। जून 2017 में प्रकाषित उनकी कहानी तुम यों नहीं जा सकती में पारस्परिक मित्रता जैसे सरल विषय को कथानक बनाया गया है किंतु जलप्लावित, अस्फुट, अवतरित, उदरपूर्ति जैसे कठिन शब्दों ने इसे भी दुरूह बना दिया है। पाठ्यक्रम की दृष्टि से ही ऐसी कहानियां उपयोगी हो सकती हैं। पुट्टन की पिटाई और नजारा (सितंबर 2017), मोहनी अम्मा (नवंबर 2017), षैतान सारे जहान के (फरवरी 2018) उनकी रोचक और मार्मिक कहानियां हैं।
मंजूरानी जैन को सृजन के गुर जैसे विरासत में प्राप्त हुए हैं। वे पराग के आदि संपादक आनंदप्रकाश  जैन की बेटी हैं। अगस्त 2017 में आई उनकी कहानी गुड्डे का ब्याह उनकी मौलिक कल्पना का चमत्कार है। पारस्परिक सौहार्द की दृष्टि से भी यह कहानी लाख टके की है। बच्चों का गंगा-जमुनी तहजीब सिखाती यह कहानी अच्छी बालिका कथाओं के अभाव की पूर्ति भी करती है। मंजू जी जैसे संस्कृति के विरल पक्षों को कहानी में पिरोने में सिद्धहस्त हैं। बड़े दिन का तोहफा (दिसंबर 2017) भी उनकी बेजोड़ रचना है जिसमें संवादों के माध्यम से कथा का सहज विस्तार देखते ही बनता है और इसमे समाया उत्सवी आमोद भी देखते ही बनता है। माली काका (अप्रैल 2017) भी उनकी एक अच्छी कहानियों में शुमार की जा सकती है।
  मोहम्मद अरशद खान कुशल कथाकार हैं। कहानी में जैसे जान लगा देते हैं। डूब कर लिखते हैं। उनकी कहानियां आदमखोर (अगस्त 2017), बिस्किटवाली बुआ (सितंबर 2017), अब तुम्हारे हवाले (नवंबर 2017) मुकम्मल कहानियां हैं। बिस्किटवाली बुआ में निहित ग्राम्य संवेदना और खासकर उसका तानाबाना यह भी दर्षाता है कि एक अच्छी कहानी कैसी होनी चाहिए। स्थितियों-परिस्थितियों से भरा पूरा पारिवारिक परिवेष इस कहानी के माध्यम से जीवंत हो उठा है। 
कहानी को बुनने में माहिर ओमप्रकाष कष्यप कम लेकिन गजब का लिखते हैं। अक्टूबर 2017 में प्रकाशित उनकी कहानी सबसे अच्छा सबसे अलग कुछ अलग अंदाज में षैक्षिक परिवेष को समेटने में सफल हुई है। कहानी के बहाने निबंध की सृजन यात्रा का उनका प्रयोग भी अलग ही है।
पुराने कथाकार श्रीनाथ सिंह की कहानियों का आस्वाद बच्चों का सहज प्रमुदित तो करेगा ही, हतप्रभ भी करेगा कि गए जमाने में भी कितना कुछ उनके नए जमाने जैसा ही था। तुम बड़े होकर क्या बनोगे उनकी शिक्षाप्रद कहानी है जो परिश्रम के महत्त्व को सहज प्रतिपादित करती है। अक्टूबर 2017 में छपी उनकी कहानी चमेली अपने घर कैसे पहुंची दादी-नानी की षैली को याद दिलाती है जिसमें मनगढ़ंत किस्सों के माध्यम से बच्चों को कल्पना के पंखों से उड़ान भरवाने की कोषिष छिपी होती थी।
बाल साहित्य में प्रारंभिक आलोचना को दिशा  देने वाले मनोहर वर्मा की किषोर कहानी ठंडे पानी की बिक्री (मई 2017) का संदेष कोई काम छोटा नहीं होता बड़े ही रोचक घटनाक्रम के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है।
पराग के संपादक मंडल के अनुभवी सदस्य महावीर प्रसाद जैन की कहानियों के क्या कहने। अपराधी मैं हूं (मई 2017),वापसी (सितंबर 2017), मुसीबत के साथी (जुलाई 2017) एक से बढ़कर एक हैं। वापसी में जहां कामचोरों के लिए सबक है, वहीं मुसीबत के साथी में पारस्परिक सहयोग का बखान है।
देंवेंद्र मेवाड़ी विज्ञान के अग्रणी लेखक हैं। कहानी कहने की उनकी कला प्रषंस्य है। अप्रैल 2017 में आई उनकी कथा कबूतर कभी कहानी,कभी संस्मरण तो कभी निबंध जैसी लगती है लेकिन अंत तक पहुंचते पहुंचते बड़ी ही साफगोई से प्रकृति के सहचरों के प्रति हमारे संवेदनात्मक पहलुओं का दर्षन एकदम षीसे के मानिंद साफ कर जाती है।
बालमन की चितेरी लेखिका रेनू चैहान की पशु पक्षी कथा घमंडी पेड़ (नवंबर 2017) में वन्य जीवन की बाँकी झांकी देखने को मिली। पेड़ का मानवीकरण देखते ही बनता है। कहानी के छोटे-छोटे वाक्य पाठकों के औत्सुक्यवर्धन में सहायक हैं।
गोविंद शर्मा कल्पना और शैली दोनों ही दृष्टि से समर्थ हैं। कहानी का उनका अंदाजे बयाँ अलग ही होता है। मजे की बात यह कि वे शैली में व्यंग्य के पुट का भी अद्भुत समन्वय स्थापित करते हैं और यही कारण है कि पाठक हंसते-चहकते जाने-अनजाने में उनकी कहानी में छिपे सन्देश को भी ग्रहण कर लेता है। ऐसे ही नवम्बर 2017 में प्रकाशित कहानी नहीं छोड़ेंगे में स्वच्छता का लक्ष्य साधने में उनको सहज सफलता मिली है।
शिवचरण सिरोहा बाल साहित्य में तेजी से स्थापित हुए हैं। उनकी कहानी छोटा सांताक्लाज (दिसंबर 2017) अत्यंत भावप्रवण कहानी है। एक संवेदनशील बच्चा किस तरह परिवार में अपने दायित्वबोध को अनुभव करते हुए कर्तव्य निभा सकटा है, यही इस कथा का प्रतिपाद्य है। नए कोट को लेकर पिता की दमित आकांक्षा और फिर बेटे की ओर से अपने प्रयासों से उनके लिए वही उपहार देने का प्रसंग कितना मार्मिक है कि यह कारुणिक कथा आँखे भिगो देती है। भौतिकवाद की आधुनिक सभ्यता, जिसमे स्वहित अधिक महत्वपूर्ण है, में ऐसे भावुक बच्चों की उपस्थिति कितनी गौरवपूर्ण है। उन्हें सैल्यूट करने को जी चाहता है।
विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी ने लो हो गई मेरी शादी (दिसंबर 2017) कहानी के बहाने साक्षात्कार शैली में बच्चों को वैज्ञानिक तथ्यों से जोड़ने की सफल कोशिश  की है।यह प्रयोग यह भी सिद्ध करता है कि विज्ञान को लोकप्रिय बनाने में कहानिया किस कदर अपनी भूमिका निभा सकती हैं।
लोकबोलियों पर अपने गम्भीर शोधकार्य के लिए चर्चित सुधा गुप्ता की कहानी  एक थी मीशा (फरवरी 2018) अंक की उपलब्धि है। प्रिय शिक्षिका होने के नाते वे बच्चों के अधिक निकट रही हैं, फलस्वरूप संवाद शैली में दादी-पोती की अंतरंगता जिस नटखट अंदाज में इस कहानी में व्यक्त हुई है, उसे देखकर सुखद विस्मय होता है- वह खिलखिलाकर हंसने लगी और हंसती रही, हंसती ही रही।
मैंने कहा अरे, अब इतना क्यों हंस रही हो ?
मीशा दोनों नन्ही हथेली से ताली बजाकर बोली- क्या बताऊँ? मेरी तो हंसी ही नहीं रुक रही।
अन्य रोचक और उल्लेखनीय कहानियों में  ब्रजेष कृष्ण की साहसिक कथा शंभू और कुक्कू (फरवरी 2018), निर्मला सिंह की बालिका कथा मयूरी (दिसंबर 2017), शील कौषिक की श्रेया और आन्या (जनवरी 2018),स्ंजीव जायसवाल की कहानी देश  के बेटे (जनवरी 2018),पवित्रा अग्रवाल की मिर्ची के पकौड़े (फरवरी 2018), सुकीर्ति भटनागर की कहानियां पोहे वाली दादी (अप्रैल 2017), मन की बात (अगस्त 2017), सूर्यनाथ सिंह धमकीबाज को धमकी (अगस्त 2017), रष्मि गौड़ की बिग ब्रदर (अप्रैल 2017), राजा चौरसिया वाह मुनमुन बेटी (अप्रैल 2017), डा. फकीर चंद शुक्ल की झूठ के पांव (सितम्बर 2017), लक्ष्मी खन्ना सुमन की जंगल में परियां (सितंबर 2017) भी उल्लेखनीय हैं। विस्तार भय से भले ही उनकी चर्चा यहां पर संभव न हो सकी हो लेकिन उनका सार्वकालिक महत्त्व नकारा नहीं जा सकता।
सदाबहार फूलों सी ये कहानियां निसंदेह बाल साहित्य की अनुपम निधि हैं। इनकी महक देर तक और दूर तक अपनी पहुंच बरकरार रखने में समर्थ है। इन फूलों को बाल वाटिका में पुष्पित-पल्लवित-संरक्षित करने वाले सजग माली डा. भैरूंलाल गर्ग को जितनी भी बधाई दी जाए, कम है।
- डा. नागेश पांडेय 'संजय'



















(बाल वाटिका, मार्च 2018 में प्रकाशित आलेख)

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