मंगलवार, 6 नवंबर 2012

बाल साहित्य में हमेशा रहेंगे डा. श्रीप्रसाद/ आलेख / डा. नागेश पांडेय ‘संजय'



बाल साहित्य में हमेशा रहेंगे डा. श्रीप्रसाद 


पचास साल से भी ज्यादा समय तक बाल साहित्य के क्षेत्र में सर्वात्मना समर्पित डा. श्रीप्रसाद जी नहीं रहे। 12 अक्टूबर, 2012 को दिल्ली में मेक्स हॉस्पिटल साकेत में ह्रदय चिकित्सा के दौरान उनका निधन हो गया। श्रीप्रसाद जी ने खुद को बालसाहित्य के लिए समर्पित कर दिया था । बाल साहित्य की समस्त विधाओं में सृजन के साथ-साथ शोध और समीक्षा के स्तर पर भी उन्होंने बालसाहित्य को उँचाइयाँ प्रदान कीं । उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान से प्रकाशित उनकी कृति बालसाहित्य की अवधारणा तत्वाभिनिवेशी आलोचना का साकार दस्तावेज है । उन्होंने  काशी विद्यापीठ से 1973 में हिंदी बाल साहित्य विषय पर पी-एच. डी. की उपाधि की प्राप्त की। कालांतर में उनका शोध ग्रन्थ बाल साहित्य की रुपरेखा शीर्षक से 1985 में प्रकाशित हुआ। श्रीप्रसाद जी समय-समय पर बाल साहित्य के विविध पक्षों पर बड़े ही गवेषणात्मक आलेख लिखते रहे, यदि उनको संकलित किया जाए तो बाल साहित्य की सार्थक समालोचना  पर एक महत्त्वपूर्ण कृति तैयार हो सकती है।

  श्रीप्रसाद जी को पढ़कर- उनसे प्रेरित होकर न जाने कितने बाल साहित्यकार तैयार हुए हैं। फ़िलहाल मैं तो स्वयं को उनमें से एक मानता हूँ। 1984-85 से बतौर बाल पाठक बाल साहित्य से जुड़ गया, चूँकि लिखने की भी रूचि जग गयी थी, सो पत्रिकाओं और अख़बारों में लेखक के नाम पर भी सहज ध्यान चला ही जाता था। श्रीप्रसाद जी तो यत्र तत्र सर्वत्र वाली स्थिति में थे। मैं तब बालक था। पी-एच. डी. वाले डाक्टर का तो बोध भी न था। सोचता था कि कोई क्लीनिक होगी और फिर ये भी सोचता था कि कैसे इतना समय निकलते होंगे ? और राम झंूठ न बुलवाए तो मन में ये भी आता था की क्लीनिक कम चलती होगी। शायद तभी इतना समय मिल जाता होगा। 
बाद में बाल भारती में प्रकाशित उनके पते से जाना कि वे तो संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर हैं। और कहीं न कहीं मैंने भी आगे चलकर पी-एच. डी. करने का मन बना लिया था। 
नंदन में तब पुस्तकों का परिचय भी छपता था और प्रकाशकों के पते भी मिल जाते थे। मैं सूची पत्र मंगा कर बाल साहित्य की पुस्तकें मँगा कर पढता था। उनकी एक किताब ’गाड़ी देर से आई’ भी मैंने मँगा कर पढ़ी थी।
उनकी शैली का मैं कायल हूँ कई बार लगता है की कहानी पढ़ नहीं सुन रहे हैं और जब वह आत्मकथनात्मक अंदाज में कथानक को परोसते हैं तो खासकर लगता है कि कहीं हम भी कथानक के एक पात्र के रूप में कहानी के साथ-साथ चल रहे हैं।  
इस पुस्तक की कहानी ’भय’ का एक वाक्य आंधेर आपनेर पिठेर भयेत मेरे मन में जैसे बस सा गया था। आज भी जब कभी रात में अपनी लंबी-सी परछाई देखता हूँ तो बचपन की तरह डर तो नहीं लगता किन्तु वह कहानी याद आती है।
खैर... इस बहाने मैंने जाना कि प्रसाद जी बंगला के भी जानकार हैं। उनके आलोचना लेखों में बंगला बाल साहित्य के उदाहरण बखूबी मिलते हैं।
मेरी पहली पुस्तक नेहा ने माफ़ी मांगी की भूमिका उन्होंने ही लिखी थी। उन्होंने सारी कहानियां पढने के बाद मुझे सुझाव भी दिया था कि गिरा राजा कहानी पुराने चाल की कहानी है। आप केवल आधुनिक कहानियां ही लिखिए। ...और उनके आदेशानुसार मैंने उस संकलन में केवल आधुनिक कहानियां ही रखी थीं। 
मेरे पास उनके ढेर सारे पत्र हैं और उनमें बाल साहित्य के स्वरुप को लेकर खुलकर चर्चाएँ हुयी हैं। वे बाल साहित्य के साथ-साथ बाल सहित्यकारों में भी सहजता के पक्षधर थे।  गर्वोक्ति नहीं होनी चाहिए। उनका मानना था की बाल साहित्य की छवि को बच्चे की तरह पारदर्शी बनाना है। 
बाल साहित्य में भ्रामक सूचनायें नहीं जाना चाहिए। एक संपादक ने अपने 100 बाल कविताओं  के संपादित बाल कविता संकलन को भारतीय भाषाओँ में सबसे बड़ा घोषित कर दिया था। डा. श्रीप्रसाद जी ने स्पष्ट किया कि (उन दिनों) सबसे बड़ा संकलन तो तमिल के एन मुदलियार का पिल्ललू पाटलू है। उसमें 500 बाल गीत थे। वे बाल साहित्य के सजग अध्येता थे। 
  मैं पहली बार उनसे उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा 1994 में आयोजित सर्वभाषा बाल साहित्य समारोह में मिला था। देश के कोने-कोने से बाल साहित्यकार आए थे और यह महत्वपूर्ण आयोजन तत्कालीन निदेशक विनोद चन्द्र पांडेय जी ने कराया था। तीनों पीढ़ियों के बालसाहित्यकारों का समागम था। सच कहूँ तो उस आयोजन से बहुत कुछ सीखने को मिला था।
 चित्र में नागेश पांडेय 'संजय', डॉ. शोभनाथ लाल, विनोदचंद्र पांडेय, चंद्रपाल सिंह यादव 'मयंक और डॉ. श्रीप्रसाद 
वास्तव में आयोजनों की यही गरिमा है। विमर्श को बल मिलता है और मौलिकता को संभावनाएं। भावनाएं भी पुष्ट होती है। आत्मीयता स्थापित होती है। डा. श्रीप्रसाद के न रहने पर केवल एक बाल साहित्यकार को खोने जैसा नहीं, बल्कि एक संरक्षक  का चले जाना जैसा महसूस हो रहा है। कभी कानपुर तो कभी शिमला तो कभी बरेली जाने कितनी यात्राओं में वे मिले और अपना स्नेह बरसाते रहे।
 बरेली में निरंकारदेव सेवक की याद में समारोह था। हम लोग सेवक जी के ही घर में ठहरे थे। रात भर जागते-खिलखिलाते रहे। सेवक जी की पुत्रवधु पूनम सेवक ने रोते हुए कहा था, आज वर्षों बाद इस घर में ठहाके गूंजे हैं।   
वाराणसी उनके घर भी गया हूँ। बजरडीहा में रहते थे। बजरडिहा की कहानी भी सुनाई थी। वज्र ढूह। ऊँचा स्थल। उनका आतिथ्य नहीं भूल सकता। तब माता जी भी थीं। एक सच्ची गृहणी और लेखन में उनकी परोक्ष साथी भी। सृजन का परिवेश बनाये रखती थीं। उनके निधन पर फोन किया था तो श्रीप्रसाद जी बहुत आहत थे। 
मुझको हुआ जुकाम उनका प्रसिद्द शिशुगीत है इसे स्वीडन से प्रकाशित विश्व बालकाव्य संग्रह में लिया गया है। भारत से दो लोग हैं एक हिंदी और एक तमिल से।
बिल्ली बोली, बड़े जोर का 
मुझको हुआ जुकाम
चूहे चाचा चूरन दे दो 
जल्दी हो आराम

चूहा बोला, बतलाता हूं
एक दवा बेजोड़
अब आगे से चूहे खाना
बिलकुल ही दो छोड़.

हाथी चल्लम चल्लम डा. श्रीप्रसाद जी का चर्चित बाल गीत है। अनेक स्थानों पर यह रचना अपूर्ण रूप में प्रकाशित की गयी है। मैंने इसे इंटरनेट पर अपने संपादन में बाल मंदिर में प्रकाशित किया तो उन्हीं से जानकारी हुई कि ये रचना तो एक तिहाई है। फिर इसे अपने सुपुत्र प्रो. आनद वर्धन जी के द्वारा मेल से भिजवाया। यह बाल गीत शुद्ध एवं पूर्ण रूप में पाठकों की सेवा में प्रस्तुत है- 

हल्लम हल्लम हौदा, हाथी चल्लम चल्लम

हम बैठे हाथी पर, हाथी हल्लम हल्लम

लंबी लंबी सूँड़ फटाफट फट्टर फट्टर

लंबे लंबे दाँत खटाखट खट्टर खट्टर

भारी भारी मूँड़ मटकता झम्मम झम्मम

हल्लम हल्लम हौदा, हाथी चल्लम चल्लम

पर्वत जैसी देह थुलथुली थल्लल थल्लल

हालर हालर देह हिले जब हाथी चल्लल

खंभे जैसे पाँव धपाधप पड़ते धम्मम

हल्लम हल्लम हौदा, हाथी चल्लम चल्लम

हाथी जैसी नहीं सवारी अग्गड़ बग्गड़

पीलवान पुच्छन बैठा है बाँधे पग्गड़

बैठे बच्चे बीस सभी हम डग्गम डग्गम

हल्लम हल्लम हौदा, हाथी चल्लम चल्लम

दिनभर घूमेंगे हाथी पर हल्लर हल्लर

हाथी दादा जरा नाच दो थल्लर थल्लर

अरे नहीं हम गिर जाएँगे घम्मम घम्मम

हल्लम हल्लम हौदा, हाथी चल्लम चल्लम
इस रचना पर आज के प्रसिद्द बाल साहित्य समालोचक डा. प्रकाश मनु जी ने लिखा था- 

प्रिय नागेश, डा. श्रीप्रसाद जी की यह बाल कविता मेरी सर्वाधिक पसंदीदा बाल कविताओं में से है जिनके बारे में मैंने बाल कविता के इतिहास में बहुत विस्तार से लिखा है और इसका जिक्र और प्रशंसा करते हुए मैं कभी थकता नहीं। श्रीप्रसाद जी हमारे बीच के सबसे वरिष्ठ लेखकों में से हैं जो अब भी इतने उत्साह से लिख रहे हैं। बाल कविता के तो वे शिखर व्यक्तित्व हैं ही, साथ ही बाल कहानी, बाल उपन्यास, संसमरण हर विधा में उन्होंने लिखा है और बहुत ऊँचे पाए का लिखा है। हम सब सौभाग्यशाली हैं कि वे हमारे बीच मौजूद हैं और हम उन्हें इतनी लगन और तन्मयता से काम में लगे देखते हैं। सस्नेह, प्रकाश मनु

आदरणीय मनु जी, वह सौभाग्य जाता रहा किंतु उनका नाम-काम अविस्मरणीय है। यशकाया के रूप में वे हमारे बीच हैं। बाल साहित्य में हमेशा रहेंगे। उन्हें बारंबार नमन और श्रद्धांजलि।   

सुभाष नगर, निकट-रेलवे कालोनी, 
शाहजहाँपुर - 242 001 (उ.प्र.)

1 टिप्पणी:

  1. प्रिय डॉक्टर संजय ,
    बाल सृजन आनन्द के लिए बाल कविता के इतिहास पर् लिखते हुए आपके आलेख से गुजरते हुए श्रद्धेय प्रसाद जी का बल्गेत पढ़ कर अभिभूत हुया .मुझे भी उनके भोपाल में दर्शन का और बाल कविता सीखने का अवसर मिला था.बस इतना ही...

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