रविवार, 5 मई 2024

भारतीय बाल साहित्य का एक और इतिहास

ग्रंथ : भारतीय बाल साहित्य का इतिहास

लेखक : प्रोफेसर (डॉ.) त्रिभुवननाथ शुक्ल

प्रकाशक : कश्यप पब्लिकेशन बी-15/जी-1, दिलशाद एक्सटेंशन-2, डीएलएफ, गाजियाबाद-05 (उ.प्र.)

 फोन: 09868778438 

संस्करण: 2021

मूल्य: 350/- रुपए

समीक्षक : डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'

प्रोफेसर (डॉ.) त्रिभुवननाथ शुक्ल, डी. लिट्. ,रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर (मध्यप्रदेश) के हिंदी एवं भाषाविज्ञान विभाग में आचार्य एवं अध्यक्ष पद पर कार्यरत रहे हैं। उनकी समर्थ लेखनी और अनथक श्रम से 'भारतीय बाल साहित्य का इतिहास' जन सामान्य के लिए सुलभ हुआ है। 

एक समय था,जब विभिन्न मंचों पर बार-बार बाल साहित्य के इतिहास लेखन की आवश्यकता उदघाटित की जाती थी। प्रसन्नता और गर्व का विषय है कि अब इस दिशा में निरंतर सक्रियता देखते ही बनती है। यद्यपि बाल साहित्य के पूर्ण और प्रामाणिक इतिहास लिखे जाने की जरूरत हमेशा रहेगी। बाल साहित्य का पहला इतिहास रुहेलखंड की धरती से 1966 में निरंकार देव सेवक जी ने लिखा था बाल गीत साहित्य इतिहास एवं समीक्षा। इसके बाद काफी लम्बे समय तक इस दिशा में सन्नाटा रहा। बहुतों ने गाल बजाए लेकिन किसी ने पहल नहीं की। भला हो जयप्रकाश भारती का जिन्होंने भारतीय बाल साहित्य का इतिहास 2002 में संपादित किया। प्रकाश मनु ने बहुत मेहनत करते हुए, अपने दम पर हिंदी बाल साहित्य का इतिहास (2015) लिखा। शकुंतला कालरा ने हिंदी बाल साहित्य विधा विवेचन ग्रंथ का संपादन किया, उसमे भी इतिहास की झलक है।

वर्ष 2021 में प्रकाशित भारतीय बाल साहित्य का इतिहास के लेखक प्रो. शुक्ल हिंदी साहित्य के उद्भट विद्वान हैं। उनका व्यक्तित्व जलनिधि-सा है। भीतर कितने रत्न मणियां समेटे हैं लेकिन कोई प्रदर्शन नहीं। मौन साधक हैं। गंभीर कार्य करते हैं। शोर शराबे में तो उनका कभी भी विश्वास नहीं रहा ।

उन्होंने पहले भी सन 2009 में डॉ. राष्ट्रबंधु जी के साथ मिलकर भारतीय बाल साहित्य की भूमिका पुस्तक का सहलेखन किया था। यह ग्रंथ उन्होंने राष्ट्रबंधु जी और प्रतीक मिश्र जी को समर्पित किया है। 39 अध्यायों में विभक्त इस इतिहास में बाल पत्रकारिता और बाल साहित्य समीक्षा पर भी बात की गई है। ग्रंथ में 1. असमिया 2. उड़िया 3. उर्दू 4. अँगरेज़ी 5. कन्नड़ 6. कश्मीरी 7. कोंकणी 8. गुजराती 9. डोगरी10. तमिल 11. तेलुगु 12. नेपाली 13. पंजाबी 14. बंगला 15. मणिपुरी 16. मैथिली 17. मराठी 18. मलयालम 19. राजस्थानी 20. सिंधी 21. संस्कृत और 22. हिंदी भाषाओं के बाल साहित्य की विवेचना की गई है। 

 इस इतिहास में हिंदी बालकाव्य और बाल कथा साहित्य में राष्ट्रीय एकता की अनुगूँज, कहानियों की कहानी, बालनाटक, बालोपन्यास, बाल जीवनियाँ, बाल साहित्य समीक्षा और बालसाहित्य में लघु रचना को लेकर सारगर्भित चर्चा है।

भूमिका में प्रो. शुक्ल जी लिखते हैं : 

"बालविकास में शारीरिक और मानसिक स्वस्थता को अन्योन्याश्रित मानना चाहिए। केवल पौष्टिक आहार के आधार पर बालकल्याण की योजना एकांगी और आधी अधूरी है। बाल कल्याण में बालशिक्षा और बाल साहित्य अपरोक्ष रूप से बालविकास को संचालित करते हैं। बालसाहित्य, बालकल्याण का मेरुदंड है।आधुनिक समस्त संदर्भों में बालक उपेक्षित और असहाय है। गरीबों के बच्चे अपने माता-पिता के स्नेह-पोषण से वचित हैं, क्योंकि माता-पिता आजीविका के लिए जो विवश हैं। शहरों में जब माता-पिता काम के लिए घर छोड़ते हैं तो बच्चा सोता रहता है और जब पिता देर रात में घर लौटता है तो भी बच्चा सोता मिलता है। देहातों में निम्न आर्थिक स्तर के माता-पिता, खेती किसानी या मजदूरी के काम से निकल जाते हैं तो बड़े बच्चे के ऊपर जिम्मेदारी आती है, अपने छोटे-भाई-बहिन को संभालने की।मध्यम श्रेणी के अभिभावक चाहे शहरों में रहते हों या देहातों में, अपने ही कामों में, घर से बाहर निकल जाते हैं और बच्चे उपेक्षित अनुभव करते हैं।उच्च श्रेणी के अर्थ संपन्न लोग खर्च कर सकते हैं लेकिन देखभाल नहीं करते। व्यवसाय, कार्यालय, क्लब, सभा अथवा संपन्न समाज में जाने में लोग अपना सम्मान मानते हैं। बच्चों की देखभाल, परिवरिश और शिक्षा की जिम्मेदारी के लिए दूसरों को ही नियोजित करते हैं। बच्चे उनके हैं, जिम्मेदारी दूसरों पर थोपते हैं।आधुनिक संदर्भ में आर्थिक, सामाजिक और अन्य कालों से पारिवारिक विघटन बहुत हो रहे हैं। बाबा-दादी, नाना-नानी, विशेष परिस्थितियों में ही, बच्चों के साथ अपने दिन बिताते हैं। 'माँ' कह एक कहानी जैसी परिस्थितियाँ आती हैं लेकिन आधुनिक माताएँ कैसेट या कामिक्स के विकल्प तैयार कर लेती हैं जिनमें लोरियाँ और प्रभावी गीत बच्चों के लिए सतही पूर्ति करते हैं। बड़ों के साथ का अभाव उन्हें सालता है।"

प्रो. शुक्ल ने बालक को लेकर विभिन्न परिस्थितियों के संदर्भ में चिंतन करते हुए भारतीय भाषाओं के बाल साहित्य के महत्त्व और उसके इतिहास को विश्लेषित किया है। वे बाल साहित्य की उपेक्षा से चिंतित भी हैं ; "आधुनिकता बनाम आर्थिकता ने जब बच्चों को अपने मौलिक अधिकारों से वंचित और उपेक्षित कर दिया है तो बालसाहित्य भी उपेक्षित और वंचित है। अतः समाज में बाल साहित्यकार अनादृत हैं। साहित्यकारों में बालसाहित्यकार दूसरी श्रेणी में परिगणित किए जाते हैं। साहित्य के इतिहास में बालसाहित्य के संदर्भ नहीं मिलते। भारत में शताधिक शोधग्रंथ बालसाहित्य पर उपलब्ध हैं, लेकिन उनका महत्व नहीं। इसका मुख्य कारण है कि बच्चा बेचारा है, बेसहारा है। बच्चे की जिम्मेदारी गरीब निभा नहीं पाता है जबकि अमीर उस जिम्मेदारी को दूसरों पर डालना चाहता है। मध्यम श्रेणी के लोग जिम्मेदारी जानते हैं लेकिन निभाने में मजबूर हैं।

यह विचारणीय विडंबना है कि हमारे धर्मग्रंथों में बालक की संज्ञा 'ईश्वर' दी गई है। बालक को ईश्वर का अवतार कहा जाता है। सूरदास हों या तुलसीदास, कंबन हों या सुब्रहमण्यम भारती, रवीन्द्रनाथ ठाकुर हों या गोपबंधु सभी बालवर्णन का गुणगान करते रहे हैं, लेकिन तालाब के किनारे नवजात शिशु को त्यागने के लिए बाध्य हैं। ऐसे अनेक अभिभावक हैं, जो जिम्मेदारी भगवान भरोसे छोड़ देते हैं। और 'दादर पुल के बच्चे' उपन्यास के राजीव पात्र बनकर असामाजिक तत्त्वों की आमदनी के माध्यम के लिए लूले लंगड़े बना दिए जाते हैं। अथवा अनैतिक धंधों में नियोजित कर दिए जाते हैं।

बच्चे के प्रति दायित्व निभाने वाले, न तो माता पिता समर्थ और योग्य हैं और न समाज के अन्य लोग। प्रवेश निषेध की चेतावनियाँ विद्यालयों में बच्चों के मौलिक अधिकारों का उपहास करती हैं। न अभिभावक कुछ कर पाते हैं, न समाज के लोग, न धर्माचार्य, न शासन के प्रतिष्ठित अधिकारी। इन सबकी दृष्टि में बच्चा समाज या देश का नहीं व्यक्ति का होता है।

जैसे जैसे किंडर गार्टन या मांटेसरी विद्यालय में अँगरेज़ी माध्यम से पढ़नेवाले बच्चे, प्राथमिक कक्षाएँ देखकर बाहर निकल जाते हैं माध्यमिक विद्यालयों में पढ़ने वालों की संख्या घट जाती है। उच्चतर कक्षाओं में और घट जाती है। महाविद्यालयों में सामर्थ्यवान लोगों को भाग्यशाली बच्चे ही पढ़ते हैं और कैरियर कक्षाओं की जानकारी न पाकर क्लर्कों की नौकरी तलाश करते हैं। कितने संगठन हैं, जो देहातों से शहरों तक फैल कर बच्चों को निर्देश देते हैं। कला, साहित्य, खेल, विज्ञान, अनुसंध गान आदि के आयोजनों की जानकारी देते हैं। कितने पुस्तकालय बच्चों के लिए हैं। साक्षरता की मंथर गति के रहते बालसाहित्य का विकास हो ही नहीं सकता। बच्चों के कार्यक्रमों को प्रोत्साहन मीडिया भी नहीं देता। प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, बच्चों में वर्ग भेद उत्पन्न करते हैं। अमीरों के बच्चे उनकी प्रचार-प्रसार की परिधि में आते हैं, जो इंडियट बाक्स छोड़ना ही नहीं चाहते। गरीबों के बच्चों के कार्यक्रम बतौर फैशन प्रस्तुत होते हैं। ऐसे कार्यक्रम शायद ही जीवंत होते हैं। बालहित की चेतना से शून्य आज के बहुत से लेखक बालसाहित्य को कमाई का धंधा मानकर कार्य संपन्न करते हैं तथा घिसीपिटी शैली, बाबाआदम से चले चलाए घिसे पिटे विषय, व्याकरण और संस्कृति से पृथक सभ्य लोगों की भाषा में वे बालसाहित्य तैयार कर रहे हैं। इन लोगों की पांडुलिपियाँ सस्ते दामों में खरीद कर प्रकाशक अपना व्यापार चलाते हैं। रायल्टी की जगह कॉपीराइट में सौदा करते हैं और संस्करण में सन् लिखकर आवृत्तियाँ करते जाते हैं।"

प्रो. शुक्ल ने बड़े ही खुले शब्दों में बाल साहित्य के घुसपैठियों को बेनकाब करते हुए लिखा है,"बालसाहित्य के वे प्रतिष्ठित लेखक माने जाते हैं, जो सरकारी खरीद को प्रभावित करते हैं और थोक में बिक्री कराने की पात्रता रखते हैं। प्रकाशक भी बालसाहित्य छापकर रखना नहीं चाहता वह कामिक्स लेखक खोजता है। ऐसी पांडुलिपि अनुबंधित करना चाहता है जिसके लिए बाजार न खोजना पड़े जो इडली, कचौरी या समोसे की तरह हाथों-हाथ बिक जाए।

प्रकाशक जानता है कि बालसाहित्य केवल बच्चे नहीं पढ़ते। बच्चों की पुस्तकें, बड़े लोगों की पसंद पर ही खरीदी जाती हैं। इसलिए प्रकाशक आधुनिक संदर्भों में सेक्स, हत्या, मारधाड़ आदि से पूर्ण पुस्तकें तैयार करता है। प्रकाशक जानता है कि बड़े लोग तो इन्हें पढ़ेगे ही, बच्चे भी छुप छुप कर पढ़ेंगे और फिल्म शो जैसा लुत्फ हासिल करेंगे। किराए पर दूकानों से पुस्तकों की माँग खड़ी होगी, इसलिए वह अपने आर्थिक लाभ को ही देखता है सिद्धांतों से उसका कोई सरोकार नहीं होता। वर्तनी भाषा या संपादन से शून्य, बालसाहित्य का प्रकाशक बच्चों से कोई मतलब नहीं रखता। जो लोग बच्चों की पुस्तकें शौक में खरीदते हैं, उनके आगे पीछे घूमता है।

बड़ों द्वारा खरीदकर देने की आदत को प्रकाशक भुनाना चाहता है। अतः वह बालसाहित्य के नाम पर अविश्वसनीय वर्णन को कल्पना के नाम पर प्रस्तुत करता है। परी कथाओं, पौराणिक कथाओं और प्रेम गाथाओं की पुस्तकों को वह बालसाहित्य के खाते में रखकर धंधा करता है। ऐसा प्रकाशक एक ही पुस्तक को बालसाहित्य और प्रौढ़ साहित्य की पुस्तक बना देता है।

प्रकाशक बिकने के लिए छापता है अतः उसे कमाई चाहिए भले ही बच्चों के लिए तैयार की गई किताबें बच्चों तक न पहुँचे। बच्चों की किताबें कमीशन देकर भी बिकें तो बिकनी चाहिए। इन किताबों की बिक्री के लिए कमीशन में कार देनी पड़े तो दी जाएगी। प्रकाशक को इससे कोई मतलब नहीं कि दाम बच्चों की क्रयक्षमता का है या नहीं अथवा बालसाहित्य अलमारी या बक्से में बंद रहता है। उसे प्रौढ़ साक्षर पढ़ते है या कोई और प्रकाशकीय दृष्टि से आधुनिक बालसाहित्य का संदर्भ शुद्ध व्यावसायिक आर्थिक और स्वार्थपूर्ण रहता है। बच्चे की पसंद उसकी क्रयक्षमता और उसके हित की उपेक्षा करके प्रभूत बालसाहित्य प्रतिवर्ष छापा जाता है लेकिन भविष्य की बजाय वह भूतकाल का इतिहास तक नहीं बनाता और न अपनी देहरी से बाहर निकल पाता है।"

प्रो. शुक्ल ने हिंदी बाल साहित्य की दीर्घ कालीन यात्रा पर अपनी दृष्टि डालते हुए कहा है, "बालपत्रकारिता सन 1882 से बालदर्पण के रूप में हिंदी में उद्भूत हुई। 1917 में बालसखा और शिशु के माध्यम से पल्लवित और लक्ष्यगामी बनी। जनसंख्या वृद्धि के हिसाब से हिंदी में जितने पत्र प्रकाशित होने चाहिए, उतने हैं नहीं। बालभारती, बालवाणी, बालवाटिका, चकमक आदि बालपत्र विविध लक्ष्य लेकर प्रकाशित हो रहे हैं लेकिन बच्चों की आवश्यकताओं के अनुरूप हैं नहीं। अतः उपलब्धियाँ सीमित हैं। विद्यालयीन पत्रिकाओं की संख्या निराशाजनक हैं। प्रोत्साहन के क्षेत्र में सभी प्रकार के बालकों का कार्य ऊँट के मुंह में जीरा के समान है-एक अनार सौ बीमार।दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक आदि पत्र-पत्रिकाओं में बच्चों के स्तंभ बहुत लोकप्रिय हुए हैं। कला, चित्रकारी, प्रहेलिकाओं, नन्हीं कलम आदि स्तंभों से बाल स्तंभों तक में इनका समावेश किया गया है लेकिन जब कभी विज्ञापन मिल जाते हैं तो बच्चों के लिए निर्धारित स्थान पर ही अतिक्रमण किया जाता है। अखबारों के मालिक यह नहीं सोचते कि बच्चों के भविष्य के साथ उनका गाज गिरा देना, कालांतर में उनके अपने लिए ही नुकसान पहुँचाने वाला सिद्ध होगा। बच्चे जब सड़क पर बैटिंग करने को मजबूर होंगे तो कोई न कोई गैर खिलाड़ी आहत होगा ही।

प्रकाशन की इन विषम परिस्थितियों में बालसाहित्य का लेखन चल तो रहा है, यही क्या कम है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और प्रिंट मीडिया ने बालक के मौखिक और लिखित बाल साहित्य को बहुत प्रभावित किया है। व्यावसायिकता ने सिद्धांतों का गला घोटना शुरू कर दिया है। फिल्मों और दूरदर्शन ने सभ्यता को भले ही अभिव्यक्ति दी हो लेकिन हमारे संस्कारों पर लगातार प्रहार किए हैं।"

शुक्ल जी वर्तमान बाल साहित्य में हो रहे जबरदस्ती के लेखन पर भी निर्भीक होकर अपनी बात रखना नहीं भूलते। "आज की कविता बालसाहित्य में विषयों की दृष्टि से चूहे, बिल्ली, हाथी, कुत्ते की अनाकर्षक ऐसी प्रस्तुति है जिसमें छंद और लय के दोष उसे निष्प्रभावी बना रहे हैं। अंग्रेजियत की फैशनपरस्ती में शुद्ध भाषा तिरोहित होती जा रही है। भारतीय भाषाएँ, भँवरजाल से अपना मार्ग नहीं बना पा रही है। मात्र 50-60 नर्सरी गीतों की अंग्रेजियत ने सहस्त्राधिक अच्छे शिशुगीतों के चलन में गत्यावरोध खड़े कर दिए है।

फैंटेसी के नाम पर बालकहानियों में बालसाहित्य बहुत उन्नत और समृद्ध है। फकीरमोहन सेनापति, साने गुरू जी, गिजूभाई, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, सुकुमारन आदि से बालकहानियों का निर्झर सतत प्रवाहशील है। बालसाहित्य की खदान में बहुत सा संचित धन है जिसका उपयोग ही नहीं किया गया है।

बालनाटक, बालोपन्यास के क्षेत्र में आधुनिक बालसाहित्य इसलिए अधिक प्रभावशाली सिद्ध नहीं हुआ है क्योंकि इलेक्ट्रानिक मीडिया ने उसके प्रचार प्रसार पर अपना खूनी पंजा फैला दिया है। विदेशी फिल्में अपनी चकाचौंध से इन्हें बाहर फेकने लगी हैं।

फिल्मगीतों की कालकोठरी से अन्त्याक्षरी बाहर निकल नहीं पा रही है। इसने सूक्तियों और अच्छा सुभाषित पंक्तियों को बिसार दिया है। प्रतियोगिता और पुरस्कारों ने अश्लीलता को घर में जगह दे दी है फिर भी बालसाहित्य की हस्ती किन्हीं विशेषताओं के कारण नहीं मिटी।

प्रजातंत्र की दुहाई देने वाले प्रशासकों को बताना होगा कि प्रौढ़ शिक्षा चलाने की बजाय बच्चों की शिक्षा और बालसाहित्य पर पूरा ध्यान दें ताकि प्रौढ़ आंशकितों की संख्या अपने मूल में ही पनप न सके।

कुल मिलाकर इस ग्रंथ में बालसाहित्य के इतिहास के साथ साथ उसकी आवश्यकता को लेकर प्रबल तर्कों के साथ सविस्तार चर्चा की गई है। 

प्रोफेसर (डॉ.) त्रिभुवनाथ शुक्ल द्वारा प्रस्तुत यह भारतीय बाल साहित्य का इतिहास अपनी कुछ सीमाओं के बावजूद अत्यंत उपयोगी और महत्वपूर्ण है।

इस अच्छे काम के लिए प्रो. शुक्ल जी को बहुत बहुत बधाई !

आशा की जानी चाहिए कि बाल साहित्य इतिहास लेखन के गंभीर कार्य की दिशा में अन्य विद्वान भी प्रवृत्त होंगे और सतत चलने वाली यह धारा प्रवहमान रहेगी।

समीक्षक : डॉ. नागेश पांडेय संजय 

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