बात 1990 की है। बालहंस में एक साथ मेरी दो कहानियां बहन मिल गई और पिंकी बदल गई स्वीकृत हुईं थीं। स्वीकृति पत्र पर सहयोगी संपादक मनोहर वर्मा के हस्ताक्षर थे। बालहंस की उन दिनों अलग ही धज थी। माह में दो अंक आते थे और आए दिन अलग-अलग विधाओं की रचनाओं पर विषेषांक केवल यहीं सुलभ थे। यही नहीं, उन दिनों सृजन विषेषांक के रूप में तो विभिन्न राज्यों के बालसाहित्य पर क्या खूब संग्रहणीय ऐतिहासिक अंक प्रकाषित हुए। किसी व्यावसायिक पत्रिका द्वारा बालसाहित्य पर ऐसा दृष्टिपरक काम कहीं और आज तक देखने को नहीं मिला।
बालहंस में उन दिनों उत्कृष्ट बालसाहित्य लेखन हेतु बालसाहित्यकारों के लिए आए दिन प्रतियोगिताएं भी होती थीं। षिखर स्तंभ में बालसाहित्यकार पर कई पृष्ठों का आलेख छपता था। जीवन भर बालसाहित्य के नाम पर काम करने वाले जाने कितने सर्जक कितना चुपचाप इस दुनियां को अलविदा कह देते हैं और पत्रिकाओं में उन पर दो पंक्तियां भी नहीं छपतीं। कोई बाल साहित्यकार नहीं रहा तो उस पर एक पन्ने का आलेख भी बालहंस के अंतिम पृष्ठ पर प्रकाषित होता था। बालहंस बालसाहित्य की प्रयोगधर्मी पत्रिका थी। ...और इसे प्रयोगधर्मी पत्रिका बनाने का श्रेय कुषल संपादको की युगल जोड़ी को था। अनंत कुषवाहा संपादक थे और मनोहर वर्मा सहयोगी संपादक। वर्मा जी 1986 से 1992 तक बाल हंस के सहयोगी संपादक रहे। वे प्रायः अजमेर से जयपुर की प्रतिदिन की यात्रा तय कर बाल साहित्य के पथ को प्रषस्त कर रहे थे। मैं कई बार सोचता हूं कि कोई भी बाल पत्रिका निष्चय ही तब प्रयोगों का कारखाना बन जाती है जब उसके संपादन मंडल में कोई समर्थ बाल साहित्यकार भी हो।
वर्मा जी से मैं पहली बार लखनऊ में 1995 में मिला था। उत्तर प्रदेष हिंदी संस्थान, लखनऊ से उनको अमृतलाल नागर बाल कथा सम्मान दिया जाना था। उन दिनों बालसाहित्य के सम्मानों में लेखक के लिए प्रादेषिक बंधन नहीं था। मैं चैधरी लाज में उनसे मिला। सारे बाल साहित्यकार वहीं ठहराए गए थे। मैं कमरे-कमरे जाकर बाल साहित्यकारों को अपनी पुस्तक नेहा ने माफी मांगी भेंट करने का सुख प्राप्त कर रहा था। मनोहर जी के कमरे में गया तो वे आराम की मुद्रा में बैठे थे। काया दुबली पतली किंतु आकर्षक। चेहरे पर जितना ओज, उतनी ही विनम्रता। आंखों में जैसे कुछ खोजने की ललक। बात करते-करते सिर का ऊपर उठ जाना या कहें कि चिंतन की मुद्रा में चले जाना उनकी फितरत थी और ऐसा तब महसूसा जब आगे भी उनसे मुलाकातें होती रहीं। तो पहली ही भेंट में मैं साहब का दीवाना हो गया। वह इसलिए भी कि अरे! यही वह षख्स हैं जिनकी (उन दिनों) सौ के लगभग पुस्तकें प्रकाषित हो चुकी हैं। (अब तो यह संख्या दो सौ के पार होगी।)
यही वह षख्स हैं जिन्हांेने बाल साहित्य के आकलन के लिए साठ के दषक में प्रष्नावलियां तैयार कीं। उनके आधार पर सिद्धांत बनाए।
यही वह षख्स हैं जिन्होंने पहली बार बाल बुक बैंक योजना के अंतर्गत पुस्तकों का संपादन किया।
यही वह षख्स हैं जिन्होने बाल साहित्य में पहली बार जुलाई-अगस्त,1967 में मधुमती के भारतीय बाल साहित्य विवेचन विषेषांक का अतिथि संपादन किया था और 418 पृष्ठों में फैले उस विषेषांक जैसी समग्रता वाला कोई दूसरा विषेषांक फिर नहीं आया। .
वाकई, मैं हतप्रभ था। श्रद्धावनत था। मेरा रोम-रोम पुलकित था कि बालसाहित्य के किसी देवता के पास बैठा हूं। दरअसल ऐसे महानुभाव किसी देव से कम नहीं होते और उनकी कर्मस्थली किसी तीर्थ से बढ़कर होती है।
वर्मा जी भेंट की हुई मेरी पुस्तक नेहा ने माफी मांगी में तल्लीन थे। उसके पन्ने पलट रहे थे। अचानक बोले-‘ये कहानी तो हमने बालहंस में छापी थी। पर इसका...?’
‘हां, इसका षीर्षक मैंने बदल दिया है, आपने कहानी छापी थी-पिंकी बदल गई और मैंने अब इसका नाम रख दिया है देखा तो चैंकी।’ फिर जब मैंने यह बताया कि इस संकलन की सारी कहानियों के षीर्षक जब आप एक साथ पढ़ेंगे तो पूरा एक वाक्य बन जाएगा। उन्होंने पढ़कर देखा तो खुष हुए। बोले-‘बाल साहित्य में प्रयोगों की अपार संभावनाएं हैं।’
तब तक राष्ट्रबंधु जी की धमाकेदार आवाज ने हमें चैंका दिया। कमरे में घुसते ही वे मनोहर जी से बोले-‘भाई साहब मैं आपसे बहुत नाराज हूं।’
‘भला क्यों ?’ बेचारे वर्मा जी तो एकदम गंभीर हो गए।
राष्ट्रबंधु जी बोले- ‘भाई, आपने हमें बालसाहित्य का हनुमान क्यों लिख दिया? यह तो हो ही नहीं सकता। मैं तो उनकी पूजा करता हूं।’ फिर वे मेरी तरफ मुखातिब होते हुए कहने लगे- ‘और देखिए, एक ये हैं नागेष, इन्हांेने भी तो आपके समर्थन में मुझ पर लिखे एक आलेख का षीर्षक ही रख दिया है -बाल साहित्य के हनुमान: राष्ट्रबंधु।’
कोलकाता से एक ग्रंथ छपा था ‘षंभूप्रसाद श्रीवास्तव व्यक्तित्व कृतित्व।’ उसमें मनोहर जी ने अपने एक आलेख में राष्ट्रबंधु जी को बाल साहित्य का हनुमान लिखा था। उन दिनों राष्ट्रबंधु जी पर भी एक ग्रंथ प्रकाष्य था। उसके लिए जब मैंने आलेख लिखा तो मनोहर जी के कथित आलेख से प्रभावित होकर उनका संदर्भ देते हुए यही षीर्षक रख दिया था। खैर...बाद में कई अन्य साहित्यकार भी कमरे में आ गए। सभी कहते रहे, आप तो हनुमान की तरह ही बालकाज कीन्हें बिना, मोंहि कहां विश्राम के भाव से लगे हैं। लेकिन राष्ट्रबंधु जी न माने। साफ षब्दों में बोले - ‘यह नहीं हो सकता।’
बाद में उन्होंने 1996 में प्रकाषित उस ग्रंथ में मेरे उक्त आलेख का षीर्षक बदल ही दिया।
तो मनोहर जी से यह पहली भेट थी और इस प्रथम भेंट से ही यह बात बात-बात में ही स्पष्ट हो गई थी कि मुझ पर उनका सहज प्रभाव है। उनसे खूब पत्राचार रहा। उस पत्राचार में बालसाहित्य को लेकर उनकी अनेक चिंताएं-अपेक्षाएं और पीड़ाएं भी अंकित हैं।
5 अक्टूबर 2013 को भीलवाड़ा जाते समय मैं उनसे मिलने के लिए अजमेर उतर लिया था। दो-ढाई घंटे उनकी कर्मस्थली पर या कहें कि बाल साहित्य के तीर्थ पर उनसे कितनी बातें हुईं। गोविंद भारद्वाज जी वहां आ गए। उन्होंने हमारे कई चित्र लिए। उनकी धर्मपत्नी और उनकी बेटी निधि भी मिली थीं। हम खूब बतियाए। बालसाहित्यकारों की उपेक्षा से वे खिन्न थे। पुरस्कारों में भाई-भतीजावाद को लेकर उनके मन में पीड़ा थी। हमारी चर्चा में बाल वाटिका और प्रकाष मनु जी की बार-बार सराहना होती रही। उन्होंने बताया कि दो रोज पहले ही प्रकाष मनु जी ने उनसे देर तक बात की। मनु जी ने जिस तरह से बाल साहित्य की प्रतिष्ठा को लेकर एक अभियान की तरह काम किया है। उसकी धमक से वे प्रभावित थे।
बाल वाटिका के प्रकाषन को लेकर डा. भैरूंलाल गर्ग ने कैसे-कितना संघर्ष किया। कितने पापड़ बेले, यह चर्चाएं उनसे हुईं। उन्हें खुषी थी कि बाल वाटिका के बहाने गर्ग जी सारे देष के साहित्यकारों को एकसूत्र में बांधे हैं। मैंने उन्हें याद दिलाया कि सन् 2000 में जब सारे देष में हिंदी साहित्य को लेकर षताब्दी समारोह हो रहे थे तो अकेली बाल वाटिका ही थी जिसने बाल साहित्य षताब्दी समारोह किया था। नंदन के संपादक जयप्रकाष भारती और जाने कितने बालसाहित्यकार एकत्र हुए थे।
वर्मा जी अस्वस्थता के कारण उस समारोह में नहीं आ सके थे लेकिन जयप्रकाष भारती और राष्ट्रबंधु आदि उनसे मिलने अजमेर गए थे। भारती जी ने हंसकर कहा था कि भाई मनोहर वर्मा से मिले बगैर तो यात्रा ही पूरी नहीं होगी।
मैंने उनसे कहा कि उस समय मेरी ट्रेन थी। मैं भी अपनी अधूरी यात्रा पूरी करने आया हूं।
प्रभा बाल साहित्य सम्मान समारोह मैं उन्हें षाहजहांपुर बुलाना चाहता था। मैंने गोविंद भारद्वाज को राजी किया था कि वे ही उनको साथ लाएंगे लेकिन अस्वस्थता के चलते उनका आना हो न सका। फिर मेरा भी जाना न हो सका। लेकिन वह भेंट अंतिम भेंट हो जाएगी, यह न सोचा था।
यादें रह गईं हैं, सिर्फ यादें। उनसे विदा ली थी तो पीछे मुड़-मुड़ कर मैं उनको निहारता रहा था। खिड़की से बड़ी ही स्निगधता से वे भी देख रहे थे। वह खिड़की अक्सर मेरी यादों में आ धमकती है। मेरी आंखे भीग जाती हैं। चला-चली के इस मेले में कैसे हम अकेले होते जाते हैं।
हाल ही में मेरी नयी आलोचना कृति आई है- बाल साहित्य का शंखनाद। इसका अंतिम आलेख मनोहर वर्मा जी की स्मृति को ही समर्पित है।
उनकी स्मृति को नमन।
बार-बार हजार बार नमन।
- डॉ. नागेश पांडेय ‘संजय
बालहंस में उन दिनों उत्कृष्ट बालसाहित्य लेखन हेतु बालसाहित्यकारों के लिए आए दिन प्रतियोगिताएं भी होती थीं। षिखर स्तंभ में बालसाहित्यकार पर कई पृष्ठों का आलेख छपता था। जीवन भर बालसाहित्य के नाम पर काम करने वाले जाने कितने सर्जक कितना चुपचाप इस दुनियां को अलविदा कह देते हैं और पत्रिकाओं में उन पर दो पंक्तियां भी नहीं छपतीं। कोई बाल साहित्यकार नहीं रहा तो उस पर एक पन्ने का आलेख भी बालहंस के अंतिम पृष्ठ पर प्रकाषित होता था। बालहंस बालसाहित्य की प्रयोगधर्मी पत्रिका थी। ...और इसे प्रयोगधर्मी पत्रिका बनाने का श्रेय कुषल संपादको की युगल जोड़ी को था। अनंत कुषवाहा संपादक थे और मनोहर वर्मा सहयोगी संपादक। वर्मा जी 1986 से 1992 तक बाल हंस के सहयोगी संपादक रहे। वे प्रायः अजमेर से जयपुर की प्रतिदिन की यात्रा तय कर बाल साहित्य के पथ को प्रषस्त कर रहे थे। मैं कई बार सोचता हूं कि कोई भी बाल पत्रिका निष्चय ही तब प्रयोगों का कारखाना बन जाती है जब उसके संपादन मंडल में कोई समर्थ बाल साहित्यकार भी हो।
वर्मा जी से मैं पहली बार लखनऊ में 1995 में मिला था। उत्तर प्रदेष हिंदी संस्थान, लखनऊ से उनको अमृतलाल नागर बाल कथा सम्मान दिया जाना था। उन दिनों बालसाहित्य के सम्मानों में लेखक के लिए प्रादेषिक बंधन नहीं था। मैं चैधरी लाज में उनसे मिला। सारे बाल साहित्यकार वहीं ठहराए गए थे। मैं कमरे-कमरे जाकर बाल साहित्यकारों को अपनी पुस्तक नेहा ने माफी मांगी भेंट करने का सुख प्राप्त कर रहा था। मनोहर जी के कमरे में गया तो वे आराम की मुद्रा में बैठे थे। काया दुबली पतली किंतु आकर्षक। चेहरे पर जितना ओज, उतनी ही विनम्रता। आंखों में जैसे कुछ खोजने की ललक। बात करते-करते सिर का ऊपर उठ जाना या कहें कि चिंतन की मुद्रा में चले जाना उनकी फितरत थी और ऐसा तब महसूसा जब आगे भी उनसे मुलाकातें होती रहीं। तो पहली ही भेंट में मैं साहब का दीवाना हो गया। वह इसलिए भी कि अरे! यही वह षख्स हैं जिनकी (उन दिनों) सौ के लगभग पुस्तकें प्रकाषित हो चुकी हैं। (अब तो यह संख्या दो सौ के पार होगी।)
यही वह षख्स हैं जिन्हांेने बाल साहित्य के आकलन के लिए साठ के दषक में प्रष्नावलियां तैयार कीं। उनके आधार पर सिद्धांत बनाए।
यही वह षख्स हैं जिन्होंने पहली बार बाल बुक बैंक योजना के अंतर्गत पुस्तकों का संपादन किया।
यही वह षख्स हैं जिन्होने बाल साहित्य में पहली बार जुलाई-अगस्त,1967 में मधुमती के भारतीय बाल साहित्य विवेचन विषेषांक का अतिथि संपादन किया था और 418 पृष्ठों में फैले उस विषेषांक जैसी समग्रता वाला कोई दूसरा विषेषांक फिर नहीं आया। .
वाकई, मैं हतप्रभ था। श्रद्धावनत था। मेरा रोम-रोम पुलकित था कि बालसाहित्य के किसी देवता के पास बैठा हूं। दरअसल ऐसे महानुभाव किसी देव से कम नहीं होते और उनकी कर्मस्थली किसी तीर्थ से बढ़कर होती है।
वर्मा जी भेंट की हुई मेरी पुस्तक नेहा ने माफी मांगी में तल्लीन थे। उसके पन्ने पलट रहे थे। अचानक बोले-‘ये कहानी तो हमने बालहंस में छापी थी। पर इसका...?’
‘हां, इसका षीर्षक मैंने बदल दिया है, आपने कहानी छापी थी-पिंकी बदल गई और मैंने अब इसका नाम रख दिया है देखा तो चैंकी।’ फिर जब मैंने यह बताया कि इस संकलन की सारी कहानियों के षीर्षक जब आप एक साथ पढ़ेंगे तो पूरा एक वाक्य बन जाएगा। उन्होंने पढ़कर देखा तो खुष हुए। बोले-‘बाल साहित्य में प्रयोगों की अपार संभावनाएं हैं।’
तब तक राष्ट्रबंधु जी की धमाकेदार आवाज ने हमें चैंका दिया। कमरे में घुसते ही वे मनोहर जी से बोले-‘भाई साहब मैं आपसे बहुत नाराज हूं।’
‘भला क्यों ?’ बेचारे वर्मा जी तो एकदम गंभीर हो गए।
राष्ट्रबंधु जी बोले- ‘भाई, आपने हमें बालसाहित्य का हनुमान क्यों लिख दिया? यह तो हो ही नहीं सकता। मैं तो उनकी पूजा करता हूं।’ फिर वे मेरी तरफ मुखातिब होते हुए कहने लगे- ‘और देखिए, एक ये हैं नागेष, इन्हांेने भी तो आपके समर्थन में मुझ पर लिखे एक आलेख का षीर्षक ही रख दिया है -बाल साहित्य के हनुमान: राष्ट्रबंधु।’
कोलकाता से एक ग्रंथ छपा था ‘षंभूप्रसाद श्रीवास्तव व्यक्तित्व कृतित्व।’ उसमें मनोहर जी ने अपने एक आलेख में राष्ट्रबंधु जी को बाल साहित्य का हनुमान लिखा था। उन दिनों राष्ट्रबंधु जी पर भी एक ग्रंथ प्रकाष्य था। उसके लिए जब मैंने आलेख लिखा तो मनोहर जी के कथित आलेख से प्रभावित होकर उनका संदर्भ देते हुए यही षीर्षक रख दिया था। खैर...बाद में कई अन्य साहित्यकार भी कमरे में आ गए। सभी कहते रहे, आप तो हनुमान की तरह ही बालकाज कीन्हें बिना, मोंहि कहां विश्राम के भाव से लगे हैं। लेकिन राष्ट्रबंधु जी न माने। साफ षब्दों में बोले - ‘यह नहीं हो सकता।’
बाद में उन्होंने 1996 में प्रकाषित उस ग्रंथ में मेरे उक्त आलेख का षीर्षक बदल ही दिया।
तो मनोहर जी से यह पहली भेट थी और इस प्रथम भेंट से ही यह बात बात-बात में ही स्पष्ट हो गई थी कि मुझ पर उनका सहज प्रभाव है। उनसे खूब पत्राचार रहा। उस पत्राचार में बालसाहित्य को लेकर उनकी अनेक चिंताएं-अपेक्षाएं और पीड़ाएं भी अंकित हैं।
5 अक्टूबर 2013 को भीलवाड़ा जाते समय मैं उनसे मिलने के लिए अजमेर उतर लिया था। दो-ढाई घंटे उनकी कर्मस्थली पर या कहें कि बाल साहित्य के तीर्थ पर उनसे कितनी बातें हुईं। गोविंद भारद्वाज जी वहां आ गए। उन्होंने हमारे कई चित्र लिए। उनकी धर्मपत्नी और उनकी बेटी निधि भी मिली थीं। हम खूब बतियाए। बालसाहित्यकारों की उपेक्षा से वे खिन्न थे। पुरस्कारों में भाई-भतीजावाद को लेकर उनके मन में पीड़ा थी। हमारी चर्चा में बाल वाटिका और प्रकाष मनु जी की बार-बार सराहना होती रही। उन्होंने बताया कि दो रोज पहले ही प्रकाष मनु जी ने उनसे देर तक बात की। मनु जी ने जिस तरह से बाल साहित्य की प्रतिष्ठा को लेकर एक अभियान की तरह काम किया है। उसकी धमक से वे प्रभावित थे।
बाल वाटिका के प्रकाषन को लेकर डा. भैरूंलाल गर्ग ने कैसे-कितना संघर्ष किया। कितने पापड़ बेले, यह चर्चाएं उनसे हुईं। उन्हें खुषी थी कि बाल वाटिका के बहाने गर्ग जी सारे देष के साहित्यकारों को एकसूत्र में बांधे हैं। मैंने उन्हें याद दिलाया कि सन् 2000 में जब सारे देष में हिंदी साहित्य को लेकर षताब्दी समारोह हो रहे थे तो अकेली बाल वाटिका ही थी जिसने बाल साहित्य षताब्दी समारोह किया था। नंदन के संपादक जयप्रकाष भारती और जाने कितने बालसाहित्यकार एकत्र हुए थे।
वर्मा जी अस्वस्थता के कारण उस समारोह में नहीं आ सके थे लेकिन जयप्रकाष भारती और राष्ट्रबंधु आदि उनसे मिलने अजमेर गए थे। भारती जी ने हंसकर कहा था कि भाई मनोहर वर्मा से मिले बगैर तो यात्रा ही पूरी नहीं होगी।
मैंने उनसे कहा कि उस समय मेरी ट्रेन थी। मैं भी अपनी अधूरी यात्रा पूरी करने आया हूं।
प्रभा बाल साहित्य सम्मान समारोह मैं उन्हें षाहजहांपुर बुलाना चाहता था। मैंने गोविंद भारद्वाज को राजी किया था कि वे ही उनको साथ लाएंगे लेकिन अस्वस्थता के चलते उनका आना हो न सका। फिर मेरा भी जाना न हो सका। लेकिन वह भेंट अंतिम भेंट हो जाएगी, यह न सोचा था।
यादें रह गईं हैं, सिर्फ यादें। उनसे विदा ली थी तो पीछे मुड़-मुड़ कर मैं उनको निहारता रहा था। खिड़की से बड़ी ही स्निगधता से वे भी देख रहे थे। वह खिड़की अक्सर मेरी यादों में आ धमकती है। मेरी आंखे भीग जाती हैं। चला-चली के इस मेले में कैसे हम अकेले होते जाते हैं।
हाल ही में मेरी नयी आलोचना कृति आई है- बाल साहित्य का शंखनाद। इसका अंतिम आलेख मनोहर वर्मा जी की स्मृति को ही समर्पित है।
उनकी स्मृति को नमन।
बार-बार हजार बार नमन।
- डॉ. नागेश पांडेय ‘संजय
बहुत सुन्दर !
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जवाब देंहटाएंबहुत खूब
जवाब देंहटाएंबधाई हो।
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