‘बाल भारती’ (मा.) के जून 1988 अंक में एक कहानी छपी थी- ‘सारस परी।’ इसे पढ़कर मेरा चौंकना स्वाभाविक था क्योंकि इससे पूर्व मैं इसी कहानी को ‘चुप-चुप चोरी’ शीर्षक से जापानी लेखिका मिजुओचि के नाम से पढ़ चुका था। मैंने तत्काल ‘बाल भारती’ के संपादक श्री शिवकुमार को एक छोटा सा पत्र लिखा। मेरे उस पत्र के उत्तर के रूप में उन्होंने ‘बाल भारती’ के अक्तूबर 1988 अंक में एक पृष्ठीय संपादकीय लिखा था। चौर्यवृत्ति की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति के विरोध में निःसंदेह वह एक महत्त्वपूर्ण पहल थी। श्री कुमार जी का वह संपादकीय दो-टूक वादिता, निर्भीकता और साहस की दृष्टि से आज भी प्रशंस्य है।
‘‘हमें पाठकों से हाल ही में कुछ शिकायत भरे पत्र प्राप्त हुए हैं। शिकायत है- चोरी के साहित्य की। लेखक वर्ग अन्य लेखकों की रचनाएँ अपने नाम से भेजते हैं। साहित्यिक चोरी के रूप हैं, रचना के पात्र बदलकर, रचना को अपनी कहकर भेजना। दूसरा रूप हैं विदेशी कहानियों का अनुवाद करके अपनी रचना बताना। तीसरा रूप है, अपनी रचना को विभिन्न नामों से विभिन्न पत्रिकाओं में छपवाना तथा चौथा रूप है लब्धप्रतिष्ठ लेखकों की विश्व प्रसिद्ध रचनाओं को अपनी रचना बताकर प्रकाशित करवाना। इस श्रेणी के तथाकथित लेखक केवल अपना नाम-भर लेखक के रूप में देखना चाहते हैं। वे शायद यह समझते हैं कि ऐसा करने से वे लेखक के रूप में प्रसिद्ध हो जाएँगे।
यह प्रसंग यहीं समाप्त नहीं होता। कुछ लेखक प्रेरणात्मक प्रसंगों को, जो कि वास्तविक रूप से ‘क’ से जुड़ा है, वे उस प्रसंग को ‘ख’ ‘ग’ या ‘च’ के नाम साथ जोड़कर भेजते हैं।
जो लेखक चोरी की हुई रचनाएँ भेजते हैं, हम उन्हें ब्लैक लिस्ट कर रहे हैं। हमारा जागरूक पाठक सदा की तरह हमें चोरी की हुई रचनाओं के संबंध में सूचित करता रहेगा।’’
- शिव कुमार
इसके अनंतर चोर लेखकों ने ‘बालभारती’ में तो कम ही धृष्टता दिखाई किंतु विविध पत्र/पत्रिकाओं के माध्यम से उनके प्रयोग चलते रहे और यह क्रम आज भी जारी है।
वस्तुतः रचना चोरी के अन्य भी कई रूप हैं। पिष्ट-पेषण या पुनरावृत्ति भी एक प्रकार से रचनात्मक-चोरी का ही एक चेहरा है। हिंदी में ऐसे बाल साहित्यकारों की बड़ी संख्या है जो प्रतिवर्ष होली या दीवाली पर स्वयं को ही दोहराते किसी भी पत्र/पत्रिका में मिल जाएँगे।
समीक्षा की स्वस्थ परंपरा के अभाववश बाल साहित्य में चौर्य वृत्ति एक दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष के रूप में विद्यमान है। कुछ भी ‘टीप’ दो, कहीं भी छपा दो; कोई कहने-सुनने वाला नहीं। इधर ‘प्राइवेट’ पाठ्यक्रम के रूप में बच्चों की जो पुस्तकें प्रकाशित हो रही हैं, उनमें प्रतिष्ठित लेखकों की रचनाएँ अपने नाम से छपवाने का फैशन सा चल पड़ा है।
हाल ही में दिल्ली से प्रकाशित कक्षा-एक की पुस्तक ‘हिंदी दर्पण’ में द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी की चर्चित कविता ‘जिसने सूरज चाँद बनाया’ को लेखिका आभा गोस्वामी ने अपने नाम से प्रकाशित कराया है। इसी प्रकाशन की कक्षा-दो की ‘हिंदी दर्पण’ में चंद्रपाल सिंह यादव ‘मयंक’ की लोकप्रिय रचना ‘नानी का घर’ को लेखिका आभा गोस्वामी ने आंशिक फेरबदल के साथ ‘दादी का घर’ शीर्षक से प्रकाशित कराने का घृणास्पद कृत्य किया है। ऐसे कार्यों की जितनी भी निंदा की जाए, कम है।
ऐसा नहीं है कि रचना-चोरी का कार्य केवल नवसिखुए यशाकांक्षी ही करते हैं, मैं व्यक्तिगत रूप से हिंदी के अनेक ऐसे बाल साहित्यकारों को जानता हूँ, जिन्होंने आंशिक फेरबदल के साथ दूसरे लेखकों की रचनाएँ अपने नाम से प्रकाशित कर वाहवाही लूटी है।
पं. सोहन लाल द्विवेदी की एक कविता है- ‘फूलों से तुम हँसना सीखो, भौरों से तुम गाना।’ हिंदी के अनेक बाल साहित्य सेवी इसका उद्धार कर चुके हैं। द्विवेदी जी की ही एक कविता- ‘अम्मा कहती, बनूँ कलक्टर/दादा कहते, जज बन जाऊँ। दीदी कहतीं बनूँ गवर्नर/सबके ऊपर हुक्म चलाऊँ। बहन कह रही बनूँ डाक्टर/या कि बनूँ कोई विज्ञानी।’, जो कि ‘महिला’ (मासिक) के अक्तूबर 1937 अंक में छपी थी, कुछ फेर बदल के बाद आज एक समीक्षक की मौलिक रचना बनकर पाठ्यक्रम में भी शामिल हो गई है। निरंकार देव सेवक की चर्चित रचना ‘अगर-मगर दो भाई थे/करते खूब लड़ाई थे। अगर मगर से छोटा था/मगर मगर से खोटा था।’ को उनके ही एक समकालीन बाल कवि ने आंशिक उलट-पुलट के बाद अपने संकलन में अपनी कविता के रूप में छपा लिया था।
ऐसे लेखकों के प्रति कठोरता का बर्ताव बहुत आवश्यक है। चौर्य-वृत्ति तभी रूक सकेगी। डॉ. सुरेंद्र विक्रम की एक कविता है- ‘बस्ते का बोझ।’ इसे राजस्थान के एक रचनाकार ने ‘अमर उजाला’ में छपवा लिया था। उसे न केवल संपादक ने ब्लैक-लिस्ट किया, बल्कि डॉ. विक्रम ने मानहानि के दावे के रूप में उससे समुचित राशि भी वसूल की थी।
बस्ते के ही प्रसंग पर केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा की ‘बाल-काव्य गोष्ठी’ याद आ रही है। डॉ. उषा यादव की एक मार्मिक कविता है-‘उफ’! बस्ता कितना भारी है।’ इसे एक शोध-छात्र अपने नाम से पढ़ गया। बाद में जानकारी हुई कि वह उषा जी का ही छात्र था और प्रभाववश उनकी ही रचना को दोहरा गया। खैर..., न केवल उसने क्षमा मांगी बल्कि भविष्य में ऐसी त्रुटि न करने का वचन दिया।
बहुत पहले (1994) में चंद्रपाल सिंह यादव ‘मयंक’ की कविता ‘दशहरा’ को किन्हीं नरेश आचार्य ने अपने नाम से ‘अमर उजाला’ में छपवाया था। मैंने ‘मयंक’ जी और संपादक को पत्र लिखा। ‘मयंक’ जी का उत्तर आया तो जाना, उसी कविता को एक लेखिका भी अपने नाम से छपाए बैठी है। द्रष्टव्य उनका 27.10.1994 का यह पत्र-
प्रिय संजय जी,
हिंदी बाल साहित्य में आजकल दूसरे की कविता चुरा कर अपने नाम से छपवाने की प्रवृत्ति जोरों से बढ़ रही है। मेरी कविता ‘दशहरा’ को चोरी से किसी ने अमर उजाला (बरेली) में छपवाई थी, जिसकी सूचना आपने दी थी।... यही कविता निशि बाजपेई ने अमर उजाला (कानपुर) में 22.10.94 को अपने नाम से छपवाई है।
ऐसी बातों से हिंदी बाल साहित्य का भला क्या लाभ हो सकता है? इस खतरनाक प्रवृत्ति को रोकना ही उचित है।
शेष कुशल है।
शुभकामनाओं सहित,
भवदीय
चंद्रपाल सिंह यादव ‘मयंक’
बाल साहित्य में चौर्य-वृत्ति को रोकने के लिए समीक्षकों की सतर्कता आवश्यक है। दरअसल बाल साहित्य छापने वाले अधिकांश संपादक बाल साहित्य के जानकार नहीं होते। ऐतिहासिक परिदृश्य से अनभिज्ञता ही इस विडंबना को संरक्षित करती है। बाल स्तंभ अथवा बाल पत्रिकाओं के संपादक की नियुक्ति हेतु बाल साहित्य का ज्ञान अनिवार्य होना चाहिए तभी बाल-साहित्य के मौलिक-सृजन का मार्ग भी प्रशस्त होगा।
तथापि, लेखकों और समीक्षकों को चाहिए कि वे बाल साहित्य में चौर्य-वृत्ति की खुलकर निंदा करें। ऐसे लेखकों का तिरस्कार और बहिष्कार बहुत जरूरी है।
बहुत ही सुंदर और सार्थक समीक्षा।
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