शुक्रवार, 24 नवंबर 2023

प्रतिनिधि बाल कविता संचयन


'प्रतिनिधि बाल कविता-संचयन': एक शानदार कोशिश
•डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'

पिछले दिनों हिंदी के सुप्रसिद्ध लेखक डा. दिविक रमेश के संपादन में एक महत्वपूर्ण संकलन 'प्रतिनिधि बाल कविता-संचयन' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। यह एक शानदार कोशिश है जिसके लिए साहित्य अकादमी की भरपूर सराहना की जानी चाहिए और अपेक्षा भी कि अन्य विधाओं में भी ऐसे अनुष्ठान भविष्य में निष्पादित होते रहेंगे। संकलन में नए-पुराने 195 रचनाकारों की अलग-अलग शेड्स की बाल कविताएँ हैं। संकलन में उन्हीं बाल कविताओं को चयनित किया गया है, जो आज के बालक की कविताए कही जा सकतीं हैं। इस दृष्टि से संपादक के श्रम और कौशल की प्रशंसा करनी होगी। बकौल संपादकः मेरी निगाह में कविताएँ वैज्ञानिक सोच, प्रतिकूल मूल्यों और अंधविश्वासों से मुक्त, कल्पना और जिज्ञासा को प्रेरित करने वाली लेकिन शैली में विश्वसनीयता की बुनियाद पर टिकी, नये प्रयोगों और नये ट्रीटमेंट से समृद्ध हों। कविताएँ पहले की तरह सीधे-सीधे उपदेशात्मक शैली की न हों। समझ पिरोयी हुई हो सकती है। (पृ. 7)

दिविक जी धुन के धनी और अत्यंत अनुभवी रचनाकार हैं। उन्होंने न केवल श्रेष्ठ बाल कहानियाँ और कविताएँ लिखी हैं बल्कि बाल साहित्य की आलोचना की दिशा में भी गंभीर कार्य किया है। अनुवाद की दृष्टि से भी उनका अवदान उल्लेखनीय है। आज के बच्चे की बदली हुई सोच और परिपक्व मानसिकता की ओर संकेत करते हुए वे संपादकीय में लिखते हैं: आज उसके (बालक के) सामने संसार भर की सूचनाओं का अच्छा खासा भण्डार है और उसका मानसिक विकास पहले के बालक से कहीं ज़्यादा है। वह बड़ों के बीच उन बातों तक में हिस्सा लेने का आत्मविश्वास रखता है जो कभी प्रतिबंधित मानी जाती रही हैं। आज का बच्चा प्रश्न भी करता है और उसका विश्वसनीय समाधान भी चाहता है। आज के सजग बच्चे की मानसिकता पुरानी मानसिकता नहीं है जो प्रश्न के उत्तर में 'डाँट' या 'टाल मटोल' स्वीकार कर ले। वह जानता है कि बच्चा माँ के पेट से आता है चिड़िया के घोंसले से नहीं। दूसरे, हमें बच्चे को पलायनवादी नहीं बल्कि स्थितियों से दो-दो हाथ करने की क्षमता से भरपूर होने की समझ देनी होगी। अहंकारी, उपदेश या अंध आज्ञापालन का जमाना अब लद चुका है। बात का ग्राह्य होना आवश्यक है। और बात को ग्राह्य बनाना, यह साहित्यकार की तैयारी और क्षमता पर निर्भर करता है। (पृ. 13)

संकलन की भूमिका अत्यंत विचारोत्तेजक और शोधपूर्ण है। दिविकजी ने न केवल बाल कविता के बदलते मिजाज को लेकर गंभीर विमर्श परोसा है अपितु बाल कविता जो कि बाल साहित्य का मूल भी है, के परिप्रेक्ष्य में बाल साहित्य के विविध आयामों की भी तात्विक चर्चा की है। बाल साहित्य में व्याप्त विसंगतियों को लेकर भी वे चिंतित दिखे हैं और बाल साहित्य लेखकों के यथोचित सम्मान हेतु भी उन्होंने तार्किक ढंग से अपनी बात रखी है। संकलन को उन्होंने चयन के रूप में प्रस्तुत किया है और कहा जा सकता है कि यह चयन अभूतपूर्व है। बाल साहित्य की अपनी शास्त्रीयता है। बाल कविता के सौंदर्यशास्त्र की आवष्यकता की ओर भी दिविकजी ने संकेत किया है।

हिंदी में जबरदस्त बाल कविताओं का अभाव तो नहीं है किंतु जबरदस्ती लिखी बाल कविताओं की खासी भरमार है। छपास के मोह में बहुत से लिक्खाड़ उत्तम साहित्य की सर्जना से बेफिक्र... बस पुस्तकों की संख्या बढ़ाने में लगे रहते हैं। येन केन प्रकारेण पुस्तक आनी चाहिए और उसके लिए कहीं न कहीं से पुरस्कार भी प्राप्त हो जाए, बस यही लक्ष्य रहता है। पिष्टपेषण और पुनरावृत्ति के शिकार रचनाकारों की यात्रा बहुत लंबी नहीं होती।

दिविक जी ने जहाँ इस संकलन में पुराने रचनाकारों की भी कालजयी रचनाओं को आज के संदर्भ में उपयुक्तता के आधार पर ससम्मान प्रस्तुत किया है, वहीं नए (और कुछ नवसिखुए) रचनाकारों की भी प्रतिनिधि बाल कविताएँ प्रोत्साहन और बाल कविता की वर्तमान स्थिति को जताने के उद्देश्य से संकलित की हैं।

बकौल संपादकः कहीं न कहीं मन में अधिक से अधिक नये रचनाकारों और उनकी सुयोग्य रचनाओं को स्थान देने की प्रबल इच्छा मन में थी ताकि बाल साहित्य के वर्तमान परिदृश्य के बारे में आकलन हो सके कि वह कितना समृद्ध है अथवा कितना कमजोर है। (पृ. 5)

बहरहाल बाल काव्य के क्षेत्र में आए नए कवियों में शादाब आलम की तरह कम ही लोग हैं, जिनकी बाल कविताएँ, नवीनता और छंद: दोनों ही दृष्टि से मुकम्मल बाल कविताएँ हों। सृजन अभ्यास चाहता है। कविता केवल तुकबंदी नहीं है। विषय की दृष्टि से अत्युत्कृष्ट कविताओं पर यदि शिल्प की दृष्टि से थोड़ा-सा श्रम कर लिया जाय तो इनका स्वरूप ही कुछ और हो जाता। बाल कविताओं में छद का बड़ा महत्व है, ऐसी कविताएँ बच्चे उछल उछल कर गाते और गुनगुनाते हैं। ऐसी कविताएँ उनके मन में बैठ जाती हैं। जबकि पद्म के रूप में गद्य जैसी कविताएँ बच्चे पढ़ तो लेते हैं किंतु वे उनके स्मृति पटल पर अंकित नहीं हो पातीं। लयहीन कविताओं की स्थिति स्वादिष्ट खीर में कंकड़ की भांति होती है। बच्चा कविताएँ क्यों नहीं पढ़ता ? अन्यथा लेने की बात नहीं है, मछली जल की रानी है जैसी कविताएँ पीढ़ियों से बच्चे की जुबान पर क्यों चढ़ी हैं? नवसृजन करते हुए इसका चिंतन अवष्य करना चाहिए। बच्चों की अदालत में हमारी कविता का हश्र क्या होगा, इस दिशा में लेखकीय जिज्ञासा-तत्परता जरूरी है।

706 पृष्ठों के इस ग्रंथाकार संकलन को देखकर किसी समुद्र-सा आभास होता है। हालाकि समुद्र में रत्न, मोती, शंख, मणियों के साथ-साथ घोंघे भी होते हैं। यह संकलन भी उस परिस्थिति से पृथक नहीं है।

यह चयन यह सिद्ध करता है कि बाल कविताओं का फलक अत्यंत व्यापक है। बच्चे की सोच आज पूरी तरह बाल कविताओं में मौजूद होनी चाहिए। यही नहीं, पुराने रचनाकारों की जो बाल कविताएँ बच्चे के मन को समझ कर लिखी गई थी, वे आज भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए हैं। समय के अनुसार यदि अन्य पुरानी बाल कविताओं में किंचित संशोधन और संपादन कर लिया जाए तो वे भी अपनी प्रासंगिकता सहज ही सिद्ध कर सकती हैं। यह चयन बाल कविता के क्षेत्र में मील के पत्थर की भांति है। बाल साहित्य में सदैव इसकी अनुगूँज बनी रहेगी और भविष्य के उच्चतम संकलनों के लिए यह चयन दिशा बोधक के रूप में कार्य करेगा, इसमें संदेह नहीं।

संकलन की शुरुआत श्रीनाथ सिंह (जन्म 1901) की कविता 'मुन्नी की हैरानी' से हुई है और संकलन की अंतिम कविता 'बड़ा' चन्द्रदत्त इंदु (जन्म 1935) की है। यानी की रचनाकारों का कोई प्रचलित क्रम (जन्म या अकारादि) नहीं है। संपादक के अनुसार रचनाएँ मिलने का क्रम अनुक्रम का आधार बना है।

काश! इस महत्त्वपूर्ण संकलन में जन्मतिथि का क्रम अपनाया जाता तो बाल कविता के विकास क्रम को समझने में सहायता मिलती। संकलन में न तो रचनाकारों का परिचय है और न ही पते । कविताओं के साथ कवियों के चित्रों का भी सामंजस्य किया जा सकता था। आगामी संस्करण में यह कार्य हो सके तो यह संकलन दुर्लभ और ऐतिहासिक महत्त्व प्राप्त करेगा। साथ ही इसे बालोपयोगी बनाने के लिए कविताओं के साथ खाली स्थान पर संबंधित चित्र भी दिए जाने पर विचार करना चाहिए।

...और अब संकलन की कुछ कविताओं पर चर्चा करने से पूर्व बाल कविता के प्रतिमानों पर दिविक जी की यह टिप्पणी अवश्य पढ़ ली जाए जो कि खासी विचारणीय है। रचनाकार के जेहन में उनका यह अभिकथन रहेगा तो बाल कविता के कदम निश्चय ही वैभवोन्मुखी रहेंगे। वे कहते हैं-जब मैं बालक की बात कर रहा हूँ तो मेरे ध्यान में शहरी, कस्बाई, ग्रामीण, आदिवासी, गरीब, अमीर, लड़की, लड़का आदि सब बालक हैं। भारतीय बच्चों का परिवेश केवल कम्प्यूटर, सड़कें, मॉल्ज, आधुनिक तकनीक से सम्पन्न शहरी स्कूल, अंतर-राष्ट्रीय परिवेश ही नहीं है (वह तो आज के साहित्यकार की निगाह में होना ही चाहिए), गांव-देहात तक फैली पाठशालाएँ भी है, कच्चे पक्के मकान-झोंपड़ियाँ भी हैं, उन के माता-पिता भी हैं, उनकी गाय-भैंस-बकरियाँ भी हैं। प्रकृति का संसर्ग भी है। वे भी आज के ही बच्चे हैं। उनकी भी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।

इस संकलन में ऐसे ही बच्चों की उत्तमोत्तम बाल कविताएँ हैं। शिशु, बालक और किशोर: सभी आयु वर्ग के बालकों के लिए रचनाएँ चयनित की गई हैं।

हरिवंशराय बच्चन की आनंदित बच्चे के स्वाभाविक मनोभावों से पगी इस कविता का अंदाज देखिए। कोई सीख भी नहीं, फिर भी अंतः प्रेरणा और उत्सुकता जगाने का कैसा कौशल इसमें विद्यमान है-आज उठा में सबसे पहले, सबसे कहता आज फिरूँगा, कैसे पहला पत्ता डोला, कैसे पहला पंछी बोला, कैसे कलियों ने मुंह खोला, कैसे पूरब ने फैलाए बादल पीले, लाल, सुनहले। (पृ. 74)

भारतभूषण अगवाल की कविता तो जैसे किसी कुलगीत का आनंद देती है-हम पहाड़ पर रहते हैं। देवदार की बांह यहां, करती शीतल छांह यहां। भेड़ें चरती हैं घाटी में, झर झर झरने बहते हैं। हम पहाड़ पर रहते हैं। (पृ. 79) बाल काव्य में प्रकृति लेखकों का प्रिय विषय रहा है। देवेंद्र कुमार ने इस क्षेत्र में दस कदम आगे बढ़कर क्या खूब रचा है-कूड़े पर एक फूल खिला। सुंदर पीला फूल खिला। पृ.196

मधु पंत पेड़ का मानवीकरण करते हुए पेड़ के चलने की कल्पना करती हैं-यदि पेड़ों के होते पैर, सारा दिन वे करते सैर। (पृ.143) तो गोपाल राज गोपाल ने अगर कहीं जो चलते पेड़, बच्चों जैसे पलते पेड़। बेसुध माता लगती कहने, कहीं नीम को देखा तुमने? चार घड़ी से वह गायब है, वस्त्र हरे थे पहने उसने। (पृ.562) लिखकर बालकविता को किस ऊँचाई पर पहुँचा दिया है!

निरंकारदेव सेवक की चर्चित कविता: रोटी अगर पेड़ पर लगती, तोड़ तोड़ कर खाते। तो पापा क्यों गेहूँ लाते, और उन्हें पिसवाते। रोज़ सवेरे उठकर हम, रोटी का पेड़ हिलाते। रोटी गिरती टप टप टप टप, उठा-उठा कर खाते। (पृ. 42) यह जताती है कि बालकाव्य का सृजन कितना आह्लादकारी है। महादेवी वर्मा की घर में पेड़ कहाँ से लाएँ, कैसे यह घोंसला बनाएँ। किससे यह सब बात कहेगी। अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी। (पृ. 700) कविता बाल संवेदनाओं से उपजी मार्मिक रचना है। बाल कविता में करुणा का समावेष भावी पीढ़ी में रागात्मक संबंधों की संभावनाएँ निरूपित करता है।
जल संकट और संचय को लेकर इस संचयन में प्रकाश मनु की बेजोड़ कविता है, जिसमें खिलंदड़ापन कूट-कूट कर भरा है- देखो पानी की शैतानी, ओहो चला गया है पानी। अभी बहुत हैं काम अधूरे, घर-भर को अभी नहाना था। छुटकू कूद रहा है कब से, उसको पिकनिक पर जाना था। पृ. 218 प्रभुदयाल श्रीवास्तव की अगर हमारे वश में होता, नदी उठाकर घर ले आते (पृ. 133) कविता की कल्पना भी गजब की है। ... और सुशील शुक्ल की इस नन्हीं कविता के तो कहने ही क्या एक पत्ते पर धूप रखी थी, एक पत्ते पर पानी। धूप ने सारा पानी सूखा, हो गई खतम कहानी। (पृ. 684)

वर्षा आई-वर्षा आई जैसी सामयिक कविताओं का ढेर लगानेवाले लिक्खाड़ों को सुभद्राकुमारी चौहान की यह कविता अवश्य पढ़नी चाहिए-अभी अभी थी धूप, बरसने लगा कहाँ से यह पानी? किसने फोड़ घड़े बादल के, की है इतनी शैतानी। (पृ. 698) इस तरह की अलग अंदाज की सामयिक कविताएँ कम ही
देखने को मिलती हैं। कृष्ण शलभ का सूरज से संवाद भी बहुत सरस और खिलंदड़ा है-रविवार ऑफिस बंद रहता, मंगल को बाजार भी। कभी-कभी छुट्टी कर लेता, पापा का अख़बार भी। ये क्या बात तुम्हीं बस छुट्टी नहीं मनाते हो? सूरज जी तुम इतनी जल्दी क्यों आ जाते हो? पृ. 243
नई रचनाकार दिशा ग्रोवर की कविता प्राकृतिक उपादानों की अभिलाषा जैसा एकदम नवीन विषय सृजित करती है-हम बच्चों के झूले खातिर, टहनी सदा झुकाएँ। कुछ पीड़ा सहकर भी वे तो, किलकारी फैलाएँ। लिख दे कविता 'पेड़ों पर हम, पेड़ चाहते होंगे। पृ. 434 सृष्टि पांडेय की कविता चिरों देवी सुनो सुनो, पंख नहीं है मेरे पास, बोलो कैसे करूँ प्रयास? क्या जहाज का टिकट कटाऊँ, तुम से भी ऊँचे हो आऊँ। (पृ. 507) चपल बच्चो में उपजती मौलिक युक्तियों की अभिव्यक्ति है।
प्रयाग शुक्ल की बढ़ती जाती नाव, कहाँ नाव के पांव! वह पानी पर चलती. चलती और मचलती। (पृ. 126) प्रयोगधर्मी रचना है।

संकलन में ऐसी भी कविताएँ हैं जिनमें शिक्षण के अनेकानेक आयाम समाहित हैं। जैसे रमेश कौशिक की पहेलीनुमाँ कविता बताती है कि पेड़ कहां-कहाँ नहीं है- तुम्हारी मेज कुर्सी, जिस पर तुम पढ़ते हो, मैं हूँ। मेले में, काठ का घोड़ा, जिस पर तुम चढ़ते हो, मैं हूँ। पतला सा कागज, जिस पर तुम लिखते हो, मैं हूँ। पृ.101

बाल कविताएँ बाल चिंतन से अनुप्राणित होनी चाहिए। बाल संदर्भित वयस्क चिंतन से युक्त कविताओं को बाल कविता नहीं कह सकते। ऐसी कविताओं से बड़े तो साहित्यिक आनंद पाते हैं, बच्चे नहीं। वात्सल्य रस के अंतर्गत आनेवाली रचनाएँ भी बाल साहित्य नहीं होतीं। वहाँ बाल क्रीडाओं से वयस्क प्रमुदित होते हैं। इस संकलन के प्रश्न 366 पर प्रकाशित इस वयस्क कविता का अंश देखिए-मुंह अंधेरे, साइकिल पर बस्ते की जगह होता था डीजल का जरीकेन। कभी होती ओस भरी पतली मेंड़ पर, डगमगाती साइकिल के कैरियर में, पुराने रबर ट्यूब से कसी गेहूँ की बोरी। रविवार को ही लगता था साप्ताहिक बाजार, लाना होता था पूरे हफ्ते की सब्जी, डालडा, भैंस के लिए खली, लालटेन का षीषा। यह कविता अच्छी होते हुए भी बाल कविता तो कतई नहीं है।
शिशुगीतों के उस्ताद शेरजंग गर्ग चुटीले अंदाज में लेखन के लिए समाद्भुत हैं। गुड़िया पर हिंदी में ऐसी रचना शायद ही दूसरी हो-गुड़िया है आफत की पुड़िया, बोले हिंदी, कन्नड़, उड़िया। नानी के संग भी खेली थी, किंतु अभी तक हुई न बुढ़िया। पृ. 99
संकलन में मनोरंजन जो बालसाहित्य का अनिवार्य तत्व है, से युक्त अनगिनत कविताएँ हैं। बानगी के तौर पर कुछ कवितांश देखिए आधी सच्ची आधी झूठी, सुनो कहानी। चींटे ने हाथी को काटा, हाथी ने गुस्से में आकर चींटे को जो मारा चांटा। चिल्लाया वो नानी नानी दामोदर अग्रवाल, पृ. 92

आठ फीट की टांगे होती, चार फीट के हाथ बड़े। तो मैं आम तोड़कर खाता, धरती से ही खड़े-खड़े। कान बड़े होते दोनों ही, दो केले के पत्री से। ती मैं सुन लेता मामा की, बातें सब कलकत्ते से-श्रीप्रसाद, पृ. 62

घ्एक था राजा एक थी रानी, दोनों करते थे मनमानी। राजा का तो पेट बड़ा था, रानी का भी पेट घड़ा था। काम यही था बक बक-बक बक। नौकर से बस झक झक झक झक-जयप्रकाश भारती पृ. 56

योगेंद्रदत्त शर्मा रचित सुनो पप्पू! मियाँ गप्पू । उड़ाते हो बिना पर की, सदा बातें अललटप्पू। (पृ. 327) और शादाब आलम की अगर हंसी का चूरन बिकता, खिला-खिला हर मुखड़ा दिखता। घर में कोई मुझे डाँटता, तो लाकर मैं इसे चाटता। (पृ. 390) कविताएँ भी प्रचुर मनोरंजन करती हैं।

संकलन का आकर्षण एक नए ढंग की लोरी भी है जो रमेश तैलंग ने लिखी है। सच, किताब को थपथपाते हुए बच्चे के सुमधुर स्वर की कल्पना कितनी रोमांचक है-रात हो गई तू भी सो जा, मेरे साथ किताब मेरी। सपनों की दुनिया में खोजा, मेरे हिसाब किताब मेरी। पृ.208

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता-अगर कहीं मिलती बंदूक, उसको मैं करता दो टूक। नली निकाल बना पिचकारी, रंग देता यह दुनिया सारी। (पृ. 50) यह सिद्ध करती है कि बालसाहित्य केवल बालको के लिए ही नहीं होता। बड़ों के लिए भी इसके बड़े निहितार्थ हो सकते हैं।

कुसुम अग्रवाल और परशुराम शुक्ल की कविताएँ बच्चों को बड़ों के बचपन से जोड़ती हैं। साथ ही संवाद की दिषा में भी बच्चों के स्वर में स्वर मिलाती हैं-दादी जब तुम बच्ची थी, क्या हम सबसे अच्छी थी। शैतानी ना करती थीं, सभी बड़ों से डरती थी? कैसी थी तुम पढ़ने में? लड़ने और झगड़ने में? (पृ. 579) कुसुमजी की ही तरह षुक्लजी भी बाल संवाद को स्वर देते हैं-पापा सच-सच मुझे बताना, कुछ भी मुझसे नहीं छिपाना। मेरे जैसे जब बच्चे थे, तब के अपने हाल सुनाना। (पृ. 274)

पुष्पलता शर्मा की रचना कामकाजी माताओं की संतानों की अपेक्षा का सच्चा प्रतिनिधित्व करती है-आज न दफ्तर जाओ मम्मी। कुछ पल साथ बिताओ मम्मी। (पृ. 611)

दरअसल बाल अपेक्षा और बाल समस्या पर कलम चलाने की अपार संभावनाएँ हैं। पुताई की स्थिति में घर के हाल और बालक की प्रतिक्रिया इस कविता में देखी जा सकती है-मेरे घर में हुई पुताई, भैया समझो शामत आई। पूरे घर में मचा झमेला, बच्चे बड़े सभी ने झेला। कैसे बाहर हो अलमारी, कहाँ रखें ये चीजे सारी। बाहर सब सामान निकाला, घर लगता था गड़बड़झाला। नागेश पांडेय 'संजय', पृ. 346

लक्ष्मीशंकर बाजपेई का शहरी बालक गांव देखने की अपेक्षा रखता है-अबकी बार किसी छुट्टी में गांव अगर जाना पापा, कैसा होता गांव, मुझे भी गांव दिखा लाना पापा। पृ. 312

बालिका प्रधान साहित्य की बड़ी जरूरत है। हिंदी में इसकी मात्रा अत्यल्प है। उषा यादव की कविता में एक बच्ची अपने पुस्तक प्रेम की अभिव्यक्ति कुछ यों करती है-मम्मी मैं भी संग आपके, पुस्तक मेला जाऊँगी। ढेर किताबें छांट छांट कर, रंग बिरंगी लाऊँगी। पृ.185

अपेक्षाओं के क्रम में योगेंद्र कुमार लल्ला का यह शरारती अंदाज भी बच्चों को खास लुभाएगा-कर दो जी, कर दो हड़ताल। पढ़ने लिखने की हो टाल। बच्चे घर पर मौज उड़ाए, पापा मम्मी पढ़ने जाएँ। पृ.168

घर का सही पारिभाषीकरण अजय जनमेजय की कविता करती है। बच्चे आधुनिकता में फेर में बड़े होकर माँ-बाप को भूल जाते हैं। काष! उनके मन में बचपन से ही यह भाव घर कर जाए तो वृद्धाश्रम की कल्पना ही समाप्त हो जाएगी-लकड़ी, पत्थर, ईंटों से, नहीं कभी घर बनता है। मम्मी से ही घर है घर, पापा से ही दर है दर। पृ.249

फोन पर कविताएँ भी मजेदार है। कभी पापा के मोबाइल में बिजी रहने से त्रस्त बच्चे आज कितने चालाक हो गए हैं, मौका पाते ही वे पापा का फोन लपक लेते हैं। दो अलग अलग जमाने के बच्चों की कविताओं में यह परिदृश्य देखा जा सकता है-बूझो मेरा दुश्मन कौन, पापा का मोबाइल फोन-फहीम अहमद (पृ.429) मेरे पापा का मोबाइल, कितना सुंदर कवर है भाई। धीरे से सरकाया मैंने, पापा को जब नींद है आई-संगीता सेठी, पृ. 443

दिविक रमेश की चर्चित कविता मैं भी माँ दीदी को अब तो, बांधूगा प्यारी-सी राखी। कितना प्यार करेंगी दीदी, जब बांधुंगा उनको राखी। (पृ. 204) बताती है कि जमाना अब बदल गया है। बच्चा अब रुटीन से हटकर कुछ नया और तार्किक सोचता है। यही सोच आज की बाल कविता में ध्वनित होनी चाहिए।

चिट्ठी और ईमेल पर दो अपनी तरह की अनूठी कविताएँ यहाँ पढ़ सकते हैं। यद्यपि बालकृष्ण गर्ग की इस कविता में बालजीवन भी रचा बसा है, यह जरूरी बात विवरणात्मक बाल कविताएँ लिखने वाले नए लेखकों को समझनी होगी-पापाजी की आई चिट्ठी, समझी मीठी, निकली खट्टी। लंबे लंबे बाल कटेंगे, जेब खर्च भी सभी घटेंगे। (पृ. 140) मन को भाती है ईमेल। कुरियर या स्पीड पोस्ट हो, इसके आगे हैं सब फेल-निशांत जैन, पृ. 457

हठ कर बैठा चाँद जैसी अमोल कविता के सर्जक रामधारी सिंह दिनकर की केवल एक ही कविता इस संकलन में है-टेसू राजा अड़े खड़े, माँग रहे हैं दही बड़े। बड़े कहाँ से लाऊँ मैं, पहले खेत खुदाऊँ मैं। (पृ. 701) यही कविता पृष्ठ 46 पर निरंकार देव सेवक जी के नाम से भी प्रकाशित है। दोनों एक-सी कविताएँ एक ही संचयन में कैसे चयनित हो गईं? और मूल रचनाकार कौन है, यह आश्चर्य का विषय है।

समोसे पर बहुत से रचनाकारों ने लिखा किंतु शिवचरण चौहान की तिरकोतीन समोसे भाई, तुमने सारी चीजें खाई। आलू और खटाई खाई, खाया सारा मिर्च मसाला। मुंह तो छोटा-सा है लेकिन, तेल कढ़ाई भर पी डाला। गरम-गरम खाया है सब कुछ, चाय माँगते लाज न आई। (पृ. 630) कविता तो अन्यतम है। ऐसी कविताएँ शायद लिखी नहीं जातीं... लिख जाती हैं।

संदेश त्यागी की कविता डिस्कवरी पर हमने देखा, एक तमाशा ऐसा। जंगल के राजा के पीछे, लगा जंगली भैंसा। नवीन और पुरातन संदर्भों को जोड़ते हुए चलती है। हां, कविता का आरंभ जिस रिद्म में चला था, वह अंत में बदल गया है-शेरों को भी कभी-कभी तो, सवा शेर मिल जाते हैं। अगर हौसला हो जाए तो तख्त ताज हिल जाते हैं। पृ. 600

शिवचरण सरोहा की दाल कमाल की है। छोटे मीटर की ऐसी कविताएँ कम ही देखने में आती हैं-खाई, दाल। मिर्च, लाल। पीटे, गाल। नोचे, बाल। बुरा, हाल। पृ. 481

चाँद पर बाल संवेदना से युक्त यह कविता भी संपादक के श्रेष्ठ चयन और कवि के सृजन कौशल को इंगित करती है-चंदा भैया संभल के सोना, तुम बादल के बिस्तर पर। कहीं नींद में लुढ़क न जाना, तुम धड़ाम से धरती पर-गोपाल महेश्वरी 467
विविध विषयक ऐसी ही एक से बढ़कर एक कविताएँ इस संकलन में भोजूद हैं। विस्तार भय से उनकी चर्चा यहाँ संभव नहीं।

ग्रंथ का मुद्रण और मुखपृष्ठ आकर्षक है। कागज और बाइंडिंग मजबूत। प्रूफ (त्यौहार-त्योहार, बस-वष, शाबाद-शादाब) की दो चार ही त्रुटियाँ हैं। 706 पृष्ठों के इस अमूल्य संकलन का मूल्य मात्र 550 रुपये है। हर पुस्तकालय में तो इसे स्थान मिलना ही चाहिए। अभिभावकों, अध्यापकों, आलोचकों, संपादकों और शोधार्थियों के निजी संग्रह में भी इसका होना ज़रूरी है। जन्मदिन पर बच्चों को यह अद्वितीय उपहार मिले तो यह भावी पीढ़ी में साहित्यिक संस्कारों के पल्लवन और हस्तांतरण की दिशा  में सार्थक कदम होगा।

अन्य प्रांतों के शासकीय संस्थानों को भी बाल कविताओं तथा अन्य विधाओं के ऐसे ही श्रेष्ठ संकलनों के प्रकाशन को लेकर विचार करना चाहिए। साथ ही,... क्या अच्छा हो कि हिंदी की चयनित इन बाल कविताओं का अनुवाद और प्रकाशन संविधान द्वारा स्वीकृत अन्य भारतीय भाषाओं में भी प्रादेशिक अकादमियों के द्वारा कराया जाए। भावात्मक ऐक्य की दृष्टि से यह बड़ी पहल होगी।

बाल कविता के क्षेत्र में साहित्य अकादमी का यह प्रयास अविस्मरणीय और अनुकरणीय है।
डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'


 

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