समकालीन बाल कहानियों में मूल्यपरक शिक्षा
डा. नागेश पांडेय ‘संजय’
अत्याधुनिकता के एक ऐसे समय में, जब ऐन केन प्रकारेण अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की होड़ मची हो, मूल्य शिक्षा की बात थोड़ी अजीब भले ही लगती हो किंतु सच बात यह भी है कि कभी विश्वगुरु कहा जाने वाला हमारा देश जब आवहि संतोष धन, सब धन धूरि समान की परंपरा का देश है। राष्ट्र की रक्षा हेतु यह दधीचि के हंसते-हसते अपनी हड्डियां गला देने का देश है। गुरु की आज्ञा पर यह अपना अंगूठा काट कर अर्पित कर देने वाला देश है। सत्य के नाम पर यह हरिष्चंद्र के अपना राजपाट और सर्वस्व न्योछावर कर देने का देश है।
सच पूछिए तो यह त्याग, दया, उदारता, करुणा, क्षमा, सहनशीलता और समर्पण जैसे अन्यान्य मूल्यों का देष है। इन मूल्यों से रची पगी कितनी कहानियां हमारे चतुर्दिक बिखरी पड़ी हैं। इन्हीं मूल्यपरक कहानियों के बल पर हमारी अक्षुण्ण संस्कृति सदियों से प्रवहमान है। कभी दादी-नानी के द्वारा, जिन्हें अप्रत्यक्ष रूप से मूल्य शिक्षा का जीता जागता विष्वविद्यालय कहा जा सकता है, संस्कारदात्री कहानियां अपनी वरेण्य भूमिका का निर्वाह करती रही हैं। कालांतर में दादी नानी का विकल्प पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें बन गई तथापि मूल्य षिक्षा उसका अभिन्न अंग बनी रही। रामायण, महाभारत, कथा सरितसागर, सिंहासन बत्तीसी, पंचतंत्र, हितोपदेष की पारंपरिक कहानियों के अतिरिक्त बाल साहित्य लेखकों ने भी ऐसी कहानियों का बहुतायत से सृजन किया है। आज हिंदी बाल साहित्य भले ही कितने भी परिवर्तनों से गुजर रहा हो, नैतिकता की प्राथमिकता उसमें कल भी विद्यमान थी, आज भी है और आगे भी रहेगी।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के बिंदु 8.4 में लिखा है कि जीवन के आवश्यक मूल्यों का हृास हो रहा है और लोगों का विश्वास उठ रहा है, अतः शिक्षण क्रम में ऐसे परिवर्तन की जरूरत है कि सामाजिक और नैतिक मूल्य के विकास में शिक्षा एक सशक्त साधन बन सके।
निसंदेह कह सकते हैं कि मूल्यपरक षिक्षा की आज सर्वाधिक आवष्यकता है। हमें यह नहीं भूलना है कि विश्व में जितने भी महान व्यक्ति हुए हैं, उन्होंने बाल्यावस्था में उच्चकोटि का बाल साहित्य पढ़ा था। बाल साहित्य का मूल्य शिक्षा से अंतरंग संबंध है। कौन नहीं जानता कि विष्णु शर्मा ने पंचतंत्र की रचना उच्छ्रंखल बालकों के परिष्कार हेतु ही की थी। बाल साहित्य बालकों को नई सोच और स्वस्थ दिशा प्रदान करता है। इसके माध्यम से बालकों में नैतिकता, सद्भावना, पारस्परिक प्रेम और एकता के मानवीय अंकुर उपजते हैं। वे राष्ट्र की संस्कृति, उसकी अस्मिता और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए सजग प्रहरी के रूप में तैयार होते हैं।
हिंदी में मूल्यपरक षिक्षा से ओतप्रोत कहानियां निरंतर लिखी जा रही है। पर पीड़ा सम नहीं अधमाई के उच्च संस्कार को उद्घाटित करती बानो सरताज की कहानी कोयल और कोटर उनकी मौलिक कल्पना का चमत्कार है। हमेशा दूसरे के घोसले को अपने प्रयोग में लाने वाली कोयल को अपना घोंसला बनाते देख बरबस ही मन श्रद्धा से भर उठता है। (पुस्तक: 21 बाल कहानियां,पृष्ठ 49)
सफलता का भेद फकीरचंद शुक्ल की प्रेरक कहानी है जो करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान संदेष को ध्वनित करती है। (नई सुबह, पृ.19)
किरण घोडके की पुस्तक सितारों वाली गुल्लक में संकलित कहानी डिब्बी कछुआ सभी प्राणियों से प्रेम के संदेष के बहाने वसुधैव कुटुंबकम का भाव जगाती है।
प्यार की बातें मनोहर चमोली की छोटी सी कहानी है जो प्रेम का वास्तविक अर्थ बताती है। (अंतरिक्ष से आगे बचपन, पृ. 23)
मुरलीधर वैष्णव ने तो चरित्र विकास की बाल कहानियां नामक एक संकलन ही तैयार किया है जिसके पृ. 43 पर प्रकाषित कहानी सच से बड़ा झूठ सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयात मां ब्रूयात सत्यमप्रियम के दार्षनिक पहलू को उजागर करता है। ऐसे सच से वह झूठ ज्यादा बेहतर है जो किसी का दिल न दुखा रहा हो।
ऐसे ही पुस्तक बच्चों को सीख देने वाली 51 कहानियां (2012) प्रकाश मनु की लेखनी का चमत्कार है। इसमें जीवनोपयोगी कहानियां हैं। कहानी चार फुदनों वाली टोपी दूसरों के उपालंभ से व्यथित होकर तात्कालिक निर्णय न लेने की प्रेरणा देती है। ऐसी ही एक चर्चित कहानी गिजूभाई की भी है सात पूछों वाला चूहा, जो इस कहानी के पात्र द्वारा टोपी का एक एक फुंदना कटवाने की तरह एक एक पूछ कटाता जाता है।
आत्मविश्वास हो तो रमाशंकर की प्यारी कहानी है,जहां अपनी लगन और आत्मबल के सहारे दीपक सफलता की सीढ़ियां चढ़ता जाता है। (जस्सी और अन्य कहानियां, 73)
एकता में बल निर्मला सिंह की छोटी सी कहानी है जो पारस्परिक सद्भाव की प्रेरणा देती है।
रजनीकांत शुक्ल बालसाहित्य साहसिक कहानियों के सृजन हेतु लोकप्रिय हैं। उनकी अनेक कहानियां पुस्तक साहसी घटनाएं में संग्रहीत हैं। पृ. 63 पर प्रकाषित कहानी आग से मुकाबला में असल जिंदगी का हीरो शुभम बैन में फंसी लड़की को आग से बचाता है। ऐसी ही एक कहानी है लपटों के बीच, जिसमें लेखक रमेश चंद्र पंत ने बालमन में साहस और आत्मबल के साथ साथ प्रत्युत्पन्नमति की मनोरम छटाएं उंकेरी है। (बालमन की प्रतिनिधि कहानियां, पृ. 88)
पिछले दिनों पढ़ी राकेश चक्र की श्रेष्ठ कहानियां पुस्तक में पृ. 67 पर छपी कहानी पूरा इंसान भी दिल को छू गई। यह कहानी जातीयता और विद्वेष के भाव से मुक्त कर मानवता की ओर सत्प्रेरित करती है। दो अलग जातियों के इंसानों के खून से प्राण बचने पर पात्र की यह मार्मिक अभिव्यक्ति कि मेरे अंदर आज तीन तरह के इंसानों का खून मिल गया है, मन को ही नहीं, आत्मा को भी विगलित कर देती है।
पुस्तक बावन गांव इनाम में कर पृ. 58 पर प्रकाषित कहानी फटी शर्ट राष्ट्रबंधु की बहुचर्चित कहानी है, जो परिवार के प्रति बालकों को दायित्वबोध से जोड़ती है। पिछले दिनों देविका फिल्मस्, मुंबई से इस कहानी पर बनी बालफिल्म देखकर आंखे भीग गईं। ऐसी बाल फिल्में और भी बनती रहें और उनका अधिकाधिक प्रसारण भी हो तो जीवन मूल्यों के स्थापन की दृष्टि से यह एक कारगर कदम हो सकता है। दिनेश पाठक शशि की कहानी प्रधानाचार्य की कुर्सी (बालहंस, अक्टूबर द्वितीय 1999, पृष्ठ 53) भी बड़ों के प्रति सम्मान का भाव जागृत करती है और उनकी परिस्थितियों से अवगत रहने की प्रेरणा देती है।
मां का उपहार पुस्तक में संकलित अपना घर(पृ. 16) डॉक्टर शकुंतला कालरा की मनोवैज्ञानिक कहानी है, जो घर से भागे हुए बच्चे षैल के बहाने पलायनवादी प्रवृत्ति का परिष्कार करती है।
शेर चिड़िया की दोस्ती गोविंद शर्मा की मजेदार कहानी है। घमंड न करने और पड़ोसी धर्म की शिक्षा से रची पगी यह रचना उनकी चर्चित पुस्तक कांचू की टोपी की श्रेष्ठतम कहानियों में से एक है।
दिविक रमेश की कहानी किस्सा चाचा तरकीबूराम का मजेदार है जो हंसाते गुदगुदाते अचौर्य की सहज षिक्षा भी दे जाती है।
जब आवहि संतोष धन, सब धन धूरि समान के आदर्ष से अनुप्राणित अमिता दुबे की कहानी संतुष्टि का सपना भी अनूठी है। (पुस्तक: राह मिल गई, 21)
वन्य जीवन पर चुटीले लेखन के लिए सुचर्चित विनायक की लंबी कहानी जिंदा अजायबघर, प्राणिमात्र के प्रति बालोत्सुकता को शांत कर उनके प्रति प्रेम भी जागृत करती है।
मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है, इस मूल्य को सुधा भार्गव ने कुषल बुनकर की तरह बुना है अपनी कहानी भग्गू बन गया भगवान में, इसे उनकी पुस्तक अंगूठा चूस के पृ. 23 पर पढ़ा जा सकता है। भूखे को भोजन देना और असहाय की सहायता करने की सहज शिक्षा देने की दृष्टि से भी यह एक अच्छी कहानी है। खिलौने वाली शंकर सुल्तानपुरी की अप्रतिम रचना है जो लोक ऋण से मुक्ति के भाव से जोड़ती है। एक गरीब बच्चे को मुफ्त में मिट्टी का खिलौना सिपाही देकर खिलौनेवाली उसकी दुनियां ही बदल देती है। वह बच्चा उस खिलौने को देखकर सिपाही बनने की प्रेरणा ही नहीं लेता वरन सिपाही बनकर दिखाता है। लेकिन उससे भी बड़ी बात यह कि यह ऋण वह भूलता नहीं। कालांतर में एक धर्मपुत्र की भांति वह उस खिलौनेवाली से मिलने आता है। निश्चित रूप से सहृदय पाठक की आंखें उस दृश्य की कल्पना कर बरबस ही भीग जाएंगी।
बाल वाटिका में छपी साजिद खान की षबीना अंकल नए मिजाज की उम्दा कहानी है जो करुणा को विस्तार देते हुए, मार्मिकता की तह तक जाकर बच्चों को नए संस्कारों की ओर मोड़ती है।
नंदन सितंबर 19 में छपी अनिल जायसवाल की कहानी बैकबेंचर सकारात्मक प्रेरणा से ओतप्रोत है। हीन भावना से ग्रस्त बच्चों को यदि आत्ममूल्यांकन की सुप्रेरणा देने का कौषल हो तो उन्हें उच्च शिखर पर पहुंचाने में देर न लगेगी।
पराग अक्टूबर 1989 में छपी पदमा चौगांवकर की कहानी छोटी सी भूल घर की तरह देष के प्रति भी समान भाव जाग्रत करने का आवाहन करती है। हरिभूमि, 18 मई 2017 में प्रकाशित घमंडीलाल अग्रवाल की कहानी अनोखा जन्मदिन भारतीय संस्कृति के विविध पक्षों का बोध कराती है।
पवनकुमार वर्मा इधर खूब लिख छप रहे हैं। बच्चों का देश, अगस्त 2019 में आई उनकी कहानी भाई बहन का प्रेम पारिवारिकता के आत्मीय स्वर को बुलंद करती है।
नीलम राकेश की कहानी और वे मित्र बन गए (देवपुत्र सितंबर 19, पृष्ठ 5) आडंबर से दूर रहकर जीवनयापन का संदेष देती है। यहां पर विमला भंडारी की चित्रकथा मां ने कहा था (बाल भास्कर 3 मई 2019) का भी खासतौर पर उल्लेख्य करना चाहूंगा। एकाग्रता, आज्ञाकारिता और बड़ों के अनुभव का महत्व दर्शाती ऐसी कहानियां तो जरूरी हैं ही लेकिन मूल्यों को जगाती ऐसी कहानियां काष ! चित्रकथाओं के रूप में सुलभ हो सकें तो मूल्य षिक्षा की राह को रोचकता के आवरण में आसान किया जा सकता है।
कहानियाँ और भी हैं किन्तु विस्तार भय से उनकी चर्चा यहां सम्भव नहीं है। ऐसी कहानियों की रचना करते समय अतिरिक्त लेखकीय सजगता अत्यापेक्षित है। मूल्य संस्थापन के प्रयास कहानी का मूल तत्व मनोरंजन नष्ट नहीं होना चाहिए। रोचकता तो आद्यंत अपेक्षित है। कहानी विशुद्ध रूप से उपदेशात्मक होकर न रह जाए, यह ध्यान रखना होगा।
बाल कहानियां में मूल्य शिक्षा की विविधरंगी छटा मनोहारी है और उसका महत्व सर्वकालिक है। पत्र पत्रिकाओं में तो ऐसी कहानियों को स्थान मिले ही, उनका वृहद संचयन भी प्रकाशित होना चाहिए।
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डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'
डा. नागेश पांडेय ‘संजय’
अत्याधुनिकता के एक ऐसे समय में, जब ऐन केन प्रकारेण अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की होड़ मची हो, मूल्य शिक्षा की बात थोड़ी अजीब भले ही लगती हो किंतु सच बात यह भी है कि कभी विश्वगुरु कहा जाने वाला हमारा देश जब आवहि संतोष धन, सब धन धूरि समान की परंपरा का देश है। राष्ट्र की रक्षा हेतु यह दधीचि के हंसते-हसते अपनी हड्डियां गला देने का देश है। गुरु की आज्ञा पर यह अपना अंगूठा काट कर अर्पित कर देने वाला देश है। सत्य के नाम पर यह हरिष्चंद्र के अपना राजपाट और सर्वस्व न्योछावर कर देने का देश है।
सच पूछिए तो यह त्याग, दया, उदारता, करुणा, क्षमा, सहनशीलता और समर्पण जैसे अन्यान्य मूल्यों का देष है। इन मूल्यों से रची पगी कितनी कहानियां हमारे चतुर्दिक बिखरी पड़ी हैं। इन्हीं मूल्यपरक कहानियों के बल पर हमारी अक्षुण्ण संस्कृति सदियों से प्रवहमान है। कभी दादी-नानी के द्वारा, जिन्हें अप्रत्यक्ष रूप से मूल्य शिक्षा का जीता जागता विष्वविद्यालय कहा जा सकता है, संस्कारदात्री कहानियां अपनी वरेण्य भूमिका का निर्वाह करती रही हैं। कालांतर में दादी नानी का विकल्प पत्र-पत्रिकाएं और पुस्तकें बन गई तथापि मूल्य षिक्षा उसका अभिन्न अंग बनी रही। रामायण, महाभारत, कथा सरितसागर, सिंहासन बत्तीसी, पंचतंत्र, हितोपदेष की पारंपरिक कहानियों के अतिरिक्त बाल साहित्य लेखकों ने भी ऐसी कहानियों का बहुतायत से सृजन किया है। आज हिंदी बाल साहित्य भले ही कितने भी परिवर्तनों से गुजर रहा हो, नैतिकता की प्राथमिकता उसमें कल भी विद्यमान थी, आज भी है और आगे भी रहेगी।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के बिंदु 8.4 में लिखा है कि जीवन के आवश्यक मूल्यों का हृास हो रहा है और लोगों का विश्वास उठ रहा है, अतः शिक्षण क्रम में ऐसे परिवर्तन की जरूरत है कि सामाजिक और नैतिक मूल्य के विकास में शिक्षा एक सशक्त साधन बन सके।
निसंदेह कह सकते हैं कि मूल्यपरक षिक्षा की आज सर्वाधिक आवष्यकता है। हमें यह नहीं भूलना है कि विश्व में जितने भी महान व्यक्ति हुए हैं, उन्होंने बाल्यावस्था में उच्चकोटि का बाल साहित्य पढ़ा था। बाल साहित्य का मूल्य शिक्षा से अंतरंग संबंध है। कौन नहीं जानता कि विष्णु शर्मा ने पंचतंत्र की रचना उच्छ्रंखल बालकों के परिष्कार हेतु ही की थी। बाल साहित्य बालकों को नई सोच और स्वस्थ दिशा प्रदान करता है। इसके माध्यम से बालकों में नैतिकता, सद्भावना, पारस्परिक प्रेम और एकता के मानवीय अंकुर उपजते हैं। वे राष्ट्र की संस्कृति, उसकी अस्मिता और प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए सजग प्रहरी के रूप में तैयार होते हैं।
हिंदी में मूल्यपरक षिक्षा से ओतप्रोत कहानियां निरंतर लिखी जा रही है। पर पीड़ा सम नहीं अधमाई के उच्च संस्कार को उद्घाटित करती बानो सरताज की कहानी कोयल और कोटर उनकी मौलिक कल्पना का चमत्कार है। हमेशा दूसरे के घोसले को अपने प्रयोग में लाने वाली कोयल को अपना घोंसला बनाते देख बरबस ही मन श्रद्धा से भर उठता है। (पुस्तक: 21 बाल कहानियां,पृष्ठ 49)
सफलता का भेद फकीरचंद शुक्ल की प्रेरक कहानी है जो करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान संदेष को ध्वनित करती है। (नई सुबह, पृ.19)
किरण घोडके की पुस्तक सितारों वाली गुल्लक में संकलित कहानी डिब्बी कछुआ सभी प्राणियों से प्रेम के संदेष के बहाने वसुधैव कुटुंबकम का भाव जगाती है।
प्यार की बातें मनोहर चमोली की छोटी सी कहानी है जो प्रेम का वास्तविक अर्थ बताती है। (अंतरिक्ष से आगे बचपन, पृ. 23)
मुरलीधर वैष्णव ने तो चरित्र विकास की बाल कहानियां नामक एक संकलन ही तैयार किया है जिसके पृ. 43 पर प्रकाषित कहानी सच से बड़ा झूठ सत्यम ब्रूयात प्रियं ब्रूयात मां ब्रूयात सत्यमप्रियम के दार्षनिक पहलू को उजागर करता है। ऐसे सच से वह झूठ ज्यादा बेहतर है जो किसी का दिल न दुखा रहा हो।
ऐसे ही पुस्तक बच्चों को सीख देने वाली 51 कहानियां (2012) प्रकाश मनु की लेखनी का चमत्कार है। इसमें जीवनोपयोगी कहानियां हैं। कहानी चार फुदनों वाली टोपी दूसरों के उपालंभ से व्यथित होकर तात्कालिक निर्णय न लेने की प्रेरणा देती है। ऐसी ही एक चर्चित कहानी गिजूभाई की भी है सात पूछों वाला चूहा, जो इस कहानी के पात्र द्वारा टोपी का एक एक फुंदना कटवाने की तरह एक एक पूछ कटाता जाता है।
आत्मविश्वास हो तो रमाशंकर की प्यारी कहानी है,जहां अपनी लगन और आत्मबल के सहारे दीपक सफलता की सीढ़ियां चढ़ता जाता है। (जस्सी और अन्य कहानियां, 73)
एकता में बल निर्मला सिंह की छोटी सी कहानी है जो पारस्परिक सद्भाव की प्रेरणा देती है।
रजनीकांत शुक्ल बालसाहित्य साहसिक कहानियों के सृजन हेतु लोकप्रिय हैं। उनकी अनेक कहानियां पुस्तक साहसी घटनाएं में संग्रहीत हैं। पृ. 63 पर प्रकाषित कहानी आग से मुकाबला में असल जिंदगी का हीरो शुभम बैन में फंसी लड़की को आग से बचाता है। ऐसी ही एक कहानी है लपटों के बीच, जिसमें लेखक रमेश चंद्र पंत ने बालमन में साहस और आत्मबल के साथ साथ प्रत्युत्पन्नमति की मनोरम छटाएं उंकेरी है। (बालमन की प्रतिनिधि कहानियां, पृ. 88)
पिछले दिनों पढ़ी राकेश चक्र की श्रेष्ठ कहानियां पुस्तक में पृ. 67 पर छपी कहानी पूरा इंसान भी दिल को छू गई। यह कहानी जातीयता और विद्वेष के भाव से मुक्त कर मानवता की ओर सत्प्रेरित करती है। दो अलग जातियों के इंसानों के खून से प्राण बचने पर पात्र की यह मार्मिक अभिव्यक्ति कि मेरे अंदर आज तीन तरह के इंसानों का खून मिल गया है, मन को ही नहीं, आत्मा को भी विगलित कर देती है।
पुस्तक बावन गांव इनाम में कर पृ. 58 पर प्रकाषित कहानी फटी शर्ट राष्ट्रबंधु की बहुचर्चित कहानी है, जो परिवार के प्रति बालकों को दायित्वबोध से जोड़ती है। पिछले दिनों देविका फिल्मस्, मुंबई से इस कहानी पर बनी बालफिल्म देखकर आंखे भीग गईं। ऐसी बाल फिल्में और भी बनती रहें और उनका अधिकाधिक प्रसारण भी हो तो जीवन मूल्यों के स्थापन की दृष्टि से यह एक कारगर कदम हो सकता है। दिनेश पाठक शशि की कहानी प्रधानाचार्य की कुर्सी (बालहंस, अक्टूबर द्वितीय 1999, पृष्ठ 53) भी बड़ों के प्रति सम्मान का भाव जागृत करती है और उनकी परिस्थितियों से अवगत रहने की प्रेरणा देती है।
मां का उपहार पुस्तक में संकलित अपना घर(पृ. 16) डॉक्टर शकुंतला कालरा की मनोवैज्ञानिक कहानी है, जो घर से भागे हुए बच्चे षैल के बहाने पलायनवादी प्रवृत्ति का परिष्कार करती है।
शेर चिड़िया की दोस्ती गोविंद शर्मा की मजेदार कहानी है। घमंड न करने और पड़ोसी धर्म की शिक्षा से रची पगी यह रचना उनकी चर्चित पुस्तक कांचू की टोपी की श्रेष्ठतम कहानियों में से एक है।
दिविक रमेश की कहानी किस्सा चाचा तरकीबूराम का मजेदार है जो हंसाते गुदगुदाते अचौर्य की सहज षिक्षा भी दे जाती है।
जब आवहि संतोष धन, सब धन धूरि समान के आदर्ष से अनुप्राणित अमिता दुबे की कहानी संतुष्टि का सपना भी अनूठी है। (पुस्तक: राह मिल गई, 21)
वन्य जीवन पर चुटीले लेखन के लिए सुचर्चित विनायक की लंबी कहानी जिंदा अजायबघर, प्राणिमात्र के प्रति बालोत्सुकता को शांत कर उनके प्रति प्रेम भी जागृत करती है।
मारने वाले से बचाने वाला बड़ा होता है, इस मूल्य को सुधा भार्गव ने कुषल बुनकर की तरह बुना है अपनी कहानी भग्गू बन गया भगवान में, इसे उनकी पुस्तक अंगूठा चूस के पृ. 23 पर पढ़ा जा सकता है। भूखे को भोजन देना और असहाय की सहायता करने की सहज शिक्षा देने की दृष्टि से भी यह एक अच्छी कहानी है। खिलौने वाली शंकर सुल्तानपुरी की अप्रतिम रचना है जो लोक ऋण से मुक्ति के भाव से जोड़ती है। एक गरीब बच्चे को मुफ्त में मिट्टी का खिलौना सिपाही देकर खिलौनेवाली उसकी दुनियां ही बदल देती है। वह बच्चा उस खिलौने को देखकर सिपाही बनने की प्रेरणा ही नहीं लेता वरन सिपाही बनकर दिखाता है। लेकिन उससे भी बड़ी बात यह कि यह ऋण वह भूलता नहीं। कालांतर में एक धर्मपुत्र की भांति वह उस खिलौनेवाली से मिलने आता है। निश्चित रूप से सहृदय पाठक की आंखें उस दृश्य की कल्पना कर बरबस ही भीग जाएंगी।
बाल वाटिका में छपी साजिद खान की षबीना अंकल नए मिजाज की उम्दा कहानी है जो करुणा को विस्तार देते हुए, मार्मिकता की तह तक जाकर बच्चों को नए संस्कारों की ओर मोड़ती है।
नंदन सितंबर 19 में छपी अनिल जायसवाल की कहानी बैकबेंचर सकारात्मक प्रेरणा से ओतप्रोत है। हीन भावना से ग्रस्त बच्चों को यदि आत्ममूल्यांकन की सुप्रेरणा देने का कौषल हो तो उन्हें उच्च शिखर पर पहुंचाने में देर न लगेगी।
पराग अक्टूबर 1989 में छपी पदमा चौगांवकर की कहानी छोटी सी भूल घर की तरह देष के प्रति भी समान भाव जाग्रत करने का आवाहन करती है। हरिभूमि, 18 मई 2017 में प्रकाशित घमंडीलाल अग्रवाल की कहानी अनोखा जन्मदिन भारतीय संस्कृति के विविध पक्षों का बोध कराती है।
पवनकुमार वर्मा इधर खूब लिख छप रहे हैं। बच्चों का देश, अगस्त 2019 में आई उनकी कहानी भाई बहन का प्रेम पारिवारिकता के आत्मीय स्वर को बुलंद करती है।
नीलम राकेश की कहानी और वे मित्र बन गए (देवपुत्र सितंबर 19, पृष्ठ 5) आडंबर से दूर रहकर जीवनयापन का संदेष देती है। यहां पर विमला भंडारी की चित्रकथा मां ने कहा था (बाल भास्कर 3 मई 2019) का भी खासतौर पर उल्लेख्य करना चाहूंगा। एकाग्रता, आज्ञाकारिता और बड़ों के अनुभव का महत्व दर्शाती ऐसी कहानियां तो जरूरी हैं ही लेकिन मूल्यों को जगाती ऐसी कहानियां काष ! चित्रकथाओं के रूप में सुलभ हो सकें तो मूल्य षिक्षा की राह को रोचकता के आवरण में आसान किया जा सकता है।
कहानियाँ और भी हैं किन्तु विस्तार भय से उनकी चर्चा यहां सम्भव नहीं है। ऐसी कहानियों की रचना करते समय अतिरिक्त लेखकीय सजगता अत्यापेक्षित है। मूल्य संस्थापन के प्रयास कहानी का मूल तत्व मनोरंजन नष्ट नहीं होना चाहिए। रोचकता तो आद्यंत अपेक्षित है। कहानी विशुद्ध रूप से उपदेशात्मक होकर न रह जाए, यह ध्यान रखना होगा।
बाल कहानियां में मूल्य शिक्षा की विविधरंगी छटा मनोहारी है और उसका महत्व सर्वकालिक है। पत्र पत्रिकाओं में तो ऐसी कहानियों को स्थान मिले ही, उनका वृहद संचयन भी प्रकाशित होना चाहिए।
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डॉ. नागेश पांडेय 'संजय'
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